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शुक्रवार, 6 मार्च 2009
चुनावी माहौल का बदला-बदला नजारा
उमेश चतुर्वेदी
चुनाव कार्यक्रमों का ऐलान करके चुनाव आयोग रेफरी की तरह मैदान में उतर गया है। उसे इंतजार है नियत तारीख पर चुनावी अखाड़े में उतरने वाले राजनीतिक दलों का..जो अखाड़े के नियम कायदे का पालन करते हुए अपने प्रतिद्वंद्वियों को पटखनी दे सकें। चुनाव आयोग का ये इंतजार तो खत्म हो जाएगा, लेकिन राजनीतिक दलों को मतगणना से ठीक पहले सब्जबाग दिखाने वाले एक्जिट पोल करने वाली कंपनियों की हालत खराब है। चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के मुताबिक एक्जिट पोल पर रोक लगा दी है। इससे मीडिया के जरिए अपना बाजार चमकाने वाली उन कंपनियों की हालत खराब है- जिनका दावा रहता आया है कि वे सटीक एक्जिट पोल करती रही हैं। सही मायने में देखा जाय तो डिजिटल टेक्नॉलजी के विस्तार के दौर में ये पहला मौका होगा, जिसमें इंटरनेट, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और रेडियो...सभी अपनी-अपनी भूमिकाएं निभाएंगे, लेकिन नहीं होगा तो एक्जिट पोल का धमाल।
चुनाव आयोग के मुताबिक पांच दौर में चुनाव होने जा रहे हैं। तकरीबन एक महीने तक चलने वाले इस चुनावी महायज्ञ में पहली बार होगा कि हर मतदान के बाद एक्जिट पोल वाले चौंकाने वाले नतीजे राजनेताओं और वोटरों को परेशान नहीं करेंगे। एक्जिट पोल पर रोक की सबसे बड़ी वजह तो यही बताई गई है कि इससे बाद के दौर के वोटरों को रूझान पर असर पड़ता है। अगर राजनीतिक दल और मीडिया संस्थान ये मानते रहे हैं कि एक्जिट पोल बाद के दौर में असर डालता है तो जाहिर है कि सियासत के खिलाड़ी इसका अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की कोशिश भी जरूर करते रहे होंगे। वैसे ऐसी खबरें आती भी रही हैं। इसका फायदा उठाने की कोशिश में चुनाव का मौसम आते ही कुकुरमुत्तों की तरह एक्जिट पोल और चुनाव सर्वे करने वाली कंपनियों की बाढ़ आती रही है। जब से चुनाव आयोग ने मतदान की तारीखों का ऐलान किया है – ऐसी कंपनियों की बाढ़ तो इस बार भी आ गई है। इसे देखना है तो आप सांसदों की कॉलोनियों नॉर्थ एवेन्यू और साउथ एवेन्यू में घूम आइए। वहां लकदक कपड़ों में अपने कथित सटीक चुनाव पूर्व सर्वे का दावा वाली चमकती फाइलें लिए एक्जीक्यूटिव और मार्केटिंग एजेंट घूमते नजर आ जाएंगे। टिकटों की चाहत में अपने राज्यों के दिल्ली स्थित भवनों में ठहरे नेताओं के यहां भी ऐसे लोगों की दस्तक बढ़ गई है। राजनेताओं से मिलते वक्त उनका एक ही दावा है कि उनका सर्वे का तरीका बेहद वैज्ञानिक है और वह तकरीबन सही और सटीक बैठता है।
चूंकि इस बार एक्जिट पोल नहीं होना है, अब चुनाव सर्वे की जरूरत भी नहीं रह गई है। लिहाजा वक्ती तौर के इन खिलाड़ियों ने नया तरीका अख्तियार कर लिया है। वे प्रत्याशियों और भावी उम्मीदवारों को समझाते फिर रहे हैं कि कौन सा मुद्दा उनके लिए क्लिक करेगा, वे उसकी पड़ताल करके आपको बताएंगे। यानी एक्जिट पोल करने वाले अब सलाहकार की भूमिका में नजर आ रहे हैं। बाजार में उनके खेल के लिए जगह नहीं बची तो उन्होंने अपनी भूमिका ही बदल डाली है या फिर बदलने की सोच रहे हैं। मजे की बात ये है कि ये खिलाड़ी एक सीट के सभी महत्वपूर्ण प्रत्याशियों या भावी उम्मीदवारों से मिल रहे हैं। यानी सबके लिए उनके पास ताबीज और टोटका है। यानी एक ही कंपनी का एक्जीक्यूटिव अगर कांग्रेस के प्रत्याशी से मिल रहा है तो उसके चुनावी क्षेत्र के लिए जरूरी और क्लिक करने वाले विषय और मुद्दे की तलाश का दावा कर रहा है और दिलचस्प बात ये है कि वही जब विपक्षी बीजेपी या किसी और दल के प्रत्याशी से मिल रहा है तो उसके योग्य मुद्दे खोजने की बात कर रहा है। इन कंपनियों का दावा है कि वे उम्मीदवार को फायदा पहुंचाने वाले मुद्दों को खोज कर उसके लायक मीडिया प्लानिंग बना और तैयार कर सकते हैं – जिसका फायदा उन्हें चुनावी मैदान में मिल सकता है।
तकनीक किस हद तक इस चुनाव में हंगामा बरपाने जा रहा है – इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब तकरीबन हर प्रत्याशी को सीडी और डीवीडी बनवाने का सुझाव दिया जा रहा है। एक्जिट पोल करने का दावा करने वाली कुछ कंपनियां भी इस दौड़ में शामिल हो गई हैं। मजे की बात ये है कि इस दौड़ में उस बीजेपी के उम्मीदवार भी शामिल हैं – जिन्हें पिछला यानी 2004 का आम चुनाव हारने के पीछे तकनीक आधारित हाईटेक प्रचार को ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार ठहराया गया था। बीजेपी के हाईटेक प्रचार की खिल्ली उड़ाने वाली कांग्रेस भी इस दौड़ में शामिल है। लेकिन इस बार बीजेपी भी उसका मजाक नहीं उड़ा रही है।
इस सबका असर मीडिया में भी नजर आ रहा है। अब चुनाव में कौन बाजी मारेगा – इसे लेकर अभी चर्चा नहीं हो रही। चुनाव प्रचार अपने चरम पर पहुंचेगा तो शायद ये चर्चा भी जोर पकड़े। लेकिन फिलहाल मीडिया भी खामोश है और कहना ना होगा कि इसमें चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों के प्रकाशन और प्रसारण पर लगी रोक की अहम भूमिका है। वोटर तो बेचारा पहले की ही तरह खामोश है। उसे बस इंतजार है उस दिन का- जब वह अपनी बदहाली दूर करने का दावा करने और बेहतर भविष्य का सपना दिखाने वाले नेताजी के पक्ष में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का बटन दबाएगा। ये बात और है कि हर बार की तरह उसका सपना हकीकत की जमीं पर कम ही उतर पाएगा।
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