इतिहास और निजता का संसार
उमेश चतुर्वेदी
इंटरनेट ने चिट्ठियों के संसार पर विराम लगा दिया..रही-सही कसर फोन और मोबाइल फोन ने पूरी कर दी। किसी का हालचाल जानना है तो पंडोरा बॉक्स काफी है। बीएसएनएल की मोबाइल फोन सेवा का उद्घाटन करते वक्त तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मोबाइल फोन को पंडोरा बॉक्स ही कहा था। पंडोरा बॉक्स के इस चलन के दौर ने निजी अनुभवों...सामयिक पीड़ाओं, राजनीतिक - सामाजिक चिंताओं और अपने उछाह-प्यार को दर्ज कराने का सबसे बड़ा माध्यम रही चिट्ठियों के अस्तित्व पर ही जैसे सवाल उठा दिया है। मोबाइल और इंटरनेट के दौर में हम क्या और कितना कुछ खो रहे हैं – इसका आभास तब हुआ, जब मशहूर कथाकार और ललित निबंधकार विवेकी राय की पुस्तक पत्रों की छांव में से साबका पड़ा। इस किताब में विवेकी राय को लिखे 111 चिट्ठियां तो शामिल हैं। जिन्हें अमृतलाल नागर, रामधारी सिंह दिनकर, भगवत शरण उपाध्याय, धर्मवीर भारती, कुबेरनाथ राय सरीखे नामी और महत्वपूर्ण साहित्यकारों के साथ ही नामी गिरामी हस्तियों ने लिखा है। इसी तरह विवेकी राय के लिखे 29 पत्र भी इस किताब में शामिल हैं।
कम्युनिज्म में भले ही ये मान्यता रही हो कि डीक्लास होने की प्रक्रिया सिर्फ उसके यहां ही है। लेकिन 1978 में विवेकी राय को लिखे एक पत्र में अमृतलाल नागर सरीखा व्यक्ति बताता है कि डीक्लास होने की प्रक्रिया केवल साम्यवादी ही नहीं है – अध्यात्मवादी भीहै तो हैरत होती है। इसी चिट्ठी में अपने उपन्यास मानस का हंस में बुंदेली और अवधी शब्दों को शामिल करने और उन्हें नेचुरल पुट देने की प्रक्रिया भी समझाई है। अपने इस प्रयोग को सही साबित करने के लिए वे कहते हैं कि लेखकों को अपने प्रयोग करते समय किसी हद तक अपने पाठकों का ध्यान रखना चाहिए।
विवेकी राय को लिखी एक और चिट्ठी की ओर भी किताब के सुधी पाठक का ध्यान जाना स्वाभाविक है। इसमें दिनकर की भी एक चिट्ठी है – जिसमें उन्होंने अपनी मशहूर कविता दिल्ली की रचनाप्रक्रिया पर रोशनी डाली है। दिनकर लिखते हैं - “ आपने दिल्ली कविता में जोश का जो उतार देखा है। वह उतार नहीं...चढ़ाव का दृष्टांत है। सुबह के समय फूल पर शबनम होती है, मगर दोपहरी के फूल पर तो शबनम होती ही नहीं।”
विवेकी राय की चिट्ठियों को पढ़ते हुए आपको अनामदास का पोथा में उपसंहार को जल्दीबाजी में लिखने की प्रक्रिया पर हजारी प्रसाद द्विवेदी का स्वीकृतिबोध भी मिल सकता है। ऐसे न जाने कितने दृष्टांत हैं – जो इस पूरी पुस्तक में बिखरे पड़े हैं। यही इस पुस्तक की उपलब्धि है।
हालांकि इस किताब में ढेरों निजी चिट्ठियां भी शामिल हैं। जिनमें उनकी माता जबिति देवी की गंगोत्री यात्रा का जिक्र है। तो कई मित्रों के उलाहने और मजाक भी हैं। कई अति निजी चिट्ठियां भी इस किताब में शामिल हैं। ऐसी ही एक चिट्ठी की कुछ पंक्तियों को यहां शामिल करने का लोभ संवरण करना आसान नहीं है। ये चिट्ठी है उतराखंड शोध संस्थान के पूर्व निदेशक गिरिराज शाह की – जो उन्होंने नैनीताल से 2003 में लिखी थी। गिरिराज शाह लिखते हैं – कभी सोचता हूं, यदि साहित्य साधना के स्थान पर क्रिकेट साधना या अभिनय साधना अथवा नेतागिरी की होती तो शायद सम्मान, संपदा और सुख (राजतिलक) मिलता जैसे अमिताभ बच्चन, लालू, मायावती, मुलायम और जयललिता तथा मदनलाल खुराना ‘खुरोट’ को मिल रहा है। टीवी और मीडिया में नित्य तस्वीर छपती और हिंदुस्तान के सौ करोड़ में से 99 करोड़ 99 लाख मूर्ख तालियां बजाते और चर्चा करते।
कुल मिलाकर ये पुस्तक सन 1940 के दशक से लेकर मौजूदा दौर के साहित्यिक और राजनीतिक इतिहास और कई मशहूर पुस्तकों की रचनाप्रक्रियाओं को जानने – समझने का अच्छा माध्यम बन पड़ी है।
पुस्तक – पत्रों की छांव में
लेखक – विवेकी राय
प्रकाशक – स्वामी सहजानंद सरस्वती स्मृतिकेंद्र
बड़ी बाग, गाज़ीपुर
मूल्य – 150 रूपए
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