लेकिन हकीकत ये है कि इंटरनेट की पहुंच अभी-भी ज्यादातर महानगरों से लेकर छोटे शहरों तक ही है। इंटरनेट के लिए बुनियादी चीज बिजली की जरूरत है। लेकिन आज भी उत्तर भारत के अधिकांश हिस्से दिन से बारह से बीस घंटे अंधेरे में ही डूबे रहते हैं। ऐसे में अगर दैनिक भास्कर के मार्केटिंग डाइरेक्टर गिरीश अग्रवाल ये कहते हैं कि प्रिंट माध्यम पर अब भी 60 फीसदी लोग भरोसा करते हैं तो गलत नहीं है। इसकी वजह यही है कि प्रिंट या अखबार पढ़ने के लिए गांवों में बिजली की जरूरत नहीं है। जबकि टेलीविजन हो या इंटरनेट इन दोनों माध्यमों के लिए बुनियादी चीज बिजली का होना जरूरी है। रेडियो कुछ हद तक इससे मुक्त है। लिहाजा अखबार और रेडियो इस देश के बड़े हिस्से के लोगों के दिलों पर आज भी राज कर रहे हैं।
माध्यमों का इतिहास गवाह है – जब भी वैकल्पिक मीडिया का कोई नया रूप सामने आता है – तब पारंपरिक मीडिया को उससे डर लगने लगता है। लेकिन बाद में उसे अपनाने में पारंपरिक मीडिया देर नहीं लगाता। फिर उसी के सहारे खुद की उपस्थिति मजबूत करने में जुट जाता है। भारत में भी यही प्रक्रिया दुहराई जा रही है। आज शायद ही कोई अखबार, रेडियो या टीवी चैनल होगा- जिसकी अपनी कोई वेबसाइट नहीं हो। दरअसल आज अखबार अपने बारे में जो अपने पृष्ठों पर नहीं कह पा रहा है – पत्रिकाएं अभिव्यक्त नहीं कर पा रही हैं। उसे वे अपने वेब साइट पर कह रही हैं। टेलीविजन और रेडियो के लिए प्रसारण के लिए समय की कमी है। लिहाजा उनके अपने कार्यक्रमों और समाचारों को पेश करने के लिए वक्त की पाबंदी है। फिर भी उनके लिए बहुत कुछ अनकहा रह जाता है। उसकी भरपाई वे अपनी वेबसाइटों पर करते हैं। यानी इंटरनेट ने यहां भले ही वैकल्पिक माध्यम के तौर पर कदम रखा- लेकिन धीरे-धीरे वह पारंपरिक मीडिया का ही सहभागी बनता जा रहा है। आपको अखबार पर खबर पूरी नहीं मिली तो आप उसकी वेबसाइट पर जाकर पूरी खबर पढ़ सकते हैं।
अभी एक दौर इलेक्ट्रॉनिक मैगजीनों का शुरू हुआ है। अंग्रेजी में तो न्यूयार्कर, वोग से लेकर लाइफ तक सभी इलेक्ट्रॉनिक फॉर्म में आ गई हैं। इनमें कई तो पीडीएफ फाइलों में हैं। जिन्हें आप मनचाहे तरीके से बड़ा या छोटा करके पढ़ सकते हैं। हिंदी में भी ऐसे प्रयास शुरू हो चुके हैं। टेलीविजन पत्रकार राजीव रंजन झा शेयर मंथन नाम से पीडीएफ फॉर्मेट में रोजाना लोगों को इलेक्ट्रॉनिक अखबार ही पेश कर रहे हैं। इस अखबार ने फरवरी में अपने सौ अंक पूरे कर लिए। शेयर बाजार की जानकारी और लोगों के सवालों का विशेषज्ञों से जवाब इस दैनिक ई पत्रिका में रोजाना पाठकों को मिलती है। मुफ्त में प्रसारित होने वाला ये ई अखबार उन्हीं लोगों को मिलता है – जिन्होंने इसकी इच्छा जाहिर की है। राजीव के मुताबिक इसे रोजाना करीब एक हजार लोगों तक भेजा जाता है। इसी तरह पौढ़ी गढ़वाल से भवानीशंकर थपलियाल रिजनल रिपोर्टर नाम से मासिक ई पत्रिका निकाल रहे हैं।
इसी तरह का एक प्रयास गाजियाबाद की एक सॉफ्टवेयर कंपनी ने किया है। उसने अपनी साइट पर गृह लक्ष्मी और प्रतियोगिता दर्पण समेत कई पत्रिकाओं को जगह दी। अभी हाल तक निकलती रही पत्रिका दस दिन भी इसकी साइट पर मौजूद थी। यहां बता देना ये जरूरी है कि अब दस दिन बंद हो गई है। जाहिर है – इस पत्रिका का ई संस्करण भी बंद हो गया है। ये सारी पत्रिकाएं पीडीएफ फॉर्मेट में ही इस साइट पर मौजूद हैं। वर्चुअल दुनिया में ये एक नया अवतार है। धीरे-धीरे ही सही, इनका भी विस्तार हो रहा है। लेकिन यहां ध्यान देना जरूरी है कि शेयर मंथन को छोड़कर बाकी सभी ई पत्रिकाएं किसी पारंपरिक पत्रिका का ई संस्करण ही हैं।
हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि अपने देश में प्रिंट का करीब दो सौ साल का इतिहास है। जबकि रेडियो की जिंदगी 70-75 साल की है। टेलीविजन महज पच्चीस साल पुराना है और इंटरनेट की उम्र महज दस साल है। चूंकि ये सभी माध्यम अलग-अलग हैं - चारों का स्वभाव और चरित्र अलग-अलग है। जाहिर है कि इनकी प्राथमिकताएं भी अलग-अलग होंगी। लेकिन कम से कम भारत में जिस तरह से मीडिया के चारों माध्यम विकसित हो रहे हैं। उससे साफ है कि इनका एक दूसरे के सहअस्तित्व पर ही जोर है। अगर वेब दुनिया का भारतीय भाषाओं के पोर्टल के तौर पर अस्तित्व है तो उसमें कहीं न कहीं उसके मूल अखबार नई दुनिया का भी हाथ है। और अगर नई दुनिया को इंदौर और मालवा से बाहर कैलिफोर्निया और बुडापेस्ट में भी देखा-पढ़ा जाता है तो इसकी वजह वेब दुनिया है। ऐसे में ये सवाल उठना ही गैर लाजिमी है कि अभिव्यक्ति और मीडिया के ये माध्यम एक-दूसरे को खा जाएंगे।
तकनीकी क्रांति के चलते मीडिया में एक और बदलाव की आहट महसूस हो रही है। इस देश में करीब आठ करोड़ मोबाइल उपभोक्ता हैं। सारे अखबारों से भी कहीं ज्यादा मोबाइल के एसएमएस और एमएमएस के पाठक-दर्शक हैं। यही वजह है कि मोबाइल पर भी खबरें देने की परिष्कृत प्रणाली की तैयारियां चल रही हैं। पांच साल पहले जब रिलायंस ने अपना मोबाइल लांच किया था तो उसने खबरें भी दी थीं। लेकिन तब तकनीकी गड़बड़ियों के चलते ये प्रयास परवान नहीं चढ़ पाया था। लेकिन अब मोबाइल कंपनियां पूरी तैयारी के साथ इस क्षेत्र में भी कदम रख रही हैं। टेलीविजन की दुनिया में अपनी धाक जमा चुका ज़ी नेटवर्क ने बाकायदा न्यू मीडिया का अलग विभाग ही बना दिया है। जो मोबाइल पर खबरें देगा। ये खबरें टेलीविजन खबरों का संक्षिप्त रूप होगा। जिसमें विजुअल भी होगा और कंटेंट भी। यानी आधा मिनट के विजुअल और वॉयस ओवर में पूरी खबर बता दी जाएगी। यानी मीडिया का ये नया माध्यम देखने के लिए अब हमें तैयार रहना होगा। वैसे इंडिया टीवी ने इसे पहले ही शुरू कर दिया है। यानी सिर्फ ड्राइंग रूम तक की शोभा बढ़ाती रही विजुअल खबरें अब हर हाथ में स्थित मोबाइल पर मौजूद होंगी। लेकिन टेलीविजन चैनल इससे परेशान नहीं हैं। मोबाइल खबरों की तुलना में टेलीविजन की खबरें पिछले दस-बारह साल में पारंपरिकता का दर्जा हासिल कर चुकी हैं। लिहाजा चैनल यही मानकर चल रहे हैं कि मोबाइल खबरों के चलते उनकी टीआरपी ही बढ़ेगी। ज़ी में न्यू मीडिया का तकनीकी पक्ष देख रहे शशिलोचन सिंह का मानना है कि मोबाइल पर संक्षिप्त खबरें देखकर आम पाठक-दर्शक अपडेट तो रह सकता है। लेकिन उसे यदि विस्तार से खबर देखने की भूख होगी तो उसे पारंपरिक टेलीविजन स्क्रीन पर आना ही होगा। यानी यहां भी वैकल्पिक मीडिया से उन्हें कोई खतरा नजर नहीं आता।
अंत में मीडिया विचारक देवदत्त जी की आशाएं हमें याद रखनी चाहिए। इन पंक्तियों के लेखक को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि बदलते दौर में मीडिया का चाहे जो भी माध्यम हो – उसका तात्कालिकता पर ज्यादा जोर रहेगा। रीडरशिप लगातार बढ़ रही है। इसकी जिम्मेदारी अखबारों पर ज्यादा है। वैसे आज की पाठकों की जरूरतें भी ज्यादा हैं। जाहिर है, ऐसे में उन्हें जानकारी देने के लिए अखबारों पर दबाव रहेगा। सूचना देने और जानकारी देने की अखबारों की भूमिका बढ़ेगी, संस्था के रूप में नए संदेशों को देने में भूमिका रहेगी। लेकिन मीडिया को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि वह निर्णायक भूमिका निभाएगा।
इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
बुधवार, 19 मार्च 2008
सोमवार, 17 मार्च 2008
बना रहेगा सहअस्तित्व का दौर
उमेश चतुर्वेदी
माध्यमों के इतिहास से एक अजीब सा संयोग जु़ड़ा हुआ है। दुनिया में जब-जब किसी नए माध्यम की आहट मिलती है – पुराने माध्यमों के अंत की घोषणा होने लगती है। पिछली सदी के दूसरे दशक में जब जी मार्कोनी ने रेडियो की खोज की तो अमेरिका और यूरोप में जमे-जमाए अखबारों पर संकट की घोषणाएं की जाने लगी थी। कुछ वैसे ही – जैसे पिछले दिनों फुकुओमा ने इतिहास के अंत का ऐलान कर दिया था। पिछली सदी के तीसरे दशक में इसी तरह जब जे एल बेयर्ड ने टेलीविजन का आविष्कार किया तो अखबारों के साथ ही रेडियो की अस्मिता भी खतरे में दिखने लगी थी। लेकिन हुआ ठीक इसका उलटा। तब से लेकर टेम्स और हडसन नदियों में ठीक वैसे ही काफी पानी बह चुका है – जैसे अपनी गंगा और यमुना में। लेकिन अमेरिका और यूरोप में अखबारों के सर्कुलेशन और पृष्ठों में लगातार विकास हुआ है। टेलीविजन के चैनल भी बढ़े – रेडियो की दुनिया में क्रांति भी हुई। लेकिन न्यूयार्क टाइम्स हो या फिर वाशिंगटन पोस्ट- सबका सर्कुलेशन बढ़ा। 1920 से लेकर 1970 तक विकसित दुनिया में अखबार, रेडियो और टेलीविजन एक दूसरे के सहभागी के तौर पर विकसित होते रहे। इस सहभाग ने रेडियो और टेलीविजन को भी पारंपरिक मीडिया की श्रेणी में ला दिया। लेकिन 1969 में जब अपरानेट की खोज हुई तो एक बार फिर इस पारंपरिक मीडिया को अपनी अस्मिता खतरे में पड़ती दिखनी शुरू हुई। इस अपरानेट से ही आगे चलकर इंटरनेट का विस्तार हुआ। लेकिन मीडिया के इन सभी माध्य्मों के अस्तित्व पर कोई खतरा नजर नहीं आया। आज सच है कि अमेरिकी और यूरोपीय अखबार सर्कुलेशन न बढ़ पाने की परेशानियों से जूझ रहे हैं। लेकिन इसकी वजह इंटरनेट या रेडिया नहीं हैं। बल्कि वहां का समाज ऐसे विंदु पर पहुंच चुका है- जहां इन माध्यमों के विकास की गुंजाइश नहीं रही।
लेकिन अपने देश की स्थिति बिल्कुल उलट है। यहां आज भी देश में साक्षरता करीब 65 फीसदी ही पहुंच पाई है। यानी शत-प्रतिशत साक्षरता हासिल करने का लक्ष्य काफी पीछे है। ऐसे में यहां प्रिंट माध्यम का अभी भी तेजी से विस्तार हो रहा है। करीब एक दशक पहले जब इस देश में भी इंटरनेट ने दस्तक दी तो अखबारों में अपना इंटरनेट संस्करण निकालने की होड़ लग गई। 1999 और 2000 में डॉट कॉम का बुलबुला तेजी से उठा। तब भी अखबारों के अस्तित्व पर सवाल उठाए जा रहे थे। लेकिन यहां इंटरनेट का वह बुलबुला फूट गया। लेकिन नए सिरे से फिर इंटरनेट के प्रति जागरूकता बढ़ी। अखबारों और पत्रिकाओं के इंटरनेट संस्करण मुफ्त में वर्चुअल स्पेस में मिलने लगे। तब एक बार फिर यहां इनके जरिए पारंपरिक मीडिया के अंत का ऐलान किया जाने लगा। क्रमश:....
माध्यमों के इतिहास से एक अजीब सा संयोग जु़ड़ा हुआ है। दुनिया में जब-जब किसी नए माध्यम की आहट मिलती है – पुराने माध्यमों के अंत की घोषणा होने लगती है। पिछली सदी के दूसरे दशक में जब जी मार्कोनी ने रेडियो की खोज की तो अमेरिका और यूरोप में जमे-जमाए अखबारों पर संकट की घोषणाएं की जाने लगी थी। कुछ वैसे ही – जैसे पिछले दिनों फुकुओमा ने इतिहास के अंत का ऐलान कर दिया था। पिछली सदी के तीसरे दशक में इसी तरह जब जे एल बेयर्ड ने टेलीविजन का आविष्कार किया तो अखबारों के साथ ही रेडियो की अस्मिता भी खतरे में दिखने लगी थी। लेकिन हुआ ठीक इसका उलटा। तब से लेकर टेम्स और हडसन नदियों में ठीक वैसे ही काफी पानी बह चुका है – जैसे अपनी गंगा और यमुना में। लेकिन अमेरिका और यूरोप में अखबारों के सर्कुलेशन और पृष्ठों में लगातार विकास हुआ है। टेलीविजन के चैनल भी बढ़े – रेडियो की दुनिया में क्रांति भी हुई। लेकिन न्यूयार्क टाइम्स हो या फिर वाशिंगटन पोस्ट- सबका सर्कुलेशन बढ़ा। 1920 से लेकर 1970 तक विकसित दुनिया में अखबार, रेडियो और टेलीविजन एक दूसरे के सहभागी के तौर पर विकसित होते रहे। इस सहभाग ने रेडियो और टेलीविजन को भी पारंपरिक मीडिया की श्रेणी में ला दिया। लेकिन 1969 में जब अपरानेट की खोज हुई तो एक बार फिर इस पारंपरिक मीडिया को अपनी अस्मिता खतरे में पड़ती दिखनी शुरू हुई। इस अपरानेट से ही आगे चलकर इंटरनेट का विस्तार हुआ। लेकिन मीडिया के इन सभी माध्य्मों के अस्तित्व पर कोई खतरा नजर नहीं आया। आज सच है कि अमेरिकी और यूरोपीय अखबार सर्कुलेशन न बढ़ पाने की परेशानियों से जूझ रहे हैं। लेकिन इसकी वजह इंटरनेट या रेडिया नहीं हैं। बल्कि वहां का समाज ऐसे विंदु पर पहुंच चुका है- जहां इन माध्यमों के विकास की गुंजाइश नहीं रही।
लेकिन अपने देश की स्थिति बिल्कुल उलट है। यहां आज भी देश में साक्षरता करीब 65 फीसदी ही पहुंच पाई है। यानी शत-प्रतिशत साक्षरता हासिल करने का लक्ष्य काफी पीछे है। ऐसे में यहां प्रिंट माध्यम का अभी भी तेजी से विस्तार हो रहा है। करीब एक दशक पहले जब इस देश में भी इंटरनेट ने दस्तक दी तो अखबारों में अपना इंटरनेट संस्करण निकालने की होड़ लग गई। 1999 और 2000 में डॉट कॉम का बुलबुला तेजी से उठा। तब भी अखबारों के अस्तित्व पर सवाल उठाए जा रहे थे। लेकिन यहां इंटरनेट का वह बुलबुला फूट गया। लेकिन नए सिरे से फिर इंटरनेट के प्रति जागरूकता बढ़ी। अखबारों और पत्रिकाओं के इंटरनेट संस्करण मुफ्त में वर्चुअल स्पेस में मिलने लगे। तब एक बार फिर यहां इनके जरिए पारंपरिक मीडिया के अंत का ऐलान किया जाने लगा। क्रमश:....
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