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मंगलवार, 13 अप्रैल 2010
साहित्य और सत्ता के रिश्ते
उमेश चतुर्वेदी
संतन को सीकरी सों क्या काम...
सत्ता और साहित्य के रिश्तों की जब भी चर्चा होती है, करीब साढ़े चार सौ साल पहले लिखी कुंभनदास की ये पंक्तियां बरबस याद आ जाती हैं। अकबर के दौर में जब कुंभनदास ने इन पंक्तियों की रचना की थी, तब के अधिकांश साहित्यकार ही संत थे। वे भक्त कवि थे और उनकी भक्ति अपने आराध्य देव के प्रति थी। लेकिन आज जमाना बदल गया है। सीकरी यानी राजधानी ही साहित्यकारों की रिहायश बन गई है। राजनीति के केंद्र राजधानी में रहते वक्त तुलसी की तर्ज पर कोई साहित्यकार लाख ये कहता रहे कि उसका राजनीति में क्या काम...लेकिन हकीकत तो यही है कि उसका रोज ब रोज का सीधा साबका भले ही राजनेताओं से नहीं पड़ता हो.. राजनीति से जरूर पड़ता है। रोटी-कपड़ा से लेकर दैनंदिन जीवन की तमाम घटनाओं पर राजनीति का ही ज्यादा असर है। राजनीति के बिना आज की जिंदगी की कल्पना भी बेमानी है। जाहिर है इस माहौल से साहित्यकार लाख कोशिशों के बावजूद बच नहीं सकता।
सत्ता का तरीका लाख बदल जाए, उसके स्वरूप में भले ही आमूलचूल परिवर्तन हो जाए, लेकिन उसका मूल चरित्र एक जैसा ही रहता है। राजतंत्र में भी शासकों का एक ही काम था आम लोगों पर शासन करना। लोकतंत्र में जनता का दबाव भले ही ज्यादा हो, लोकतांत्रिक शासक का भी मूल चरित्र राजतंत्रिक शासकों से अलग नहीं है। यही वजह है कि आज के शासक भी लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई देने के बावजूद साहित्यकारों से वैसी ही उम्मीद रखते हैं, जैसी उम्मीद अकबर जैसा महान शासक भी रखता था। यानी सत्ताएं हमेशा चाहती हैं कि साहित्य को उसका अनुगामी होना चाहिए। भक्ति या रीतिकाल में जो कवि सत्ता के साथ रहता था, उसके लिए भव्य राजमहल, जागीर का प्रबंध होता था, लोकतांत्रिक समाज में भी सत्ताओं के साथ रहने वाले साहित्यकारों की भी हालत कुछ ऐसी ही है। मध्यकाल में कोई कबीर या कुंभन दरबार में जाने और वहां मत्था टेकने से इनकार करता था तो उसे फाकामस्ती की जिंदगी गुजारने के लिए मजबूर होना पड़ता था। आज भी हालात बदले नहीं हैं। उनका तरीका जरूर बदल गया है। यही वजह है कि आज भी साहित्यकार की बात की बजाय आज का शासक अपने दलीय साथियों का ज्यादा ध्यान रखता है। अगर ऐसा नहीं होता तो हिंदी की दुनिया में अपने खास तरह के लेखन के लिए मशहूर कृष्ण बलदेव वैद का नाम दिल्ली की हिंदी अकादमी 2008 के शलाका सम्मान के लिए पहले चुनती नहीं और फिर किसी छुटभैये नेता के कहने पर उसे खारिज भी नहीं कर देती। उनके उपन्यास नसरीन और विमल उर्फ जाएं तो जाएं कहां पर कांग्रेस के एक छुटभैये नेता ने अश्लीलता का आरोप लगाया। इसे लेकर उन्होंने दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को चिट्ठी लिखी...सुशिक्षित ...संभ्रांत और पढ़ने-लिखने में दिलचस्पी रखने वाली शीला दीक्षित ने ये परवाह भी नहीं की कि उनके फैसले के बाद क्या ज्वार उठ सकता है। कृष्ण बलदेव वैद का नाम पुरस्कृत होने वाली सूची से गायब हो गया। हिंदी अकादमी ने इस पर चुप्पी ही साध ली।
जैसी की उम्मीद थी, ज्वार तो उठना ही था और ज्वार उठा भी। उदारीकरण के दौर में हिंदी के लेखक की आज भी वैसी स्थिति नहीं बन पाई है, जैसी कुल जमा दो-तीन किताबें लिखने वाले अंग्रेजी लेखक चेतन भगत की बन गई है। हिंदी वालों के लिए आज भी लाख रूपए बड़ा सपना है। जबकि हिंदी अकादमी का शलाका सम्मान ही दो लाख 11 हजार रूपए का है। कम ही लोगों को उम्मीद रही होगी कि हिंदी के लेखक एक साथ अपने एक साथी के सम्मान पर चोट पहुंचाए जाने के खिलाफ लामबंद हो जाएंगे। लामबंद ही नहीं हुए, बल्कि 2009 के शलाका सम्मान विजेता मशहूर कवि केदारनाथ सिंह के साथ पुरस्कार लौटाने का ऐलान कर दिया। हिंदी में यह पहला मौका है, जब विचारधारा और ग्रुपों से उपर उठकर लेखकीय स्वाभिमान के लिए एक साथ उठ खड़ी हुई है। इन विरोधी सुरों का ही दबाव है कि हिंदी अकादमी को अपने पुरस्कार समारोह को टालना पड़ा। कुछ लोगों को उम्मीद थी कि हिंदी अकादमी और उसकी पदेन अध्यक्ष दिल्ली की कुलशील मुख्यमंत्री शीला दीक्षित अपनी गलती को सुधारेंगी और वैद का सम्मान बहाल किया जाएगा। मैकियावेली ने अपनी पुस्तक द प्रिंस में लिखा है कि शासक का चरित्र कम ही बदल पाता है। शीला दीक्षित के फैसले ने मैकियावेली के इस कथन को ही साबित किया है। कृष्ण बलदेव वैद को पुरस्कार भले ही न मिले, लेकिन इतना तय है कि लेखकों की इस एकता के बाद कम से कम भविष्य में कोई राजनीतिक सत्ता ऐसी हरकत दोबारा करने से पहले सौ बार सोचेगी।
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