सोमवार, 20 जुलाई 2009

बालिका वधू पर सवाल


उमेश चतुर्वेदी
14 जुलाई को लोकसभा में सवाल भर्तृहरि महताब का था...जवाब अंबिका सोनी ने दिया ...लेकिन उनका जवाब पूरा होने का जैसे जनता दल यू के अध्यक्ष शरद यादव कर रहे थे। उन्होंने छूटते ही बालिका वधू पर शारदा एक्ट के उल्लंघन और इसके जरिए बाल विवाह को बढ़ावा देने का आरोप जड़ दिया। शरद यादव कोई मामूली नेता नहीं हैं, लिहाजा अंबिका सोनी को कहना पड़ा कि वे इस पर विचार करेंगी। यानी बालिका वधू पर सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने निगरानी या तो शुरू कर दी है या फिर वह जल्द ही करने वाला है। जाहिर है, यदि मंत्रालय को ऐसा लगा तो टेलीविजन की सबसे मासूम और नन्हीं बहू को देखने के आदी रहा एक बड़ा दर्शक वर्ग इससे वंचित हो सकता है।
इसका नतीजा चाहे जो हो, लेकिन ये सच है कि बालिका वधू पर संसद में उठी निगाहों की प्रासंगिकता और जरूरत पर भी सवाल उठने लगे हैं। टेलीविजन की अतिरेकी भूमिका को लेकर शरद यादव की चिंताएं और उनके रूख से हर वह शख्स परिचित है, जो उनके थोड़ा-बहुत भी करीब रहा है। पूर्व गृह राज्य मंत्री गावित के खिलाफ चले स्टिंग ऑपरेशन को लेकर वे एक चैनल के खिलाफ वे कितने नाराज थे, इसे उन लोगों ने देखा है, जो राज्य सभा की कार्यवाही को कवर करते रहे हैं। लेकिन बालिका वधू पर उनका सवाल उठाना और उस पर ये आरोप लगाना कि यह बाल विवाह को बढ़ावा दे रहा है, समझ से परे लग रहा है। ये सच है कि टीआरपी के दबाव में खबरिया चैनलों ने जिस तरह खबरों से खिलवाड़ किया, उससे राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक बड़ा वर्ग टेलीविजन से खार खाए बैठा है। मीडिया जगत में भी इस परिपाटी पर सवाल उठे...इस गलती को दबी जबान से ही सही, मीडिया के अंदरूनी हलके में भी स्वीकार किया जाने लगा है। लेकिन बालिका वधू पर सवाल और उसे लेकर सूचना और प्रसारण मंत्री के जवाब को लोग पचा नहीं पा रहे हैं।
ये सच है कि एक दौर में टेलीविजन का प्राइम टाइम सास-बहू के अंतहीन झगड़ों और उच्च वर्ग के परिवारों के बीच जारी षडयंत्र के किस्सों से गुंजायमान था। ऐसे माहौल में एक वर्ग को मनोरंजन चैनलों से भी ऊब होने लगी थी। ऐसे माहौल में जब पिछले साल बालिका वधू ने दस्तक दी तो दर्शकों ने इसे हाथोंहाथ लिया। एकरस कार्यक्रमों की भीड़ में बालिका वधू हवा के नए झोंके की तरह सामने आया। और देखते ही देखते इस सीरियल की नन्हीं बहू आनंदी यानी अविका गौर घर-घर की महिलाओं की चहेती बन गई। एक दौर तो ऐसा भी आया कि मनोरंजन चैनलों के प्राइम टाइम पर इसी धारावाहिक की तूती बोलने लगी और इसके साथ ही नए नवेले चैनल कलर्स ने अपना झंडा गाड़ दिया। फिर तो ना आना इस देश लाडो, अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ जैसे धारावाहिक आए और प्राइम टाइम में छा गए। सास-बहू की एकरस कहानियों से भरी प्राइम टाइम की दुनिया में इन धारावाहिकों की सफलता की वजह रहे इनके नए – नए और तकरीबन टेलीविजन की दुनिया से अछूते रहे विषय। प्राइम टाइम की दुनिया में भले ही इन धारावाहिकों की तूती बोल रही है, लेकिन राजनेताओं की निगाहें इन पर टेढ़ी होती जा रही हैं।
ये भी सच है कि बालिका वधू की कहानी में वह कसावट नहीं रही , जो शुरूआती कई हफ्तों में दिखती रही थी। टीआरपी के दबाव और कमाई के चलते इस धारावाहिक की कहानी में भी कई असहज और अप्रासंगिक मोड़ आने लगे हैं, जिनका कोई तर्क नहीं नजर आता। कुछ यही हालत अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ और ना आना इस देश लाडो की कहानी के साथ भी हो रहा है। लेकिन इसका ये भी मायने नहीं है कि ये धारावाहिक बाल विवाह, कन्या भ्रूण हत्या और बिहार में लड़की बेचने की कुप्रथाओं को बढ़ावा दे रहे हैं। सही बात तो ये धारावाहिक जिन चैनलों पर दिखाए जा रहे हैं, उन्हें सामान्य एंटीना के जरिए नहीं देखा जा सकता। इन्हें देखने के लिए केबल या डीटीएच की जरूरत होगी। और इस देश में विकास के तमाम दावों के बावजूद बड़े शहरों को छोड़ दें तो केबल या डीटीएच का खर्च वहन करने की क्षमता निम्न मध्यवर्ग और कम पढ़े-लिखे परिवारों के पास नहीं है। जाहिर है, उन घरों तक इन धारावाहिकों की पहुंच ही नहीं है। ऐसे में शरद यादव या भर्तृहरि महताब के इस आरोप को कैसे सही माना जा सकता है कि ये धारावाहिक शारदा एक्ट या फिर बाल विवाह कानून का उल्लंघन कर रहे हैं।
अगर कुरीतियों को दिखाना भी उसे बढ़ावा देना है तो भ्रष्टाचार को उजागर करना भी उसे महिमा मंडित करना हो जाएगा। और अगर एक बार हमने इसे मान लिया तो ये भी सच है कि भ्रष्टाचार का खुलासे पर भी संसद से लेकर सड़क पर सवाल उठने लगेंगे। जाहिर है ये मौका खुद मीडिया की अतिरेकी भूमिकाओं ने मुहैया कराया है। ऐसे में सबसे बड़ी जरूरत ये है कि राजनीति की ओर से हो रहे ऐसे सवालों का तार्किक जवाब दिया जाय। मीडिया और कला की मॉनिटरिंग होनी चाहिए। इसे खुले मन से मीडिया को भी स्वीकार करना चाहिए। लेकिन इसका ये भी मतलब नहीं है कि हर गैरजरूरी सवालों का भी सामना किया जाय। कम से कम मनोरंजन चैनलों के बदलाव भरे सीरियलों पर उठे सवाल तो ऐसी ही श्रेणी में आते हैं।