उमेश चतुर्वेदी
(यथावत के नवंबर प्रथम 2015 अंक में प्रकाशित)
2.स्वातंत्रयोत्तर हिंदी के विकास में कल्पना
के दो दशक/ लेखक- शशिप्रकाश चौधरी/प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य-500 रूपए
संपादक - प्रयाग शुक्ल
प्रकाशक - वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर
मूल्य - 250 रूपए
गांधी जी की कामयाबियां, कर्म और प्रयोग उनके
जाने के महज 67 साल बाद ही अतिमानवीय और हैरतअंगेज लगने लगे हैं। आने वाली
पीढ़ियां तो यह सोचने के लिए बाध्य ही हो जाएंगी कि सचमुच वे हाड़मांस का
हमारे-आपके जैसे ही साधारण पुतले भी थे। कंटेंट और विचार के स्तर पर हिंदी पत्रकारिता
जितनी तेजी से छीजती जा रही है, उसे देखते हुए आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि कुछ इसी
अंदाज में आने वाले दिनों में पत्रकारिता के कर्मयोगी और छात्रों के सामने जब
कल्पना की गुणवत्ता की जानकारी आए तो वे हैरत में पड़ जाएं। लेकिन सुदूर
अहिंदीभाषी क्षेत्र से निकलती रही कल्पना ने जिस तरह का रूख हिंदी भाषा और साहित्य
के सवालों को लेकर दुनिया के सामने रखा, वह आज के दौर में कल्पनातीत ही कहा जाएगा।
भारतेंदु युग के बाद हिंदी को मांजने और सार्वजनिक विमर्श की भाषा बनाने में जो
काम आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन में सरस्वती ने किया, आजादी के बाद
कुछ वैसा ही योगदान कल्पना का भी रहा। कल्पना ने हिंदी की दुनिया को कल्पना की
सीमारेखा से यथार्थ के धरातल पर लाने और भाषाई स्वाधीनता के आंदोलनों से लेकर
हिंदी में नए और आधुनिक चलन को स्थापित करने में जो भूमिका निभाई, उसे विवेकी राय
की किताब कल्पना और हिंदी साहित्य में बखूबी देखा जा सकता है। कल्पना की शुरूआत
यानी 1949 से लेकर 1977 में अंत तक के उसके अंकों के आधार पर तैयार इस पुस्तक के
मूल में खुद कल्पना के संस्थापक और मानस पिता हैदराबाद के सुरूचिपूर्ण मारवाड़ी
कारोबारी के बेटे बदरी विशाल पित्ती ही थे। विवेकी राय जी के शब्दों में कहें तो
कल्पना का सर्वेक्षण नाम से यह सर्वेक्षण शुरू हुआ। इसका कल्पना में ही धारावाहिक
तौर पर प्रकाशन भी हुआ। कल्पना निश्चित तौर पर साहित्य, वर्तनी, व्याकरण,
कला-समीक्षा, प्रकीर्ण विधाएं आदि के संदर्भ मे अपने मुकम्मल और ठोस विचार रख ही
रही थी। लेकिन उसने किस तरह हिंदी साहित्य और भाषा की सेवा की, उसका चौंकाऊ आयाम
उसके प्रतिबद्ध पाठक भी नहीं जान पाए थे। लेकिन विवेकी राय के सर्वेक्षण ने जैसे
कल्पना को समझने के लिए नई वीथि ही खोल कर रख दी।
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिंदी के
शलाका पुरूष डॉक्टर नामवर सिंह के निर्देशन में हिंदी साहित्य के विकास में कल्पना
के दो दशक यानी सिर्फ 1968 तक पर शशिप्रकाश चौधरी ने शोध किया है। निश्चित तौर पर
इनके शोध में कल्पना के दो दशकों के योगदान को केंद्रित किया गया है। शशिप्रकाश
चौधरी ने शोध प्रविधि के लिए तमाम पाठ्य सामग्री इकट्ठी की है और उनके आधार पर
कल्पना के योगदान पर विश्लेषण किया है। लिहाजा कल्पना के बीस साल की यात्रा के
जरिए हासिल कामयाबियों-खूबियों का जिक्र ज्यादा है। लेकिन हैरत होती है कि कल्पन
की सामग्री के सर्वेक्षण पर शशिप्रकाश चौधरी के शोध में चर्चा तक नहीं है। अगर इस
सर्वेक्षण पर शशि प्रकाश की नजर पड़ी होती तो शायद उनका शोध निकष कुछ और व्यापक
होता और उनके शोध मंथन से हासिल कल्पना का मक्खन कहीं ज्यादा स्वादिष्ट होता।