उमेश चतुर्वेदीहर साल दीवाली जैसे – जैसे नजदीक आती है...अपने शहर की पत्रिकाओं की दुकान याद आने लगती है...इसलिए नहीं कि वहां हर साल दीपावली खास दीयों की रोशनी में मनाई जाती थी...इसलिए भी नहीं कि वहां दीपावली पर पत्रिकाओं और किताबों की खरीद पर खास छूट मिलती है...पत्रिकाओं की वह दुकान इसलिए याद आती थी कि तब पत्रिकाओं के दीपावली विशेषांकों की बाढ़ रहती थी...हर पत्रिका के दीपावली विशेषांक में एक से बढ़कर एक रचनाएं...लेखों का खजाना...क्या नहीं रहता था। घोर उपभोक्तावाद के इस दौर में पत्रिकाओं की इस तरह से याद ...रचनाओं की आहट की खोज...प्रगतिकामियों को असहज कर सकती है
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