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बुधवार, 29 जुलाई 2009
निजीपन में सेंध यानी सच का सामना
उमेश चतुर्वेदी
कड़वी सचाई का सामना बहादुर ही कर पाते हैं। बचपन से ही हमें ये बताया जाता रहा है। ये शिक्षा हमें देते वक्त इस बात की भी ताकीद की जाती रही है कि जब तक उस सचाई के उजागर होने से व्यापक समुदाय का हित न जुड़ा हो, चाहे कितना भी कड़वी हकीकत क्यों ना हो, उसका खुलासा नहीं किया जाना चाहिए। पारंपरिक मीडिया इसे सूत्र वाक्य की तरह लेता रहा है। यही वजह है कि किसी व्यक्ति विशेष की निजी जिंदगी में ताक-झांक करने से देसी मीडिया बचता रहा है। इसी सूत्र वाक्य के सहारे सत्तर के दशक में भारतीय मीडिया ने भी राजनेताओं की जिंदगी के काले सच को उजागर करना शुरू किया तो राजनीति की दुनिया में भूचाल आ गया था। तब से जब भी मौका लगता है, राजनीति मीडिया के ऐसे कामों पर सवाल उठाने से पीछे नहीं रहती। लेकिन दिलचस्प बात ये है कि इस बार राजनीति की दुनिया से जुड़े लोगों की निजी जिंदगी के अंधेरे पक्ष का खुलासा नहीं हो रहा है, बल्कि इस बार सवालों से मुठभेड़ करने आम और खास हर तरह के लोग खुद आ रहे हैं और राजनीति की दुनिया में भूचाल आ गया है। 22 जुलाई को राज्य सभा में जिस तरह स्टार प्लस के कार्यक्रम सच का सामना पर दलगत राजनीति से उपर उठकर राजनेताओं ने सवाल उठाया है, उससे तो कम से कम यही ध्वनि निकलती है।
14 जुलाई को कलर्स के लोकप्रिय सीरियल बालिका वधू पर लोकसभा में जिस तरह बड़े नेताओं ने सवाल उठाया, उससे सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने बालिका वधू की मानिटरिंग का आदेश ही दे डाला। ये क्या संजोग है कि जिस सच का सामना जैसे रियलिटी शो पर संसद में सवाल उठा है, वह इसके ठीक अगले दिन यानी 15 जुलाई को शुरू हुआ। बहरहाल सरकार ने सच का सामना की मानिटरिंग का कोई खुला आदेश तो नहीं दिया है। लेकिन जिस तरह सीरियलों की भूमिका पर संसद में चर्चा कराने के लिए सरकार तैयार हो गई है, उससे साफ है कि आने वाले दिन ऐसे सीरियल निर्माताओं के लिए परेशानियां लेकर आ सकते हैं।
22 जुलाई को राज्य सभा में समाजवादी पार्टी के सांसद कमाल अख्तर को आपत्ति थी कि सच का सामना में अश्लील सवाल पूछे जा रहे हैं और इससे भारतीय संस्कृति का खुला उल्लंघन हो रहा है। इसके साथ ही व्यक्ति की निजता में भी सेंध लगाई जा रही है। मंडल- कमंडल से लेकर आर्थिक मुद्दों पर अलग-अलग राय रखने वाले अपने राजनीतिक दलों की एक बात के लिए जरूर दाद दी जानी चाहिए। जब भी भारतीय संस्कृति पर हमले की बात होती है, सारे दल एक साथ खड़े नजर आते हैं। सच का सामना चूंकि राजनीतिक दलों की नजर में भारतीय संस्कृति का उल्लंघन कर रहा है, लिहाजा इसके खिलाफ पूरी राज्यसभा एकमत नजर आई।
संसद में सच का सामना को लेकर चर्चा होगी तो इससे जुड़े तमाम मुद्दे सामने तो आएंगे ही। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या सचमुच इसके लिए सिर्फ स्टार प्लस चैनल ही जिम्मेदार है। जिस अमेरिकी कार्यक्रम की तर्ज पर भारतीय लोग सच का सामना कर रहे हैं, उसके मूल देश में व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता का संवैधानिक तौर पर खास खयाल रखा गया है। वहां भी यह कार्यक्रम विवादास्पद रहा है। लेकिन इससे इस कार्यक्रम में शामिल होने आए लोग अपनी जवावदेही से बच नहीं सकते। इस कार्यक्रम में शामिल हो रहे लोग मासूम और अनपढ़ नहीं हैं। विनोद कांबली को आप क्या मासूम मानेंगे। जिस स्मिता नाम की महिला से उसकी सेक्स फैंटेसी के बारे में पूछे गए सवाल को लेकर संसद में सवाल उछला है, वह भी मासूम नहीं रही हैं। जिस तरह की परिपाटी आज के टेलीविजन की दुनिया में पसरी हुई है, उससे ऐसे सवालों का अंदाजा लगाना किसी समझदार व्यक्ति के लिए कोई कठिन काम नहीं है। साफ है ये लोग पढ़े-लिखे और समझदार हैं और उन्हें एक करोड़ रूपए जीतने का सपना अपनी निजी जिंदगी की सार्वजनिक चीड़फाड़ के लिए तैयार कर रहा है।
ये सच है कि साल भर पहले तक मनोरंजन चैनल की दुनिया का बेताज बादशाह रहा स्टार प्लस अपनी लोकप्रियता बनाए रखने के लिए इन दिनों जूझ रहा है। इसके चलते उसे अपनी प्रोग्रामिंग में ताजगी लाने के लिए मजबूर होना पड़ा है। जैसा कि अपने यहां परिपाटी है, आइडिया की ताजगी हमें अमेरिका में ही मिलती- दिखती है। लिहाजा वह अमेरिकी कार्यक्रम की तर्ज पर इस कार्यक्रम को लाने के लिए मजबूर हुआ है। चैनल को भी ये अंदाजा रहा होगा कि सचाई का सामना करने वाले लोगों को चाहे ज्यादा परेशानी ना हो, देश में इसे लेकर बवाल जरूर होगा और फिर कार्यक्रम चर्चा में आएगा। और चर्चा में आएगा तो उसकी टीआरपी बढ़ेगी ही। यह टीआरपी की ही माया है कि उसे लोगों की निजी जिंदगी में आक्रामक तरीके से घुसने के लिए मजबूर कर रहा है और उसकी यही मजबूरी खटकने लगी है।
खबरिया चैनलों की बढ़ती भीड़ के भी दौर में स्टिंग और निजी जिंदगी में दखलंदाजी का जोर बढ़ गया था। यह परिपाटी इतनी तेजी से बढ़ी कि लोगों ने इस पर सवाल उठाने शुरू कर दिए। तब खबरिया चैनलों को गैरजिम्मेदार ठहराने में हर दूसरा व्यक्ति आगे आ रहा था। मुंबई पर हमले के बाद खबरिया चैनलों में ऐसे चलन कम हुए हैं। उन्हें खबरों की विमर्श वाली दुनिया में गोते लगाने के लिए लौटना पड़ा है। लेकिन हकीकत देखिए कि ऐसे कार्यक्रमों से अब तक बचे रहे मनोरंजन चैनलों को भी इसी दौ़ड़ में शामिल होना पड़ा है, और उनकी भी वजह वही है, प्रतिद्वंद्विता और टीआरपी की चाह। राज्यसभा में उन पर उठा सवाल दरअसल खबरिया चैनलों के साथ शुरू हुए टीवी प्रोग्रामिंग के विरोध का ही विस्तार है।
संसद में चर्चा के बाद इस कार्यक्रम को जायज ठहराया जाएगा या फिर गलत, लेकिन एक चीज साफ है कि इस बहस में वे मुद्दे भी उठेंगे, जिसकी वजह से आज आम आदमी अपने गोपनीय चीजों को भी उजागर करने के लिए मजबूर हुआ है। उदारीकरण की हवा में, जब हर किसी चीज का पैमाना पैसा बन गया है, ऐसे में एक करोड़ का लालच चाहे कोई टीवी चैनल दे या फिर कोई और, ऐसे कार्यक्रमों पर रोक लगा पाना आसान नहीं होगा। लेकिन ये भी सच है कि अगर हर तरह के कार्यक्रमों के लिए सरकारी दखलंदाजी बढ़ती रही तो चाहे खबरिया चैनल हों या फिर मनोरंजन के चैनल, उनके लिए सही तरीके से काम कर पाना आसान नहीं होगा। लेकिन इसके बचाव की राह क्या होगी, इस पर बेहतर हो कि सरकार या संसद की बजाय मीडिया और उसके कर्ता-धर्ता खुद विचार करें।
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