उमेश चतुर्वेदी
हिंदीभाषी इलाकों में इन दिनों बोलियों और उन्हें भाषा का दर्जा दिलाने की मांगें कुछ ज्यादा ही बढ़ गई हैं। विद्यापति और नागार्जुन जैसे कवियों की रचनास्थली रही मैथिली को यूं तो लोक में भाषा का दर्जा हासिल हो ही गया है। लेकिन संवैधानिक मान्यता अब तक नहीं है। उसे लेकर मैथिल समाज आंदोलन करता रहा है। पिछली बार दिल्ली विधानसभा चुनावों में भी यह मसला उछला था। अब इस कड़ी में राजस्थानी और भोजपुरी भी जुड़ गई हैं। भोजपुरी और मैथिल भाषियों की दिल्ली की मतदाता सूची में क्या हैसियत है, इसका अदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वहां बाकायदा राज्य सरकार के अधीन एक भोजपुरी-मैथिली अकादमी भी काम कर रही है। एक दौर में हिंदी को जनपदीय भाषाओं-बोलियों के जरिए समृद्ध करने की वकालत विशाल भारत के संपादक बनारसी दास चतुर्वेदी करते रहे। जिसे उन्होंने जनपद आंदोलन का नाम दिया था। हालांकि हिंदी सेवियों की नजर में जनपद आंदोलन हिंदी की अखिल भारतीय छवि और भाषा के तौर पर उसकी ताकत को कमजोर कर सकता था। यही वजह है कि उनके इस आंदोलन का उस दौर में भी व्यापक विरोध हुआ। आकाशवाणी द्वारा प्रकाशित पुस्तक “बनारसी दास चतुर्वेदी : समय के दर्पण में ” में खुद बनारसी दास चतुर्वेदी ने स्वीकार किया है कि जनपद आंदोलन को लेकर मान्यता थी कि अगर यह आंदोलन सफल हुआ तो हिंदुस्तान के हिस्से-हिस्से हो जाएंगे। जबकि बनारसी दास चतुर्वेदी का मानना था कि हिंदी में भी विकेंद्रीकरण होना चाहिए। साहित्यिक और सांस्कृतिक तौर पर वे वासुदेव शरण अग्रवाल की पुस्तक ‘पृथ्वीपुत्र ’ से प्रभावित थे। जिसका मकसद था – हिंदी की क्षेत्रीय बोलियों के रिकॉर्ड रखे जायं और उनकी लोक रचनाओं का संकलन किया जाय। बहरहाल जनपद आंदोलन अपने मूल रूप में सफल तो नहीं रहा, लेकिन उसने हिंदी में लोक साहित्य और स्थानीय बोलियों में प्रचलित मौखिक रचनाओं को संग्रहीत करने की एक प्रेरणा जरूर दे गया।
लेकिन बात अब इससे आगे बढ़ गई है। अब ये बोलियां अब भाषा की सीढ़ी की तरफ बढ़ती हुई राजनीतिक हथियार बनती जा रही है। अगर दिल्ली में भोजपुरी-मैथिली अकादमी का गठन होता है तो इसका मतलब साफ है कि उन्हें बोलने वालों की राजनीतिक ताकत के चलते ऐसा संभव हुआ है। हालांकि साठ के दशक में जैसे जनपद आंदोलन का विरोध हो रहा था, वैसा ही विरोध इन बोलियों को संवैधानिक मान्यता देने की मांग को लेकर भी होने लगा है। कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य और सचिव मोहन प्रकाश का राजनीतिक प्रशिक्षण चूंकि समाजवादी विचारधारा में हुआ है, लिहाजा सांस्कृतिक और साहित्यिक घटनाक्रम उन्हें सोचने के लिए मजबूर करते हैं। बोलियों को राजनीतिक और संवैधानिक हैसियत दिलाने की मांग का वे सैद्धांतिक विरोध कर रहे हैं। उनका मानना है कि देश में सोलह सौ से ज्यादा बोलियां है। अगर बोलियों को संवैधानिक हैसियत देने की मांग मानी जाती रही तो इसका कोई अंत नहीं होगा। देर-सवेर हर एक बोलियों वाले लोग ऐसी मांग उठाने लगेंगे, जिसकी वजह से देश को क्षेत्रीयता की नई समस्या से दो-चार होना पड़ेगा। उनका तर्क है कि अगर राजस्थानी को ही संवैधानिक मान्यता दे दी जाय तो स्थानीयता की समस्या उठ खड़ी होगी। क्योंकि मेवाड़ में बोली जानी वाली राजस्थानी कुछ और है, ब्रज के इलाके में कुछ अलग तरह से राजस्थानी का इस्तेमाल होता है तो मारवाड़ में किसी और तरह से। फिर उनके मानकीकरण की मांग उठेगी। मानकीकरण में एक इलाके की बोली को तरजीह दी गई तो दूसरे इलाके के लोग नाखुश होंगे। यानी एक अंतहीन सिलसिला शुऱू हो जाएगा। डॉक्टर राममनोहर लोहिया के अंग्रेजी हटाओ आंदोलन से जुड़े रहे मोहन प्रकाश की चिंताएं स्वाभाविक हैं। यानी यह गंभीर विमर्श का विषय है और इस पर सार्थक और सकारात्मक विचार किया जाना चाहिए।
ये मांगे जायज हैं या नाजायज, इसे लेकर बहस को एक तरफ रख दें तो बाजारवाद के दौर में इतना तो तय है कि अपनी सोंधी माटी की खुशबू को हासिल करने की कवायद शुरू तो हो ही गई है। यही वजह है कि राजधानी दिल्ली में होली और चैता के भोजपुरी राग-रंग सुनाई देने लगे हैं। गांव की चौपाल और खलिहान में प्रदर्शन के विषय रहे ये लोक रंग अब हैबिटाट सेंटर और फाइव स्टार होटलों के अपेक्षाकृत औपचारिक और संभ्रांत में अब लोक लहरियां उठने लगीं है। राजस्थानी गीतों की धूम पर देसी की कौन कहे, विदेशी भी झूमते रहे हैं और इसे बताने की जरूरत भी नहीं है। बुंदेली आल्हा के रंग भी अब महानगरों की दहलीज के अंदर घुस चुके हैं। यानी जिस ‘पृथ्वीपुत्र ’ को राष्ट्रीयता के उभार के दौर में भी सम्मान हासिल नहीं हो पाया, अब वह सम्मानित हो रहा है। लेकिन इसका एक दुखद पक्ष भी है। जहां ये सुर लहरियां अब तक गूंजती रही हैं, वहां फिल्मी तरन्नुम ने अपनी जगह बना ली है। महानगर में रह रहे प्रवासी अपनी माटी की सोंधी गंध वाली लहरियों में डूब रहे हैं तो इन लहरियों के आंचल का अपना नौजवान को उसे ये कम ही लुभाती हैं। लेकिन जैसे ही राजनीतिक हैसियत की बात उठती है, फिल्मी तरन्नुम में डूबने वाले नौजवान को भी अपनी बोली-बानी याद आ जाती है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या स्थानीय सोंधापन भी राजनीतिक हैसियत के जरिए ही बचाया जाएगा। अगर इस सवाल का जवाब हां में है तो निश्चित तौर पर यह भारतीय सांस्कृतिक और राजनीतिक सोच के लिए दुखद है।
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