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शनिवार, 18 दिसंबर 2010
बदलती दुनिया को समझने का औजार
उमेश चतुर्वेदी
अब दुनिया गोल नहीं
प्रकाशक - पेंगुइन बुक्स इंडिया प्रा. लि.
11 कम्युनिटी सेंटर, पंचशील पार्क, नई दिल्ली -110017
मूल्य – 350 रूपए
पंद्रहवीं सदी के आखिरी दिनों में ईस्ट इंडिया की खोज करने स्पेन से निकले क्रिस्टोफर कोलंबस भले ही भारत को नहीं खोज पाया, लेकिन उसने दुनिया को एक विचार जरूर दिया। दरअसल यह यूरोपीय वैज्ञानिक गैलीलियो के विचार को ही आगे बढ़ा रहा था। इसके मुताबिक दुनिया गोल है। यह वैज्ञानिक सत्य भी है कि हमारी धरती गोल है। लेकिन जब हम धरती के एक कोने से दूसरे कोने तक जाते हैं तो हमें धरती की इस गोलाई का अहसास नहीं होता है, अलबत्ता ये जरूर लगता है कि पूरी धरती समतल है। तकनीक ने धरती के इस समतलीकरण को और बढ़ा दिया है। न्यूयार्क टाइम्स के स्तंभकार टॉमस एल फ्रीडमैन को यह विचार पहली बार तब आया, जब वे न्यूयार्क से हजारों किलोमीटर दूर तकनीक का नया केंद्र बन चुके बंगलुरू में इन्फोसिस के मुख्यालय नंदन नीलकेणी से मिलने पहुंचे। बंगलुरू शहर से चालीस मिनट के सफर पर स्थित इन्फोसिस के मुख्यालय में उन्हें अहसास हुआ कि कोलंबस पंद्रह सदीं में भारत की जगह अमेरिका जा पहुंचा और वहां के लोगों को रेड इंडियन कहा जाने लगा। वक्त का सफर बीसवीं सदी के आखिरी छोर तक पहुंच जाता है। इस बार भी कोई कोलंबस भारत की खोज पर निकलता है। इस बार उसकी यात्रा उस अमेरिका से शुरू होती है, जिसे भारत के नाम पर कोलंबस ने खोजा था। अनजाने में अमेरिका पहुंचे कोलंबस को रेड इंडियन मिले, लेकिन भारत पहुंचे टॉमस फ्रीडमैन को अमेरिकन ही मिले। आउटसोर्सिंग के केंद्र के तौर पर उभरे बंगलुरू में जो अंतरराष्ट्रीय कॉल सेंटर काम कर रहे हैं, उनके बाजार अमेरिका में हैं, उनके ग्राहक अमेरिका में हैं और उनके लिए बंगलुरू में काम करने वाले लोग अपने ग्राहकों से सहज रिश्ता बनाए रखने के लिए ना सिर्फ अमेरिकी लहजे की अमेरिकी बोलना सीख गए हैं, बल्कि उन्होंने अमेरिकन नाम भी अख्तियार कर लिया है। इन अर्थों में देखें तो भारत में भी एक अमेरिका बस गया है, जो अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए काम कर रहा है। इतना ही नहीं इन अमेरिकियों की धरती तो भारतीय है, जन्म भी भारत में ही हुआ है, लेकिन तकनीकी क्रांति के दम पर उन्होंने जो ताकत हासिल की है, उसकी वजह से वे भारत में रहते हुए ही अमेरिकी बनते नजर आ रहे हैं। भारतीय धरती पर अमेरिकी, अमेरिकी धरती पर भारतीय, एशिया में यूरोप और यूरोप में एशिया के चलन और ज्ञान-विज्ञान का जो संस्पर्श बढ़ा है, उसे टॉमस एल फ्रीडमैन ने अपनी किताब द वर्ल्ड इज फ्लैट में संजोया है। तकनीक और ज्ञान आधारित दुनिया में बढ़ते एशियाई वर्चस्व को दिखाने-समझाने वाली इस पुस्तक की दुनिया भर में अब तक पचास लाख प्रतियां बिक चुकी हैं। इसे हाल ही में पेंगुइन बुक्स इंडिया ने अब दुनिया गोल नहीं नाम से प्रकाशित किया है।
उन्नीसवीं सदी की औद्योगिक क्रांति की रोशनी अमेरिका तक पहुंची। विकास की धारा यूरोप से होते हुए अमेरिका तक पहुंची। तकनीक और ज्ञान-विज्ञान के जरिए यूरोप और अमेरिका ने पूरी दुनिया पर वर्चस्व स्थापित कर लिया है। तकनीक और ज्ञान-विज्ञान की ताकत ही रही कि बीसवीं सदी यूरोप और अमेरिका की रही। लेकिन इन्फोसिस, विप्रो, सैमसंग, ओनिडा, ह्यूंडई जैसी हजारों एशियाई कंपनियों की वजह से इक्कीसवीं सदी को एशिया की सदी कहा जा रहा है। टॉमस एल फ्रीडमैन को लगता है कि तकनीक और ज्ञान की यह यात्रा जिस तरह हो रही है, उसके मूल में भी कहीं न कहीं दुनिया का समतल होना ही है। फ्रीडमैन ने तकनीकी क्रांति को अपनी आंखों से भारत, चीन और मध्य पूर्व के देशों में देखा है। फ्रीडमैन की नजर में ब्लॉगिंग्स, ऑनलाइन एनसाइक्लोपीडिया और पॉडकास्टिंग के जरिए एशिया के दो महत्वपूर्ण देशों चीन और भारत पूरी दुनिया को जबर्दस्त तरीके से प्रभावित कर रहे हैं। फ्रीडमैन का मानना है कि दुनिया आज जितनी एक-दूसरे कोनों और विचारों के नजदीक है, उतनी पहले कभी नहीं थी। इसकी बड़ी वजह यही है कि तकनीक और ज्ञान-विज्ञान ने इस नजदीकी को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
भले ही एशिया का दुनिया में वर्चस्व बढ़ रहा हो, लेकिन एशिया का एक हिस्सा अब भी ऐसा है, जिसके यहां पैसा तो बहुत है, लेकिन ज्ञान की दुनिया में उनका वर्चस्व नहीं बढ़ रहा है। निश्चित तौर पर अरब देशों का यह समूह है। जिनके यहां तेल के चलते पेट्रो डॉलर की बाढ़ है। लेकिन वैसी तकनीकी और ज्ञान क्रांति नहीं है, जैसी भारत और चीन में दिख रही है। इसे समझाने के लिए फ्रीडमैन 2003 में प्रकाशित एक रिपोर्ट का हवाला देते हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के लिए अरबी समाज वैज्ञानिकों ने यह रिपोर्ट तैयार की थी। इस रिपोर्ट के मुताबिक 1980 से 1999 के बीच अरब देशों ने सिर्फ 171 पेटेंट ही कराए, जबकि इसी दौर में दक्षिण कोरिया ने अकेले 16,328 पेटेंट कराए। जबकि कंप्यूटर और प्रिंटिंग टेक्नॉलजी से जुड़ी कंपनी हैवलेट पैकर्ड हर दिन औसतन 11 पेटेंट कराती है। इसी रिपोर्ट के मुताबिक अध्ययन अवधि में अरब देशों में प्रति दस लाख की आबादी पर 371 वैज्ञानिक और इंजीनियर काम कर रहे थे। लेकिन अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका समेत दुनिया का यह औसत 979 था। फ्रीडमैन अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की सन 2004 की एक रिपोर्ट का हवाला भी देते हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में 15 से 24 साल की उम्र वाले बेरोजगार पुरूषों की संख्या 8 करोड़ 80 लाख थी। जिनमें से अकेले 26 फीसदी लोग अरब देशों से ही थे। फ्रीडमैन इस रिपोर्ट के हवाले से इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि अरब देशों में आगे बढ़ने की ललक इसलिए नहीं है, क्योंकि वहां के लोगों की रूझान धार्मिक ज्यादा है और अरब-मुस्लिम जगत में नई चीजों के लिए जगह नहीं है। फ्रीडमैन का मानना है कि ज्ञान जगत में पिछड़ने की वजह से ही इस्लामिक और अरबी जमात में कट्टरता बढ़ रही है।
दुनिया को समतल बताने की इस दौड़ में फ्रीडमैन को कई बार ऐसे सवालों का भी सामना करना पड़ा है, जिससे आज का आम अमेरिकी बचना चाहता है। मसलन भारत और चीन की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और उसके चलते उपभोग का बढ़ता दायरा, गाड़ियों की बढ़ती संख्या उन्हें बहुत परेशान करती है। चीन में एक लेक्चर के दौरान फ्रीडमैन ने जैसे ही यह कहा कि चीन को गाड़ियों की संख्या कम करनी चाहिए और उसे ऊर्जा की खपत कम करनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो दुनिया को ऊर्जा संकट का जल्द ही सामना करना पड़ेगा। उनके व्याख्यान के बाद एक लड़की ने उनसे ही यह सवाल पूछ लिया कि आखिर भारत और चीन को क्यों नहीं ऊर्जा खपत बढ़ानी चाहिए। लगे हाथों उस लड़की ने फ्रीडमैन के सामने एक सवाल उछाल दिया कि अमेरिका और यूरोप ने अपने विकास के दौर में तेल और ऊर्जा की खपत कर ली है और अब बारी भारत और चीन की ही है। फ्रीडमैन तब सोचने के लिए मजबूर हो जाते हैं। क्योंकि बराबरीवाद के आधार पर देखें तो यह तर्क सही है। चिंतन के क्रम में फ्रीडमैन अमेरिका को सुझाते हैं कि उसे खुद के उपभोग पर काबू पाने के बाद ही चीन और भारत से जलवायु परिवर्तन की दिशा में बेहतर काम और नतीजों की उम्मीद रखनी चाहिए। फ्रीडमैन ऐसा कहते वक्त भले ही गांधी का संदर्भ नहीं देते, लेकिन यह सच है कि गांधी का भी यही रास्ता था। गांधी भी ऐसा ही सोचते थे।
तकनीक और ज्ञान का गुणगान करते-करते फ्रीडमैन आखिर में उदास हो जाते हैं। वे कहते हैं – “ दुनिया का समतल होते जाना हमारे लिए नई संभावनाएं, नई चुनौतियां, नए सहयोगी लेकर आया है। लेकिन अफसोस है कि वह साथ में नए खतरे भी लेकर आया है, खासकर अमेरिकी होने के नाते यह जरूरी है कि हम इन सबमें सही संतुलन कायम करें। यह जरूरी है कि हम सबसे अच्छे विश्व नागरिक बनें, जो हम नहीं बन पाते हैं, क्योंकि समतल दुनिया में अगर आप अपने बुरे पड़ोस में नहीं जाते हैं तो वह आपके पास आ सकता है। ”
फ्रीडमैन की यह किताब बदलती दुनिया के बदलाव के औजारों को समझने का जितना अच्छा जरिया बन पड़ी है, दुनिया के भावी खतरों से उतनी मुस्तैदी से आगाह भी करती है।
रविवार, 12 दिसंबर 2010
अफसरशाही और प्रोफेसरशाही को समर्पित
उमेश चतुर्वेदी
पूरे देश में मौसमी दहलीज पर जब सर्दी दस्तक देती है तो जिंदगी को जल्दी समेटने की तैयारियां तेज हो जाती हैं। एक तरफ सूरज देवता अपनी किरणों को समेटते हैं और दूसरी तरफ देश गुदड़ी से लेकर अलाव तक के सहारे रात का अंधेरा काटने की दिशा में आगे बढ़ जाता है। ऐसा नहीं कि गुलाबी सर्दियां सिर्फ शहरों को ही भली लगती हैं, गांवों को भी गुलाबी सर्दियां उतना ही आनंद और सुकून देती हैं, जितना सुविधाजीवी शहरातियों को। लेकिन हाड़ कंपाने वाली ठंड पूरे देश में जिंदगी की गाड़ी को भी ठंडी कर देती है। लेकिन इन्हीं दिनों दिल्ली के साहित्यिक गलियारे गुलजार हो जाते हैं। सर्दियों की परवाह करने की जरूरत भी नहीं रहती। रसरंजन का सर्दियां बेहतरीन बहाना बन जाती हैं। इसी बहाने किताबों के विमोचन का दौर तेज हो जाता है। साहित्यिक गलियारे की यह गर्मी साहित्य अकादमी पुरस्कारों के लिए जोड़तोड़ के चलते बढ़ जाती है। वैसे भी इन दिनों विशुद्ध लेखक किस्म के साहित्यकारों की पूछ कम हुई है। लेखक अगर प्राध्यापक हुआ या फिर सरकारी आला अधिकारी तो समझो सोने पर सुहागा। प्रकाशकों की फौज उनकी किताबों के प्रकाशन और प्रकाशन के बाद लोकार्पण के बहाने वैचारिक विमर्श में जुट जाती है। अगर लेखक ऊंचा सरकारी अफसर हुआ तो क्रांतिकारी होने का दावा करने वाले लेखक और आलोचक तक उसकी किताब को न भूतो न भविष्यति का विशेषण देने लगता है। दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेला के बाद सर्दियां ही ऐसा बड़ा अवसर होती हैं, जब दिल्ली का साहित्यिक समाज सक्रिय हो जाता है। मशहूर लेखक हिमांशु जोशी कहते रहे हैं कि हिंदी को जरूरत है ऐसे लेखक की जो चौबीस घंटे की जिंदगी में पच्चीस घंटे लेखन में व्यतीत करे। ऐसे लेखक हैं भी लेकिन प्रकाशक मित्रों का उन पर ध्यान कम ही जाता है। उनके लिए अधिकारी लेखक कहीं ज्यादा मुफीद है। पच्चीस घंटे लिखने वाला लेखक प्रकाशक की किताबें भला कैसे बिकवा सकता है। लेकिन अफसर या रसूखदार प्रोफेसर हुआ तो किताबें बिकवाना उसके लिए बाएं हाथ का खेल है। जाहिर है ऐसे लेखक प्रकाशक को मुफीद लगते हैं। इसीलिए उनकी कविता हो या कामचलाऊ गद्य की पुस्तक, सब कुछ छाप देता है और उसे पत्रकारिता के हवाले कर देता है। इन दिनों एक और प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है। टेलीविजन के लोकप्रिय चेहरों से किताबें लिखवाने का, उन्हें बाकायदा लोकार्पित भी किया जाता है। पिछले दिनों ऐसी ही एक शख्सियत की किताब का पुनर्संस्करण प्रकाशित हुआ। उस किताब को भी न भूतो न भविष्यति बताने के लिए बड़ा कार्यक्रम हुआ। हिंदी के एक नामी प्रकाशक ने इन पंक्तियों के लेखक को एक ऐसे मशहूर टीवी पत्रकार के लिए घोस्टराइटिंग करने का प्रस्ताव दिया था, जिनका बड़ा नाम है। हिंदी के बड़े अखबारों को भी अब अपनी रियल प्रतिभाएं कम ही प्रभावित करती हैं। उन्हें अधकचरी हिंदी लिखने या धाराप्रवाह अंग्रेजी लिखने वाले सोशलाइट किस्म के पत्रकार, नेता या अधिकारी ही विचार पक्ष को मजबूत करने के लिए बेहतर लगते हैं। हिंदी की अपनी मौलिक प्रतिभाओं पर उनका भरोसा नहीं है। जिनका मूल काम ही लिखना-पढ़ना है, हिंदी के ही अखबारों का उन पर इकबाल कम हुआ है। हिंदी के प्रकाशक भी उसी प्रवृत्ति को अपने ढंग से आगे बढ़ा रहे हैं। प्रकाशकों का तर्क है कि मशहूर टीवी पत्रकारों की किताबें खूब बिकती हैं। ऐसा नहीं कि सभी टीवी एंकरों को लिखना ही नहीं आता। लेकिन सबसे ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि जिनकी किताबें छप रही हैं, उनमें से कम के ही पास लिखने का शऊर है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या बिकाऊ चेहरों, कोर्स में किताबें रखवाने की हैसियत रखने वाले प्रोफेसरों और अफसर लेखकों के ही सहारे हिंदी का कारवां आगे बढ़ेगा। इसका जवाब हिंदीभाषी समाज को खोजना पड़ेगा।
चलते-चलते- आठ दिसंबर को दिल्ली का तापमान आठ डिग्री सेल्सियस के आसपास था, उसी दिन वाणी प्रकाशन ने एक साथ आठ उपन्यासों का लोकार्पण करके इतिहास रच दिया। मशहूर लेखक असगर वजाहत का उपन्यास पहर दोपहर, रमेश चंद्र शाह का असबाब-ए-वीरानी , पुन्नी सिंह का जो घाटी ने कहा, ध्रुव शुक्ल का उसी शहर में उसका घर, मोहनदास नैमिषराय का जख्म हमारे, पत्रकार और कवि विमल कुमार का चांद एट द रेट डॉट कॉम, पत्रकार प्रदीप सौरभ का तीसरी ताली और सुरेश कुमार वर्मा का उपन्यास मुमताज महल का एक साथ लोकार्पण निश्चित तौर पर हिंदी साहित्यिक जगत के लिए महत्वपूर्ण घटना रही।
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उमेश चतुर्वेदी लोहिया जी कहते थे कि दिल्ली में माला पहनाने वाली एक कौम है। सरकारें बदल जाती हैं, लेकिन माला पहनाने वाली इस कौम में कोई बदला...
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टेलीविजन के खिलाफ उमेश चतुर्वेदी वाराणसी का प्रशासन इन दिनों कुछ समाचार चैनलों के रिपोर्टरों के खिलाफ कार्रवाई करने में जुटा है। प्रशासन का ...