बुधवार, 6 अक्टूबर 2010

क्यों पिछड़ा है राजस्थानी सिने उद्योग

राजस्थानी सिनेमा का यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि हिंदी की मुख्यधारा की फिल्मों में राजस्थानी परिवारों की कहानियां हिट रहती हैं, लेकिन राजस्थानी भाषा का अपना सिनेमा न तो क्लासिक और न ही कमर्शियल फिल्म के तौर पर अब तक खास पहचान बना पाया है। हालांकि हिंदी का शुरूआती सिनेमा राजस्थानी रजवाड़ों की कहानियों से भरा पड़ा था। मीराबाई से लेकर पन्ना धाय तक की कहानियां भी हिंदी सिनेमा का विषय बन चुकी हैं। मुगल-ए-आजम से लेकर जोधा-अकबर जैसी फिल्मों ने राजस्थानी पृष्ठभूमि का हिंदी सिनेमा ने कलात्मक और व्यवसायिक दोहन किया है। राजस्थानी तर्ज के नीबूड़ा-नीबूड़ा जैसे कई गीतों ने हिंदी सिनेमा के हिट होने में अहम योगदान दिया है। हम दिल दे चुके सनम तो पूरी तरह राजस्थानी पृष्ठभूमि की ही फिल्म थी। फिर क्या वजह है कि राजस्थानी सिनेमा अपनी अलहदा पहचान नहीं बना पाया। इसका जवाब देते हैं हिंदी में कई हिट फिल्में बना चुके के सी बोकाड़िया। आज का अर्जुन, तेरी मेहरबानियां जैसी हिट फिल्में बनाने और निर्देशित करने वाले बोकाड़िया राजस्थान के ही मेड़ता सिटी के रहने वाले हैं। उनका कहना है कि राजस्थान में हर 20-25 किलोमीटर के बाद भाषा बदल जाती है। यही वजह है कि राजस्थानी सिनेमा की दुर्दशा हो रही है। क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों के पिछड़ने की वजह की जब भी चर्चा होती है, तब यही सवाल उठता है। हरियाणा अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टीवल में हरियाणवी फिल्मों के विकास पर हो रही गोष्ठी में भी यही मजबूरी निर्माता-निर्देशक अश्विनी चौधरी ने जताई थी।
सवाल यह है कि क्या सचमुच बोलियों में विविधता ही हरियाणवी या राजस्थानी सिनेमा के विकास की बड़ी बाधा हैं। यह तर्क देने वाले भूल जाते हैं कि इस देश में बरसों से कहावत चली आ रही है- कोस-कोस पर पानी बदले, तीन कोस पर बानी। यह स्थिति भारत की हर भाषा की है। तेलुगू, तमिल, कन्नड़, मलयालम, मराठी, बांग्ला, भोजपुरी कोई भी ऐसी बोली नहीं है, जिसे उसके प्रभाव क्षेत्र में एक ही तरह से बोला जाता हो। खुद हिंदी के साथ भी ऐसी स्थिति नहीं है। बिहार वाले की हिंदी, मध्य प्रदेश वाले की हिंदी से अलग है। लखनऊ समेत मध्य उत्तर प्रदेश का व्यक्ति जिस हिंदी का इस्तेमाल करता है, झारखंड या छत्तीसगढ़ की हिंदी से वह अलग होती है। लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं और हिंदी का सिनेमा चल रहा है। उसकी व्यवासियक और क्लासिकल, दोनों पहचान है। ऐसे में बोलियों की विविधता को क्षेत्रीय सिनेमा के विकास में बाधक मानने वाले तर्क पर गौर किया जाना जरूरी है।

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

क्षेत्रीय सिनेमा के विकास के लिए राज्य का संरक्षण जरूरी


समानांतर और सरोकार वाले सिनेमा को लेकर अपने यहां जब भी चर्चा होती है, बांग्ला और मलयालम जैसी क्षेत्रीय भाषाओं का नाम सबसे उपर होता है। सार्थक सिनेमा की कड़ी में मराठी, उड़िया और असमी जैसी भाषाओं ने भी अपनी पहचान दर्ज करा दी है। कमर्शियल फिल्मों की दुनिया में तमिल, तेलुगू, कन्नड़ का कोई जोड़ नहीं है। भोजपुरी तो इन दिनों अपने कमर्शियल सिनेमा को लेकर क्षेत्रीय भाषाओं में नई पहचान बना रही है। इन अर्थों में देखा जाय तो हरियाणवी फिल्मों का अब तक का विकास निराश करता है। हरियाणा के यमुनानगर में आयोजित तीसरे अंतरराष्ट्रीय हरियाणा फिल्म फेस्टिवल में हरियाणवी सिनेमा का विकास विषय पर आयोजित गोष्ठी में इसी निराशा को समझने की कोशिश की गई। इस मौके पर अपनी पहली ही हरियाणवी फिल्म लाडो से चर्चित हो चुके अश्विनी चौधरी ने मार्के की बात कही। उन्होंने कहा कि अच्छे सिनेमा का बेहतर स्रोत साहित्य होता है। सच कहें तो सिनेमा के लिए साहित्य परखा हुआ दस्तावेज होता है। लेकिन हरियाणवी सिनेमा का संकट यह है कि यहां कोई अपना साहित्य ही नहीं है। यही वजह है कि जब कोई हरियाणवी सिनेमा में हाथ आजमाना चाहता है तो कहानी के लिए उसे लोक साहित्य की ओर देखना पड़ता है। लेकिन लोक के साथ संकट यह है कि वह सिनेमा के लिए हर वक्त उर्वर और कामयाब कहानी नहीं दे सकता। कमर्शियल सिनेमा को जहां आम लोगों का साथ मिलता है, वहीं सरोकारी सिनेमा को समाज के प्रबुद्ध वर्ग का साथ मिलता है। अश्विनी चौधरी के मुताबिक हरियाणवी समाज में इसकी भी कमी है और सबसे बड़ी बात यह है कि हरियाणा की बोलियों में एक रूपता नहीं हैं। यही वजह है कि अगर कोई हरियाणवी फिल्म बनाना चाहता है तो उसके सिनेकार को ये चिंता सताती रहती है कि वह किस बोली में फिल्म बनाए।
बोलियों की समस्या को लेकर अश्विनी चौधरी की इस राय से हरियाणवी सिनेमा की पहली सुपर हिट फिल्म चंद्रावल की हीरोईन ऊषा शर्मा सहमत नहीं हैं। उनका कहना था कि अगर बोलियां बाधा रहतीं तो उनकी फिल्म हरियाणा के बाहर उत्तरी राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली और पंजाब के कुछ हिस्सों तक में हिट रही थी।
गोष्ठी में शामिल सभी वक्ता कम से एक मुद्दे पर सहमत थे। उनका मानना था कि क्षेत्रीय सिनेमा के पनपने में राज्य का सहयोग कम से कम शुरूआती दौर में होना चाहिए। क्योंकि जहां-जहां क्षेत्रीय सिनेमा विकसित हुआ है, वहां – वहां क्षेत्रीय सिनेमा का शुरूआती दौर में राज्य ने संरक्षण दिया है।
चंद्रावल का सीक्वल बनाने जा रही ऊषा शर्मा को अफसोस है कि हरियाणा में अब तक राज्य की अपनी कोई फिल्म पॉलिसी नहीं है। 1985 में उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री से फिल्म नीति बनाने की मांग रखी थी। इसमें हरियाणवी भाषा में कम से कम दो फिल्में बना चुके निर्माता को तीस लाख रूपए का राजकीय अनुदान देने की मांग रखी थी। इसके साथ ही उन्होंने कम से कम अस्सी फीसदी शूटिंग हरियाणा में होने वाली फिल्मों को भी यही सहायता देने की मांग रखी थी। इसके साथ ही हर सिनेमा हॉल को हरियाणवी फिल्में कम से कम हर हफ्ते दो शो दिखाने की मांग भी रखी। यह सच है कि अगर यह मांग मान ली जाती तो शायद हरियाणा में सिनेमा के विकास को गति मिल सकती थी। लेकिन अधिकारियों के चलते अब तक न तो राज्य की अपनी फिल्म पॉलिसी बन पाई है और न ही सिनेमा हॉलों को कोई आदेश दिया जा सका है।
ऊषा शर्मा की इस राय से सहमत होने के बावजूद भोजपुरी जैसी क्षेत्रीय भाषाओं के सिनेमा का विस्तार सवाल खड़े करता है। यह सच है कि भोजपुरी का बाजार हरियाणवी की तुलना में बड़ा है। लेकिन यह भी सच है कि उसे न तो बिहार, न ही उत्तर प्रदेश और न ही झारखंड की सरकारों से कोई प्रोत्साहन मिल पाया है। इसके बावजूद कम से कम कमर्शियल स्तर पर भोजपुरी सिनेमा का विस्तार होता जा रहा है। इसका जवाब अश्विनी चौधरी की तकरीर में मिलता है। अश्विनी चौधरी ने कहा कि सिनेमा को बढ़ावा देने में मध्य वर्ग का भी योगदान होता है, लेकिन हरियाणा में कम से कम अपने सिनेमा से प्यार करने वाला मध्यम वर्ग विकसित नहीं हो पाया है। अगर इन तर्कों को ही आखिरी मान लिया जाएगा तो हरियाणवी ही नहीं, किसी भी भाषा और उसके सिनेमा के विकास की गुंजाइश कम होती जाएगी। इस मसले पर सबसे बढ़िया सुझाव रहा शीतल शर्मा का, जिनका कहना था कि अगर रचनात्मक लोग आगे आंएगें तो मध्यवर्ग को आकर्षित किया जा सकेगा और बोलियों की एक रूपता के संकट से भी पार पाया जा सकेगा।
गोष्ठी का संचालन कर रहे हरियाणा के मशहूर संस्कृतिकर्मी अनूप लाठर ने महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा कि बाजार तो चंद्रावल ने ही बना दिया था। यह बात और है कि उस बाजार की दिशा में हरियाणवी सिनेमा आगे नहीं बढ़ पाया। उनके मुताबिक शुरूआती हरियाणवी सिनेमा में प्रशिक्षित कलाकारों की कमी तो थी ही, आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल भी कम ही हुआ। अपनी फिल्म लाडो के संदर्भ में अश्विनी चौधरी भी इस तथ्य से सहमत नजर आ रहे थे।
ऐसी गोष्ठियों का मकसद किसी मुकम्मल नतीजे पर पहुंचना होता है। हालांकि यह गोष्ठी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाईं। लेकिन अजित राय के शब्दों में कहें तो ऐसी गोष्ठियां किसी मसले का रातोंरात हल नहीं सुझातीं, बल्कि बदलाव की जमीन तैयार करती हैं। ऐसे में यह उम्मीद करना बेमानी नहीं होगा कि हरियाणवी फिल्म के विकास की दिशा में यह गोष्ठी भी एक कदम जरूर साबित होगी।

रविवार, 3 अक्टूबर 2010

अलग –अलग विधा हैं साहित्य और सिनेमा



साहित्य और सिनेमा के रिश्ते की जब भी चर्चा होती है, हिंदी में एक तरह की वैचारिक गर्मी आ जाती है। किसी साहित्यिक कृति पर बनी फिल्म को लेकर अक्सर साहित्यकारों को शिकायत रहती है कि फिल्मकार या निर्देशक ने उसकी रचना की आत्मा को मार डाला। हिमांशु जोशी ने अपनी कहानी सुराज पर बनी फिल्म में मनमाने बदलाव के बाद भविष्‍य में अपनी कहानी पर फिल्म बनाने की अनुमति देने से कान ही पकड़ लिये। हालांकि राजेंद्र यादव, जिनके मशहूर उपन्यास सारा आकाश पर इसी नाम से फिल्म बन चुकी है, मानते रहे हैं कि कहानी और उपन्यास जहां लेखक की रचना होती है, वहीं फिल्म पूरी तरह निर्देशक की कृति होती है। कुछ ऐसा ही विचार हरियाणा अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टीवल के तीसरे दिन सिनेमा और साहित्य के रिश्ते पर आयोजित गोष्ठी में शामिल वक्ताओं के भी रहे।
मशहूर फिल्मकार के. बिक्रम सिंह का कहना है कि साहित्य और सिनेमा के रिश्ते पर चर्चा के वक्त हिंदी में विवाद की असल वजह है कि दरअसल हिंदी में विजुअल आधारित सोच का विकास नहीं हुआ है, बल्कि सोच में शाब्दिकता का जोर ज्यादा है। उनका कहना है कि सिनेमा में कला, संगीत, सिनेमॉटोग्राफी, कला निर्देशन जैसी कई विधाओं का संगम होता है। ऐसे में साहित्य को पूरी तरह से सेल्युलायड पर उतारना संभव नहीं होता। उन्होंने सत्यजीत रे की फिल्म पाथेर पांचाली का उदाहरण देते हुए कहा कि इस उपन्यास में जहां करीब पांच सौ चरित्र हैं, वहीं फिल्म में महज दस-बारह। उन्होंने श्रीलंका के मशहूर उपन्यासकार लेक्सटर जेंस पेरी का उदाहरण देते हुए कहा कि उनके उपन्यास टेकावा पर जब फिल्म बनी और उनसे प्रतिक्रिया पूछी गई तो पैरी ने कहा था कि उपन्यास उनका है, जबकि फिल्म निर्देशक की है। उन्होंने रवींद्र नाथ टैगोर के हवाले से कहा कि सिनेमा कला के तौर पर तभी स्थापित हो सकेगा, जब वह साहित्य से छुटकारा पा लेगा। हालांकि मशहूर फिल्म समीक्षक और कवि विनोद भारद्वाज ने रवींद्र नाथ टैगोर की कहानी चारूलता का उदाहरण देते हुए कहा कि अच्छे साहित्य पर अच्छी फिल्में बनाई जा सकती हैं। जिस पर सत्यजीत रे ने बेहतरीन फिल्म बनाई है। भारद्वाज ने शरत चंद्र के उपन्यास देवदास पर बनी विमल राय की फिल्म देवदास और अनुराग कश्यप की देव डी का उदाहरण देते हुए कहा कि एक ही कृति पर अलग-अलग ढंग से सोचते हुए अच्छी फिल्में जरूर बनाई जा सकती हैं। उनका सुझाव है कि साहित्यकारों को यह सोचना चाहिए कि महान साहित्यिक कृतियों के फिल्मांकन के वक्त छेड़छाड़ उस कृति की महानता से छेड़छाड़ नहीं है। साहित्यिक कृतियों पर बनने वाली फिल्मों की रिलीज के बाद साहित्य और सिनेमा के रिश्तों में आने वाली तल्खी का ध्यान फ्रेंच फिल्मकार गोदार को भी था। यही वजह है कि वे अच्छी और महान कृति पर फिल्म बनाने का विरोध करते थे। वैसे सिनेमा और साहित्य के रिश्ते को समझने के लिए फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे के पूर्व निदेशक त्रिपुरारिशरण नया नजरिया देते हैं। उनका कहना है कि चूंकि साहित्य का जोर कहने और सिनेमा का जोर देखने पर होता है, लिहाजा भारत में दोनों विधाओं के रिश्तों में खींचतान दिखती रही है। उनका मानना है कि चूंकि यूरोप में कहने और देखने का अनुशासन विकसित हो चुका है, लिहाजा वहां साहित्य और सिनेमा के रिश्ते को लेकर वैसे सवाल नहीं उठते, जैसे भारत में उठते हैं। शरण के मुताबिक यही वजह है कि भारत में प्रबुद्ध सिनेकार महत्वपूर्ण रचनाओं को छूना तक नहीं चाहते। उनका सुझाव है कि सिनेमा और साहित्य असल में दो तरह की दो अलग विधाएं हैं, लिहाजा उनके बीच तुलना होनी ही नहीं चाहिए।

पुस्तक समीक्षा


संपादकीय लेखन के विकास का गवाह

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी पत्रकारिता को शुरूआती दौर में वे सारी चुनौतियां झेलनी पड़ीं, जिनका सामना उदारीकरण के दौर में आए मीडिया बूम के पहले तक सामना करना पड़ रहा था पाठकों की संख्या, ग्राहकों की उदासीनता और पैसे की कमी ने हिंदी पत्रकारिता को शुरूआती दौर से ही परेशान किए रखा है। पिछली सदी के शुरूआती बरसों में ये चुनौतियां और भी पहाड़ सरीखी अंग्रेजी राज के दमन तंत्र के चलते हो जाती थीं। इसके बावजूद प्रताप नारायण मिश्र का चाहे ब्राह्मण नामक पत्र हो या फिर गणेश शंकर विद्यार्थी का प्रताप या फिर माधव राव सप्रे का छत्तीसगढ़ मित्र, हर पत्र का संपादक अपने दौर की समस्याओं को लेकर अपने संपादकीयों में चिंता जाहिर करता रहा है। तरूशिखा सुरजन के संपादन में आई किताब हिंदी पत्रकारिता का प्रतिनिधि संकलन के पृष्ठों से गुजरते हुए इसके बार-बार दर्शन होते हैं।
हिंदी पत्रकारिता में एक प्रवृत्ति आज भी देखने को मिलती है। अखबारों की तुलना में पत्रिकाओं को चलाना और उनमें लिखना-पढ़ना कहीं कम महत्वपूर्ण माना जाता रहा है। हैरत की बात यह है कि हिंदी पत्रकारिता के शुरूआती दौर में अपनी पत्रिकाओं को जमाने के लिए तब के संपादक लोगों को पत्रिकाओं को दैनिक अखबारों की तुलना में कहीं ज्यादा संग्रहणीय बताने की जरूरत महसूस होती थी। इस संकलन के शुरूआती संपादकीयों में ऐसी चिंताएं बार-बार दिखती हैं। सरस्वती के दिसंबर 1900 के अंक में उसके प्रकाशक ने अपनी परेशानियां गिनाते वक्त इसकी चर्चा की है। 438 पृष्ठ की इस भारी-भरकम किताब में शामिल हिंदी की पहली महिला पत्रिका बालबोधिनी के संपादक भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर रतलाम की सुगृहिणी की संपादक हेमंत कुमार चौधरी तक के संपादकीय जहां हमें उस दौर में स्त्रीशिक्षा को लेकर जताई जा रही चिंताओं से हिंदी पाठकों को रूबरू कराते हैं तो वहीं प्रताप, अभ्युदय, चांद, सरस्वती के संपादकीय राष्ट्रीय आंदोलन की चिंताओं और भाषा की समस्या से भरे पड़े हैं। विशाल भारत के अपने संपादकीय में सन 1940 में भी बनारसी दास चतुर्वेदी किसानों और मजदूरों की समस्याओं को लेकर अपनी चिंताएं जता चुके हैं। इस संकलन में जहां आजादी के पहले राष्ट्र को बनाने और उसके आजाद होने के बाद की नीतियों पर केंद्रित संपादकीय शामिल हैं, तो बाद के दौर के संपादकीय नेहरू के बाद कौन, पाकिस्तान से लड़ाई और आपातकाल की चिंताओं से पाठकों को रूबरू कराते हैं।
हिंदी पत्रकारिता में संपादकीय लेखन का किस तरह विकास हुआ है, इसे समझने में भी यह संकलन मददगार साबित होता है। हालांकि इसमें संपादन की सीमाएं भी दिखती हैं। खासतौर पर स्नेहलता चौधरी और हिंदी पत्रकारिता के आदि संपादक युगुल किशोर शुक्ल के संपादकीयों को सीधे-सीधे पेश करने की बजाय उन पर लिखे लेख पेश किए गए हैं। जिसका जिक्र अखबारी स्तंभों की तरह नीचे किया गया है। इससे इनकी पाठकीयता के आस्वादन में बाधा आती है।

किताब - हिंदी पत्रकारिता का प्रतिनिधि संकलन
संपादक – तरूशिखा सुरजन
प्रकाशक – राधाकृष्ण प्रकाशन
7 / 31, अंसारी मार्ग, दरियागंज
नई दिल्ली- 110002
मूल्य - रूपए 550 /