उमेश चतुर्वेदी
लिखने और फिर छपने के चस्का लगने के दिन थे.. उत्तर प्रदेश के आखिरी छोर पर स्थित बलिया में हिंदी साहित्य की पढ़ाई करते वक्त कलम ना सिर्फ चल पड़ी थी..बल्कि उसे राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में जगह भी मिलने लगी थी..तब के गांव आज की तुलना में कहीं ज्यादा गांव थे..ललित निबंधकार विवेकी राय के शब्दों को उधार लूं तो देसज गांव...जिसमें उसका भूगोल ही नहीं, अपनी सोच और संस्कृति भी समाहित होती थी...तब के गांवों में रोजाना देसी चूल्हे से उठता धुआं भी उन दिनों के गांवों को प्रदूषित नहीं कर पाया था...गांव आज की बनिस्बत कहीं ज्यादा लोकगीतों को अपने दिलों में संजोए बैठे थे..सावन की बदरिया के बीच धनरोपनी होती थी तो खेत-बधार में रोपनी के गीतों की झन्नाती मधुर आवाज गूंज उठती थी..धनरोपनी करते हाथों की चूड़ियों की खनक और गले की मधुर आवाज कब एकाकार हो जाती, कहना मुश्किल था..झींसी और बादलों के बीच लुका-छिपी करते सूरज की छाया में मकई के खेतों की सोहनी भी जैसे गूंजायमान हो जाती थी..शादी-विवाह के अनुष्ठान तो अपने पितरों को याद करने, उन्हें न्योतने और उनका आभार ज्ञापन करने के बिना पूरा ही नहीं होते थे..संझा-पराती के साथ खानदान की दो-चार बूढ़ी दादियां-परदादियां अपनी लरजती आवाज के साथ पितरों का सुबह-शाम आवाहन करतीं..संझा-पराती के गीतों में लय और मधुरता पर जोर देने की बजाय श्रद्धा पर कहीं ज्यादा ध्यान रहता था..रात को राम-जानकी मंदिर पर मुनिलाल कोंहार राम चरित मानस का कंठेसुर से पाठ करते तो गांव का पूरा सीवान जैसे तुलसी की भक्ति में डूब जाता...कभी-कभी सोरठी-बृजभार और सारंगा-सदावृक्ष के विरह-संघर्ष वाले कथागीत सीवान के किसी कोने से उभर आते और बिजलीविहीन गंवई रातों के सन्नाटे को अपने दर्द भरे सुर से चीर देते..लेकिन उस दर्द में भी एक अलग तरह का रोमांटिसिज्म होता..जिसका जिक्र करना आसान नहीं..बस उसे समझा जा सकता है..चैत राजा आते तो गेहूं, चना, अरहर की कटनी के साथ ही नए तरह के गीतों की लय फूटती और पछिया हवा के झोंकों के साथ खास तरह की तरन्नुम में खो जातीं..चैत-बैसाख और जेठ की रातों में महोबा के वीर भाईयों आल्हा-उदल की वीर रस वाली कहानियां उत्साहित लय में रात के किसी कोने से किसी पुरूष आवाज में गूंजती तो सीवान, खलिहान या अपने दुआरों पर खटिया पर लेवा बिछाकर सो रहे लोगों के कान उधर ही केंद्रित हो जाते...दुर्भाग्य.. अब वैसे गांव नहीं रहे...
दिन भर जिला मुख्यालय पर पढ़ाई और अपना कम, पड़ोसी बड़की माईयों या चाचियों के सौदे-सुलफ खरीदने, दवा जुटाने, किसी रिश्तेदार की मिजाज या मातमपुर्सी के बाद शाम को जब तक कोहबर की शर्त वाली चरबज्जी ट्रेन से गांव लौटते, तब तक मन-तन बुरी तरह थक चुका होता..फिर भी मन के कोने में कहीं न कहीं लिखने का उत्साह बचा रहता था..इन्हीं दिनों हाथ लगा लोक का एक गीत...सीता निष्कासन के संदर्भ का गीत..उस भोजपुरी गीत में अलग तरह का दर्द था..बेशक उस गीत में सीता के दर्द को ही सुर और अभिव्यक्ति मिली है..लेकिन सच कहें तो भोजपुरी इलाके की हर महिला के दर्द, उसकी पीड़ाओं को समाहित किए हुए है वह गीत...वैसे ही 1857 के बाद से लगातार शासकीय उपेक्षा की मार भोजपुरी इलाका झेल रहा है...दुर्भाग्यवश ही कहेंगे कि उसने लाल बहादुर शास्त्री, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर जैसे तीन-तीन प्रधानमंत्री दिए..कहने को तो मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी भोजपुरी इलाके के ही प्रतिनिधि हैं..हालांकि उन्हें भोजपुरी मनई नहीं माना जा सकता..शासकीय पिछड़ेपन की मार झेलती गाय-गोबर की उपेक्षा भरे विशेषण वाली भोजपुरी पट्टी में महिलाओं के हिस्से दर्द कुछ ज्यादा ही है.. बहरहाल सीता निष्कासन के उस भोजपुरी गीत ने ऐसा बांध लिया कि लगा दर्द की लहरियों से हम भी गुजरने लगे हैं..तब तक कलम चलने लगी थी और मैंने एक समीक्षात्मक लेख लिख डाला..तब रेनॉल्ड की बॉल प्वाइंट पेन बाजार में आई ही थी..उससे सफेद फुलस्केप कागज पर उस वक्त की समझ के मुताबिक लेख लिख डाला और टिकट लगे और अपना पता लिखे लिफाफे के साथ कादंबिनी पत्रिका के दिल्ली दफ्तर भेज दिया..तब कादंबिनी पत्रिका के संपादक राजेंद्र अवस्थी होते थे..बेशक तब मेरा नाम छपने लगा था..लेकिन छपने की तुलना में लेखों की वापसी की फ्रीक्वेंसी कहीं ज्यादा थी..इसलिए उम्मीद नहीं थी कि कादंबिनी जैसी गंभीर पत्रिका में मुझ जैसे गंवईं गंध का लेख छप जाएगा..लेकिन एक महीने बीते नहीं कि वापसी का लिफाफा तो नहीं लौटा..अलबत्ता एक छपा हुआ कार्ड जरूर मिला...जिस पर लिखा था कि आपका लेख प्रकाशनार्थ स्वीकार कर लिया गया है..धुर देहाती, गंवई गंध के बीच जिंदगी गुजार रहे उस किशोर के लिए वह कार्ड जैसे सफलता की नई सीढ़ी ही था, जिसने अभी जवानी की दहलीज पर कदम रखा ही हो..लेख शायद जून 1992 के कादंबिनी के अंक में छपा..तब बलिया में कादंबिनी की करीब पांच सौ प्रतियां आती थीं..तब कादंबिनी में लेखक का पता भी उसके लेख के साथ छपता था..जाहिर है कि लेख के साथ अपना भी पता छपा..पता छपा नहीं कि प्रतिक्रियास्वरूप चिट्ठियों की आमद शुरू हो गई..देश के कई कोनों से खत कई हफ्तों तक आते रहे..लेख तो आज भी छपते हैं..अव्वल तो अब डाक से चिट्ठियां तो आती ही नहीं..लेकिन यह भी सच है कि प्रतिक्रिया स्वरूप ईमेल भी कम ही आते हैं.. लेख की प्रशंसा तो खैर उनमें थी
ही..उन्हीं दिनों एक पोस्ट कार्ड आया.. उस पर चार लाइन का संदेश लिखा था...लाल स्याही से आमतौर पर चिट्ठियां तो नहीं ही लिखी जातीं..लेकिन गोरखपुर से आई वह चिट्ठी लाल रंग के हर्फों से चस्पा थी..उसमें संदेश था..आप आकाशवाणी के गोरखपुर केंद्र किसी दिन आएं। आपका ही, रवींद्र श्रीवास्तव उर्फ जुगानी भाई..सद्य: जवान होती शख्सियत और किशोरावस्था की ओर बढ़ती कलम के लिए यह खत मानो सफलता और उत्साह का नया सोपान था..पहली ही फुर्सत में सौ रूपए का नोट लेकर गोरखपुर के आकाशवाणी केंद्र के लिए बस से रवाना हो गए...तब अंदाज नहीं था कि सौ रूपए में गोरखपुर आना-जाना तो हो सकता है..लेकिन वहां के अपने और भी खर्चे हैं..भूख-प्यास भी है..शहर में रिक्शे-ठेले की यात्रा भी करनी होगी..बलिया जैसे पैदल नापने वाले छोटे शहर वाले मुझ गंवार के मन में गोरखपुर की छवि भी बलिया जैसी ही थी, जिसे पैदल नाप लिया जाता...हालांकि शहरों को लेकर अपनी कल्पना और बिंब गोरखपुर जाने के बाद थोड़ा बदले..लेकिन गलती तो हो चुकी थी..बहरहाल भूखे-प्यासे कंजूसी से यात्रा करते गोरखपुर रेडियो स्टेशन जा पहुंचे और जुगानी भाई से मुलाकात कर डाली..जुगानी भाई के बारे में बता दें कि भोजपुरी के जाने माने कवि हैं..कुछ-कुछ कैलाश गौतम की परंपरा के..तब गोरखपुर के आकाशवाणी केंद्र से शाम को प्रादेशिक समाचार के बाद प्रसारित होने वाले भोजपुरी कार्यक्रम देस हमार के वे प्रोड्यूसर थे..देस हमार में उन दिनों भोजपुरी कहानी, कविता या समीक्षा लेख प्रसारित किए जाते थे..रवींद्र जी ने कादंबिनी में लेख पढ़कर मुझ जैसे अनजान नवलिखुआ को ना सिर्फ गोरखपुर आने का नेवता दे दिया..बल्कि अगले हफ्ते के लिए देस हमार में प्रसारित करने के लिए भोजपुरी कहानी भी मांग ली..मुझे उस वक्त धर्मवीर भारती के मशहूर निबंध पश्यंती की याद आ गई..जिसमें मशहूर नाटककार लक्ष्मीनारायण मिश्र और भारती के नाटक अंधायुग को लेकर संस्मरण है...पिछली सदी के पचास के दशक में इलाहाबाद रेडियो स्टेशन पर भारती के नाटक अंधायुग को प्रसारित करने के लिए कुछ इसी अंदाज में लक्ष्मीनारायण मिश्र ने भारती से मांगा था..
दिल्ली में आकाशवाणी का मुख्यालय है...दिल्ली के तमाम अखबारों में अपने सैकड़ों लेख छप चुके हैं या छपते रहते हैं..अब तो लिखने के लिए किसी अखबार-पत्रिका से अनुरोध भी नहीं करना पड़ता..संपादकों का आग्रह और अनुग्रह बना रहता है...चीन रेडियो में कार्यरत छोटे भाई और आवाज के धनी पंकज श्रीवास्तव अक्सर दक्षिण एशिया फोकस कार्यक्रम के लिए पकड़ लेते हैं और दस से लेकर बीस मिनट तक की समीक्षाएं मुझ जैसे गंदी आवाज वाले से बोलवा लेते हैं..कभी-कभी रेडियो ईरान के लोग भी पकड़ लेते हैं..लेकिन आकाशवाणी के अफसरों का कभी अपने लेखन पर ध्यान नहीं गया...तो गोलबंदी में जकड़े सार्वजनिक टेलीविजन प्रसारकों का ध्यान भला कैसे जाता...हजारों लेख छपे हों तो अपनी बला से... दिल्ली की बीस साल की पत्रकारीय यात्रा में भारत सरकार के प्रसारक से कुल जमा तीन बार बुलावा मिला है..डॉक्टर लोहिया ने अपने एक लेख में दिल्ली में माला पहनाने वाली कौम का जिक्र किया है..उस लेख में लोहिया लिखते हैं कि सत्ताएं बदलती हैं..लेकिन माला पहनाने वाले नहीं बदलते..जाहिर है कि सत्ता तंत्र से फायदा वे ही उठाते हैं..तो क्या सार्वजनिक प्रसारकों को भी माला पहनाने वाली ही कौम पसंद आती है..जब-जब यह सवाल जेहन में उठता है...तब-तब रिटायर हो जुके रवींद्र श्रीवास्तव उर्फ जुगानी भाई जरूर याद आते हैं..डॉक्टर भारती का निबंध संग्रह पश्यंती का तो याद आना लाजमी ही है......
लिखने और फिर छपने के चस्का लगने के दिन थे.. उत्तर प्रदेश के आखिरी छोर पर स्थित बलिया में हिंदी साहित्य की पढ़ाई करते वक्त कलम ना सिर्फ चल पड़ी थी..बल्कि उसे राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में जगह भी मिलने लगी थी..तब के गांव आज की तुलना में कहीं ज्यादा गांव थे..ललित निबंधकार विवेकी राय के शब्दों को उधार लूं तो देसज गांव...जिसमें उसका भूगोल ही नहीं, अपनी सोच और संस्कृति भी समाहित होती थी...तब के गांवों में रोजाना देसी चूल्हे से उठता धुआं भी उन दिनों के गांवों को प्रदूषित नहीं कर पाया था...गांव आज की बनिस्बत कहीं ज्यादा लोकगीतों को अपने दिलों में संजोए बैठे थे..सावन की बदरिया के बीच धनरोपनी होती थी तो खेत-बधार में रोपनी के गीतों की झन्नाती मधुर आवाज गूंज उठती थी..धनरोपनी करते हाथों की चूड़ियों की खनक और गले की मधुर आवाज कब एकाकार हो जाती, कहना मुश्किल था..झींसी और बादलों के बीच लुका-छिपी करते सूरज की छाया में मकई के खेतों की सोहनी भी जैसे गूंजायमान हो जाती थी..शादी-विवाह के अनुष्ठान तो अपने पितरों को याद करने, उन्हें न्योतने और उनका आभार ज्ञापन करने के बिना पूरा ही नहीं होते थे..संझा-पराती के साथ खानदान की दो-चार बूढ़ी दादियां-परदादियां अपनी लरजती आवाज के साथ पितरों का सुबह-शाम आवाहन करतीं..संझा-पराती के गीतों में लय और मधुरता पर जोर देने की बजाय श्रद्धा पर कहीं ज्यादा ध्यान रहता था..रात को राम-जानकी मंदिर पर मुनिलाल कोंहार राम चरित मानस का कंठेसुर से पाठ करते तो गांव का पूरा सीवान जैसे तुलसी की भक्ति में डूब जाता...कभी-कभी सोरठी-बृजभार और सारंगा-सदावृक्ष के विरह-संघर्ष वाले कथागीत सीवान के किसी कोने से उभर आते और बिजलीविहीन गंवई रातों के सन्नाटे को अपने दर्द भरे सुर से चीर देते..लेकिन उस दर्द में भी एक अलग तरह का रोमांटिसिज्म होता..जिसका जिक्र करना आसान नहीं..बस उसे समझा जा सकता है..चैत राजा आते तो गेहूं, चना, अरहर की कटनी के साथ ही नए तरह के गीतों की लय फूटती और पछिया हवा के झोंकों के साथ खास तरह की तरन्नुम में खो जातीं..चैत-बैसाख और जेठ की रातों में महोबा के वीर भाईयों आल्हा-उदल की वीर रस वाली कहानियां उत्साहित लय में रात के किसी कोने से किसी पुरूष आवाज में गूंजती तो सीवान, खलिहान या अपने दुआरों पर खटिया पर लेवा बिछाकर सो रहे लोगों के कान उधर ही केंद्रित हो जाते...दुर्भाग्य.. अब वैसे गांव नहीं रहे...
दिन भर जिला मुख्यालय पर पढ़ाई और अपना कम, पड़ोसी बड़की माईयों या चाचियों के सौदे-सुलफ खरीदने, दवा जुटाने, किसी रिश्तेदार की मिजाज या मातमपुर्सी के बाद शाम को जब तक कोहबर की शर्त वाली चरबज्जी ट्रेन से गांव लौटते, तब तक मन-तन बुरी तरह थक चुका होता..फिर भी मन के कोने में कहीं न कहीं लिखने का उत्साह बचा रहता था..इन्हीं दिनों हाथ लगा लोक का एक गीत...सीता निष्कासन के संदर्भ का गीत..उस भोजपुरी गीत में अलग तरह का दर्द था..बेशक उस गीत में सीता के दर्द को ही सुर और अभिव्यक्ति मिली है..लेकिन सच कहें तो भोजपुरी इलाके की हर महिला के दर्द, उसकी पीड़ाओं को समाहित किए हुए है वह गीत...वैसे ही 1857 के बाद से लगातार शासकीय उपेक्षा की मार भोजपुरी इलाका झेल रहा है...दुर्भाग्यवश ही कहेंगे कि उसने लाल बहादुर शास्त्री, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर जैसे तीन-तीन प्रधानमंत्री दिए..कहने को तो मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी भोजपुरी इलाके के ही प्रतिनिधि हैं..हालांकि उन्हें भोजपुरी मनई नहीं माना जा सकता..शासकीय पिछड़ेपन की मार झेलती गाय-गोबर की उपेक्षा भरे विशेषण वाली भोजपुरी पट्टी में महिलाओं के हिस्से दर्द कुछ ज्यादा ही है.. बहरहाल सीता निष्कासन के उस भोजपुरी गीत ने ऐसा बांध लिया कि लगा दर्द की लहरियों से हम भी गुजरने लगे हैं..तब तक कलम चलने लगी थी और मैंने एक समीक्षात्मक लेख लिख डाला..तब रेनॉल्ड की बॉल प्वाइंट पेन बाजार में आई ही थी..उससे सफेद फुलस्केप कागज पर उस वक्त की समझ के मुताबिक लेख लिख डाला और टिकट लगे और अपना पता लिखे लिफाफे के साथ कादंबिनी पत्रिका के दिल्ली दफ्तर भेज दिया..तब कादंबिनी पत्रिका के संपादक राजेंद्र अवस्थी होते थे..बेशक तब मेरा नाम छपने लगा था..लेकिन छपने की तुलना में लेखों की वापसी की फ्रीक्वेंसी कहीं ज्यादा थी..इसलिए उम्मीद नहीं थी कि कादंबिनी जैसी गंभीर पत्रिका में मुझ जैसे गंवईं गंध का लेख छप जाएगा..लेकिन एक महीने बीते नहीं कि वापसी का लिफाफा तो नहीं लौटा..अलबत्ता एक छपा हुआ कार्ड जरूर मिला...जिस पर लिखा था कि आपका लेख प्रकाशनार्थ स्वीकार कर लिया गया है..धुर देहाती, गंवई गंध के बीच जिंदगी गुजार रहे उस किशोर के लिए वह कार्ड जैसे सफलता की नई सीढ़ी ही था, जिसने अभी जवानी की दहलीज पर कदम रखा ही हो..लेख शायद जून 1992 के कादंबिनी के अंक में छपा..तब बलिया में कादंबिनी की करीब पांच सौ प्रतियां आती थीं..तब कादंबिनी में लेखक का पता भी उसके लेख के साथ छपता था..जाहिर है कि लेख के साथ अपना भी पता छपा..पता छपा नहीं कि प्रतिक्रियास्वरूप चिट्ठियों की आमद शुरू हो गई..देश के कई कोनों से खत कई हफ्तों तक आते रहे..लेख तो आज भी छपते हैं..अव्वल तो अब डाक से चिट्ठियां तो आती ही नहीं..लेकिन यह भी सच है कि प्रतिक्रिया स्वरूप ईमेल भी कम ही आते हैं.. लेख की प्रशंसा तो खैर उनमें थी
ही..उन्हीं दिनों एक पोस्ट कार्ड आया.. उस पर चार लाइन का संदेश लिखा था...लाल स्याही से आमतौर पर चिट्ठियां तो नहीं ही लिखी जातीं..लेकिन गोरखपुर से आई वह चिट्ठी लाल रंग के हर्फों से चस्पा थी..उसमें संदेश था..आप आकाशवाणी के गोरखपुर केंद्र किसी दिन आएं। आपका ही, रवींद्र श्रीवास्तव उर्फ जुगानी भाई..सद्य: जवान होती शख्सियत और किशोरावस्था की ओर बढ़ती कलम के लिए यह खत मानो सफलता और उत्साह का नया सोपान था..पहली ही फुर्सत में सौ रूपए का नोट लेकर गोरखपुर के आकाशवाणी केंद्र के लिए बस से रवाना हो गए...तब अंदाज नहीं था कि सौ रूपए में गोरखपुर आना-जाना तो हो सकता है..लेकिन वहां के अपने और भी खर्चे हैं..भूख-प्यास भी है..शहर में रिक्शे-ठेले की यात्रा भी करनी होगी..बलिया जैसे पैदल नापने वाले छोटे शहर वाले मुझ गंवार के मन में गोरखपुर की छवि भी बलिया जैसी ही थी, जिसे पैदल नाप लिया जाता...हालांकि शहरों को लेकर अपनी कल्पना और बिंब गोरखपुर जाने के बाद थोड़ा बदले..लेकिन गलती तो हो चुकी थी..बहरहाल भूखे-प्यासे कंजूसी से यात्रा करते गोरखपुर रेडियो स्टेशन जा पहुंचे और जुगानी भाई से मुलाकात कर डाली..जुगानी भाई के बारे में बता दें कि भोजपुरी के जाने माने कवि हैं..कुछ-कुछ कैलाश गौतम की परंपरा के..तब गोरखपुर के आकाशवाणी केंद्र से शाम को प्रादेशिक समाचार के बाद प्रसारित होने वाले भोजपुरी कार्यक्रम देस हमार के वे प्रोड्यूसर थे..देस हमार में उन दिनों भोजपुरी कहानी, कविता या समीक्षा लेख प्रसारित किए जाते थे..रवींद्र जी ने कादंबिनी में लेख पढ़कर मुझ जैसे अनजान नवलिखुआ को ना सिर्फ गोरखपुर आने का नेवता दे दिया..बल्कि अगले हफ्ते के लिए देस हमार में प्रसारित करने के लिए भोजपुरी कहानी भी मांग ली..मुझे उस वक्त धर्मवीर भारती के मशहूर निबंध पश्यंती की याद आ गई..जिसमें मशहूर नाटककार लक्ष्मीनारायण मिश्र और भारती के नाटक अंधायुग को लेकर संस्मरण है...पिछली सदी के पचास के दशक में इलाहाबाद रेडियो स्टेशन पर भारती के नाटक अंधायुग को प्रसारित करने के लिए कुछ इसी अंदाज में लक्ष्मीनारायण मिश्र ने भारती से मांगा था..
दिल्ली में आकाशवाणी का मुख्यालय है...दिल्ली के तमाम अखबारों में अपने सैकड़ों लेख छप चुके हैं या छपते रहते हैं..अब तो लिखने के लिए किसी अखबार-पत्रिका से अनुरोध भी नहीं करना पड़ता..संपादकों का आग्रह और अनुग्रह बना रहता है...चीन रेडियो में कार्यरत छोटे भाई और आवाज के धनी पंकज श्रीवास्तव अक्सर दक्षिण एशिया फोकस कार्यक्रम के लिए पकड़ लेते हैं और दस से लेकर बीस मिनट तक की समीक्षाएं मुझ जैसे गंदी आवाज वाले से बोलवा लेते हैं..कभी-कभी रेडियो ईरान के लोग भी पकड़ लेते हैं..लेकिन आकाशवाणी के अफसरों का कभी अपने लेखन पर ध्यान नहीं गया...तो गोलबंदी में जकड़े सार्वजनिक टेलीविजन प्रसारकों का ध्यान भला कैसे जाता...हजारों लेख छपे हों तो अपनी बला से... दिल्ली की बीस साल की पत्रकारीय यात्रा में भारत सरकार के प्रसारक से कुल जमा तीन बार बुलावा मिला है..डॉक्टर लोहिया ने अपने एक लेख में दिल्ली में माला पहनाने वाली कौम का जिक्र किया है..उस लेख में लोहिया लिखते हैं कि सत्ताएं बदलती हैं..लेकिन माला पहनाने वाले नहीं बदलते..जाहिर है कि सत्ता तंत्र से फायदा वे ही उठाते हैं..तो क्या सार्वजनिक प्रसारकों को भी माला पहनाने वाली ही कौम पसंद आती है..जब-जब यह सवाल जेहन में उठता है...तब-तब रिटायर हो जुके रवींद्र श्रीवास्तव उर्फ जुगानी भाई जरूर याद आते हैं..डॉक्टर भारती का निबंध संग्रह पश्यंती का तो याद आना लाजमी ही है......
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आकाशवाणी और दूरदर्शन का आलम ये है की बिना गणेश परिकरमा के कुछ नहीं मिलता
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