रविवार, 27 सितंबर 2015

समाजवादी संवेदनशील व्यक्तित्व की याद

अमर उजाला में प्रकाशित
उमेश चतुर्वेदी
पुस्तक - बदरी विशाल
संपादक - प्रयाग शुक्ल
प्रकाशक - वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर
मूल्य - 250 रूपए
आज राजनीति खुद ही कमाई का साधन बन गई है, अब राजनेता स्वयं ही करोड़ों में खेलते हैं। लिहाजा उनके अनुयायी उनसे आर्थिक सहयोग और ताकत ही हासिल करने की उम्मीद और लालच में उनके अनुगामी बने रहते हैं। वैचारिकता की खुराक की उम्मीद अब राजनेताओं से कम ही की जाती है। सोचिए, अगर राममनोहर लोहिया से भी उनके अनुयायी सिर्फ आर्थिक ताकत ही हासिल करने की उम्मीद लगाए बैठे होते और उनके अनुगामी बने रहते तो क्या देश को झिझोड़ देने वाले विचार लोगों के सामने आ पाते, तब क्या देश को आलोड़ित करने वाली लोकसभा की तीन आने बनाम पंद्रह आने की बहस देशव्यापी चर्चा का विषय बन पाती। डॉक्टर राममनोहर लोहिया महज चार साल तक लोकसभा के सदस्य रहे, लेकिन पहले नेहरू, फिर शास्त्री और बाद में इंदिरा गांधी की सरकारों की नीतियों की कलई जिस अंदाज में उन्होंने संसद के सामने खोली, वैसा दशकों तक संसद की शोभा बढ़ाते रहे लोग नहीं कर पाए हैं। उनके विचार आज भी अगर जनमानस की स्मृतियों में ताजा हैं तो इसके बड़े कारक हैदराबाद के कारोबारी खानदान के चिराग बदरी विशाल पित्ती और कोलकाता के मारवाड़ी व्यापारी बालकृष्ण गुप्त परिवार है। हैदराबाद के निजाम के आर्थिक प्रबंधक रहे पित्ती परिवार को राजा की उपाधि मिली थी। उस परिवार के इकलौते चश्म-ओ-चिराग बदरी विशाल पित्ती का लोहिया विचार और हिंदी की गंभीर पत्रकारिता को अमोल योगदान है। इन्हीं बदरी विशाल की जिंदगी पर आधारित इसी नाम से वरिष्ठ सांस्कृतिक पत्रकार और लेखक प्रयाग शुक्ल ने संपादित की है। जिसमें बदरी विशाल की कलाप्रियता, साहित्यधर्मिता और सांस्कृतिक सोच को लेकर 21 हस्तियों ने अपने विचार लिखे हैं। इससे बदरी विशाल के सांस्कृतिक व्यक्तित्व की एक मुकम्मल तसवीर सामने आती है।
हैदराबाद में पूंजी के कारोबार में दबदबा रखने वाले पित्ती परिवार के वारिस बदरी विशाल पित्ती की जानकारी नई पीढ़ी को कम ही है। बदरी विशाल भले ही लोहिया के समाजवादी विचारों के बड़े समर्थक और प्राणपोषक रहे, लेकिन इससे कहीं इतर उनका सांस्कृतिक व्यक्तित्व बहुत बड़ा था। हिंदी के सांस्कृतिक जगत में 28 साल तक गंभीर विमर्श का जरिया रही कल्पना जैसी पत्रिका को बदरी विशाल ने बड़े जतन से प्रकाशित किया। हैदराबाद जैसी गैरहिंदीभाषी जगह से 1949 में निकली कल्पना 1978 तक निकलती रही, और हिंदी की केंद्रीय पत्रिका बनी रही। हिंदी जगत में अपनी लेखनी से रोशनी फैलाने वाली तमाम हस्तियों मसलन रघुवीर सहाय, प्रयाग शुक्ल, कमलेश जैसे लोग कभी न कभी कल्पना की संपादकीय टीम के हिस्से रहे। आजाद भारत में अंगीकार किए गए लोकतंत्र का गुणगान करते हम नहीं थकते। लेकिन हमने लोकतंत्र को सिर्फ और सिर्फ शासन व्यवस्था तक ही सीमित कर दिया है। हमारे समाज का आधारभूत अंग और सोच लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं बन पाई है। लोकतंत्र का चौथा खंभा होने का स्वघोषित दावा करने वाले मीडिया और प्रेस में अंदरूनी लोकतंत्र कितना है, इसका अंदाजा लोकतंत्र की समझ रखने वाले उन लोगों को कहीं ज्यादा है, जो मीडिया संस्थानों के हिस्से हैं। ऐसे माहौल में बदरी विशाल पित्ती ने कल्पना के संपादकीय में जो लोकतांत्रिक मूल्य भरे और लोकतंत्र की जो व्यवस्था की, वह प्रयाग शुक्ल के लेख – वह शालीन संवेदनशील व्यक्तित्व – में गहराई से नजर आता है। हाल ही में हिंदी के महत्वपूर्ण कवि कमलेश का निधन हो गया। कमलेश भी कल्पना की संपादकीय टीम के सदस्य रहे। यहीं से उनका परिचय डॉक्टर राममनोहर लोहिया से हुआ और वे लोहिया के सचिव बने। कमलेश ने बदरी विशाल पित्ती को अपने लेख – कर्तव्यबोध की कर्मठता- में शिद्दत से ना सिर्फ याद किया है, बल्कि पित्ती जी के सहज और संवेदनशील व्यक्तित्व को गहराई से उकेरा है। इस संस्मरण से पता चलता है कि पित्ती को नए रचनाकारों और उनकी क्षमता की कैसी समझ थी। सिर्फ 18-19 साल की उम्र में कमलेश दिल्ली में पित्ती जी से मिले और पित्ती जी ने उन्हें अपनी पत्रिका कल्पना में काम करने का प्रस्ताव दे दिया। कमलेश ने अपने संस्मरणात्मक लेख में लिखा है कि बदरी विशाल जी किस तरह हिंदी के महत्वपूर्ण लेखकों पर निगाह रखते थे और किस तरह उन्हें कल्पना से जोड़ते रहते थे। कल्पना बेशक हैदराबाद से निकलती थी, लेकिन उसमें देशभर के जाने-माने लेखक लिखा करते थे। हिंदी के महत्वपूर्ण लेखक कृष्ण बलदेव वैद का एक चर्चित उपन्यास है- विमल उर्फ जाएं तो जाएं कहां- इस उपन्यास को उस दौर में सभी अहम प्रकाशकों ने प्रकाशित करने तक से मना कर दिया था। उसका कथ्य उन दिनों लोगों को पच नहीं रहा था, लेकिन बदरी विशाल ने इसे छापने का जोखिम उठाया। इसका असर है कि यह उपन्यास हिंदी साहित्य की थाती बन गया है। वैद ने पित्ती जी से अपने रिश्ते को लेकर बेहद आत्मीय संस्मरण पत्र के अंदाज में लिखा है। प्रिय बदरीविशाल जी नाम से यह आलेख इस संकलन में अपनी खास जगह बना पाया है।
समाजवादी और कलाकारों की दुनिया जानती है कि देवी-देवताओं की नंगी पेंटिंग बनाकर चर्चा में रहे मशहूर पेंटर मकबूल फिदा हुसैन ने लोहिया की प्रेरणा से रामायण और महाभारत पर पेंटिंग की सीरिज बनाई है। पित्ती के हैदराबाद के महलनुमा घर मोतीमहल में डॉक्टर राममनोहर लोहिया से मकबूल फिदा हुसैन की कैसे मुलाकात हुई, इस पर खुद हुसैन ने एक लेख लिखा है। हैदाराबाद का मोती महल, डॉक्टर लोहिया, हुसैन और बदरीविशाल पित्ती नामक इस संस्मरण में इन चित्रों की रचना प्रक्रिया से पहले का सच दर्ज है। इस संस्मरण में लोहिया से मुलाकात और फिर आजीवन उनके कला सहयोगी रहने के लिए बने रिश्तों की आधारभूमि की चर्चा है। बदरी विशाल जी का व्यक्तित्व सही मायने में साहित्य और कलाओं का समाजवादी आधारभूमि पर बना संगम था। इस संगम को चित्रकार रामकुमार, लक्ष्मा गौड़, पंडित जसराज, स्वप्न सुंदरी जैसी कला जगत की निष्णांत हस्तियों ने अपने संस्मरणों में आत्मीय ढंग से याद किया है। वहीं रमेशचंद्र शाह, अजित कुमार, कुंवर नारायण आदि साहित्यकारों ने कल्पना को भी अपने ढंग से याद किया है। सुदूर गाजीपुर में रहते हुए विवेकी राय ने कल्पना में प्रकाशित साहित्य सर्वेक्षण पर इसी नाम से एक पुस्तक ही लिखी है। बेहतर होता कि उनसे भी एक संस्मरण लिखवाया गया होता।
आज लोहिया का साहित्य अगर जनमानस को उपलब्ध है, लोकसभा में दिए लोहिया के भाषणों को आज की राजनीतिक हस्तियां देश के बेहतर भविष्य के लिए अगर उद्धृत करती हैं तो इसकी बड़ी वजह बदरी विशाल पित्ती की सोच है। जिन्होंने पहले चेतना और बाद में नवहिंद प्रकाशन की स्थापना करके समाजवादी और मूल्यपरक साहित्य प्रकाशित किया। डॉक्टर लोहिया की पत्रिका मैन काइंड. तेलुगू मासिक जयंती और तेलुगू साप्ताहिक पोराटम के संपादकीय मंडल के भी सदस्य बदरी विशाल पित्ती रहे। 1948 से 1951 तक उन्होंने हैदराबाद से ही उदय नाम का साप्ताहिक पत्र निकाला। पूंजी के कारोबारी परिवार के बदरी विशाल कहा करते थे कि उन्होंने अपनी पैतृक संपत्ति में कुछ भी इजाफा नहीं किया है। बल्कि उसे गंवाया ही है। लेकिन साहित्य, कला और संगीत की उन्होंने जो सेवा की और उसे जो प्रोत्साहन-संरक्षण दिया है, वह अनमोल है और उसे विरासत याद करेगी। प्रस्तुत पुस्तक उनके इस गुण को उभारने में कामयाब रही है।
डॉक्टर लोहिया का कोई सहयोगी हो और उसकी तीक्ष्ण राजनीतिक सोच ना हो, यह कैसे हो सकता है। बदरी विशाल पित्ती भी समाजवादी सोच वाले राजनेता भी थे। 14 साल की उम्र में भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लेना, निजामशाही के खिलाफ आंदोलन करना मामूली बात नहीं है। हैदराबाद को भारत में मिलाने, बाद के दौर में अनाज के दाम कम करने और 1959 में अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के आयोजन जैसे राजनीतिक काम भी बदरी विशाल ने किए। सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर आंध्र विधानसभा के सदस्य भी रहे। लेकिन उनके राजनीतिक व्यक्तित्व पर पुस्तक में जानकारी तो है, लेकिन आलेख नहीं है। इससे उनका राजनीतिक व्यक्तित्व उभर कर सामने नहीं आ पाया है।

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