मंगलवार, 20 नवंबर 2007

टेलीविजन के खिलाफ

टेलीविजन के खिलाफ
उमेश चतुर्वेदी
वाराणसी का प्रशासन इन दिनों कुछ समाचार चैनलों के रिपोर्टरों के खिलाफ कार्रवाई करने में जुटा है। प्रशासन का कहना है कि चैनलों के रिपोर्टरों ने लाइव और सनसनीखेज स्टोरी जुटाने के चक्कर में कुछ विकलांगों को सल्फास खाकर जिला प्रशासन के सामने प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित किया, जिससे एक प्रदर्शनकारी ने वहीं पर दम तोड़ दिया , जबकि पांच ने अस्पताल में। पिछले साल पंद्रह अगस्त को बिहार के गया में भी एक चैनल के रिपोर्टर पर आरोप लगा था कि लाइव और सनसनीखेज स्टोरी के चक्कर में उसने एक शख्स को आग लगाने के लिए उकसाया था। उस शख्स का महीनों से वेतन बकाया था और उसकी कंपनी उसे वेतन नहीं मुहैया करा रही थी। उससे पहले पटियाला में भी एक व्यापारी ने नगर पालिका के अधिकारियों से परेशान होकर आग लगा ली थी। हालांकि इन तीनों घटनाओं में रिपोर्टरों की मंशा उन पीड़ितों को मारना नहीं था। लेकिन इसका परिणाम उल्टा ही हुआ।
दरअसल ये रिपोर्टर सही मायने में पत्रकारिता का वह धर्म ही निभा रहे थे- जिसमें मजलूम को व्यवस्था से न्याय दिलाना अहम माना जाता है। लेकिन आज टेलीविजन में खबरों या कार्यक्रमों के लिए जो मानक बन गए हैं- उसमें ड्रामा होना ज्यादा जरूरी माना जाता है। विजुअल माध्यम होने के चलते टेलीविजन में सीधी-सपाट बयानबाजी नहीं चलती और दुर्भाग्य से देसी टेलीविजन ने अपना जो व्याकरण तय किया है- उसका अहम हिस्सा ये नाटकबाजी ही बन गई है। जाहिर है तीनों जगहों पर रिपोर्टर अपनी स्टोरी तैयार कर रहे थे। लेकिन उनका तरीका गलत था- किसी जिंदगी दांव पर लगाकर स्टोरी तैयार की जाए- इसे सभ्य समाज स्वीकार नहीं करता।
ये तो हुई समाचार चैनलों की बात। इससे मनोरंजन वाले चैनल भी अलग नहीं हैं। जिस तरह भारत में टेलीविजन चैनलों का लगातार विस्तार हो रहा है- उससे कारपोरेट जगत अभिभूत है। मीडिया संस्थानों की पौ – बारह भी हो गई है। लेकिन समाजशास्त्री इससे चिंतित भी नजर आने लगे हैं। इसकी वजह ये हिंसा तो है ही- रोजाना की जिंदगी में टेलीविजन की लगातार बढ़ती घुसपैठ भी है। टेलीविजन के बिना आज की पीढ़ी के एक बड़े वर्ग को जिंदगी अधूरी लगने लगी है। जब से सास-बहू की कहानियों वाले धारावाहिकों का चलन बढ़ा है- महिलाओं को भी चैनलों के बिना दोपहर और रात का प्राइम टाइम सूना लगने लगा है। कुछ खास धारावाहिकों और खबरों के वक्त जरूरी से जरूरी काम को मुल्तवी करना आज घर-घर की कहानी बन गया है। लेकिन इस पूरी सामाजिक प्रक्रिया से अगर कुछ दूर हुई है तो जिंदगी से प्रकृति। शहरी आबादी के एक बड़े हिस्से का प्रकृति से नाता पार्कों और हफ्ते दस दिन की कुल्लू-मनाली या श्रीनगर की यात्रा ही रह गई है। हमारे यहां ये हालत तब है- जब अभी तक देश की शहरी आबादी से एक बड़े हिस्से को दस घंटे तक भी बिजली मयस्सर नहीं है। लाखों गांव अब भी ऐसे हैं – जहां बिजली अभी तक नहीं पहुंची है। जाहिर है वहां अभी तक टेलीविजन की वैसी पहुंच नहीं है, जैसे के बड़े,मझोले और छोटे शहरों तक है। लेकिन टेलीविजन की हिंसा का असर अब दिखने लगा है। टीवी देखकर अपने दोस्त को फांसी लगाने की एक घटना ने कानपुर को अभी कुछ ही महीने पहले हिला दिया था। इसी तरह एक बच्चे ने टेलीविजन से ही प्रेरित होकर चार साल की बच्ची को डूबा-डूबा कर मार डाला। बच्चों में मोटापा, ब्लड प्रेशर और आंखों की बीमारियों के लिए भी टेलीविजन को जिम्मेदार ठहराया जाने लगा है।
बहरहाल भारत में तो ये अभी शुरूआत ही है। लेकिन अमेरिकी समाज इससे खासा आक्रांत हो गया है। अमेरिका में ये हालत तब है- जब उसके यहां भारत की तुलना में काफी कम टेलीविजन चैनल हैं। लेकिन अमेरिका में टेलीविजन के खिलाफ एक आंदोलन शुरू हो गया है। दस साल पहले शुरू हुए इस आंदोलन में लोगों ने टेलीविजन का बहिष्कार करना शुरू कर दिया है। इसके तहत इस आंदोलन से जुड़े लोग हर साल एक हफ्ते के लिए अपने टेलीविजन सेट बंद कर देते हैं। इस साल भी 23 से 29 अप्रैल तक लोगों ने टेलीविजन बंद रखा। इस आंदोलन से जुड़े लोगों का मकसद टेलीविजन चैनलों को बंद करवाना नहीं था- बल्कि बुद्धू बक्से के दुष्परिणामों से लोगों को अवगत कराना था। इस अभियान में करीब सोलह हजार संस्थाओं ने हिस्सा लिया। इस अभियान को अमेरिकी मेडिकल एसोसिएशन, अमेरिकी एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स, नेशनल एजूकेशन एसोसिएशन, प्रेसिडेंट कौंसिल ऑफ फिजीकल फिटनेस एंड स्पोर्ट्स के अलावा अमेरिका के जाने - माने 70 संस्थानों का भी सहयोग और समर्थन था।
दस साल पहले शुरू हुए इस अभियान के तहत लोग खेत-खलिहानों के लिए निकल जाते हैं। इस अभियान का असल संदेश है जिंदगी का कुदरती तौर पर आनंद लेना। जाहिर है अप्रैल के आखिरी हफ्ते में अमेरिका के हजारों लोगों ने अपनी मनपसंद किताबें पढ़ीं, थियेटर देखा, चौराहे पर गपशप की यानी हर वह काम किया- जिसे करना वह टेलीविजन के चलते भूल चुके थे। अमेरिका और यूरोप में तो परिवार के आपसी संवाद भी कम होता जा रहा है। ये हालत अब अपने देश के शहरी इलाकों में भी दिखने लग रही है। बच्चे वक्त से पहले परिपक्व हो रहे हैं। इसके लिए टेलीविजन को ही दोष दिया जा रहा है।
अपने देश में भले ही ऐसे आंदोलन नहीं हैं। लेकिन टेलीविजन के खिलाफ आवाजें उठनी शुरू हो ही गईं हैं। कंटेंट कोड बिल की सरकारी तैयारी को भी इस विरोध से भी जोड़कर देखा जा सकता है। रिपोर्टरों की भूमिका पर भी सवाल उठने लगे हैं। ऐसे में वक्त आ गया है कि देसी टेलीविजन भी अपनी सामाजिक भूमिका की चुनौती को समझना शुरू करे। कई चैनल इस चुनौती को समझ-बूझ भी रहे हैं। लेकिन इसकी ओर कदम उठते नहीं दिख रहे हैं।

9 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

Namaskar Umesh ji
Samasya k peechhay mool kaaran vyavsaikta hai.

बेनामी ने कहा…

आपने सुचिंतित टिप्पणी की है, लिखते रहें. ब्लॉगजगत में मुँह सीने की कोई मजबूरी नहीं.

रविकान्त

विनीत कुमार ने कहा…

सरजी आप मीडिया में ड्रामे की बात कर रहे हैं, हमने तो ऐसा भी चैनल देखा है जो स्टोरी में परफेक्शन लाने के लिए कैंटीन को एक दिन के लिए बार में कन्वर्ट कर देती है और हमलोगों को बाहर जाकर खाना पड़ता है।

umesh chaturvedi ने कहा…

Bahut acha likhe hai. Bas dukh hota hai ye sab dekh kar lekin kar vi kya sakte hai. Sab kuch hai bas admi admi se dur hote ja raha hai ya kahe apne se dur hote ja raha hai.

--
Anjani Kumar Rai

umesh chaturvedi ने कहा…

blog achhaa hai panditji.
yashwant vyas

tungnath dubey ने कहा…

नमस्कार, सर जी

आपकी बाते काफी हदतक उन बदलावों की ओर इशारा करती हैं जो समाज में मीडिया के बढ़ते प्रचलन और प्रभावों की वजह से पैदा हुई हैं। अपने विस्तार के दौरान मीडिया ने समाज के सामने कई साकारात्मक मानदंड स्थापित किए लेकिन इस दौरान इसपर कई बार उंगलियां भी उठी..... विकास की राह में चुनौतियां आना लाजमी हैं और इससे हर किसी को दो चार होना पड़ता है.... आज मीडिया भी उसी दौर से गुजर रहा है.... जरूरी है कि मीडिया बाजारीकरण की चुनौतियों का सजगता से सामना करे और उस चकाचौंध से बाहर निकले जिसने आज इसे विशुद्द समाचार जगत से इन्फोटेनमेंट की दुनिया में तब्दील कर दिया है। शायद तभी लोकतंत्र का चौथा खंभा सुरक्षित रहेगा और उस बुद्दू बक्से की गरिमा भी बरकरार रहेगी जिसे अमेरिकी लोग एक ड्रेकुला की तरह समझने लगे हैं।

राजेश रंजन / Rajesh Ranjan ने कहा…

बढ़िया है लिखते रहिए...
रविकांत जी ने सही कहा है कि ब्लॉग ही ऐसी जगह है जहां आपकी आवाज को कोई रोक नहीं सकता है.

Amit Anand ने कहा…

सर, जिस वक्त आ गया है कि बात आप कर रहे हैं और कदम उठाने की बात आप कर रहे हैं ... ये कौन करेगा ? यदि आप-हम भी दूसरे के आगे आने का इंतजार करेंगे तो पहल कौन करेगा ? ये देश यूं भी महापुरुषों के लिए ही जाना जाता रहा है और शायद इन्हीं महापुरुषों की महिमा है कि आज भी औसत भारतीय दूसरों के आगे बढ़ने का इंतजार करता है और हमकदम न बन कर पीछे से सपोर्ट देने के लिए तैयार होता है। इसलिए यदि इसे बदलना है तो कदम हमें ही उठाने होंगे और तब ये नहीं चलेगा कि मुंह सी कर रखें। या तो आवाज न उठाएं और यदि उठाएं तो ताल ठोंक कर मैदान में आए .. यही एक उपाय है।

वैसे लेख के दूसरे हिस्से मुझे खासे पसंद आए।

बेनामी ने कहा…

यह काफी खुशी की बात है कि आपने वेब पर लिखना शुरू कर दिया। मीडिया पर लिखते रहने की आवश्यकता है ताकि यह मलाल न रहे कि पतन को रोकने की कोशिश की ही नहीं। उम्मीद है पत्रकारिता से जुड़े लोगों को आपका ब्लाग उपयोगी लगेगा।