बुधवार, 21 अक्टूबर 2015

सवाल भी कम नहीं हैं सम्मान वापसी अभियान पर

(आमतौर पर मेरे लेख अखबारों में स्थान बना लेते हैं..लेकिन यह लेख नहीं बना पाया..देर से छपने से शायद इसका महत्व कम हो जाए)
उमेश चतुर्वेदी
वैचारिक असहमति और विरोध लोकतंत्र का आभूषण है। वैचारिक विविधता की बुनियाद पर ही लोकतंत्र अपना भविष्य गढ़ता है। कोई भी लोकतांत्रिक समाज बहुरंगी वैचारिक दर्शन और सोच के बिना आगे बढ़ ही नहीं सकता। लेकिन विरोध का भी एक तार्किक आधार होना चाहिए। तार्किकता का यह आधार भी व्यापक होना चाहिए। कथित सांप्रदायिकता और बहुलवादी संस्कृति के गला घोंटने के विरोध में साहित्यिक समाज में उठ रही मुखालफत की मौजूदा आवाजों में क्या लोकतंत्र का व्यापक तार्किक आधार नजर आ रहा है? यह सवाल इसलिए ज्यादा गंभीर बन गया है, क्योंकि कथित दादरीकांड और उसके बाद फैली सामाजिक असहिष्णुता के खिलाफ जिस तरह साहित्यिक समाज का एक धड़ा उठ खड़ा हुआ है, उसे वैचारिक असहमति को तार्किक परिणति तक पहुंचाने का जरिया माना जा रहा है। 2015 का दादरीकांड हो या पिछले साल का मुजफ्फरनगरकांड उनका विरोध होना चाहिए। बहुलतावादी भारतीय समाज में ऐसी अतियों के लिए जगह होनी भी नहीं चाहिए। लेकिन सवाल यह है कि क्या क्या सचमुच बढ़ती असहिष्णुता के ही विरोध में साहित्य अकादमी से लेकर पद्मश्री तक के सम्मान वापस किए जा रहे हैं।

भारतीय संविधान ने भारतीय राज व्यवस्था के लिए जिस संघीय ढांचे को अंगीकार किया है, उसमें कानून और व्यवस्था का जिम्मा राज्यों का विषय है। चाहकर भी केंद्र सरकार एक हद से ज्यादा कानून और व्यवस्था के मामले में राज्यों के प्रशासनिक कामों में दखल नहीं दे सकती। लालकृष्ण आडवाणी जब देश के उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री थे, तब उन्होंने जर्मनी की तर्ज पर यहां भी फेडरल यानी संघीय पुलिस बनाने की पहल की दिशा में वैचारिक बहस शुरू की थी। जर्मनी में भी कानून और व्यवस्था राज्यों की जिम्मेदारी है। बड़े दंगे और अराजकता जैसे माहौल में वहां की केंद्र सरकार को फेडरल यानी संघीय पुलिस के जरिए संबंधित राज्य या इलाके में व्यवस्था और अमन-चैन बहाली के लिए दखल देने का अधिकार है। संयुक्त राज्य अमेरिका में संघीय पुलिस यानी फेडरल ब्यूरो ऑफ इनवेस्टिगेशन के जरिए केंद्र सरकार को कार्रवाई करने का अधिकार है। लेकिन आज कथित हिंसा के विरोध में अकादमी पुरस्कार वापस कर रहे लेखकों और बौद्धिकों की जमात में तब आडवाणी की पहल को देश के संघीय ढांचे पर हमले के तौर पर देखा गया था।
सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर में हुए दंगों या दादरी के पास बिसाड़ा गांव में गोमांस के नाम पर एक निर्दोष शख्स की हत्या की गई तो इनके लिए आखिर उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार को क्यों नहीं जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। कानून और व्यवस्था बनाए रखने में आखिरकार उत्तर प्रदेश की सरकार ही नाकाम साबित हुई है। अव्वल तो इस नाकामी के लिए मुलायम सिंह यादव की अगुआई वाली उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी समाजवादी पार्टी को भी जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। लेकिन न तो मुलायम सिंह पर सवाल उठे और न ही अखिलेश पर... अखिलेश के मंत्री इसी मामले को लेकर संयुक्त राष्ट्रसंघ में शिकायत करने का ऐलान करके एक तरह से भारतीय संविधान को चुनौती देते रहे। लेकिन सवालों के तीर उनकी तरफ भी नहीं मारे गए।
बांग्ला अखबार आनंद बाजार पत्रिका को दिए इंटरव्यू में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगर सफाई दी तो उनके सुर में लाचारगी भी थी। कानून और व्यवस्था की राज्यों को मिली संविधानप्रदत्त जिम्मेदारी में वे चाहकर भी दखल नहीं दे सकते। इसके बावजूद नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी को ही इन हिंसाओं के लिए जवाब देना पड़ रहा है। किसी भी लेखक ने मुलायम सिंह की जिम्मेदारी का सवाल ही नहीं उठाया। ऐसे में अगर आम जनता का एक बड़ा धड़ा यह पूछने लगे कि आखिर मुलायम सिंह यादव जैसी राजनीतिक ताकतों को सम्मानवापसी के हरावल दस्ते में शामिल लेखकों ने सवाल क्यों नहीं उठाया। क्या सिर्फ इसलिए कि वे मौजूदा वैचारिक धारा द्वारा तैयार धर्मनिरपेक्षता के खांचे में फिट होने वाली हस्ती हैं और भारतीय जनता पार्टी इस खांचे के बाहर की चीज है। जब चयनित सवाल उठते हैं तो जनता की प्रतिक्रिया कुछ तीखी होती है और यह प्रतिक्रिया ही है कि भारतीय जनता पार्टी केंद्र की सत्ता में काबिज है। बिहार में कांग्रेस और लालू-राबड़ी राज में कई नरसंहार हुए। तभी मानवता के सबसे बड़े पैरोकार बनी मौजूदा लेखक जमात को अभिव्यक्ति और मानवता की रक्षा की याद नहीं आई थी। तब भी लेखक बिरादरी ने उठने या विरोध करने का साहस नहीं दिखाया था। जब-जब ये संदर्भ याद आते हैं, आम लोगों को यह समझ में नहीं आता कि धर्मनिरपेक्षता के कथित ढांचे में सेट होने वाली राजनीतिक ताकतों के सारे गुनाह, सारे भ्रष्टाचार और हर तरह के अनाचार माफी के योग्य क्यों हैं। याद कीजिए,नब्बे के दशक के किंग मेकर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत की नजर में लालू और मुलायम धर्मनिरपेक्षता के बड़े अलंबरदार थे..तो क्या यही वजह रही कि कभी उनके राजकाज के अनाचार पर सवाल नहीं उठ पाए..
बेशक सम्मान वापसी का सिलसिला उदय प्रकाश ने शुरू किया। लेकिन उन्होंने अपना सम्मान कन्नड़ लेखक कलबुर्गी की हत्या के विरोध में वापस किया। कलबुर्गी की हत्या की जितनी भी निंदा की जाय, वह कम है। लेकिन सांप्रदायिकता विरोध के नाम पर उन्होंने जैसा अभियान चला रखा था, जिस तरह वे बहुसंख्यक मानसिकता से धर्मनिरपेक्षता के नाम पर खिलवाड़ कर रहे थे, उस पर भी विचार किया जाना चाहिए। सम्मान और पुरस्कार वापसी के मौजूदा अभियान को गति पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की फुफेरी बहन और अंतरराष्ट्रीय ख्याति की अंग्रेजी लेखिका नयनतारा सहगल के कदम से मिली..जब उन्होंने साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस किया। उन्हें 1986 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। उनके विरोध को एक हद तक तार्किक आधार इसलिए मिला हुआ है, क्योंकि 1975 में अपनी ममेरी बहन इंदिरा गांधी द्वारा थोपे गए आपातकाल का विरोध किया था। लेकिन सवाल यह भी है कि 1986 के बाद उन्हीं दिनों पंजाबी के मशहूर कवि पाश की सिख आतंकियों ने हत्या की, 1992 में बाबरी ढांचा गिराया गया, 1993 में मुंबई में सीरियल धमाके करके सैकड़ों मासूमों की जान ले ली गई, 1999 में कोयंबटूर में सीरियल धमाके हुए, 2006 में दिल्ली में सीरियल धमाके हुए, 2008 में भी दिल्ली को निशाना बनाया गया, जम्मू-कश्मीर में 2001 में छतीसिंहपुरा में सिखों का नरसंहार हुआ, 1990 में रूबिया सईद का अपहरण हुआ, सुल्तानपुर के कवि मान बहादुर सिंह की हत्या हुई, उड़ीसा में पादरी ग्राहम स्टेंस की हत्या की गई, तब नयनतारा सहगल की संजीदगी कहां गई थी...अगर यह सवाल पूछा जाएगा तो निश्चित तौर पर इसके जवाब की अपेक्षा भी की जाएगी।
रही बात अशोक वाजपेयी की..तो उनकी ख्याति सरकार पोषित संस्कृतिकर्मी के रूप में रही है, जिसे अर्जुन सिंह के कांग्रेसी राज की सरपरस्ती में फलने-फूलने का मौका मिला। उसके जरिए उन्होंने सत्ता तंत्र से लगायत संस्कृति की दुनिया में जबर्दस्त पैठ बनाई। आज सांप्रदायिकता के विरोध में लेखकीय समाज के सम्मान वापसी अभियान की अगुआई उन्होंने ही संभाल रखी है। लेकिन यह भी सच है कि जिस नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली मौजूदा सरकार के विरोध में यह अभियान वे चला रहे हैं, उसकी पूर्वज अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की ही कृपा से वे वर्धा के केंद्रीय महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर हाजिर-नाजिर रहे और वर्धा से करीब ग्यारह सौ किलोमीटर दूर दिल्ली में विश्वविद्यालय का सालों तक कुलपति कार्यालय चलाते रहे। तब उन्हें नैतिकता का कोई संकट नहीं था। अब यह ज्ञात तथ्य है कि तीन हजार से ज्यादा लोगों की मौत की वजह दिसंबर 1984 की भोपाल गैस त्रासदी के खलनायक वारेन एंडरसन को उनके ही आका अर्जुन सिंह ने देश से भागने में मदद दी थी। तब अशोक वाजपेयी मध्य प्रदेश सरकार के ताकतवर सांस्कृतिक नौकरशाह थे। लेकिन उन्हें तब भी परेशानी नहीं हुई। तब देश की बहुलतावादी संस्कृति पर उन्हें खतरा नजर नहीं आया। भोपाल गैस त्रासदी की वजह से पूरा देश सदमे और शोक में था, तब उन्होंने भोपाल के भारत भवन में पहले से तय कवि सम्मेलन यह कहते हुए नहीं टाला था कि मरने वालों के साथ मरा नहीं जाता। वैसे राजधानी दिल्ली में दबी जुबान में यह भी कहा जा रहा है कि संस्कृति के इस शहंशाह को मौजूदा सरकार भाव नहीं दे रही और साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से उनके रिश्ते ठीक नहीं हैं..माना जा रहा है कि शायद यही वजह है कि उन्होंने साहित्यिक-सांस्कृतिक वर्चस्व बनाए रखने और सरकार को कठघरे में खड़ा करने के लिए यह अभियान शुरू किया है...
ऐसे में अगर हिंदी के शीर्ष और शलाका पुरूष नामवर सिंह यह कहते हैं कि अकादमी और भारत सरकार का सम्मान वापस करके दरअसल लेखक सुर्खियां बटोर रहे हैं, तो उस पर भरोसा ना करने का कोई कारण नजर नहीं आता। हिंदी के लेखकों का संकट यह भी है कि अपनी तमाम मूर्धन्य रचनाधर्मिता के बावजूद भारतीय समाज उन्हें तवज्जो नहीं देता। कलिकथा वाया बाईपास जैसे उपन्यास की लेखिका अलका सरावगी ने फेसबुक पर पुरस्कार वापस न करने के लिए भी सफाई दी है। सरावगी कारोबारी परिवार की बेटी और बहू हैं। उन्हें पैसे की कमी नहीं है। लेकिन सवाल उसूलों का है। लिहाजा उन्होंने लिखा है कि वे इसलिए पुरस्कार नहीं वापस कर रहीं, क्योंकि उन्हें इसे किसी सरकार ने नहीं दिया है। जब जरूरत होगी तो वे राजसत्ता के खिलाफ बोलेंगी और लिखेंगी। लेकिन जनता के पैसे से चल रही स्वायत्त अकादमी के सम्मान को वापस करके वे अकादमी और भारत के लोगों का अपमान नहीं कर सकतीं। सरावगी के इस बयान से जाहिर है कि वापस कर रहे लोगों ने सम्मान वापसी का दबाव उन पर भी बनाया था। लेखकों के मौजूदा अभियान से सिर्फ एक ही संदेश जा रहा है..कि यह विरोध महज नरेंद्र मोदी के विरोध के लिए है। अगर ऐसा है तो आने वाले दिनों में मोदी विरोधी अभियान चलाने वालों को आम लोगों के सामने जवाब देना मुश्किल हो जाएगा...

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