शनिवार, 3 जनवरी 2015

भोजपुरी के संघर्ष की मुकम्मल किताब

उमेश चतुर्वेदी
किताब का नाम: तलाश भोजपुरी भाषायी अस्मिता की
लेखक: अजीत दुबे
प्रकाशक: इंडिका इन्फोमीडिया 
मूल्य: 400 रुपये
तकनीक के विस्तार और सूचना क्रांति के दौर में जब दुनिया ग्लोबल गांव के तौर पर तब्दील हो रही हो, तब स्थानीयता स्थानिकता देसज सोच और पारंपरिक संस्कृति का कोई मतलब ही नहीं रह जाता लेकिन मनुष्य के जीवन में अगर आज भी ये चीजें मायने रखती हैं तो निश्चित तौर पर इसका श्रेय हजारों साल के मानवीय विकासक्रम और इसके जरिए परंपरा और संस्कृति को लेकर स्थापित सोच को ही जाता है यही वजह है कि भाषा और उसकी स्थानीयता आज दुनिया भर में राजनीति का औजार और कारण दोनों बन गए हैं...चेकोस्लोवाकिया के विभाजन की पृष्ठभूमि में चेक और स्लोवाक भाषाओं की भी भूमिका रही...भारत में भाषाएं अब भी राजनीतिक हथियार और सांस्कृतिक संघर्ष का जरिया बनी हुई हैं....तमिल बंगला और मराठी जैसी भाषाओं को लेकर उन्हे बोलने वालों का आग्रह इसका उदहारण है...दुर्भाग्यवश आजादी के बाद हिंदी भारतीयता और भारतीय राजनीति का हथियार नहीं बन पाई जबकि आजादी के पहले वह भारतीयता और राष्ट्र की भाषायी अस्मिता का प्रतीक थी...जाहिर है कि आजादी के बाद जब हिंदी ही राजनीतिक हथियार नहीं बन पाई तो उसकी सहोदर भाषाएं अवधी- भोजपुरी कैसे हथियार बन पाती...लेकिन 17 मई 2012 को जब भारतीय राजनीति के एलीट चेहरे और तब के गृहमंत्री पी चिदंबरम ने लोकसभा में भोजपुरी में लोगों की भावनाओं को समझने का विचार जाहिर किया, तब माना गया कि भोजपुरी भले ही राजनीतिक हथियार न बन पाए लेकिन उसकी अहमियत जरुर समझी जाएगी...

दिल्ली में मैथिली-भोजपुरी अकादमी के उपाध्यक्ष अजीत दुबे ने मौजूदा भारतीय भाषायी अभियान में पिछड़ती रही भोजपुरी की अस्मिता और उसे राजकीय मान्यता दिलाने की कोशिशों को लिपिबद्ध करने की कोशिश-तलाश भोजपुरी भाषायी अस्मिता की- पुस्तक में की है...भोजपुरी का संकट ये है उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में अब तक जगह हासिल नहीं हो पाई है...जबकि यह भारत में बोलने वाले लोगों के बड़े वर्ग की बानी है...16 देशों में करीब 20 करोड़ लोग की जिन्दगी दैनंदिन घटनाएं और दूसरे काम इसी भाषा के जरिए होते हैं...दूसरे शब्दों में कहें तो 20 करोड़ लोगों की यह भाषा धड़कन है....

अजीत दुबे ने सिर्फ यह गिनाने की कोशिश नहीं की है कि भोजपुरी इलाके ने भारतीयता को स्थापित करने वाले कितनी विभूतियों को जन्म दिया...बल्कि आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने को लेकर भोजपुरी के आधार को तार्किक ढंग से पेश करने की भी कोशिश की है...तेलगू देशम की तर्ज पर करीब दो दशक पहले भोजपुरी देशम की कोशिश लालू यादव ने की थी..लेकिन अपनी तमाम लोकप्रियता के बावजूद वे भोजपुरी देशम राज्य की मांग को जन लहर नहीं बना पाए थे...इसकी वजह यह है कि भोजपुरी इलाके के लोगों में राष्ट्रीयता की अवधारणा स्थानीयता की भावना पर कहीं ज्यादा हावी रही है...एक तर्क यह भी है कि भोजपुरी जैसी किसी भी भाषा का तार्किक आधार बनाने में ऐसे दस्तावेजीकरण भी औजार का ही प्रतीक होते हैं....इस किताब के जरिए भोजपुरी को राजनीतिक औजार बनाने की कोशिश अजीत दुबे ने की है... किसी भाषा के आठवीं अनुसूची में शामिल होने का मतलब और उससे होने वाले फायदे क्या है...इसके अलावा  भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने का सम्मान देने में सरकार हिचकिचा क्यों रही है?  ऐसे तमाम सवालों का जवाब देने की इस किताब में कोशिश की गई है

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