उमेश चतुर्वेदी
(यह समीक्षा पांचजन्य के 05 अप्रैल 2015 के अंक में संपादित करके प्रकाशित की जा चुकी है)
उदात्त भारतीय परंपराओं
के बिना भारतीय संस्कृति की व्याख्या और समझ अधूरी है। सनातनी व्यवस्था अगर पांच
हजार सालों से बनी और बची हुई है तो इसकी बड़ी वजह उसके अंदर सन्निहित उदात्त
चेतना भी है। पश्चिम की विचारधारा पर आधारित लोकतंत्र के जरिए जब से नवजागरण और
कथित आधुनिकता का जो दौर आया, उसने सबसे पहले सनातनी व्यवस्था को दकियानुसी ठहराने
की की कोशिश शुरू की। सनातनी संस्कृति के पांच हजार साल के इतिहास के सामने
अपेक्षाकृत बटुक उम्र वाली संस्कृतियां भी अगर हिंदू धर्म और संस्कृति पर सवाल
उठाने का साहस कर पाईं तो उसके पीछे पश्चिम आधारित लोकतंत्र और आधुनिकता की
अवधारणा बड़ी वजह रही। लेकिन इसी अवधारणा के दौर में एक शख्स अपनी पूरी सादगी और
विनम्रता के साथ तनकर हिंदुत्व की रक्षा में खड़ा रहा। उसने अपनी दृढ़ प्रतिज्ञा
और कठिन तप के सहारे आधुनिकता के बहाने हिंदुत्व पर हो रहे हमलों का ना सिर्फ
मुकाबला करने की जमीन तैयार की, बल्कि देवनागरी पढ़ने वाले लोगों के जरिए दुनियाभर
में हिंदुत्व, सनानती व्यवस्था, सनातनी ज्ञान और उदात्त संस्कृति को प्रस्तारित
करने में बड़ी भूमिका निभाई।
गोरखपुर में गीता प्रेस के जरिए हिंदुत्व के
प्रचार-प्रसार के साथ ही सनानती ज्ञान की ज्योति को जनमानस में फैलाने में हनुमान
प्रसाद पोद्दार का योगदान अप्रतिम है। भाई जी के नाम से विख्यात हनुमान प्रसाद
पोद्दार की महत्वपूर्ण सेवा को स्वतंत्रता आंदोलन और उसके बाद के करीब आधे दशक तक
ना सिर्फ राजनीति, बल्कि समाज और साहित्य की बड़ी हस्तियों ने भी सम्मान किया।
बेशक आज ईमेल और एसएमएस का जमाना है, लिहाजा गहन वैचारिक चिंतन, संवाद और विमर्श
की प्रक्रिया पूरी तरह ठप पड़ती जा रही है। सोशल मीडिया पर जो विमर्श हो भी रहा
है, उसमें गहराई कम, उथलापन ज्यादा है। इसके साथ ही उस पर तात्कालिकता का जोर है।
विमर्श के संदर्भ बेशक तत्कालिक होते हैं। लेकिन उनकी गहराई एक दौर का विश्लेषण
करती है और एक बड़े दौर के वैचारिक आयामों का अक्स भी होती है। भाई जी के साथ हुए
विभिन्न हस्तियों के पत्रव्यवहार में इसके बार-बार दर्शन होते हैं।
हिंदी पत्रकारिता के
पुरोधा पुरूष और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति
रहे अच्युतानंद मिश्र ने भाई जी के साथ हुए समाज और राजनीति की तमाम हस्तियों के
पत्रव्यवहार को संपादित किया है। पत्रों में समय संस्कृति नाम की पुस्तक को पांच
खंडों में विभाजित किया गया है। इसमें अहम खंड कुछ अन्य पत्र नाम से परिशिष्ट लगती
है। इसमें शामिल तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को लिखा पत्र
हनुमान प्रसाद पोद्दार के व्यक्तित्व की ऊंचाई और गहराई दोनों को समझने के लिए
काफी है। इस पत्र में भाई जी ने खुद के प्रति पंत के लिखे पत्र को उद्धृत किया है-
“ आपने मेरे लिए लिखा है
कि आप इतने महान हैं, इतने ऊंचे महामानव हैं कि भारतवर्ष को क्या, सारी मानवी
दुनिया को इसके लिए गर्व होना चाहिए। मैं आपके स्वरूप के महत्व को न समझकर ही आपको
भारत रत्न की ऊपाधि देकर सम्मानित करना चाहता था। आपने उसे स्वीकार नहीं किया, यह
बहुत अच्छा किया। आप इस उपाधि से बहुत-बहुत ऊंचे स्तर पर हैं। मैं तो आपको हृदय से
नमस्कार करता हूं। ”
आज के दौर में जब बिना किसी सामाजिक सरोकार के कुछ हजार रन, कुछ शतक ठोक कर लोग
भारत रत्न बन जाते हैं और उनकी सर्वत्र जै-जैकार होने लगती है, उसी भारत रत्न के
प्रस्ताव को लेकर कभी राजेंद्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरू की सहमति से तब के
गृहमंत्री गोविंद बल्लभ पंत गोरखपुर जैसी जगह पर जाते हैं और भाई जी नाम से
विख्यात शख्सीयत इसे स्वीकार करने से विनम्रता से इनकार कर देती है। इससे अंदाजा
लगाया जा सकता है कि हनुमान प्रसाद पोद्दार कितने बड़े सज्जन थे और तब की राजनीति
कितनी ऊंची थी।
आज हिंदुत्व की चर्चा
करने वाले राजनेता पर निश्चित तौर पर कथित प्रगतिगामी धारा का विरोधी घोषित होने
और निशाने पर आने का खतरा है। लेकिन भाई जी के इस पत्रव्यवहार संकलन को पढ़कर आपको
पता चलेगा कि पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद किस तरह की चीजें पढ़ना चाहते थे और
गीताप्रेस की पत्रिका कल्याण में कैसी सामग्री छपने का सुझाव देते थे। इस संग्रह
में भाई जी को लिखे गांधी जी के भी पत्र शामिल हैं। जिनमें उन्होंने कल्याण के
रामायणांक पढ़ने, ईश्वर की सत्ता को मानने का सुझाव है। 8 अप्रैल 1932 के पत्र में
गांधी जी खुद भी लिखते हैं कि ईश्वर में विश्वास रखने से ही मैं जिंदा बच गया। इस
संग्रह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक गुरू गोलवलकर जी के भी
पत्र हैं। जिसमें उन्होंने हनुमान प्रसाद पोद्दार से वक्त पर लेख लिख न पाने के
लिए क्षमा मांगी है। संन्यासी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी के स्वास्थ्य में गिरावट पर
चिंता भी जाहिर की है। यहां यह बता देना जरूरी है कि गोलवलकर जी पोद्दार जी के
अनुरोध पर कल्याण के लिए लेख भी लिखा था। उनका लेख विशुद्ध प्रेममयी मानवता, कल्याण
के 33 वें वर्ष के विशेषांक मानवता अंक में प्रकाशित हुआ था। पोद्दार जी मुंबई
राज्य के गवर्नर रहे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता श्रीप्रकाश जी के भी सतत संपर्क में
रहे और उन्हें भी लिखने के लिए प्रेरित करते रहे।
इस संग्रह से पता चलता
है कि समाज और राजनीति की दुनिया में सक्रिय लोगों से लिखवाने के लिए हनुमान
प्रसाद पोद्दार जी कितने सक्रिय रहते थे। प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अध्यक्ष
प्रेमचंद ने भी उनके लिए श्रीकृष्ण और भावी जगत नाम से लेख लिखा था। सूर्यकांत
त्रिपाठी निराला भी उनके लिए प्रबंध कवित्त लिखते रहे। हिंदी में वियोगी हरि के
नाम से विख्यात हरिप्रसाद द्विवेदी की ख्याति गांधीवादी पत्रकार के तौर पर रही है।
उन्होंने भी कल्याण और गीता प्रेस के लिए लिखा। इस संग्रह में शामिल उनके 22
सितंबर 30 के लिखे पत्र से जाहिर है कि उन्हें उस वक्त आर्थिक दिक्कतें थीं और उस
दौर में उन्हें पोद्दार जी ने लिखवाकर मदद की थी। संत साहित्य के मर्मज्ञ के तौर
पर मशहूर रहे बलिया के पंडित परशुराम चतुर्वेदी ने भी उत्तर भारत के कुछ संतों की
जीवनियां पोद्दार जी के लिए लिखी थीं। इस संग्रह में अमिताभ बच्चन के पिता हरिवंश
राय बच्चन का भी एक पत्र शामिल है। जिससे पता चलता है कि उन्होंने भी जनगीता गीता
प्रेस के लिए लिखी और उसकी कॉपी सुधारी थी।
लक्ष्मीनारायण गर्दे, विश्वनाथ मिश्र, विद्यानिवास मिश्र, आदि-आदि कितनी ही
हस्तियों से लिखना, उनके मंतव्य जानना और इसके जरिए कल्याण को संस्कृतिपयोगी बनाने
में पोद्दार जी बड़ी भूमिका रही। कहना न होगा कि पिछली सदी के तीसरे दशक से लेकर
छठवें दशक तक तमाम लोगों को प्रेरित करने, उनसे काम कराने में भाई जी का योगदान
अप्रतिम रहा। हिंदी समाज में प्रभुदत्त ब्रह्मचारी के काम को गोरखपुर के गीता
प्रेस के जरिए भी दुनिया ने ज्यादा जाना है। पोद्दार जी से उनके संवाद के कई पत्र
इस संग्रह में शामिल है। जिससे पता चलता है कि उन्हें पिछली सदी के चौथे-पांचवे
दशक में में साठ रूपए महीने की जरूरत थी। जिसमें वे कुछ रूपए अपने साथ रहने वाले
कथावाचक पंडित को भी देते थे। ताकि उनका परिवार चलता रहे। लेकिन ब्रह्मचारी जी इस
रकम के बदले गीता प्रेस के लिए किताबें और धार्मिक ग्रंथों के भाष्य और टीकाएं
लिखा करते थे। इस संग्रह में पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी का भी वह पत्र शामिल है,
जिसमें उन्होंने पोद्दार जी को खरी-खरी सुनाई है।
संग्रह से गुजरते हुए
पता चलता है कि पोद्दार जी के तौर पर मौन तपस्या ने किस हद तक भारतीयता की सेवा की
है। इसके पीछे उनकी लगन, उनका सेवाभाव और अथाह करूणामयी पीड़ा भी थी। करूणामयी
पीड़ा और संकल्प से गुजरते हुए पता चलता है कि पंडित कृष्ण बिहारी मिश्र का सुझाया
पुस्तक का नाम सही अर्थों में समीचीन बन पड़ा है। अच्युतानंद जी ने पत्रों में
सचमुच समय और संस्कृति को ही समेटने का काम किया है।
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