रविवार, 8 नवंबर 2015

सम्मान वापसी बनाम किताब वापसी



उमेश चतुर्वेदी

वैचारिक असहमति और उन असहमतियों के आधार पर विमर्श होना लोकतांत्रिक समाज का भूषण होता है..लेकिन कथित असहिष्णुता के खिलाफ जारी साहित्यिक-सांस्कृतिक-फिल्मी और वैज्ञानिक जगत में जारी वैचारिक आलोड़न को क्या इसी कसौटी पर देखा-परखा जा सकता है ? सम्मान वापसी के विरोधी आरोप लगा रहे हैं कि भले ही सम्मान वापस करने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही है, लेकिन इसके पीछे राजनीतिक विचार और ताकतें काम कर रही हैं। इसके लिए सम्मान वापसी विरोधियों को एक पर एक होती रही घटनाओं ने तार्किक सवाल उठाने का मौका दे दिया है...प्रतिरोध की आवाजों के उठने के अगले ही दिन देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी असहिष्णुता के खिलाफ राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के दरबार पहुंच गईं। यह तो उनकी व्यक्तिगत मुलाकात थी। इसके ठीक अगले दिन उन्होंने सवा सौ नेताओं के लाव-लश्कर समेत बाकायदा जुलूस निकालकर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से शिकायत कर डाली। मौजूदा दौर में एजेंडा तय करना और किसी भी घटना या हादसे को उत्सवी रंग देना मीडिया का काम हो गया, लिहाजा असहिष्णुता का यह लाव-लश्करी विरोध मीडिया के लिए आकर्षक बन गया और इस नाते कांग्रेस खबरों की केंद्र में बनी रही। इससे साफ है कि पहले लेखकों का विरोध और फिर देश की सबसे पुरानी पार्टी का कदम कहीं न कहीं सोची-समझी रणनीति के तहत हुए। अव्वल तो होना चाहिए कि इन घटनाओं के बीच जुड़े तंतुओं की पड़ताल की जाती, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है।

ऐसा नहीं कि सम्मान वापसी और इस अभियान के पीछे सक्रिय कांग्रेस की रणनीति को जोड़ने और फिर उनका सामूहिक विरोध करने की कोशिश नहीं हो रही। विरोध हो भी रहा है। कांग्रेस का विरोध करने की जिम्मेदारी राजनीति के अखाड़े में होने के चलते भारतीय जनता पार्टी की है। वह अपने तईं कर भी रही है। हालांकि प्रतिरोध के संदर्भ में कांग्रेस की भूमिका के खिलाफ भारतीय जनता पार्टी के विरोध को कितने सही परिप्रेक्ष्य में रखा और देखा जा रहा है, यह किसी से छुपा नहीं नहीं है। लिहाजा इसका फैसला तो पाठकों और लोगों पर ही छोड़ देना चाहिए। लेकिन सम्मान वापसी करने वाले लोगों के खिलाफ युवाओं की एक टोली जरूर निकल पड़ी है। उन्होंने किताब वापसी नाम से अभियान छेड़ दिया है। किताब वापसी अभियान को हालांकि सम्मान वापसी के समर्थक कुपढ़ लोगों का आंदोलन बता रहे हैं। इसके साथ ही इसे ज्ञान और बौद्धिक संपदा का अपमान बताया जा रहा है। प्रतिरोध के प्रति आंदोलन को नकारने का यह तरीका असहिष्णु अंदाज में चलाया जा रहा है। प्रतिरोध की आवाज की मुखालफत करने वालों को अलोकतांत्रिक बताते वक्त उनके विरोधी खुद को ऐसे पेश कर रहे हैं, मसलन वे खुद श्रेष्ठ हों। जबकि किताब वापसी का समर्थन करने वालों का तर्क है कि जब किसी को सम्मान मिलता है तो उस संस्कृति या साहित्यकर्मी की रचनात्मक प्रसिद्धि में इजाफा ही हो जाता है। सम्मान और पुरस्कार के साथ धन चाहे जितना भी कम मिले, लेकिन यश जरूर मिलता है। सम्मान के साथ मिले यश की माया के साथ उनकी फिल्मों, किताबों या पेंटिंग की बिक्री बढ़ जाती है और इस तरह से उनके पास यश की नाव पर चढ़कर लक्ष्मी भी खुद-ब-खुद आ जाती हैं। सम्मान के बाद मिले यश और उसके आर्थिक तंत्र की माया को हिंदी के शलाका पुरूष नामवर सिंह भी स्वीकार कर रहे हैं। उन्होंने सम्मान वापसी पर उठे विवाद के बाद अपने एक आलेख में कहा है कि आप सम्मान तो वापस कर सकते हैं, लेकिन इस अवधि में हासिल यश-कीर्ति को किस तरह वापस कर सकते हैं। वैसे जिस तरह अपनी बीती हुई उम्र फिर से वापस हासिल नहीं की जा सकती, ठीक उसी तरह यह संभव ही नहीं है कि सम्मान के जरिए आई कीर्ति को वापस कर दिया जाय। किताब वापसी का अभियान दरअसल कीर्ति वापसी की प्रक्रिया को एक हद तक फोकस में लाने का अभियान है। किताब वापसी अभियान के संचालकों-प्रवर्तकों ने सफाई भी दी है कि उनका मकसद लेखक का अपमान नहीं है, बल्कि सम्मान के जरिए हासिल यश को वापस कराना है। उनका तर्क यह भी है कि सम्मान हासिल लेखकों की किताबों का मोल बतौर पाठक उनकी नजर में मोल इसलिए ही बढ़ा, क्योंकि उनके सर्जकों को प्रतिष्ठित सम्मान या पुरस्कार मिला। अब जबकि लेखक विशेष ने सम्मान वापस कर ही दिया है तो उस सम्मानित विशेष लेखक की किताब का उनके लिए क्या मतलब रहा...लिहाजा उसे वापस कर ही दिया जाना चाहिए।
लेखक चाहे पक्ष का हो या विपक्ष का, सर्जक के नाते उसके कार्यकलाप और कदम भी सार्वजनिक विमर्श की वस्तु होते हैं। लेकिन सम्मान वापसी करने वाले सार्वजनिक और स्वस्थ विमर्श से बच रहे है। वैसे भी असहिष्णुता के उनके आरोपों का खंडन लगातार जारी उनका विरोध ही है। जिसके खिलाफ न तो कोई सरकारी प्रतिबंध अभी तक लगा है और न ही निजी तौर पर किसी ने उन पर कोई हमला किया है..
कुछ और सवाल भी हैं, जिनका जवाब देने और उन पर सार्वजनिक विमर्श से सम्मान वापसी के समर्थक और अगुआ बच रहे हैं। जिन कलबुर्गी की हत्या को लेकर सम्मान वापसी की शुरूआत हुई. वे कर्नाटक में रहते थे और उनकी हत्या होने के बाद अब तक कर्नाटक की सिद्धारमैया की अगुआई वाली कांग्रेस की राज्य सरकार कोई ठोस कदम उठाती नजर नहीं आई है। महाराष्ट्र में जब रेशनलिस्ट नरेंद्र दाभोलकर की हत्या हुई, तब पृथ्वीराज चव्हाण की अगुआई वाली कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की सरकार वहां काम कर रही थी। अव्वल तो कानून और व्यवस्था का जिम्मा अपने संविधान के मुताबिक राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। लेकिन दोनों ही राज्य सरकारें इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाती नजर नहीं आईं। इस लिहाज से अव्वल तो विरोध के केंद्र में कर्नाटक की सिद्धारमैया सरकार और महाराष्ट्र की तत्कालीन पृथ्वीराज चव्हाण सरकार होनी चाहिए थीं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसी लिए सम्मान वापसी के समर्थकों पर सवाल उठ रहे हैं। दिलचस्प यह है कि लोकतंत्र की दुहाई तो खूब दी जा रही है, लेकिन सार्वजनिक विमर्श-बहस से बचा जा रहा है। संस्कृति और साहित्यकर्म के इस सेलेक्टिव विरोध और उसके खिलाफ उठती आवाजों को नजरंदाज और उपेक्षित करने की प्रवृत्ति मूल सवालों से बचने की कोशिश ही कही जाएगी।
नरेंद्र मोदी की सरकार को पहले प्याज, फिर दाल और अब तेल की महंगाई पर घेरा जा सकता था। विपक्ष और संस्कृतिकर्मी अगर इन संदर्भों में सरकार और उसके उपभोक्ता मामले के मंत्रालय का विरोध करते तो निश्चित तौर पर जनता के बीच उनकी साख बनती। चर्चा अगर सूखा और उसके बाद रबी की फसल की बुआई में हो रही देरी पर होती, तब भी कोई बात होती। भारत की लगातार बढ़ती आर्थिक साख और रेटिंग एजेंसियों के जरिए बेहतर होती रेटिंग के बावजूद अगर देश का एक बड़ा तबका गरीबी में जीने को मजबूर है तो निश्चित तौर पर यह सरकारी विफलता है। अव्वल तो चर्चा इसकी होनी चाहिए थी। लेकिन भारत के बौद्धिकों को इसकी परवाह ही नहीं है..वे तकरीबन हवाई असहिष्णुता के खिलाफ विरोध कर रहे हैं..जिसका कोई ठोस नतीजा नहीं निकलना है..लेकिन एक बात तय है कि इस पूरे विवाद से देश की साख पर सवाल जरूर उठ खड़ा होगा...

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