पंजाबी साहित्यकार श्याम विमल की यह चिट्ठी जनसत्ता में प्रेमपाल शर्मा के एक लेख के प्रतिक्रियास्वरूप जनसत्ता में प्रकाशित हुई थी। इस चिट्ठी से जाहिर है कि हिंदी में पुरस्कारों की माया कितनी निराली है। लेकिन हकीकत तो ये है कि हिंदी के इस सियासी शतरंज से दूसरी भाषाओं के पुरस्कार अलग हैं। पेश है इसी चिट्ठी के संपादित अंश -
पंजाबी भाषी होकर भी मराठी में लिखी अपनी कविताओं की पांडुलिपि उन्हाचे तुकड़े पर वर्ष 1980-82 का प्रतिस्पर्द्धा पुरस्कार पूर्वकालिक शिक्षा-संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार से मुझे घर बैठे पुरस्कार मिला था। अपने हिंदी उपन्यास व्यामोह के स्वत:किए संस्कृत भाषांतर पर साहित्य अकादम का राष्ट्रीय अनुवाद पुरस्कार 1997 में बिना किसी पहुंच और सिफारिश आदि के बाद मिला। जबकि हिंदी में दस के ज्यादा पुस्तकों पर न दिल्ली में रहते हिंदी अकादमी से न उत्तर प्रदेश में रहते किसी हिंदी संस्थान से एक रूपए का भी पुरस्कार नसीब हुआ।...
दिल्ली की हिंदी अकादमी के सम्मान-पुरस्कार के वास्ते एक बहुपुरस्कृत कवि-मित्र ने मेरा नाम प्रस्तावित करने के लिए आत्म परिचय मांगा। भेज दिया, साथ में संस्कृत की एक सूक्ति भी जड़ दी- 'गंगातीरमपि त्यजंति मलिनं ते राजहंसा वयम्'यानी यदि तुम्हें लगे कि पुरस्कार की देयता में कुछ मलिनता या दाग की प्रतीति है तो कृपया नाम मत भेजना। इसी अकादमी में एक अन्य हितैषी मित्र ने किसी प्रोफेसर आलोचक को अपनी सद्य:प्रकाशित पुस्तक भिजवा देने का जोर डाला। भिजवा दी। मित्र ने उन सेवानिवृत्त प्रोफेसर से, जैसा कि मुझे फोन पर बताया गया, कहा होगा कि मेरी प्रेषित संसमरण पुस्तक पर अपने दो शव्द लिख दें तो उन धवलकेशी प्रोफेसर ने मेरे मित्र से कहा था- 'तुम्हीं पोस्टकार्ड पर मुझे लिखकर दे दो, मैं उस पर हस्ताक्षर कर दूंगा। 'उन वामपंथी के इस रवैये पर मुझे अपनी वर्ष 1980 में लिखी कविता की दो पंक्तियां याद हो आईं -'मेरा बायां हाथ सुन्न है / खून का दौरा नहीं हो रहा।'
एक प्रायोजित युवा पुस्तक-समीक्षक ने बिना पूर्वग्रह से मुक्त हुए मेरी उक्त पुस्तक में छपे हिंदी में बदनाम पुरस्कार प्रसंग पर मसीक्षांत अपना थोथा निचोड़ यह दे डाला -' सिद्धांत (पात्र) को दुख इस बात का है कि सोलह किताबें लिखने के बाद भी पुरस्कार क्यों नहीं मिलता। अपने हासिल पर पुस्तक के अंत में लेखक ने मन भर आंसू बहाए हैं।'आंसू की नाप-तौल निर्धारण के उन्के प्रतिमान के क्या कहने।
इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
-
उमेश चतुर्वेदी लोहिया जी कहते थे कि दिल्ली में माला पहनाने वाली एक कौम है। सरकारें बदल जाती हैं, लेकिन माला पहनाने वाली इस कौम में कोई बदला...
-
टेलीविजन के खिलाफ उमेश चतुर्वेदी वाराणसी का प्रशासन इन दिनों कुछ समाचार चैनलों के रिपोर्टरों के खिलाफ कार्रवाई करने में जुटा है। प्रशासन का ...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें