यह स्वीकार करने में अब एकदम हिचक नहीं रही कि भारतीय पत्रकारिता का बहुसंख्यक चेहरा अर्थ यानी धन से ही संचालित होे रहा है, सरोकार तो पता नहीं पत्रकारिता कहां पीछे छोड़ आई है। दिल्ली जैसे शहर में... जहां पत्रकारिता में तुलनात्मक रूप से स्थायीत्व और निरंतरता कहीं ज्यादा है.... वहां भी सरोकार या तो पीछे छूट चुके हैं या छूटने की प्रक्रिया में हैं, लेकिन इसी दिल्ली और इसी दौर में बी जी वर्गीज़ भारतीय पत्रकारिता के लिए मशाल की तरह रहे... सरोकार, विकास और धारा से विपरीत लेकिन संस्कारों से ओतप्रोत विचार.... बी जी वर्गीज़ की पहचान रही। वर्गीज़ के बहाने सरोकार और संस्कार की दबी ढंकी चाहत रखने वाले पत्रकारों के मानस में बेहतर भविष्य की आकांक्षा वाली एक लौ जलती रही, लेकिन दुर्भाग्य.... अब वह लौ भी बुझ गई है... उम्मीद करें कि वह लौ पथभ्रष्ट हो रही पत्रकारिता को उसके मूल सरोकारी पथ पर लाने का प्रेरणा स्रोत बनी रहेगी.... श्रद्धांजलि..
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