रविवार, 12 जुलाई 2015

बनावटीपन से ताजिंदगी दूर रहे यादवराव देशमुख


उमेश चतुर्वेदी
पांचजन्य के संपादक रहे, सहजता की अनन्य मूर्ति, खालिस सहज इन्सान और अपने चहेतों के बीच काकू के तौर पर मशहूर यादवराव देशमुख चार जून को वहां के लिए कूच कर गए, जहां से कोई लौटकर नहीं आता...दीनदयाल शोध संस्थान के प्रमुख रहे 87 साल के यादव राव देशमुख राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ऐसे कार्यकर्ता थे, जिन्हें अहंकार छू तक नहीं गया था...जिस वक्त उन्होंने महाप्रयाण किया, उस वक्त अशोक महान की बेटी संघमित्रा द्वारा बनवाए गए सांची के स्तूप की यात्रा पर था..लिहाजा बाबा की आखिरी यात्रा का मौन और मार्मिक गवाह नहीं बन पाया..लेकिन विदिशा से दिल्ली लौटने के क्रम में जैसे ही यह खबर मिली..स्मृतियों के हिंडोले में बाबा से जुड़ी कई सारी यादें एक-एक कर आने लगीं..उनके सुपुत्र भारतीय जनसंचार संस्थान की वीथियों में अपने सहपाठी रहे हैं..इसीलिए बाबा से परिचय भी हुआ और यादवराव देशमुख हमारे लिए भी बाबा यानी पिता ही हो गए..यशवंत की मां भी हमें बेटा ही मानती रहीं..कभी नाम नहीं लिया..बहरहाल यादों के हिंडोले से छनकर आयी एक याद साझा कर रहा हूं..जो खालिस पत्रकारीय अनुभव से परिपूर्ण है..
नवंबर की शुरूआत के साथ ही दिल्ली की फिजां निकट अतीत की गर्मियों से जैसे निजात पाने लगती है। 1999 का नवंबर भी दूसरे सालों की तरह गुलाबी ठंड की आभा लिए ही शुरू हुआ था। लेकिन उस साल अचानक एक दिन सियासी तापमान बढ़ गया। तापमान बढ़ने की वजह थी, भारतीय जनता पार्टी के लिए प्रश्न प्रदेश बना उत्तर प्रदेश। 1999 के लोकसभा चुनावों में कल्याण सिंह के बागी तेवर के चलते बीजेपी को सिर्फ 29 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था। इसके ठीक एक साल पहले के चुनावों में बीजेपी को प्रदेश की 85 में से 52 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। इन सीटों के साथ ही केंद्र में वाजपेयी की सरकार की महत्वपूर्ण नींव उत्तर प्रदेश ने रखी थी। लेकिन साल बीतते-बीतते उत्तर प्रदेश की बीजेपी की अंदरूनी राजनीति ने पलटा खाया। तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने बागी तेवर अख्तियार किए और इसके बाद उत्तर प्रदेश बीजेपी के लिए सवालों का प्रदेश बन गया। ऐसे माहौल में कल्याण सिंह को बदले जाने की सुगबुगाहट तो थी। लेकिन उनकी जगह पर किसकी ताजपोशी होगी, इसके लिए कयासों के ही दौर जारी थे।
ऐसे कयासबाजियों के दौर में नवंबर 1999 की एक शाम लखनऊ से खबर आई कि रामप्रकाश गुप्त को उत्तर प्रदेश में बीजेपी विधानमंडल दल का नेता चुना जाएगा और उन्हें मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई जाएगी। दिलचस्प यह है कि उत्तर प्रदेश की 1967 की संविद सरकार में जनसंघ के कोटे से उपमुख्यमंत्री और 1977 की जनता पार्टी की सरकार में उद्योग मंत्री रह चुके रामप्रकाश गुप्त को तब तक पत्रकार बिरादरी भूल गई थी। नवंबर 1999 तक उनका नाम भारतीय राजनीति की उन अंधेरी गलियों में गुम हो गया था...जहां से उबरना और बाहर निकल पाना आसान नहीं होता...तब इन पंक्तियों का लेखक दैनिक भास्कर के दिल्ली ब्यूरो में बतौर राजनीतिक संवाददाता कार्यरत था। ध्यान रहे कि तब गूगल सर्च इंजिन का जमाना नहीं था और इंटरनेट सक्रियता का तुरंता-फुरंता दौर शुरू ही नहीं हुआ था। तब दैनिक भास्कर के दिल्ली ब्यूरो के प्रमुख समाचार एजेंसी पत्रकारिता के सिरमौर रहे और दिल्ली में क्षेत्रीय अखबारों के पत्रकारों के गढ़ आईएनएस बिल्डिंग में दादा के विशेषण से मशहूर शरद द्विवेदी थे। उन दिनों समाचार एजेंसियां हीं खबरों में आने वाले प्रमुख नेताओं की प्रोफाइल दिया करती थीं। लेकिन रामप्रकाश गुप्त के नाम वाली फाइल न तो यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया में थी और ना ही प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया में। चूंकि शरद द्विवेदी दोनों ही एजेंसियों की हिंदी सर्विस वार्ता और भाषा के संस्थापकों में से एक थे और समकालीन राजनीति पर उनकी पकड़ मानी जाती थी..लिहाजा दोनों ही एजेंसियों से उनके पास रामप्रकाश गुप्त की प्रोफाइल के लिए जानकारी या न्यूज कॉपी की मांग आने लगी। शरद जी को रामप्रकाश गुप्त की याद तो थी, लेकिन उनकी मुकम्मल प्रोफाइल उन्हें याद नहीं थी। ऐसे माहौल में उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक की खोज शुरू कराई। तब मोबाइल फोन का भी जमाना नहीं था। बहरहाल हमेशा की तरह शाम को अपनी बीट की खबरें लेकर जब इन पंक्तियों का लेखक दफ्तर लौटा तो छूटते ही शरद जी ने फरमान सुना दिया...आदेश यह कि किसी भी तरह से रामप्रकाश गुप्त की प्रोफाइल तैयार करो, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी उन्हें उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने जा रही है। तब मेरे सामने यह संकट खड़ा हुआ कि आखिर गुप्त की जानकारी कैसे हासिल की जाए।
ऐसे मौकों पर स्वर्गीय भानुप्रताप शुक्ल की बरबस याद आ जाती थी। भानु जी जैसे विराट व्यक्तित्व से पता नहीं क्यों मुझे बात करने में कभी झिझक नहीं हुई और ना ही कभी उन्होंने मुझ जैसे नए- नवेले से मिलने-बात करने में अपनी विराट शख्सियत को आड़े आने दिया। लेकिन उस दिन दिल्ली के बंगाली मार्केट वाले अपने निवास पर वे नहीं थे। फोन रिसीव करने वाले ने जब यह जानकारी दी तो एसाइनमेंट पूरा ना होने का संकट खड़ा होता नजर आया। उससे भी बड़े अफसोस की बात यह हो जाती कि शरद जी का भरोसा टूट जाता..भास्कर के ब्यूरो में तैनात चार-चार दिग्गज पत्रकारों के बावजूद मुझे ही उन्होंने इस काम के लिए कुछ सोच-समझकर ही चुना होगा.. इसी दौरान शरद जी के कहे कुछ शब्द याद आए। उन्होंने रामप्रकाश गुप्त की जानकारी देते हुए बताया कि मैंने उन्हें लखनऊ नगर निगम में कवर किया था। यहां यह बता देना जरूरी है कि शरद जी कुछ दिनों तक हिंदुस्तान समाचार के लिए लखनऊ में बतौर संवाददाता काम कर चुके थे। इसी एक वाक्य ने जैसे रामप्रकाश गुप्त को पकड़ने का सूत्र दे दिया। तब तत्काल बाबा की याद आई, बाबा यानी यादवराव देशमुख। पांचजन्य के पूर्व संपादक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक और गंभीर पत्रकार यादवराव देशमुख को हमारे सभी साथी-सहपाठी बाबा ही कहा करते थे। उनके बेटे और सी वोटर के संस्थापक यशवंत देशमुख चूंकि भारतीय जनसंचार संस्थान में हमारे सहपाठी-साथी थे, लिहाजा इस नाते उनके बाबा हम सभी बैचमेट्स के लिए भी बाबा ही हो गए थे। बाबा मराठी में पिता का संबोधन होता है। बहरहाल बाबा को फोन किया। बाबा वैशाली के अपने घर में ही थे। उनसे जब फोन पर पूछा  कि बाबा आपको रामप्रकाश गुप्त के बारे में कुछ पता है। बाबा को लगा कि वार्धक्य के चलते रामप्रकाश गुप्त का निधन हो गया है। लिहाजा दूसरी तरफ का जवाब सुने बिना वे दुख में डूब गए और बार-बार एक ही सवाल पूछने लगे कि बेटा, उसका क्या हुआ? फिर जवाब सुने बिना 1967 के विधानसभा चुनावों का जिक्र करने लगे। फोन के दूसरी तरफ उनकी यादों का पिटारा खुल गया था। वे कह रहे थे- बेटा रामप्रकाश मेरा अच्छा दोस्त था..बहुत भला आदमी था.. इतिहास ने उसके साथ न्याय नहीं किया...फिर उन्होंने यह भी बताना शुरू किया कि उनके 1967 में चुनाव लड़ते वक्त प्रचार तक के लिए पैसे नहीं थे तो किस तरह सायकिल से उन्होंने हरदोई में प्रचार किया था...कैसे एक बार थककर एक पुलिया पर विश्राम किया था..कैसे गांव वालों से मांग कर खाया था और कैसे जीत हासिल हुई थी...बहरहाल इतना सुनने के बाद मैंने दूसरी तरफ से बाबा को टोक दिया...बाबा आप नाहक परेशान हो रहे हैं..दरअसल बीजेपी उन्हें उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने जा रही है और उनकी प्रोफाइल लिखने की मुझे जिम्मेदारी मिली है और इसकी जानकारी जुटाने के लिए मैंने आपको फोन किया है...मेरा इतना कहना ही था कि दूसरी ओर से बाबा की हंसी की आवाज सुनाई पड़ी..ठहाके लगाते उन्हें कम ही सुना था.. लेकिन उस दिन उन्होंने हल्का ठहाका लगाया और फोन पर ही बोले-बेटा मैं तो उनके बारे में कुछ और ही सोच बैठा था..
बहरहाल बाबा ने उनका जन्म, उनकी राजनीतिक यात्रा, उनके कामकाज, उनके शासन के तरीके, उनके जनसंघ से जुड़ने आदि को लेकर लंबी-चौड़ी जानकारी दी। उन्हीं जानकारियों के आधार पर मैंने तब रामप्रकाश गुप्त की प्रोफाइल लिखी थी। वह प्रोफाइल दैनिक भास्कर के नवंबर 1999 के शुरूआती हफ्तों की फाइलों में अब भी कहीं दर्ज होगी। यहां यह बता देना जरूरी है कि हाथ से लिखी उसी प्रोफाइल को थोड़ा-बहुत सुधार कर शरद जी ने वार्ता और भाषा के अपने शिष्यों को फैक्स कर दिया था...इस ताकीद के साथ कि इसके लिए पारिश्रमिक उमेश को भिजवा देना। उस दिन यूएनआई और पीटीआई ने उसी प्रोफाइल के आधार रामप्रकाश गुप्ता की प्रोफाइल प्रसारित की और ज्यादातर अखबारों ने उसे ही प्रकाशित किया था। रामप्रकाश गुप्त की उस प्रोफाइल की संदर्भ सामग्री बाबा यानी यादवराव देशमुख ने दी थी।
यादवराव देशमुख से पहली मुलाकात अक्टूबर 1993 में लखनऊ में हुई थी। तब वे ला प्लॉस के एक फ्लैट में रहा करते थे। पहली ही मुलाकात में उनके सहज और सरल व्यक्तित्व ने अपना मन मोह लिया। इसके बाद गाहे-बगाहे उनसे मुलाकात होती रही। लेकिन चेहरे पर उनकी मुस्कान सदा बनी रही। उनके व्यक्तित्व में कोई बनावटीपन नहीं था। सहजता उनकी शख्सियत का सौंदर्य थी। यही वजह है कि उनके लिए नया हो या पुराना, सब एक बराबर थे। भारतीयता उनकी रग-रग में थी। पिछले दिनों जब वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय को रामानंदाचार्य सम्मान मिला तो गाजियाबाद के मेवाड़ इंस्टीट्यूट के सभागार में बाबा भी मौजूद थे। मंच से रामबहादुर राय ने जिन दो लोगों का नाम लिया, उनमें से एक नाम यादवराव देशमुख का ही यादवराव देशमुख का ही था। कैंसर जैसी घातक बीमारी से वे पिछले तीन सालों से जूझ रहे थे। लेकिन उनके चेहरे पर पीड़ा का कोई अंश कभी नजर नहीं आता था..कोई अफसोस और शिकन भी उनके चेहरे पर नजर आई...कि जिंदगी उनके हाथों से रेत की मानिंद फिसल रही है..अपने सहज अंदाज में वे कह भी देते थे कि उन्होंने भरपूर जिंदगी जी है और उन्हें कोई मलाल नहीं हैं...अगस्त 2012 में वात्सल्य ग्राम, वृंदावन में भानुप्रताप शुक्ल की जयंती मनाई गई थी तो वहां भी बाबा हाजिर थे और पूरे कार्यक्रम में सजग मौजूदगी के साथ बने रहे।
कुछ अपनी व्यस्तताओं और रिहायश की दूरी की वजह से बाबा से सालों तक मुलाकात नहीं होती थी,लेकिन जब भी वे मिलते थे, हर बार यही डर होता था कि इस बार शायद वे न पहचानें। दिल्ली में न पहचानना जैसे बड़े लोगों की शख्सियत का एक हिस्सा है। लेकिन बाबा हर बार इस आशंका को गलत साबित करते और उसी आत्मीयता से हालचाल पूछते, जैसे 1993 में पहली मुलाकात में पूछा था। कैंसर से उनके ग्रस्त होने की खबर के बाद उनसे मिलने की उम्मीद बांध रखी थी। लेकिन प्रकृति और होनी के आगे किसी की चली है भला..छह जून को विदिशा से दिल्ली लौट रहा था तो फेसबुक के जरिए बाबा के ना रहने की खबर मिली तो 21 सालों का छुटपुटा किंतु गहरा सरोकारी रिश्ता एक-एककर याद आने लगा। बाबा अब अनंत में समा चुके हैं..लेकिन उनका शरीर दिल्ली के मेडिकल के छात्रों को भावी जिंदगियां संवारने की सीख का जरिया बनता रहेगा।

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