उमेश चतुर्वेदी
कर्मचारियों की सुख समृद्धि बढ़े, उनका जीवन स्तर ऊंचा उठे, इससे इनकार कोई
विघ्नसंतोषी ही करेगा। लेकिन सवाल यह है कि जिस देश में 125 करोड़ लोग रह रहे हों
और चालीस करोड़ से ज्यादा लोग रोजगार के योग्य हों, वहां सिर्फ 33 लाख एक हजार 536
लोगों की वेतन बढ़ोत्तरी उचित है? सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट सौंपे जाने के बाद केंद्र सरकार की तरफ से अपने
कर्मचारियों को लेकर यही आंकड़ा सामने आया है। बेशक सबसे पहले केंद्र सरकार ही
अपने कर्मचारियों को वेतन वृद्धि का यह तोहफा देने जा रही है। लेकिन देर-सवेर
राज्यों को भी शौक और मजबूरी में अपने कर्मचारियों को सातवें वेतन आयोग की
सिफारिशों के मुताबिक वेतन देना ही पड़ेगा। जब यह वेतन वृद्धि लागू की जाएगी, तब
अकेले केंद्र सरकार पर ही सिर्फ वेतन के ही मद में एक लाख दो हजार करोड़ सालाना का
बोझ बढ़ेगा। इसमें अकेले 28 हजार 450 करोड़ का बोझ सिर्फ रेलवे पर ही पड़ेगा। इस
वेतन वृद्धि का दबाव राज्यों और सार्जजनिक निगमों पर कितना पड़ेगा, इसका अंदाजा
राज्यों के कर्मचारियों की संख्या के चलते लगाया जा सकता है। साल 2009 के आंकड़ों के मुताबिक, सरकारी क्षेत्र के 8 करोड़ 70 लाख कर्मचारियों में से सिर्फ 33 लाख कर्मचारी
केंद्र सरकार के हैं। जाहिर है कि बाकी कर्मचारी राज्यों के हैं या फिर सार्वजनिक
क्षेत्र के निगमों के। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्यों पर कितना बड़ा
आर्थिक बोझ आने वाला है।याद कीजिए 2006 को। इसी वर्ष छठवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू की गईं, जिससे केंद्र पर 22 हजार करोड़ रुपए का एक मुश्त बोझ बढ़ा था। केंद्रीय कर्मचारियों की तनख्वाहें अचानक एक
सीमा के पार चली गईं। केंद्र के कुल खर्च का 30 फीसदी
अकेले वेतन मद में ही खर्च होने लगा।
इसका दबाव राज्यों पर भी पड़ा। उनका खर्च छठवें वेतन आयोग के चलते 74 फीसदी तक बढ़ गया। कई राज्यों ने तो केंद्र पर दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया था कि उनके कर्मचारियों को बढ़ा हुआ वेतन देने के लिए केंद्र मदद करे। कई राज्यों की अर्थव्यवस्था तक चरमरा गई। उनके पास विकास मद में खर्च करने के लिए पैसे तक नहीं बचे। 2006 के बाद ही हमें महंगाई में तेजी दिखने लगीं। इसी के बाद पेट्रोलियम की कीमतें आसमान छूने लगीं। उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों में भी इजाफा हुआ । यह बात और है कि दो साल बाद आई वैश्विक मंदी और उससे घटी विकास दर के सिर पर महंगाई का ठीकरा सरकार और एक हद तक रिजर्व बैंक ने फोड़ दिया था। इसी दौर में आर्थिक जानकारों का एक तबका ऐसा भी था, जो छठवें वेतन आयोग को भी इस महंगाई से जोड़कर देख रहा था, लेकिन तत्कालीन अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की अगुआई वाली सरकार और उसके वित्त मंत्रियों ने इसे महंगाई के लिए जिम्मेदार नहीं माना। ठीक नौ साल पहले लागू हुए छठवें वेतन आयोग की रिपोर्ट के बाद आशंकित सामाजिक असमानता और उससे बढ़ने वाली आर्थिक दिक्कतों और महंगाई को लेकर समाजवादी पृष्ठभूमि वाले राजनेताओं, कम्युनिस्ट पार्टी शासित केरल, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल ने इस समस्या की तरफ ध्यान दिलाने की कोशिश की । लेकिन तब की कांग्रेसी सरकार ने इस अनसुना कर दिया। उसका फायदा ठीक तीन साल बाद हुए आम चुनावों में मिला, जब कांग्रेस की सीटें 145 से बढ़कर 206 तक जा पहुंची।
इसका दबाव राज्यों पर भी पड़ा। उनका खर्च छठवें वेतन आयोग के चलते 74 फीसदी तक बढ़ गया। कई राज्यों ने तो केंद्र पर दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया था कि उनके कर्मचारियों को बढ़ा हुआ वेतन देने के लिए केंद्र मदद करे। कई राज्यों की अर्थव्यवस्था तक चरमरा गई। उनके पास विकास मद में खर्च करने के लिए पैसे तक नहीं बचे। 2006 के बाद ही हमें महंगाई में तेजी दिखने लगीं। इसी के बाद पेट्रोलियम की कीमतें आसमान छूने लगीं। उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों में भी इजाफा हुआ । यह बात और है कि दो साल बाद आई वैश्विक मंदी और उससे घटी विकास दर के सिर पर महंगाई का ठीकरा सरकार और एक हद तक रिजर्व बैंक ने फोड़ दिया था। इसी दौर में आर्थिक जानकारों का एक तबका ऐसा भी था, जो छठवें वेतन आयोग को भी इस महंगाई से जोड़कर देख रहा था, लेकिन तत्कालीन अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की अगुआई वाली सरकार और उसके वित्त मंत्रियों ने इसे महंगाई के लिए जिम्मेदार नहीं माना। ठीक नौ साल पहले लागू हुए छठवें वेतन आयोग की रिपोर्ट के बाद आशंकित सामाजिक असमानता और उससे बढ़ने वाली आर्थिक दिक्कतों और महंगाई को लेकर समाजवादी पृष्ठभूमि वाले राजनेताओं, कम्युनिस्ट पार्टी शासित केरल, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल ने इस समस्या की तरफ ध्यान दिलाने की कोशिश की । लेकिन तब की कांग्रेसी सरकार ने इस अनसुना कर दिया। उसका फायदा ठीक तीन साल बाद हुए आम चुनावों में मिला, जब कांग्रेस की सीटें 145 से बढ़कर 206 तक जा पहुंची।