रामशरण जोशी ने यह आधार लेख तीसरे प्रेस कमीशन की जरूरत को रेखांकित करते हुए तैयार किया है। जिस पर राजधानी दिल्ली में दो दौर की चर्चाएं हो चुकी हैं। इसे लेकर सुझावों और विचारों का स्वागत रहेगा। विगत दो दशकों से हम वैश्वीकरण के परिवेश में जी रहे हैं। इस अवधि में भारतीय गणतंत्र की लगभग सभी महत्वपूर्ण संस्थाएं वैश्विक पूंजीवाद से कम-अधिक प्रभावित हुई हैं। इन संस्थाओं के चरित्र और कार्यशैली में गुणात्मक परिवर्तन आए हैं। इस संबंध में भारतीय राज्य को ही देखें। कभी इसके कर्ता-धर्ता इसे ‘जनकल्याणकारी राज्य’ घोषित करने में गर्व का प्रदर्शन किया करते थे। नेहरू-काल से लेकर राजीव काल तक ‘समाजवाद’ का जयघोष हुआ करता था। आज यह नारा वैश्वीकरण के व्योम में कहीं गुम हो चुका है। अब कर्ताधर्ताओं का बाजारोन्मुख नारा है- सुविधा आपूर्तिकत्र्ता अर्थात भारतीय राज्य अब ‘फैसीलीटेटर’ की भूमिका निभाएगा। यह ‘मुक्त अर्थव्यवस्था’ को उसके चरमोत्कर्ष बिंदु तक पहुंचाने के लिए और बगैर किसी वर्गीय भेदभाव के सभी को ‘समतल मंच’ की सुविधा उपलब्ध कराएगा तथा इस प्रक्रिया में वह कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा। यदि इससे किसी प्रकार के बहुआयामी विषमता व असंतुलन पैदा होते हैं तो इन्हें वैश्विक पूंजीवाद के अपरिहार्य परिणाम के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। इस नई दृष्टि के कारण अब राजनीतिक-सामाजिक चिंतक भारत को अमेरिका का ‘ग्राहक राज्य’ (क्लाइंट स्टेट) से परिभाषित करने लगे हैं। कभी यह परिभाषा पाकिस्तान के लिए सुरक्षित रहती थी। अब इस पर पड़ोसी राष्ट्र का एकाधिकार समाप्त हो चुका है।
विगत दो दशकों, विशेष रूप से विगत कुछ वर्षों में भ्रष्टाचार की जो सुनामी आई है इससे हम सभी परिचित हैं। इस सुनामी ने राष्ट्र की शिखर संस्थाओं को तल तक लील लिया है। घोटालों-महाघोटालों का विस्फोट इसके उदाहरण हैं। इस सिलसिले पर कब व कहां विराम लगेगा, यह अनिश्चित है। राष्ट्र राज्य के नियंताओं ने इस ‘सुनामी परिघटना’ को वैश्विक पूंजीवादीकरण की स्वाभाविक नियति के रूप में अंगीकार कर लिया है। अतः वैश्वीकृत भारत की जनता को इससे चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है, ऐसा वातावरण सुनियोजित ढंग से निर्मित किया जा रहा है।
हम परंपरागत रूप से प्रेस या मीडिया को लोकतंत्र का ‘चैथा स्तंभ’ या ‘पहरुआ’ के रूप में देखते-समझते आए हैं। तब देश के प्रत्येक संवेदनशील व जागरूक नागरिक का यह सोचना कत्र्तव्य है कि क्या यह प्रहरी वर्तमान परिवेश में भी अपनी अपेक्षित व वांछित भूमिका निभा रहा है? क्या वैश्वीकरण और सुनामी ने इसके मूलभूत चरित्र को परिवर्तित किया है? सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तरों पर आए परिवर्तनों से यह कितना प्रभावित हुआ है? सवाल यह भी है कि प्रेस या मीडिया ने देश के लिए ‘दिशा बोधक’ की भूमिका निष्ठा पूर्वक निभाई या नहीं? क्या यह भी किसी उद्योग का सिर्फ ‘प्रोडक्ट’ और बाजार की ‘वस्तु’ बन कर रह गया है? क्या इसमें इसकी ऐतिहासिक हस्तक्षेपधर्मिता आज भी जीवित है? आज के परिवर्तित परिवेश और भविष्य के संभावित संकटों के मद्देनजर इन प्रश्नों पर चिंतन-मंथन की गंभीर आवश्यकता है। इस प्रक्रिया में हमारा ध्यान एक नए प्रेस आयोग के गठन की तरफ जाना स्वाभाविक है।
I
आखिर आज हमें ‘प्रेस आयोग’ क्यों चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर भारतीय पे्रस की विकास व अनुभव यात्रा पर संक्षिप्त दृष्टिपात और वर्तमान परिदृश्य के तथ्यपरक विश्लेषण में निहित है। किसी भी आयोग का केंद्रीय उद्देश्य समकालीन समस्या या चुनौती विशेष का अध्ययन, परीक्षण और समाधान होता है। इसी आधारभूत उद्देश्य को ध्यान में रखकर स्वतंत्र भारत के विभिन्न कालों में अब तक दो ‘प्रेस आयोगों’ का गठन किया जा चुका है। देश का पहला प्रेस आयोग नेहरू काल में 1952 में अस्तित्व में आया था और दो वर्ष के कड़े परिश्रम के पश्चात 1954 में इसने अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंप दी थी। दूसरे प्रेस आयोग का गठन देश की पहली गैर-कांग्रेसी जनता पार्टी की सरकार ने 1978 में किया था। मोरारजी देसाई काल में गठित इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1982 में तैयार की। लेकिन इस चार वर्ष की अवधि में देश का राजनीतिक परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका था। 1979 में गैर-कांग्रेसी शासन के प्रयोग की अकाल मृत्यु और 1980 में सत्ता में इंदिरा गांधी की पुनर्वासी हो चुकी थी। यहां हमें यह याद रखने की जरूरत है कि प्रथम आयोग और द्वितीय आयोग के गठन के बीच 26 वर्ष का अंतराल था। इस अंतराल के दौरान भारतीय प्रेस में कई परिवर्तन आ चुके थे। इसकी कार्यशैली बदल चुकी थी। इसमें ढांचागत परिवर्तन आने लगे थे। अतः प्रथम प्रेस आयोग और द्वितीय प्रेस आयोग के गठन की पृष्ठभूमियों की सरसरी पड़ताल यहां प्रासंगिक रहेगी।
वास्तव में प्रेस या मीडिया या अन्य संचार के माध्यम अपने समय का प्रतिनिधित्व करते हैं। काल कोई भी रहे, देश कोई भी रहे, तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक सांस्कृतिक-राजनीतिक घटनाओं व प्रभावों का संचार माध्यमों में प्रतिबिम्बन होता आया है। इतिहास के अनुभव इसके साक्षी हैं। तब भारतीय प्रेस इस सार्विक प्रक्रिया व यथार्थ की अपवाद कैसे हो सकती है? इसका ज्वलंत उदाहरण है 1780 के औपनिवेशिक भारत से शुरू हुई और 2011 के स्वतंत्र भारत तक पहुंची प्रेस-यात्रा की अनुभव कहानी। इस यात्रा में तीन महत्वपूर्ण मोड़ आए हैं पहला मिशनवाद, दूसरा प्रोफेशनलवाद, और तीसरा काॅमर्शियलवाद। मेरे मत में आज की प्रेस या मीडिया अपनी यात्रा के तीसरे चरण में है। प्रत्येक चरण के अपने अनुभव और प्रभाव हैं। संक्षेप में, भारतीय प्रेस की ऐतिहासिक यात्रा (1780-2011) का अध्ययन एक स्वतंत्र विषय है। यहां सिर्फ इतना कहना पर्याप्त होगा कि भारतीय प्रेस कभी निरपेक्ष नहीं रही, समय सापेक्ष रही है। समय व घटना विशेष के अच्छे या गलत प्रभाव इस पर पड़ते रहे हैं, अर्थ तंत्र और सत्ता तंत्र इसे कम-अधिक प्रभावित करते रहे हैं। आज कामर्शियलवाद, जिसे मैं ‘नग्न धंधवाद’ कहता हूं, के चरण में नकारात्मक प्रवृतियों का वर्चस्व है। यह सर्वविदित और निर्विवाद है।
प्रथम प्रेस आयोग का गठन स्वतंत्र भारत के विकास व निर्माण के महाएजेण्डे की पृष्ठभूमि में किया गया था। यद्यपि यूरोप, विशेष रूप से ब्रिटेन और अमेरिका के समाचार पत्रों के स्थिति-अध्ययन ने भी भारतीय प्रेस आयोग के गठन में भूमिका निभाई थी। इस संदर्भ में ब्रिटेन की प्रेस का ‘royal कमीशन’ का उल्लेख किया जा सकता है। इसी तरह अमेरिका प्रेस की स्थितियों के अध्ययन के लिए ‘हुचिन आयोग’ गठित किया गया था। यहां यह उल्लेखनीय है कि द्वितीय विश्व युद्ध ने यूरो-अमेरिकी प्रेस को गहराई तक प्रभावित किया था। नई परिस्थितियां पैदा हो गई थी। प्रेस का स्वामित्व चरित्र भी बदलने लगा था। कई अखबार बंद हुए, जबकि कुछ एक-दूसरे में समाहित हुए या बिक गए। पत्रकारों, गैर-पत्रकार कार्मिकों और कार्य-स्थितियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े। अतः परिवर्तित स्थितियों का अध्ययन और तद्जनित समस्याओं का समाधान आवश्यक हो गया था। समुद्रपारीय प्रेस अध्ययनों की रिपोर्टें उदाहरण के रूप में भारतीय प्रेस जगत के समक्ष मौजूद थीं।
भारतीय प्रेस भी युगांतकारी दौर से गुजरा था। गुलाम भारत की स्थितियां और चुनौतियां स्वतंत्र भारत से भिन्न थीं। स्वतंत्रता पूर्व की प्रेस की अंतर्धारा मुख्यतः मिशनवादी, मूल्यवादी और जन उद्देश्यवादी हुआ करती थी। 15 अगस्त 1947 के पश्चात भारतीय प्रेस के कार्य चरित्र में गुणात्मक परिवर्तन आया। स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष राजनीति और मिश्रित अर्थव्यवस्था में किस प्रकार की भूमिका निभाए, यह मुख्य चुनौती भारतीय प्रेस के समक्ष थी। नव उत्पन्न चुनौतियों के क्या माकूल रेसपांस हो सकते हैं, भारतीय प्रेस को इसकी भी तलाश थी।
अतः देश और प्रेस व्यवसाय की नई परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए जी.एस. राजाध्यक्ष की अध्यक्षता में प्रेस आयोग बनाया गया। गौरतलब यह है कि अध्यक्ष के चयन में ‘इंण्डियन फेडरेशन आॅफ वर्किंग जर्नलिस्ट’ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, और एक प्रकार से राजाध्यक्ष को पत्रकारों ने ही मनोनीत किया था। इससे स्वतः स्पष्ट है कि उस समय प्रेस और पत्रकारों का क्या महत्व था। इस 10 सदस्यीय आयोग के अन्य सदस्यों में डॉॅ. जाकिर हुसैन, डॉ. सी.पी. रामास्वामी अय्यर, पी.एच. पटवर्धन, चेलापति राव, आचार्य नरेंद्र देव, डॉ. वी.के.आर.वी. राव, जे. नटराजन जैसी हस्तियों को शामिल किया गया था। यह अकारण नहीं था। सरकार चाहती थी कि भारतीय प्रेस भारतीय राष्ट्र राज्य की नई आकांक्षाओं को समझे और राज्य व जनता के बीच उत्तरदायित्वपूर्ण सेतु की भूमिका निभाए।
स्वातंत्र्योत्तर भारत के प्रथम दशक के प्रेस परिदृश्य को निम्न बिंदुओं से रेखाकिंत किया जा सकता हैः
1. अंग्रेजी प्रेस का वर्चस्व।
2. भाषायी प्रेस की दोयम स्थिति।
3. मूलतः त्रिस्तरीय ढांचा- (क) राष्ट्रीय,
(ख) प्रदेश राजधानी स्तरीय और
(ग) संभागीय स्तरीय
4. भाषायी प्रेस में निम्न पूंजी और पिछड़ी मुद्रण व्यवस्था। निम्न स्तरीय संपादन व समाचार संकलन और वितरण व्यवस्था।
5. महाजनी पृष्ठभूमि का स्वामित्व व पूंजीतंत्र।
6. स्वः प्रशिक्षित पत्रकार और प्रभावशाली संपादक संस्था।
7. स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों की विरासत। मिशन-प्रोफेशन मिश्रित कार्यशैली।
8. राजसत्ता, प्रेस, नौकरशाही और उद्योग के बीच जन विरोधी और अर्थवादी गठबंधन की अनुपस्थिति।
9. राज्य का कल्याणकारी चरित्र और प्रेस की रचनात्मक व वस्तुनिष्ठ भूमिका।
10. विचार व समाचार तथा विज्ञापन के बीच समानुपातिक संतुलन।
11. प्रबंधक हस्तक्षेप नगण्य। संपादक नेतृत्व की सशक्तता।
12. सीमित एकाधिकारवादी चरित्र।
13. पत्रकारों और गैर-पत्रकारों का निम्न वेतन व आय और सादा जीवन। श्रमिक संगठनों की सक्रिय उपस्थिति। वेजबोर्ड का न होना।
14. सीमित घटनाचक्र व मुद्दे। धीमी गतिशीलता। अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा का अभाव। वांछित लाभ का लक्ष्य और बेलगाम मुनाफाखोरी से संकोच।15. प्रेस की समीक्षा व निरीक्षण के लिए किसी केंद्रीय संस्था का अभाव।
15. प्रेस-टाइटलों के पंजीकरण व नियमन का अभाव।
16. भाषायी समाचार एजेंसी की कमी और एजेंसी की आर्थिक आत्मनिर्भरता का अभाव। अंगे्रजी एजेंसियों का वर्चस्व।
17. भारतीय प्रेस का स्वदेशी पूंजी आधारित होना। मटमैली व चिटफंडी पूंजी का अभाव। विदेशी पूंजी-नियोजन को अनुमति नहीं।
18. प्रेस का मूलतः बड़े नगर और मझोले नगर आधारित होना। मेट्रो संस्कृति या संस्करण का उदय न होना।
19. प्रेस की उजली छवि और ऊंची विश्वसनीयता।
सामान्य रूप से इन बिंदुओं की पृष्ठभूमि में प्रथम प्रेस आयोग का जन्म होता है। यह आयोग तत्कालीन प्रेस की सेहत का जायजा लेता है। अपने दो वर्ष के कार्यकाल में इस आयोग का वरिष्ठ पत्रकारों, संपादकों, पे्रसपतियों, पत्रकार-कर्मचारी संगठनों तथा विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिनिधियों के साथ संवाद होता है। सरकारी क्षेत्र के प्रतिनिधि भी इसमें शामिल रहते हैं। दो वर्ष के गहन डाइग्नोसिस के पश्चात राजाध्यक्ष आयोग रोग निदान के लिए कई ऐतिहासिक सुझाव सरकार को देता है। आयोग की अनेक सिफारिशों में से दो महत्वपूर्ण सिफारिशें थींः भारतीय प्रेस परिषद और भारतीय समाचार पत्र पंजीकरण की स्थापना। इन सिफारिशों को ध्यान में रखकर जुलाई 1956 में आर.एन.आई और जुलाई, 1966 में प्रेस काउंसिल आॅफ इंडिया की स्थापना कर दी जाती है। इसके अतिरिक्त अन्य सिफारिशों को ध्यान में रखकर 1962 में प्रेस परामर्श समिति गठित की जाती है। प्रेस स्वामित्व एकाधिकारवाद को रोकने का सुझाव भी स्वीकार कर लिया जाता है, लेकिन आधे अधूरे मन से। 1971 तक इस मुद्दे पर कोई कार्रवाई नहीं हो पाती है। इस दिशा में तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री नन्दनी सतपथी और इन्द्र कुमार गुजराल कुछ प्रयास करते भी हैं, और प्रेस को उद्योग से ‘डीलिंक’ करने का प्रस्ताव रखा जाता है। लेकिन प्रेसपतियों के भारी विरोध के कारण इंदिरा सरकार का उत्साह ठंडा पड़ जाता है।
आज 40 वर्ष बाद स्वामित्व एकाधिकार के विकराल और बहुमुखी रूप नजर आ रहे हैं। प्रेस परिषद भी दंतहीन है। इसकी स्थापना का उद्देश्य नेक था, लेकिन जन्म से आज तक यह दंतहीन-पंजाहीन शेरनी से ज्यादा कुछ नहीं है। इसकी दुखभरी गाथा सर्वविदित है।
आयोग ने भारतीय प्रेसपतियों और पत्रकारों को उत्तरदायित्वपूर्ण बनाने की दृष्टि से कई महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए थे। प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा, प्रेस व्यवसाय में उच्च मानदंडों का पालन, संपादक महत्व की रक्षा, वेज बोर्ड का गठन, पृष्ठ मूल्य निर्धारण, सार्वजनिक हितों से संबंधित समाचारों को प्राथमिकता व अबाध प्रसारण, पत्रकारों की उच्चस्तरीय चयन प्रक्रिया, समय-समय पर प्रेस विकास की समीक्षा करना, प्रपंचपूर्ण विज्ञापनों के प्रकाशन को दण्डनीय अपराध घोषित करना, ज्योतिष-भविष्यवाणियों के प्रकाशन को अवांछनीय मानना, पीत व सनसनीखेज पत्रकारिता के विरुद्ध चेतावनी, अंग्रेजी और भाषाई अखबारों के बीच विज्ञापन असंतुलन जैसे कई पहलुओं पर कदम उठाने की सिफारिशें नेहरू-सरकार से की गई थी। उस समय सूचना और प्रसारण मंत्री डाॅ. बी.वी. केसकर हुआ करते थे।
यदि प्रथम प्रेस-आयोग की सिफारिशों पर अमल का गंभीरतापूर्ण विश्लेषण किया जाए तो परिणाम सुखद नहीं निकलेंगे। क्या सरकार समाचार संस्थानों में पृष्ठ मूल्य निर्धारण करा सकी? क्या प्रेस संस्थानों में विज्ञापनदाताओं के निरंतर बढ़ते वर्चस्व को रोक सकी? क्या अखबारों के बीच मूल्य जंग व अस्वस्थ व अनैतिक प्रतिस्पर्धा को रोका जा सका। क्या संपादक संस्था की रक्षा हो सकी? क्या भविष्यवाणियां और अंधविश्वासों के प्रकाशन में कमी लाई जा सकी? क्या पत्रकारों व गैर-पत्रकारों के वेतनमान के लिए गठित विभिन्न वेज बोर्डों की सिफारिशों को प्रेस पतियों से लागू करवाया जा सका? इस प्रकार के कई प्रश्न हैं जो कि प्रथम प्रेस आयोग की दीर्घ कालीन भूमिका की सार्थकता पर सवालिया निशान लगाते हैं। आखिर प्रेस आयोग की अधिकांश सिफारिशों को निष्प्रभावी बनाने के लिए कौन लोग जिम्मेदार है ै? यह प्रश्न उठेगा ही। इसका सहज व स्वाभाविक उत्तर यह है कि यदि तत्कालीन सरकार लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ को लोकोन्मुखी, पूंजी वर्चस्व व विषमता मुक्त और सेहतमंद रखने के प्रति प्रतिबद्ध रहती तथा अपनी राजनीतिक इच्छा शक्ति का प्रदर्शन करती तो कालान्तर में भारतीय प्रेस में ‘नानारूपी फिसलनें’ पैदा नहीं हुई होतीं। फिर भी सीमित सफलताओं और अनेक विफलताओं के बावजूद प्रेस-आयोग के गठन की पहल को एक स्वागत योग्य प्रयोग कहा जाएगा।
II
सन् 1954 से 1978 के बीच देश की राजनीति और प्रेस जगत में द्रुतगामी परिवर्तन हुए। घटनाओं की फ्रीक्विंसी में तेजी आई। प्रथम आयोग और द्वितीय आयोग के बीच की प्रेस-यात्रा को समझने के लिए यहां चंदेक ऐतिहासिक घटनाओं का स्मरण उपयोगी रहेगा। इस कालावधि में भारत ने 1962 से 1965 और 1971 में क्रमशः चीन तथा पाकिस्तान के साथ युद्धों का सामना किया; संसद में प्रमुख विपक्षी दल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का 1964 में विभाजन हुआ; 1964 में नेहरू के निधन के पश्चात उनके उत्तराधिकारी के रूप में पहले लाल बहादुर शास्त्री और बाद में 1966 में इंदिरा गांधी ने देश की सत्ता संभाली; डाॅ. राममनोहर लोहिया का गैर-कांग्रेसवाद का दबदबा और 1967 में कांग्रेस का विभाजन; इसी दौर में पश्चिम बंगाल में नक्सलबाड़ी आंदोलन का विस्फोट; 1972-73 में जे.पी. आंदोलन की शुरूआत; 1974 में पोखरण विस्फोट; 1975 में चुनाव याचिका में इलाहाबाद हाईकोर्ट का प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विरुद्ध फैसला; 25 जून का देश में इमरजंसी लागू करना; प्रेस-सेंसरशिप की घोषणा; राजनेताओं व पत्रकारों की गिरफ्तारियां; 1977 के आम चुनावों में इंदिरा गांधी और कांग्रेस की करारी पराजय; और मोरारजी भाई देसाई के नेतृत्व में केंद्र में जनता पार्टी का सत्तारूढ़ होना।
इन राजनीतिक घटनाओं के समानांतर भारतीय प्रेस में भी कई परिवर्तन दर्ज हुए। साक्षरता बढ़ने लगी और भाषाई पत्रकारिता का विस्तार होने लगा। समाचार पत्रों और पत्रकारों एवं कर्मचारियों की संख्या बढ़ने लगी; समाचार कवरेज के नये क्षेत्र (पंचवर्षीय योजनाएं, सहकारी आंदोलन, पंचायती राज आंदोलन, बांध निर्माण व औद्योगीकरण, युद्ध कवरेज, नक्सलबाड़ी आंदोलन; नवभारत निर्माण, मुशहरी-आंदोलन, संपूर्णक्रांति, 1971 में शरणार्थी समस्या आदि) अस्तित्व में आए। प्रदेशों से नए समाचारपत्र प्रकाशित होने लगे। क्षेत्रीय प्रेस समानान्तर शक्ति के रूप में उभरने लगी। भाषाई संपादकों व पत्रकारों के महत्व को सत्ता-गलियारों में मान्यता मिलने लगी। प्रेस की कार्य स्थिति और पत्रकार व कर्मचारियों के वेतनमानों में आंशिक सुधार दर्ज हुए। हिंदुस्थान समाचार, समाचार भारती जैसी भाषाई न्यूज एजेंसियां शुरू हुईं। मुद्रण में काफी परिवर्तन हुए। आॅफसेट प्रिटिंग की शुरूआत हुई।
महानगरीय और शहरी पाठकों के साथ-साथ कस्बाई व ग्रामीण पाठकों का वर्ग भी धीरे धीरे उभरने लगा। अखबार पहले से अधिक प्रोफेशनल होने लगे। उन्हें विभिन्न माध्यमों से आकर्षक बनाया जाने लगा। यह वह संक्रमण काल था जब भाषाई प्रेसपति अपनी पुरानी महाजनी पूंजी पृष्ठभूमि से उभरकर आधुनिक औद्योगिक पंूजी के युग में प्रवेश के लिए लगभग तैयार हो चुका था। वह परिवर्तित संदर्भों में सोचने लगा था। प्रेस प्रतिष्ठानों में पूंजी नियोजन बढ़ने लगा था। एकाधिकारवादी व बड़े प्रेस प्रतिष्ठान अपना तेजी से आधुनिकीकरण कर रहे थे। मझोले क्षेत्रीय अखबार भी इस दौड़ में पीछे नहीं रहना चाहते थे। मिशनवादी पत्रकारिता नेपथ्य में लगभग खो चुकी थी। इसका स्थान व्यावसायिक पत्रकारिता ने ले लिया था। यही मुख्यधारा की पत्रकारिता थी। सारांश में, इस दो-ढ़ाई दशक के काल में भारतीय प्रेस जगत में ‘पेराडाइम शिफ्ट’ दिखाई देता है।
अलबत्ता इसी काल में 1975 के आपातकाल से भारतीय प्रेस की चारित्रिक निर्बलताएं भी उजागर हुईं हैं। जहां इमरजंसी से देश की राजसत्ता का अलोकतांत्रिक चेहरा सामने आता है, वहीं सेंसरशिप भारतीय प्रेस की अन्तर्निहित नमनीयता व अवसरवादीता को भी बेपर्द करती है। यह स्थापित कर देती है कि प्रेस प्रतिष्ठानों के मालिक और प्रतिष्ठित संपादक व पत्रकार भीतर व बाहर से कितने दनयीय हैं। सत्ता के विरुद्ध डटे रहने की उनकी प्रतिरोधी ऊर्जा कितनी क्षीण है। इमरजेंसी काल में पत्रकारिता के बड़े-बड़े स्तंभ बालू के निकले। इससे प्रेस की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा। इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि आधुनिक भारतीय प्रेस ने स्वतंत्रता संघर्ष की पत्रकारिता की विरासत से स्वयं को ‘डी लिंक’ कर लिया है। इस पैराडाइम शिफ्ट का ठोस लाभ प्रेस के प्रभु वर्ग को मिला। सत्ताधीशों और प्रेस स्वामियों को इस बात का अहसास हो गया कि प्रेस के समाचार-विचार नेतृत्व अर्थात् संपादक व पत्रकारों का अनुकूलन किया जा सकता है। इनका आवश्यकतानुसार इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके साथ ही संपादकीय नेतृत्व की नमनीय स्थिति के मनवांछित दोहन के युग की शुरूआत हो गई। प्रेस में नई-नई प्रवृतियां उभरने लगीं। प्रबंधन और विज्ञापन संस्था ‘एस्सेर्ट’ करने लगीं। यद्यपि, अपवाद स्वरूप ऐसे संपादक व पत्रकार भी थे जो जेल भी गए और अंत तक पत्रकारिता के उच्च मानदंडों का परचम थामे रखा। उन्होंने सुविधानुसार चोला नहीं बदला। बस! एक ही बाना पहने रखा और वह था दबाव मुक्त व लोकप्रतिबद्ध पत्रकारिता का।
इस घटनाचक्र की पृष्ठभूमि में 1978 में दूसरे प्रेस आयोग का जन्म होता है। इस आयोग ने करीब चार वर्षों तक भारतीय प्रेस, उसके स्वामित्व, उसकी संरचना, व्यावसायिकता, औद्योगिक-व्यापारिक संबंध, भाषाई प्रेस, समाचार एजेंसी, पत्रकारों की कार्य स्थिति, प्रेस का सामाजिक उत्तरदायित्व, प्रेस-स्वतंत्रता, भारतीय प्रेस परिषद की भूमिका, प्रेस बनाम संसद के विशेषाधिकार, प्रबंधकों के हस्तक्षेप के विरुद्ध सुरक्षा व संपादकीय स्वतंत्रता, बड़े अखबारों में प्रबंधकों और संपादक के मध्य ‘बोर्ड आॅफ ट्रस्टी’ की व्यवस्था, समाचार और विज्ञापन के बीच आनुपातिक संबंध, मझौले व लघु समाचार पत्रों की विज्ञापन स्थिति जैसे पक्षों का अध्ययन किया और कई महत्वपूर्ण सिफारिशें कीं, लेकिन सबसे अधिक ऐतिहासिक व युगांतकारी सिफारिश थी प्रेस का उसके प्रेसेतर उद्योग धंधों से पूर्णरूपेण ‘डीलिंक’ करने की। आयोग का मत थाः
“We think that in the interest of the public, it is necessary to insulate the press from the dominating influence of the other business interests. We propose the enactment of a law in the interest of the general public making it mandatory for persons carrying on the business of publishing a newspaper to severe their connections with other business to the extent indicated hereinafter by us. In this context we are using the expression ‘person’ in its legal sense so as to bring within its ambit individuals, companies, trusts, etc… The central idea underlying the legislation would be that a person carrying on the businesses of publishing a newspaper should not have directly or indirectly, an interest in excess of the prescribed interest’ in any other business, or be in a position of being controlled, directly or indirectly, by any other person or persons having an interest, in excess of the prescribed interest, in any other business. The expression ‘business’ should be defined to mean any thing which occupies the time, atteniton and labour of a person for the purpose of profit but not any activity in the nature of exerciese of a profession.
The commission further said:
“We are conscious that it would be impracticable to make the proposed legislation applicable to all persons carrying on the business of publishing a newspaper one stroke. We are of the view that in the first instance it should be enforced in the case of all persons who are in a position of controlling the publications of one or more daily newspapers with the same or different titles, in one or more languages, the circulation of which, taken single or cumulatively, exceeds one lakh copies per day…”
यह सर्वविदित है कि देश की प्रतिष्ठानी प्रेस या प्रभुवर्गीय समाचार घराने ‘जूट प्रेस’ के रूप में भी विख्यात रहे हैं। महानगरीय स्थित इन बहुसंस्करणीय समाचार-पत्र समूहों के स्वामियों के औद्योगिक व व्यापारिक हित जूट, बैंकिंग, टैक्सटाइल, शुगर, सीमेंट, आॅटो मोबाइल, प्लांटेशन, स्टील रोलिंग, रबड़, सीमेंट, पेपर मिल, इलेक्ट्रोनिक्स, कृषि-आधारित उद्योग, आयुर्वेदिक दवाइयां जैसे प्रेसेतर औद्योगिक क्षेत्रों से जुड़े रहे हैं। 21वीं सदी में तो इस सूची का और भी विस्तार हो चुका है; रीयल इस्टेट, कंस्ट्रक्शन, शराब-बीयर निर्माण, चिटफंड-सीरियल प्रोडक्शन, फिल्म प्रोडक्शन, आई.टी. सेक्टर जैसे ढेरों नामी-बेनामी उद्योग धंधे इसमें जुड़ गए हैं। लेकिन दुर्भाग्य से इस सुझाव पर आयोग के सदस्यों के बीच सर्वसम्मति का अभाव रहा। आयोग के चार प्रतिष्ठित सदस्यों ने इस सुझाव का कड़ा विरोध किया। इन सदस्यों में शामिल थे सर्वश्री गिरीलाल जैन, राजेन्द्र माथुर, डाॅ. एस.के. परांजपे और जस्टिस एस.के. मुखर्जी। इस असहमति को लेकर कई प्रकार के विवाद उठे। इसकी कई व्याख्याएं हुईं। लेकिन सच्चाई यह है कि दोनों आयोग स्वामित्व के केंद्रीकरण को रोकने, और प्रेस तथा ट्रेड व इंडस्ट्री के परस्पर संबंधों का विच्छेद करने में दयनीय रूप से नाकाम रहे हैं। द्वितीय आयोग ने तो इतना स्पष्ट मत व्यक्त किया था कि ‘‘एकाधिकारवादी घरानों से प्रेस को ‘डीलिंक’ करने के लिए’’ सरकार को चाहिए कि देश के ‘‘उच्च आठ समाचार प्रतिष्ठानों का सार्वजनिक अधिभार ग्रहण करे।’’ लेकिन क्या नतीजा निकला? नाकामियां ही हाथ लगीं। संक्षेप में प्रेस सामंतों की शक्ति के समक्ष नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी (1954-1982) तक की सरकारें इस मुद्दे पर सिर्फ नतमस्तक होती रहीं हैं।
इसके अलावा अन्य सुझावों के आलोक में समाचार पत्र विकास आयोग का अभी तक गठन नहीं किया गया; बोर्ड आॅफ ट्रस्टी की स्थापना भी नहीं हुई; समाचार-विचार और विज्ञापनों के बीच असंतुलन बढ़ रहा है; भविष्यवाणियां प्रचण्डता से प्रकाशित हो रही है; छवि प्रोजेक्शन के लिए विज्ञापन-दुरुपयोग जारी है, एक स्थायी राष्ट्रीय विज्ञापन नीति नहीं है, पत्र सूचना कार्यालय (पी.आई.बी) का पुनर्गठन शेष है।
संक्षिप्त और स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो प्रेस सामंतों ने 1954 से लेकर अब तक पहले से हजार गुना अधिक अपनी सरहदों का विस्तार किया है। वे अधिक शक्तिशाली हुए हैं और भारतीय राष्ट्र राज्य को ललकारने की हैसियत अर्जित कर चुके हैं?
III
अब हमंे पहले और दूसरे आयोग के सुझावों, अनुभवों और परिणामों के परिप्रेक्ष्य में तीसरे आयोग के गठन के कारणों को रेखाकिंत करने की जरूरत है। 1954 से लेकर 2011 तक के 57 वर्ष के काल में देश और प्रेस में काफी कुछ घट चुका है। अब भारतीय राज्य परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र बन चुका है; 2020 तक विश्व की प्रमुख आर्थिक शक्ति बनने के स्वप्न से यह समृद्ध है; अगले कुछ वर्षों में हम चांद पर दस्तक देने वाले हैं। अब परंपरागत भारतीय प्रेस का संबोधन नेपथ्य में खिसक रहा है। इसके स्थान पर भारतीय मीडिया का संबोधन पत्रकारिता क्षितिज पर अपने पूरे ग्लैमर के साथ स्थापित हो चुका है। वास्तव में पांचवें व आठवें दशक की प्रेस और नवउदारवादी अर्थतंत्र की पैदाइश वर्तमान भारतीय मीडिया के बीच समानताएं खोजना लगभग निष्फल कवायद होगी। दोनों के चाल, चरित्र और चेहरे नितान्त भिन्न हैं।
अलबत्ता, स्वामित्व वर्ग की निरतंरता अवश्य बनी हुई है। यह वर्ग नए साधनों, नई टेक्नोलॉजी समुद्रपारीय पूंजी संबंध और नई बहुआयामी गठबंधन शक्ति से निश्चित ही लैस हुआ है। यह स्वयं में स्वतंत्र व दिलचस्प अध्ययन का विषय है।
फिलहाल 21वीं सदी की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए तीसरे आयोग के गठन की, जमीन निम्न आधारों पर तैयार की जा सकती हैः
सर्वप्रथम
1. प्रेस प्रतिष्ठानों में विदेशी पूंजी नियोजन की अनुमति 26 प्रतिशत तक। नेहरू से लेकर इन्द्र कुमार गुजराल तक, किसी भी प्रधानमंत्री ने यह अनुमति नहीं दी थी। वैश्वीकरण के दवाब में वाजपेयी सरकार ने अनुमति प्रदान की।
2. प्रेस व मीडिया में उच्च पूंजी का वर्चस्व/ विज्ञापनवाद का प्रभुत्व। ब्रांड मैनेजर का निर्णायक उदय।
3. संपादक संस्था का परोक्ष विलोपीकरण।
4. अनुबंधित पत्रकार व कर्मचारी प्रथा को प्रोत्साहन। वेज बोर्ड नियमित मानव-शक्ति का क्रमिक लोप। निष्प्रभावी श्रमिक संगठन।
5. ऊंचा वेतन व सुविधावादी जीवन शैली लेकिन प्रतिष्ठान में असुरक्षा व अनिश्चितता का वातावरण।
6. प्रशिक्षित पत्रकार व उत्पीड़क प्रतिस्पर्धा।
7. समाचार पत्रों के बीच अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा और घातक ‘मूल्य जंग’ ‘(प्राइस वार)’। मटमैली पूंजी का समाचार।
8. क्षेत्रीय भाषाई प्रेस व मीडिया की सत्ता का उदय।
9. बहु व अंतर्राज्यीय संस्करणों का विस्फोट।
10. पंचस्तरीय समाचार संरचनाः 1. राष्ट्रीय, 2. प्रदेश राजधानी, 3. संभागीय, 4. जिला स्तरीय और 5. ताल्लुक या तहसील या प्रखंड स्तरीय।
11. केंद्रीय समाचार डेस्क और परोक्ष केंद्रीय नियंत्रण।
12. समाचार व मुद्दों का अति स्थानीयकरण। समाचारपत्र का विखंडीकरण और उभरता अलोकतांत्रिक व्यक्तित्व। संवादहीनता व अपरिचितपन की प्रवृतियों का उभरना।
13. समाचारपत्रों में उभरती विद्रूपता।
14. प्रेस या मीडिया का प्रोडक्ट में रूपांतरण।
15. समाचार व विचार और विज्ञापन के बीच गहराता प्रतिशत असंतुलन।
16. पैसा वसूल समाचार परिघटना। (पेड न्यूज) अर्थात् प्रायोजित समाचार व विचार सामग्री का फलता फूलता व्यापार।
17. लांबिंग का कारोबार।
18. स्टिंग आपरेशन।
19. विदेशी अखबारों का भारतीय फेक्सीमिली संस्करण।
20. भारतीय लोकमत को प्रभावित करने की रणनीति।
21. एक व्यक्ति या परिवार या समूह का बहु आयामी संचार माध्यम पर नियंत्रण (प्रेस, चैनल, केबल, आदि।)
22. अखबारों के इंटरनेट संस्करण और साइबर पत्रकारिता।
23. अखबार और पत्र-पत्रिकाओं में सेक्स, ग्लैमर, अपराध, अंधविश्वास आदि का बढ़ता प्रभाव।
24. सूचना-मनोरंजन परिघटना।
25. आचार संहिता की योजनाबद्ध उपेक्षा।
26. विकलांग भारतीय प्रेस परिषद।
27. प्रायोजित व दिखावटी पत्रकार और छद्म स्वतंत्रता।
28. प्रेस में आंतरिक उपनिवेश का परिवेश।
29. सोशल मीडिया का उदय।
30. ओम्बड्समेन की व्यवस्था नहीं।
31. भाषाई समाचार एजेंसियों का अवसान।
32. पत्रकारों पर बढ़ते हमले और राज्य की उदासीनता।
33. जन संघर्षों की खबरों को दबाना।
34. पेज थ्री संस्कृति को प्रोत्साहित करना।
35. बडे़ प्रेस घरानों द्वारा संभागीय व जिला स्तरीय संस्करण निकालने के कारण स्थानीय स्तर के अखबारों की दयनीय स्थिति।
36. पत्रकारों को गैर-पत्रकारीय कार्यों में जोतना।
37. प्रेस प्रतिष्ठानों में ‘शोध एवं विकास’ पर न्यूनतम ध्यान। संदर्भ विभाग व पुस्तकालय का अभाव।
38. औद्योगिक व व्यापारिक हितों की रक्षा की दृष्टि से काॅरपोरेट घरानों द्वारा ग्लैमरीकृत पत्रिकाओं का आक्रामक प्रकाशन। बौद्धिक जगत व लोकतंत्र को प्रभावित करने की कोशिशें।
39. एकाधिकारवादी प्रेस व मीडिया घरानों में देश के लिए ‘एजेंडा निर्धारण’ की उग्र होती प्रवृत्ति।
40. नवउदारवादी वैश्विक आर्थिक शक्तियों की अविवेकपूर्ण पक्षधरता। स्वदेशी हितों व आवश्यकताओं के प्रति सुनियोजित उदासीनता।
ऐसे और भी अनेक आधार हो सकते हैं जिन्हें चिन्हित करने की आवश्यकता है। लेकिन तीसरे आयोग के केस को आगे बढ़ाने के लिए फिलहाल चिन्हित आधारों पर सोचा जाना चाहिए। क्योंकि मुख्य मुद्दा है लोकतंत्र को जीवित, जीवंत और समतावादी बनाए रखने के लिए ऐसी प्रेस या मीडिया का होना आवश्यक है जोकि हर दृष्टि से दबावमुक्त, जवाबदार और लोकोन्मुखवादी हो। दूसरे प्रेस आयोग का स्पष्ट मत था।
“The press being a prime needs of society, when its machinery is concentrated only in the hands of a few, some of whom indulge in practices which are harmful to the health of society, freedom of the press is in danger as it is employed for a purpose for which it was never indeed. In a system of adult suffrage, freedom of the press becomes meaningless when it is not known on whose behalf and whose benefit this freedom is exercised…”
पिछले वर्षों में हम देख चुके हैं कि किस प्रकार प्रेस की स्वतंत्रता की दुहाई देकर कतिपय प्रेस सामंतों ने अपने औद्योगिक अपराधों, विदेशी मुद्रा विनिमय उल्लंघन तथा अन्य घोटालों को छुपाने की कुचेष्टाएं की थीं। उन्होंने अपने निजी अपराधों को प्रेस स्वतंत्रता के साथ नत्थी कर दिया था।
यह सर्वविदित है कि प्रेस सामंत और क्षेत्रीय प्रेसपति किस प्रकार केंद्र व राज्य सरकारांे पर विभिन्न प्रकार के दबाव डालकर अनगिनित सुविधाएं हथियाते हैं। दूसरे आयोग के बाद इस प्रकार की गतिविधियों में तेजी आई है। एक प्रकार से चुनिंदा तरीके से प्रेस की स्वतंत्रता पर सौदेबाजी की जाती है। इस खेल के खिलाड़ी होते हैं प्रेस प्रभु वर्ग, राजनीतिक दल, काॅरपोरेट घराने, नौकरशाह, बिल्डर, कांट्रेक्टर, भू-माफिया तथा अन्य नवउदित संगठित धनिक व प्रोफेशनल वर्ग। इन तत्वों के कारण लोकहित व जनकल्याण के समाचारों को या तो रोका जाता है या किसी मामूली कोेने में प्रकाशित कर दिया जाता है। 2009 के आम चुनावों में पेड न्यूज या न्यूज फिक्ंिसग के महाकांड से हम सभी परिचित हैं। हम यह भी जानते हैं कि इस मामले में किस प्रकार प्रेस सामंतों ने भारतीय प्रेस परिषद को प्रभावित करने की कुचेष्टाएं की थीं। पेड-न्यूज के महाकांड में लिप्त समाचार पत्रों के सभी नामों को उजागर नहीं होने दिया गया। परिषद की जांच समिति इस मुद्दे पर विभाजित रही। कतिपय प्रतिबद्ध व जागरूक सदस्यों के कारण नामों का खुलासा हो सका। इस तरह की हरकतों से प्रेस की स्वतंत्रता संकटग्रस्त होने लगती है।
आज भाषाई प्रेस का युग है। देश में दस चोटी के अखबार हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के हैं। आने वाले दशक में भारतीय भाषाओं के पाठकों की संख्या में असाधारण वृद्धि की घोषणाएं की जा रही हैं क्योंकि साक्षरता तेजी से बढ़ रही है। हिंदी राज्यों में पाठकों का बड़ा बाजार, विशेष रूप से ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों में, तैयार हो रहा है। बहुराष्ट्रीय निगमों और देशी-विदेशी विज्ञापन इस परिघटना पर नजर गड़ाए हुए हैं क्यांेकि पाठक वर्ग उपभोक्ताओं भी होता है। अतः प्रेस व मीडिया के माध्यम से नए सिरे से सांस्कृतिक आक्रमण, उपभोक्ताकरण और लोकमत अनुकूलन का कारोबार चलाया जाएगा। कुल मिलाकर प्रेस व मीडिया में ग्राहक वर्ग पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए बहुआयामी निरंकुशता दिखाई देगी। इस संभावित अराजकता, उच्छृंखलता, निरंकुशता जैसी प्रवृत्तियों से निपटने के लिए कोई तो बंदोवस्त करना होगा। इसके लिए राज्य, पत्रकार वर्ग, लोकवृत के नेता, संवेदनशील प्रेसपति, विधि विशेषज्ञ जैसे व्यक्तियों को सक्रिय होना होगा। इस दृष्टि से तीसरे आयोग की स्थापना की दिशा में बहुस्तरीय कदम उठाने होंगे। यहां इस सच्चाई को गहराई से स्वीकारना होगा कि भविष्य में भाषाई प्रेस की भूमिका काफी चुनौतीपूर्ण रहेगी। अतः इस तथ्य की तरफ खास ध्यान देने की जरूरत है।
यहां यह भी विचारणीय विषय है कि आयोग का कार्यक्षेत्र किस प्रकार का होना चाहिए? चूंकि आज मीडिया त्रिआयामी है अर्थात पिं्रट या प्रेस, दो इलेक्ट्राॅनिक या चैनल व केबल और तीन इंटरनेट या साइबर। सूचना, समाचार, विचार और मनोरंजन के इन तीन माध्यमों की आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए आयोग होना चाहिए। आयोग एक से अधिक भी हो सकते हैं या बहुसमावेशी आयोग बैठाया जा सकता है। लेकिन मेरे मत में इन तीनों माध्यमों की अपनी अपनी विशिष्टताएं, समस्याएं और चुनौतियां हैं। तीनों की कार्यशैलियां भी भिन्न हैं। अतः मुद्रण माध्यम या प्रेस या पत्र-पत्रिकाओं के लिए अलग से स्वतंत्र आयोग का गठन उपयुक्त रहेगा।
अलबत्ता आयोग के कार्याधिकार के लिए तात्कालिक तौर पर निम्न लक्ष्य प्रस्तावित किए जा सकते हैं:
भारतीय प्रेस परिषद को वैधानिक दृष्टि से शक्ति सम्पन्न बनाना। कार्रवाई और दण्ड के अधिकारों से लैस करना।
प्रेस स्वामित्व स्थिति का गंभीर अध्ययन।
एकाधिकार और केंद्रीकरण को समाप्त करने के लिए राष्ट्रीय कानून।
समाचार-विचार और विज्ञापन में समानुपातिक संतुलन स्थापित करना/कानून बनाना।
एक व्यक्ति या एक समूह या परिवार को एक ही माध्यम रखने का अधिकार।
राष्ट्रीय और बड़े प्रेस प्रतिष्ठानों में प्रबंधक और संपादक के बीच प्रबुद्ध वर्ग या नागरिक समाज के प्रतिनिधियों का न्यास मंडल की स्थापना करवाना।
संपादक संस्था को पुनर्जीवित करना। प्रबंधक, ब्रांड मैनेजर और विज्ञापन दाताआंे के कार्यक्षेत्रों का वैधानिक रूप से निर्धारण और संपादन कार्य क्षेत्र की स्वतंत्रता की बहाली।
प्रेस और उद्योग-व्यापार को सख्ती से ‘डीलिंक’ करना।
अनुबंध-व्यवस्था की समीक्षा। वेज बोर्ड के प्रावधानों को लागू करवाना।
स्थानीय लघु व मझौले समाचार पत्रों को सुरक्षा।
विदेशी शक्तियों व पूंजी द्वारा भारतीय अभिमत को प्रभावित करने की कोशिशों की रोकथाम।
भाषायी समाचार एजेंसियों की पुनस्र्थापना।
कस्बों व ग्रामीण क्षेत्रों में पत्रकारिता शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था।
प्रेस विकास आयोग की स्थापना। भाषाई प्रेस पर विशेष ध्यान।
डी.ए.वी.पी., पी.आई.बी., आर.एन.आई. और प्रदेशों के जनसंपर्क कार्यालय आदि के कार्यों की विवेचनात्मक समीक्षा आवश्यक है।
संस्करणों की संख्या व सीमा क्षेत्र निर्धारण।
सोशल ऑडिटिंग की व्यवस्था। प्रेस की जवाबदारी निर्धारण।
पत्रकारों की सुरक्षा, स्वतंत्रता और स्थायित्व की व्यवस्था।
पूर्व के दोनों आयोगों के सुझावों की समीक्षा और अधूरे कार्यों को पूरा कराने का उत्तरदायित्व।
प्रेस में विदेशी पूंजी नियोजन की अनुमति की जांच और भविष्य में इसके रोकथाम के उपाय।
मनमोहन सिंह सरकार द्वारा मनोरंजन क्षेत्र में 74 से 100 प्रतिशत और प्रेस में 26 से 49 प्रति की विदेशी पूंजी नियोजन का मार्ग साफ करने की परिस्थितियांे और विदेशी दबावों का अध्ययन।
राष्ट्रीय प्रेस आयोग के साथ-साथ क्षेत्रीय आयोगों के गठन की आवश्यकता।
प्रेसपत्ति, प्रबंधक (विज्ञापन, वितरण मैनेजर आदि) तथा मान्यता प्राप्त संपादक और अन्य वरिष्ठ पदों (संयुक्त संपादक) स्थानीय संपादक, ब्यूरो प्रमुख, चीफ रिपोर्टर आदि) पर आसीन पत्रकार प्रति तीसरे वर्ष अपनी चल-अचल संपत्ति की घोषणा करें।
संदर्भ सामग्री
1- J.P.Chaturvedi: The Indian press at the Crossroads.
2. Robin Jeffry : Indian’s Newspaper Revolution
3. Sevanti Ninan : Headlines from the Heartland
4. समयांतर : मीडिया विशेषांक, फरवरी, 2011
5. रामशरण जोशी: मीडिया विमर्श।
6. रामशरण जोशी: मीडियाः मिशन से बाजारीकरण तक।
7. रामशरण जोशी: मीडिया, मिथ और समाज।