मंगलवार, 27 सितंबर 2011

हारूद का रद्द होना

उमेश चतुर्वेदी
कश्मीर घाटी में शांति लाने की बारूदी और राजनीतिक कोशिशों के बीच संस्कृति की धारा अब तक खामोश ही रही है...जिस कश्मीरी भाषा ने ललद्यद जैसी लब्धप्रतिष्ठ और क्रांतिकारी कवियत्री को पैदा किया हो...वहां की संस्कृति और साहित्यिक धारा का शांति के पक्ष में न उतरने की वजह भले ही बारूद की दुर्गंध और संगीनों की छांह रही हो...लेकिन पहली बार घाटी में संस्कृति की धारा उठती नजर आई थी। कश्मीर विश्वविद्यालय के श्रीनगर कैंपस और श्रीनगर के दिल्ली पब्लिक स्कूल में चौबीस से छब्बीस सितंबर तक कश्मीरी साहित्य का अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हारूद होना था।
 माना जा रहा था कि ये सम्मेलन घाटी की सांस्कृतिक आवाज को उभारने और उसके जरिए घाटी में जारी अमन विरोधी हवा को एक हद तक रोकने में कामयाब होगा। उम्मीद तो यह भी थी कि हारूद के जरिए कश्मीरी साहित्य की गतिविधियों की तरफ दुनिया का ध्यान जाएगा तो घाटी के लेखकों और संस्कृतिकर्मियों को नया अनुभव भी मिलेगा। राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी हारूद की सफलता के लिए खुलेतौर पर तो नहीं...लेकिन अंदरखाने में सहयोगी भूमिका में जरूर थे....आयोजकों की मानें तो कश्मीर से बाहर के बीस लेखकों – जिसमें शोभा डे जैसी लेखिका का नाम भी शामिल है...अपनी सहमति दे दी थी। कश्मीरी के भी तीस लेखक हारूद में शामिल होने को लेकर उत्साहित थे। 1990 से घाटी का जो माहौल है, उसे देखने-परखने और साहित्य-संस्कृति पर उसका क्या असर है...इसे देखने के लिए दुनिया के लेखक भी उत्सुक थे...हुर्रियत कांफ्रेंस का उदारवादी धड़ा भी हारूद को घाटी में कामयाब होते देखना चाहता था।
शांति के दुश्मनों को ऐसी गतिविधियां हमेशा नागवार गुजरती रही हैं। अगर घाटी में ये सम्मेलन कुशलतापूर्वक संपन्न हो जाता तो इसके दूरगामी संकेत जाते। संभवत: भारत सरकार समझती थी कि हारूद को भी उसके खिलाफ कूटनीतिक हथियार और हमले का बहाना बनाया जा सकता है....शायद यही वजह थी कि खुलेतौर पर वह इसका समर्थन नहीं कर रही थी। चूंकि मामला संस्कृति के क्षेत्र से जुड़ा था..लिहाजा शांति के दुश्मनों और बारूद की गंध के सहारे घाटी को अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर बनाए रखने और उसके जरिए रोजी-रोटी कमाने वाले वर्ग को हारूद की भावी कामयाबी नहीं सुहाई। और शांति के इन दुश्मनों को इसकी नजर लग गई। पहले इस सम्मेलन के खिलाफ फेसबुक और ट्विटर के जरिए सवाल उठाए गए। कश्मीर घाटी में लोकतंत्र ना होने और मानवाधिकार उल्लंघन के आधार पर इस सम्मेलन का विरोध किया जाने लगा। कहा ये गया कि जहां लोकतंत्र नहीं है, वहां ऐसे आयोजनों का क्या मतलब...सवाल यह भी उठा कि जिस कश्मीर विश्वविद्यालय में ये आयोजन किया जा रहा है, उसमें छात्रों को लोकतांत्रिक अधिकार नहीं दिए गए हैं...इसी बीच किसी ने यह भी अफवाह उड़ा दी कि इस कार्यक्रम में शामिल होने के लिए मशहूर लेखक सलमान रश्दी भी आने वाले हैं। अपनी किताब द सैटेनिक वर्सेज यानी शैतान की आयतें से मशहूर सलमान रश्दी को लेकर मुस्लिम समाज के एक वर्ग में विरोध की धारा नब्बे के दशक से ही रही है। इसलिए जैसे ही ये खबर सामने आई कि हारूद में सलमान रश्दी भी आ रहे हैं...हंगामा बरप गया..विरोधियों को एक और बहाना मिल गया। अब तक शाब्दिक और वैचारिक विरोध की जो धारा बह रही थी....उसके खिलाफ बारूद और गोली की बात करने वालों को सलमान रश्दी ने बोलने का मौका दे दिया...पहले अपील हुई कि इस सम्मेलन का बहिष्कार करो...फिर बारूदवादियों ने धमकी दी कि इस सम्मेलन में खून-खराबा किया जाएगा और कश्मीर की सरकार इन सारी गतिविधियों को चुपचाप देखती रही। ऐसे में जो होना था...वही हुआ यानी आयोजकों ने अशांति के बीच घाटी में होने जा रहे इस लघु साहित्यिक कुंभ को टाल दिया....और इसके साथ ही घाटी के लेखकों की उम्मीदों पर पानी फिर गया।
अशांति के बाद कश्मीर घाटी में पहली बार ऐसा कोई आयोजन होने जा रहा था। अव्वल तो जम्मू-कश्मीर सरकार को इसके पक्ष में माहौल बनाना चाहिए था। होना तो यह भी चाहिए था कि वह इस आयोजन को सफल बनाने की कोशिश करती। लेकिन वह चुप रही। आजकल कश्मीर की सरकार फैसले देसी हितों के नजरिए से कम, अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया की नजरिए से ज्यादा करती है। लिहाजा घाटी के में संस्कृतिकर्म को जबर्दस्त झटका लगा है। हारूद इस झटके से उबारने में मदद कर सकता था। हारूद के बहाने कश्मीर की सांस्कृतिक धारा की आवाज बाहरी दुनिया तक पहुंचती..तब दुनिया को कश्मीर घाटी को लेकर नया नजरिया बनाने में मदद मिलती। तब दुनिया को समझने का मौका मिलता कि वहां की अवाम भी संस्कृति और साहित्य की धारा के साथ जुड़ी हुई है और बारूद की गंध उसे अब बर्दाश्त नहीं हो रही। भारत सरकार के लिए भी हारूद दुनिया को संदेश देने का बेहतर मौका हो सकता था। लेकिन उसने भी इसकी तरफ ध्यान नहीं दिया और ना ही आयोजकों को भरपूर सुरक्षा मुहैया कराने की कोशिश की।
हारूद का रद्द होना शोभा डे को भी परेशान कर गया है...डोगरी और कश्मीरी लेखकों को उनकी ही माटी के बीच नजदीक से देखने की उनकी तमन्ना धरी की धरी रह गई है। यही वजह है कि अपनी निराशा को उन्होंने ट्विटर पर जाहिर करने में देर नहीं लगाई।
यह लेख अमर उजाला में 28 सितंबर को प्रकाशित हो चुका है।

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