यह लेख एक अनाम व्यक्ति ने भेजा है। लेखक लगता है कि मीडिया में ही हैं।
ग्लोबल इंडिया में सब कुछ बाजार तय करता है और कर रहा है। बात किसी उत्पाद को बेचने की हो या फिर अपने तय क्षेत्रों में आगे बढ़ने की, मार्केटिंग जरूरी है। यानी फंडा साफ है। अगर करियर में कामयाबी, सफलता की बुलंदियों को हासिल करना है तो खुद को पहले एक प्रोडक्ट मानना होगा, उसे चमकाना होगा। वैसे, जरूरी ये भी नहीं है कि चमक लाई ही जाए क्योंकि चाटुकारिता के सामने काबिलियत कहीं नहीं ठहरती। इसलिए जिसने ये हुनर सीख लिया, उसे कुछ और सीखने की जरूरत नहीं है। खबरों के बाजार में उसे मोटी कीमत मिलनी लगभग तय है। मीडिया का काम है सच सामने लाने, बिना लाग लपेट हकीकत बयां करना। मगर, समाज को रौशन करने का जज्बा दिखाने वाले मीडिया के भीतर कितना अंधेरा है, क्या इसे देखने की कभी कोशिश होती है। कम वेतन, न्यूनतम सहूलियतों के साथ सैकड़ों-हजारों नौजवान मीडिया की मंडी में जुझारू बैल की तरह जोते जा रहे हैं। फिर भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि उसकी महीने की तनख्वाह पक्की ही है। कहने का मतलब ये कि मंदी के छंटने के बावजूद मीडिया में कृत्रिम मंदी बनी हुई है। लिहाजा नौकरी बची रहे इसके लिए बॉस की गाली भी लोरी समझना मजबूरी बन चुकी है। हां, ये अलग बात है कि कुछ लोग ये कथित लोरी सुनने को न राजी हैं और मजबूर। ये भी नहीं है कि भीड़ में शामिल इन लोगों का कोई गॉड फादर या गॉड मदर है। बल्कि इन्हें हौसला और उम्मीद देने वाले कुछ मुट्ठी भर लोग हैं। पारिवारिक परिवेश इनकी मजबूती का एक बड़ा कारण है, जिसके बल बूते ये डटे हुए हैं बिना डरे और बिना हारे। सिफारिश किस पेशे में नहीं चलती। लेकिन जो हाल मीडिया घरानों का है, वो भी किसी से छिपा नहीं है। इन दिनों एक और अजीबो गरीब ट्रेंड चल पड़ा है खेमों का। कौन किस खेमे से आता है, किसका खेमा कब किस पर भारी पड़ जाए किसी को नहीं मालूम। पल भर में मीडिया संस्थान में रक्तविहिन सत्ता परिवर्तन हो जाता है। विकेट गिरने लगते हैं। मगर, इस बदलाव से क्या संस्थान को, पत्रकारिकता को कोई फायदा होता है। ये जानने या समझने की शायद ही कोई कोशिश होती है। ये खेल उन संस्थानों में ज्यादा खेला जा रहा है, जिनका न पत्रकारिता से कोई लेना देना है और न ही मीडिया के सामाजिक-आर्थिक दायित्वों से। इन कथित टीवी चैनलों में बेरोजगार होने का खौफ इतना ज्यादा है कि इंसानियत भी शर्मसार हो जाए। कह सकते हैं कि यहां भविष्य संवरता नहीं बल्कि लोग डिप्रेशन, गुस्से, कटुता के दलदल में फंस कर रह जाते हैं। शीर्ष चैनलों में हालत थोड़ी ठीक कही जा सकती है। लेकिन यहां भी खेल कम नहीं होता। एक बड़े चैनल में दाखिला पाने के लिए जितनी बड़ी पैरवी होगी, आपका काम उतनी ही आसानी से होगा। परीक्षा या इंटरव्यू तो महज ढोंग है। नौकरी चुटकियों में आपके पास होगी। एक और बड़े चैनल का ये हाल है कि प्रोग्राम बनाने वाले को प्रश्न तैयार करने के लिए चैनल के बाहर के लोगों से मदद लेनी पड़ती है। यानी सवाल और रिसर्च बाहर वाले करते हैं, जबकि श्रेय प्रोग्राम के प्रोड्यूसर को मिलता है या फिर चैनल को। कहने का आशय ये कि बड़े मीडिया घरानों में इसकी कोई गारंटी नहीं है कि वहां का मानव संसाधन उत्कृष्ट ही होगा। फिर भी आपकी सीवी में किसी बड़े मीडिया हाउस का टैग होगा, तो समझिए बल्ले-बल्ले। जबकि सिक्के का दूसरा पहलू ये है कि छोटे संस्थानों में भी मेरिट बसता है। काबिल लोग होते हैं। दिक्कत सिर्फ ये कि उन्हें जो मौका मिलना चाहिए नहीं मिलता। वे चाहे तो वहीं सड़ते,घुटते रहते हैं या फिर अपना पेशा ही बदल देते हैं। आखिर कब बदलेगी मीडिया की ये सूरत। कब समझेंगे लोग कि पत्रकारिता कारोबार नहीं और न पत्रकार नेता। इसलिए कृपा कर कारोबार का काम व्यापारियों को संभालने दें और राजनीति नेताओं को ही करने दें। नौजवानों का भविष्य न बिगाड़ें।
इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
बुधवार, 8 जून 2011
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