सोमवार, 23 मई 2011

हाशिए का साहित्य

उमेश चतुर्वेदी
हाशिए के साहित्य की जब भी चर्चा होती है, हमारे सामने उन रचनाओं का बिंब सामने आ जाता है, जिनकी गुटीय आलोचना के चलते चर्चा नहीं हो पाती या स्तरीय होने के बावजूद उनकी वाजिब नोटिस नहीं ली जाती। लेकिन यहां उस हाशिए की रचनाओं की दुर्दशा पर चर्चा का मकसद है, जो दिल्ली-पटना या लखनऊ-भोपाल से काफी दूर दूर-दराज के गांवों – कस्बों और ढाणियों में रचा जा रहा है। लेकिन दिल्ली-भोपाल, लखनऊ- पटना की समीक्षात्मक निगाहें इन रचनाकारों और उनकी रचनाधर्मिता पर नहीं पड़ रही है। साहित्य के गणतंत्र में हाशिए की इस रचनाधर्मिता की हैसियत कुछ वैसी ही हो गई है, जैसी भारतीय राजनीतिक गणतंत्र में राजधानी और शहरों के सामने गांवों-ढाणियों की हो गई है। राजधानी और राज्यों की राजधानियों में जिस तरह चमक-दमक भरी है और उनके सामने गांव-गिरांव और उनके लोग फीके हो गए हैं। उनकी आवाज की धमक सिर्फ चुनावों तक ही सुनाई पड़ती है, उनकी औकात सिर्फ चुनावी वक्त के दौरान ही बढ़ती है। लेकिन जैसे ही चुनाव बीत जाता है, हाशिए के लोगों की हैसियत पहले की ही तरह तीन कौड़ी की हो जाती है। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि साहित्य में कोई राजनीतिक वरिष्ठताक्रम और सत्ता चुनने-गुनने की कोई परंपरा नहीं है, लिहाजा वहां चुनाव की जरूरत ही नहीं है, इस लिहाज से हाशिए के रचनाकार के लिए आम लोगों की तरह कभी चुनाव जैसा वक्त भी नहीं आता कि उनकी हैसियत कुछ पल के लिए ही बढ़ सके।
इस दर्द का जिक्र इसलिए कि अभी हाल ही में राजधानी दिल्ली से हजार-ग्यारह सौ किलोमीटर दूर की एक नितांत निजी यात्रा का संयोग बना। इस यात्रा के दौरान ऐसी रचनाधर्मिता से पाला पड़ा। लेकिन उन्हें कोई जानने की कोशिश करने वाला नहीं मिला। लेकिन उनका दुर्भाग्य देखिए कि उन्हें अपनी पहचान और हैसियत बढ़ाने के लिए वैसे ही दिल्ली की तरफ देखना पड़ रहा है, जैसे आम लोग दिल्ली-लखनऊ में बैठे राजनेताओं और सरकार के बड़े लोगों की रहमोकरम की बाट जोहते रहते हैं। लेकिन जैसे राजनेताओं के पास आम लोगों के लिए वक्त नहीं होता, कुछ ऐसा ही नखरा दिल्ली- लखनऊ के वे साहित्यकार दिखा रहे हैं, जो कथित साहित्य के केंद्र में हैं। अपनी रचनाधर्मिता को मान्यता दिलाने के लिए वे चिट्ठियों और पत्रियों के जरिए दिल्ली के साहित्यिक केंद्रों को बुलाने के लिए रिरियाते रहते हैं, अपने सीमित संसाधनों के बावजूद उनके रसरंजन का इंतजाम करने का भी वादा करते हैं, छोटे शहर के बेहतर होटल में ठहराने की तैयारी करते हैं। हालांकि आमतौर पर परोक्ष रूप से और एक-आध बार प्रत्यक्ष तौर पर ऐसी मांग केंद्र के आलोचकीय और साहित्यिक हस्तियों की तरफ से रखी जाती है, लेकिन फुर्सत होने के बावजूद उनके पास स्थानीय रचनाधर्मिता की पीठ थपथपाने का वक्त नहीं है। इसका दो तरह का असर हो रहा है। एक तो दिल्ली-लखनऊ केंद्रित रचनाधर्मिता के चलन के दौर में स्थानीय रचनाधर्मिता कुंठित हो रही है। उनके सामने चूंकि साहित्यिक गतिविधियों से आर्थिक फायदे का विकल्प भी नहीं है, लिहाजा ज्यादातर ऐसे आयोजन निजी खर्चों में कटौती के जरिए किए जाते हैं। लेकिन घर फूंक लगातार तमाशा देखना किसी के लिए आसान और लगातार करते रहने वाला काम नहीं है। लिहाजा कुंठाओं का असर बढ़ रहा है। यह तो हुई प्रत्यक्ष असर की बात। लेकिन इसका दूरगामी और अंत: असर कहीं ज्यादा गहरा है। हाशिए की यह रचनाधर्मिता दरअसल अनुभवों के आकाश का अनंत विस्तार अपने आप में समेटे हुए है। लेकिन हाशिए की रचनाधर्मिता को प्रोत्साहन नहीं मिलने के कारण अनुभवों के इस विस्तारित आकाश और उसके जरिए हिंदी समाज में हो रहे स्थानीय बदलावों को जानने-समझने की दुनिया सिकुड़ती जा रही है। लोगों को पता नहीं चल पा रहा है कि बापूधाम मोतीहारी के आम जन की सोच क्या है और बांसवाड़ा के किसान और मजदूर की जिंदगी में क्या घटित हो रहा है। हिंदी साहित्य के गणतांत्रिक स्वरूप में इस कमी का असर भी नजर आता है। जब कथित तौर पर दिल्ली-लखनऊ की ज्यादातर रचनाओं में अनुभवों का दुहराव, सामाजिक परिवर्तनों की फिर-फिर वही दुनिया नजर आती है। ऐसी रचनात्मक आस्वाद फीका ही रहता है। ऐसे में क्या हिंदी समाज का यह दायित्व नहीं बनता कि हिंदी के गणतांत्रिक विकास को गति देने और उसकी गणतांत्रिक हैसियत को मजबूत बनाने के लिए हाशिए पर पड़ी स्थानीय रचनाधर्मिता को मुख्यधारा में लाने और उन्हें मांजने की कोशिश करे। हिंदी में घटती पाठकीयता को जोड़ने में भी इसी गणतांत्रिक सोच से मदद मिल सकती है।

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