गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

ताकि बन सके रोशनी की नई लकीर

उमेश चतुर्वेदी
"कोई भी बुद्धिमान शासक किसी ऐसे वचन का निर्वाह नहीं कर सकता और न ही उसे करना चाहिए..जिससे उसे नुकसान होता हो और जब उस वचन को पूरा करने के लिए बाध्यकारी कारण समाप्त हो चुके हों " - द प्रिंस  में मैकियावेली।
मशहूर लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी इन दिनों जिस तरह से ममता बनर्जी पर हमले कर रही हैं. ममता को फासिस्ट कहने से भी अब महाश्वेता देवी को झिझक नहीं रही। इससे मैकियावेली का यह कथन एक बार फिर याद आता है। माओवादी किशनजी की मुठभेड़ में हुई मौत के बाद तो वरवर राव तो ममता का विरोध कर ही रहे हैं, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और दूसरी वामपंथी पार्टियां भी ममता के खिलाफ हो गई हैं।
 खैर नाराज तो वाम विचारधारा वाले बुद्धिजीवी तो हैं हीं। ऐसे में सोलहवीं सदी में मैकियावेली ने शासक के वायदों को लेकर प्रतिपादित किए गए ये विचार बेहद गहराई से याद आते हैं। जब मेकियावेली ने ये विचार प्रतिपादित किए थे, तब निश्चित तौर पर आज की तरह लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था नहीं थी। चर्च और राजतंत्र के बीच झूलती सत्ताओं के लिए मैकियावेली ये विचार जितने प्रासंगिक थे, कहना न होगा कि आधुनिक लोकतांत्रिक सत्ताओं के लिए भी मैकियावेली के ये विचार उतने ही प्रासंगिक हैं। अभी छह महीने पहले तक पश्चिम बंगाल का बुद्धिजीवी उन शासकों के खिलाफ सड़क पर मोर्चा निकालने और खुलेआम विरोध करने में मसरूफ था, जिससे कम से कम सैद्धांतिक और वैचारिक धरातल पर वह साथ था। लेकिन व्यवहारिक धरातल पर वह अपने सैद्धांतिक साथियों की आलोचना करने के लिए पश्चिम बंगाल के वामपंथी बुद्धिजीवियों की मजबूरी की वजह रही वाम मोर्चे में लगातार फैली बदहाली और सिंगूर तथा नंदीग्राम जैसी जगहों पर मानवाधिकारों का उल्लंघन। इसी मजबूरी के बीच खादी की सादा साड़ी पहनने वाली फायर ब्रांड ममता बनर्जी में उन्हें नए मसीहा के दर्शन हुए और वामपंथी वैचारिक सीमाओं के बाहर निकलकर पश्चिम बंगाल के बुद्धिजीवियों ने उन्हें हाथोंहाथ लिया। बीसियों साल से वामपंथी शासन व्यवस्था के गढ़ में सेंध लगाने की कोशिशों में जुटी ममता बनर्जी के लिए यह समर्थन बिन मांगे मोती जैसा था। वैसे भी पश्चिम बंगाल के समाज की जो बुनावट है, उसमें बौद्धिक स्वीकृति सामाजिक स्वीकार्यता को उपरी पायदान पर पहुंचा देती है। हिंदी भाषी समाज की तरह वहां बौद्धिक समाज की आम नागरिक से दूरी और एक-दूसरे के प्रति बेपरवाही नहीं है। निश्चित तौर पर वामपंथ के ताबूत में कील ठोकने की कोशिशों में जुटी ममता के लिए महाश्वेता देवी, शंखो घोष, अपर्णा सेन, नवारूण भट्टाचार्य, सुनील गंगोपाध्याय का बौद्धिक समर्थन संजीवनी जैसा साबित हुआ। उसके नतीजे सामने है और ममता कोलकाता की रायटर्स बिल्डिंग पर छह महीने से भी ज्यादा वक्त से काबिज हैं।
ममता का साथ देते वक्त महाश्वेता देवी और उनके साथियों ने शासक के उस चरित्र को भांप पाने में वैसी ही गलती की, जैसी आम जनता करती है। यह छुपी हुई बात नहीं है कि शासक बनने की तमन्ना वाला आज का राजनेता शासन में आने से पहले वायदे पर वायदे करता है, लेकिन जैसे ही शासन में उसकी पहुंच हो जाती है, वह अपने ही वायदों को भूलने लगता है। महाश्वेता देवी और बंगला की लेखिखा सुचित्रा भट्टाचार्य को भी लग रहा है कि ममता भी वायदा खिलाफी कर रही हैं। ममता को लेकर महाश्वेता की राय बदलने की वजह बनी है जंगल महल क्षेत्र में होने वाली गणतंत्र बचाओ रैली। जिसकी अनुमति देने से ममता सरकार ने साफ मना कर दिया है। यह जांची-परखी बात है कि माओवादियों ने चुनावी रणभूमि में काफी हद तक ममता बनर्जी का साथ दिया था। उनका गुस्सा पश्चिम बंगाल की पूर्ववर्ती उस सरकार से था, जो समान वैचारिक सोच रखने के बावजूद उनके खिलाफ खूनी अभियान चलाती रही थी। तब यही ममता बनर्जी थीं कि उनके समर्थन से माओवादी प्रभाव वाले जिलों में रैलियां करने से परहेज नहीं था। तब माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई उन्हें मानवाधिकारों का उल्लंघन लगता था। लेकिन रायटर्स बिल्डिंग में पहुंचने के बाद उन्हें लगने लगा है कि शासन के लिए इन माओवादियों पर काबू पाना जरूरी है। इसीलिए वे अब माओवादियों से हथियार डालने की मांग कर रही हैं। जबकि माओवादियों की मांग है कि उनके खिलाफ युद्ध विराम हो और जेलों में बंद माओवादियों को रिहा किया जाय। महाश्वेता देवी की गणतंत्र बचाओ रैली का मकसद भी यही है। लेकिन ममता इसे क्यों मानने लगीं। कभी जमीनों के अधिग्रहण के खिलाफ उन्हें सीपीएम के शासन के खिलाफ अभियान चलाना जरूरी भले ही लगता रहा हो, अब चूंकि माहौल बदल गया है, इसलिए उन्हें भी अब औद्योगीकरण के लिए वही काम जरूरी लगने लगे हैं। ममता का यह बदला रवैया जाहिर है पश्चिम बंगाल के बुद्धिजीवियों को परेशान कर रहा है। उन्हें लगता था कि शासन में आने के बाद ममता कम से कम उनकी सोच के मुताबिक फैसले तो लेंगी हीं। लेकिन ममता ने मैकियावेली के प्रिंस की तरह शासक की असल प्रवृत्ति दिखा दी है। ऐसे में विवाद और विवाद के बाद टकराव होना तय है।
तो क्या यह मान लिया जाय कि शासक की प्रवृत्ति सत्ता में जाते ही बदलने की रही है...मैकियावेली के विचारों से तो यही जाहिर होता है...भारत की जनता तो इसका हर पांच और कई बार हर दो-ढाई साल में ही इस प्रवृत्ति से रूबरू होती रही है। लेकिन सवाल यह है कि क्या ममता का कदम सही है ...सवाल यह भी है कि सिर्फ गणतंत्र बचाओ रैली न होने देने मात्र से ही ममता फासिस्ट हो गई हैं। निश्चित तौर पर दोनों ही सवालों का जवाब गणित के सवालों के अंदाज में सटीक हां या ना में नहीं दिए जा सकते। लेकिन इन सवालों पर गौर करने से पहले माओवाद की समस्या पर भी गौर करना जरूरी है। माओवादियों के नाम पर निर्दोष लोगों के खिलाफ सुरक्षा बलों की कार्रवाई जितनी गलत है, उतना ही गलत माओवादियों का समानांततर सत्ता तंत्र खड़ा करना है। ममता को आप इसलिए दोषी मान सकते हैं कि जब उन्होंने माओवादियों का बौद्धिकों के ही जरिए अपने पक्ष में जनता को लामबंद करने के लिए इस्तेमाल किया तो निश्चित तौर पर उन्हें माओवादियों की उन हरकतों की जानकारी रही ही होगी, जिसे लेकर अब वे खुद आशंकित महसूस कर रही हैं। केंद्र की सत्ता में लंबे समय तक काबिज रही ममता इससे इनकार नहीं कर सकतीं। लिहाजा उन्हें भी चुनावी तैयारियों के बीच उनका साथ लेते वक्त सोचना चाहिए था। अगर उन्होंने उनका साथ नहीं लिया होता तो आज जो सवाल उनके खिलाफ उठ रहे हैं, नहीं उठते। ऐसे में महाश्वेता देवी और उनके लोगों को ममता का बदला रवैया कैसे पसंद आ सकता है। वैसे यहां यह भी बता देना जरूरी है कि जिन मजलूमों और कमजोर लोगों की भलाई के लिए माओवादी संघर्ष शुरू हुआ, वे उद्देश्य भी अब कमजोर पड़ गए हैं। कुछ लोगों के हाथों में माओवाद के नाम पर कमाई का नया दौर शुरू हो गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो मैकियावेली के सिद्धांत उन पर भी लागू होते हैं।
बहरहाल माओवादियों के मसले पर बंगाल के बुद्धिजीवियों के कोप का सामना कर रही ममता को आगे भी चुनाव लड़ना है। जनता से किए गए वायदों की फेहरिश्त में से कुछ वायदों को पूरा भी करना है। जाहिर है कि माओवादी हथियार उनकी इस राह में बाधा हैं। ऐसे में उन्हें बौद्धिकों के कोप का सामना करना ही होगा। उनके खिलाफ आंदोलन भी होंगे, जो कोलकाता की सड़कों से लेकर माओवादी प्रभावित जिलों तक में दिखेंगे। इससे निश्चित तौर पर पश्चिम बंगाल में फिलहाल नजर आ रही शांति पर असर पड़ेगा। वैसे यह माना जा रहा है कि माओवादी ममता पर दबाव बनाने के लिए बौद्धिकों का सहारा ले रहे हैं। ममता सरकार भी दबी जुबान से यह कह रही है। लेकिन जिस दिन ये चर्चाएं बढ़ेंगी, निश्चित तौर पर पश्चिम बंगाल के बौद्धिक समाज के लिए जवाब देना मुश्किल होगा। तो क्या बेहतर नहीं होगा कि दोनों पक्ष इसके लिए कोई ऐसी राह निकालें, जिससे जंगल महल और उसके जैसे दूसरे इलाकों में रोशनी की नई लकीर लाने में आसानी हो।

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