उमेश चतुर्वेदी
हिंदी प्रकाशन जगत पर आरोप रहा है कि यहां वैचारिक पुस्तकों की गुंजाइश नहीं है। वैसे हिंदी प्रकाशकों की प्रवृत्ति कहानी-उपन्यास और बहुत हुआ तो संस्मरण-जीवनी तक की पुस्तकें प्रकाशित करने की रही है। वैचारिकता और विमर्श के अलावा शोध और सूचना प्रधान रचनाओं के लिए हिंदी में गुंजाइश कम ही रही है। अगर हिंदी प्रकाशकों को लगा कि वैचारिक किताबें भी छाप देनी चाहिए तो वे पाठ्यक्रम से जुडी किताबों को प्रकाशित करने में आगे रहे हैं। लेकिन उच्चकोटि का प्रकाशन कम ही प्रकाशक सामने ला पाने में कामयाब हुए। इस सिलसिले में वाराणसी के हिंदी प्रचारक संस्थान, इलाहाबाद के लोकभारती प्रकाशन, दिल्ली के मोतीलाल बनारसी दास और राजपाल एंड संस का नाम लिया जा सकता है। हां, कहानी-कविता और उपन्यास आदि प्रकाशित करने के लिए मशहूर दिल्ली के कुछ प्रकाशक इन दिनों वैचारिक किताबों को प्रकाशित करने में दिलचस्पी ले रहे हैं। हिंदी में ऐसे प्रकाशनों को गति देने में पेंगुइन यात्रा बुक्स के योगदान को सराहा जाना जरूरी है। जिसने पिछले साल पाल एस फ्रीडमैन की किताब दुनिया गोल नहीं के साथ ही कई महत्वपूर्ण किताबें प्रकाशित की हैं और उन्हें पाठकों ने हाथोंहाथ लिया है। इस कड़ी में वाणी प्रकाशन, राजकमल प्रकाशन, राधाकृष्ण प्रकाशन, सामयिक प्रकाशन और ग्रंथशिल्पी का नाम काफी आदर के साथ लिया जा सकता है। लेकिन यह बात और है कि इनके प्रकाशनों की पूछ और परख वैसी नहीं बन पाई है, जैसी पेंगुइन के हिंदी यात्रा बुक की है। इसलिए उसकी किताबें इन दिनों पाठकों के बीच पूछ और परख बना रही हैं। दुनिया गोल नहीं हो या उभरते भारत की तस्वीर, नई सदी से जुड़े विचार, भारतीयता की ओर जैसे पेंगुइन प्रकाशकों ने हिंदी पाठकों की दुनिया में अपने प्रोडक्शन और सामग्री के चलते पैठ बनाई है। इस कड़ी में खालिस देसी हिंदी प्रकाशकों के प्रयास सराहनीय तो हैं, लेकिन कम से कम पेंगुइन जैसा प्रोफेशनलिज्म उनमें नजर नहीं आता। यही वजह है कि उनकी किताबें पेंगुइन यात्रा बुक की तुलना में कम ही बिक पाती हैं। वैसे यह जमाना टीआरपी यानी टैम रेटिंग प्वाइंट का है। टेलीविजन की लोकप्रियता के ग्राफ को नापने वाली इस प्रणाली में बिकने वाली चीजों का महत्व बढ़ा है। यहां बिक्री की वजह बनी है सनसनी और ऐसी ही चीजें। हिंदी के नामचीन प्रकाशकों को बिक्री के लिए अब सनसनीखेज मसाले ही पसंद आते हैं। यानी कोई पत्रकार इराक की यात्रा रिपोर्टिंग के सिलसिले में कर आया तो वह अनुभव हिंदी प्रकाशक को बिकाऊ लगता है। हिंदी प्रकाशक को विदर्भ की मिट्टी में कर्ज के बोझ तले जान गंवाते किसानों का दर्द कम ही सालता है। अगर उसे विदर्भ से कोई विषय पसंद आता है तो वह होता है विदर्भ की कलावती और शशिकला जैसा चरित्र, जिन्हें कभी राहुल गांधी का सहयोग और सहानुभूति मिली। कहने का मतलब यह है कि हिंदी प्रकाशकों को वैचारिक आधार वाले वही विषय पसंद आते हैं, जो पाप्युलर हों। लेकिन कम से कम पेंगुइन या हिंदी के ग्रंथ शिल्पी जैसे प्रकाशनों के साथ ऐसी स्थिति नहीं है। वे ऐसे गंभीर साहित्य भी प्रकाशित करते हैं, जिनका पाप्युलर कल्चर से कोई वास्ता नहीं है। फिर भी उन्हें वे बेच लेते हैं और यह सब होता है उनकी सामग्री की गुणवत्ता और बेहतरीन प्रोडक्ट के दम पर। हिंदी के बड़े से बड़े प्रकाशक के सामने इस स्थिति की चर्चा करें तो उसका एक ही जवाब होता है कि उसके पास पूंजी नहीं है। हालांकि उनकी कमाई बढ़ती जा रही है, अब वे हवाई यात्राएं करते हैं। लेकिन उनके दफ्तर भी चमक-दमक भरे होते जा रहे हैं। लेकिन उनका पुराना रूदन जारी है। एक दौर में मध्य प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, बिहार ग्रंथ अकादमी जैसे सरकारी प्रकाशनों ने गंभीर और साहित्येत्तर प्रकाशनों के जरिए हिंदी के बौद्धिक जगत को बदलने का प्रयास किया था। लेकिन अब वहां भी पहले जैसी हालत नहीं रही। राजनीतिक नियुक्तियों ने इन संस्थानों की गंभीर छवि और उसके प्रकाशनों की गुणवत्ता को खत्म कर दिया है। तो क्या यह मान लिया जाय कि हिंदी में गंभीर रचनाधर्मिता और प्रकशनों की दुनिया सिमट गई है। इसका जवाब हिंदी के अखबार हैं, जिनके दिल्ली और लखनऊ जैसे राजधानी केंद्रित संस्करणों में अब बौद्धिक किताबों की समीक्षाएं छापने का चलन बढ़ा है। जाहिर है कि वे हिंदी में लगातार बढ़ रहे बौद्धिक पाठकों की मानसिक खुराक देने की कोशिश में हैं। हिंदी के बौद्धिकता आधारित प्रकाशन जगत के लिए फिलहाल इससे ज्यादा सकारात्मक बात क्या होगी।
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