उमेश चतुर्वेदी
हिंदी में साहित्यिक मंचों से गंभीर साहित्येत्तर विमर्श की परंपरा नहीं रही है. साहित्यिक मंचों पर सिर्फ और सिर्फ साहित्यिक चर्चाएं ही अब तक हावी रही हैं। लेकिन साहित्यिक घेरेबंदी में अब तक कैद रहे हिंदी विमर्श की पारंपरिक जमीन टूटनी शुरू हुई है। इसी सिलसिले में पिछले दिनों राजधानी में एक विमर्श हुआ – कॉपीराइट को लेकर। कॉपीराइट का मसला भी बेहद संवेदनशील है और साहित्य तो इससे भी जुड़ा है। लेकिन इसे सिर्फ साहित्यिक विषय के दायरे में नहीं बांधा जा सकता। बहरहाल इस चर्चा के बहाने एक सवाल उठा कि आखिर कॉपीराइट हो ही क्यों। सीएसडीएस के सीनियर फेलो रविकांत ने यह कहकर कॉपीराइट का विरोध किया कि रचनात्मकता में मौलिकता की अवधारणा का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि हर रचना किसी पुरानी रचना की पुनर्मिश्रण होती है। यह सच है कि हर रचना में कहीं न कहीं पिछली रचना की छाप या उसके बीज तो होते हैं, लेकिन सिर्फ इस एक तर्क के सहारे कॉपीराइट की अवधारणा को खारिज कर देना भी जायज नहीं है। यह सच है कि अनुपम मिश्र जैसे एक-दो अपवाद हैं, जिनके लिए उनकी रचनाधर्मिता सामने आते ही सार्वजनिक संपत्ति हो जाती है। लेकिन सवाल यह है कि आखिर किसी की जीविका उसकी रचनात्मक क्षमता पर ही टिकी हो तो उसका मानदेय कैसे मिले ताकि उसकी जिंदगी चल सके। भारतीय कॉपीराइट कानून के मुताबिक पहले लेखक या सृजनकर्मी की मौत के पचास साल बाद तक उसका या उसके उत्तराधिकारियों का कॉपीराइट रहता था। गुरूदेव रवींद्र नाथ टैगोर का जब कॉपीराइट खत्म हो रहा था, तब नरसिंह राव सरकार ने इसकी मियाद रचनाकार की मौत के साठ साल बाद तक बढ़ा दी थी। तब से लेकर यही परंपरा चली आ रही है। बहरहाल कॉपीराइट पर सवाल उठाने की शुरूआत अमेरिकी कार्यकर्ता रिचर्ड स्टालमैन जैसे लोग कर रहे हैं। जिनका मानना है कि कॉपीराइट जैसी चीज होनी ही नहीं चाहिए, क्योंकि कोई भी व्यक्ति जब रचनात्मक होता है तो वह दरअसल अपने आसपास और समाज से ही विचारों का खादपानी लेता है। इस तरह से उसकी रचनात्मकता सार्वजनिक संपत्ति हो जाती है। अपने तईं यह बेहद उदार अवधारणा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या जिंदगी के दूसरे अनुशासनों, मसलन खेती-व्यापार, कारपोरेट व्यवसाय या दूसरे व्यवसायों पर ही यह कॉपीराइट व्यवस्था भी लागू होगी। व्यक्ति संपत्ति भी बनाता है तो उसमें खरीददार के तौर पर भी समाज का एक हिस्सा होता है, उत्पादक के तौर पर समाज का एक हिस्सा उसमें शामिल होता है। तो इस हिसाब से खेती-किसानी और व्यापार-व्यवसाय तक सब पर समाज का हक होना चाहिए। अगर जिंदगी के दूसरे अनुशासनों में ऐसा नहीं है तो फिर सृजनकर्म ही ऐसा सवाल क्यों? यह सच है कि प्राचीन भारत में सृजनकर्म पर अधिकार कॉपीराइट की आधुनिक अवधारणा की तरह नहीं होता था। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तब समाज में अपने सृजनकर्मियों को पालने की परंपरा थी। उसके यथेष्ठ मूल्यांकन और उसके साथ उसे कभी राज्याश्रय तो कभी समाजाश्रय देने का चलन था। लेकिन क्या आज के दौर में किसी कवि या संगीतकार को सत्ताश्रय मिलेगा तो आज का समाज उसके लिए तैयार होगा। जाहिर है कि सत्ता से लेकर सृजनकर्मी की विश्वसनीयता दांव पर लग जाएगी। कॉपीराइट को अगर खत्म ही कर दिया जाय तो सृजनकर्मी की जिंदगी की बसर कैसे होगी, इसके लिए कॉपीराइट की अवधारणा के विरोधियों के पास न तो ठोस तर्क है और नही ठोस योजना। जाहिर है कि कॉपीराइट का एक हथियार हाथ में होने के बावजूद आज भी हिंदी जैसी भाषा में सृजनकर्म के सहारे जीवनयापन की परिस्थितियां नहीं बन पाईं हैं। ऐसे में कॉपीराइट की जरूरत को नकारना आसान नहीं होगा।
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