गुरुवार, 29 सितंबर 2011

हिंदी के गौरव का दिन

उमेश चतुर्वेदी
तीन साल पहले की बात है....दिल्ली के प्रेस क्लब में एक हस्ताक्षर अभियान चलाया जा रहा था...इलाहाबाद में रह रहे एक साहित्यकार के बेटे उन्हें मानव संसाधन विकास मंत्रालय से आर्थिक मदद दिलाने के लिए इस अभियान में जुड़े हुए थे। उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक के सामने भी वह चिट्ठी रखी, यह कहते हुए कि अगर उचित लगे तो इस पर हस्ताक्षर कर दो... पता नही उस अभियान ने उन्हें आर्थिक दुश्चिंताओं से मुक्त किया या नहीं...अब अमरकांत को भारतीय साहित्य के सर्वोच्च पुरस्कार मिलने की घोषणा हो चुकी है...लेकिन यह पुरस्कार भी उनकी जिंदगी को आर्थिक तौर पर पूरी तरह सुरक्षित शायद ही बना पाए। श्रीलाल शुक्ल को उनके ही साथ ज्ञानपीठ ने सम्मानित करने का निर्णय लिया है।

हिंदी के लिए निश्चित तौर पर यह गौरव का विषय है कि उसके दो मूर्धन्य साहित्यकारों को साहित्य के सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा है। इस गौरव पर चर्चा होगी भी और हो भी रही है...लेकिन पुरस्कार की राशि को लेकर वर्चुअल स्पेस यानी इंटरनेट की दुनिया में बहस शुरू हो गई है। सवाल यह है कि 2009 के लिए दोनों साहित्यकारों को एक साथ ज्ञानपीठ दिया जा रहा है। यानी दोनों को पुरस्कार में से आधी-आधी ही रकम मिलेगी। वर्चुअल स्पेस की दुनिया में सवाल यह भी है कि क्या साहित्य को नापने का ऐसा कोई पैमाना हो सकता है, जिसमें दो रचनाकारों की रचनाओं और उनकी रचनाधर्मिता को एक साथ और एक बार ठीक वैसा ही मापा जा सकता है, जैसे दूध-पानी या आलू-प्याज को तराजू में तौला जाता है। निश्चित तौर पर इसका जवाब न में है। इसके पहले भी पंजाबी साहित्यकार गुरूदयाल सिंह ढिल्लो और हिंदी के एकांतप्रिय रचनाकार निर्मल वर्मा को ज्ञानपीठ ने एक साथ सम्मानित किया था। तब दोनों को पुरस्कार की आधी-आधी रकम ही मिली थी। उस वक्त भी ये सवाल उठा था कि क्या किन्हीं दो रचनाकारों की रचनाधर्मिता को साथ – साथ तौलते वक्त इस नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि दोनों बराबर हैं या फिर दोनों कमतर-उच्चतर हैं। जाहिर है, साहित्य को नापने के पैमाने वैसे नहीं हो सकते, जैसे पैमानों से दुनिया की दूसरी भौतिक चीजें नापी-मापी जाती हैं। दोनों रचनाकारों को पुरस्कार मिलने के बाद सवाल यह भी उठता है कि क्या भारतीय भाषाओं के मुकाबले हिंदी साहित्य में वैसी प्रखर रचनाधर्मिता नहीं है, जिसे अकेले तौर पर उल्लेखित किया जा सके। हो सकता है- ये सवाल हिंदी साहित्य की उन गलियों में भी उठ रहे हों, जिसके बारे में आम धारणा यह है कि बाकी जगतगति उसे नहीं व्यापती। लेकिन उसकी अनुगूंज कहीं दिखाई नहीं पड़ रही है।
बहरहाल वर्चुअल स्पेस की इस पूरी बहस के बावजूद अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल की रचनाधर्मिता को कम करके नहीं आंका जा सकता। यह संयोग ही है कि दोनों साहित्यकारों का जन्म 1925 में ही हुआ था। दोनों ने आजादी के आंदोलन और नेहरूवादी विकास के मॉडल से होते हुए उदारीकरण तक की यात्रा को नजदीक से देखा और परखा है। दोनों ने हिंदी के कई दूसरे साहित्यकारों की तुलना में दुनियावी यथार्थ को कहीं ज्यादा गहराई से देखा और महसूस किया है। श्रीलाल शुक्ल उत्तर प्रदेश की राज्य स्तरीय प्रशासनिक सेवा में कार्यरत रहे तो अमरकांत जी के जीवन यापन का जरिया पत्रकारिता ही रही है। प्रशासनिक सेवा और पत्रकारिता का वास्ता जमीनी हकीकतों से दूसरे अनुशासनों की तुलना में कहीं ज्यादा गहरा होता है, लिहाजा दोनों की रचनाओं में यह यथार्थ बार-बार नजर आता है। एक और तथ्य गौर करने की है कि श्रीलाल शुक्ल ने व्यंग्य और कहानियां भी खूब लिखीं, लेकिन उनके व्यवक्तित्व पर राग दरबारी जैसे उपन्यासकार का रचनाकर्म इतनी गहराई से चस्पा हुआ कि हिंदी साहित्य की दुनिया उन्हें उपन्यासकार के तौर पर जानती है। ठीक ऐसी ही स्थिति अमरकांत के साथ भी है। उन्होंने इन्हीं हथियारों से जैसा बेहतरीन और चर्चित उपन्यास भी लिखा। सूखा पत्ता, काले उजले दिन उनके बेहतरीन उपन्यास हैं। लेकिन उनके व्यक्तित्व से डिप्टी कलक्टरी, बहादुर, जिंदगी और जोंक, हत्यारे, मूस और छिपकली जैसी कहानियां ऐसे जुड़ीं कि उन्हें मूलत: कहानीकार के तौर पर ही देखा-परखा जाता है।
अमरकांत आजादी के संघर्ष और पीड़ा के उद्घाटन के कथाकार हैं तो श्रीलाल शुक्ल की रचनाधर्मिता में नेहरूवादी स्वप्न के ध्वंस को आसानी से देखा जा सकता है। श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास राग दरबारी में शिवपालगंज के इर्द-गिर्द जो कथा घूमती है, उसमें कुनबापरस्ती, जातिवाद, लालफीताशाही, राजनीति में अपराध और अपराध का राजनीतिकरण सबकुछ है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सत्ता की विकृतियों, समाज की सड़ांध और राजनीति के मकड़जाल के अंधेरे कोनों को राग दरबारी में श्रीलाल शुक्ल ने जिस अंदाज में उधेड़ कर रख दिया है, वह हिंदी साहित्य में विरला ही नजर आता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि राग दरबारी की पूरी कथा व्यंग्य और कहानी के साथ चलती है। शैली ऐसी कि पठनीयता का रस बरकरार रहे। यही वजह है कि साठ के दशक से लेकर राग दरबारी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई। नेहरूवादी स्वप्न भंग की कथा यात्रा इतनी रससिक्त होगी...राग दरबारी को पढ़कर ही समझा जा सकता है। शुक्ल के रचना संसार में राजनीतिक तंत्र की विकृति और भ्रष्टाचार के बीच संबंधों की पड़ताल जारी रहती है। दूसरे शब्दों में कहें तो राजनीति और भ्रष्टाचार के अंदरूनी रिश्ते श्रीलाल शुक्ल की रचनाधर्मिता के विकास के सोपान हैं। उनके दूसरे उपन्यास पड़ाव में भी कथा के इन सूत्रों की तलाश की जा सकती है। लेकिन विश्रामपुर का संत तक आते-आते उनकी ये रचनायात्रा लगता है अंजाम तक पहुंचती है। जहां सरकार बनाने के खेल में शामिल भ्रष्टाचार की गंगा के दर्शन होते हैं। श्रीलाल शुक्ल के तीनों ही उपन्यास हिंदी साहित्य की निधि हैं। यह बात और कि राग दरबारी की तरह पड़ाव और विश्रामपुर का संत को पाठकीय लोकप्रियता मयस्सर नहीं हुई।
दूसरी तरफ बलिया निवासी अमरकांत की कहानियों में आजादी के संघर्ष और उस दौर के मानवीय मूल्यों के ज्यादा दर्शन होते हैं। डिप्टी कलक्टरी को पढ़ते हुए लगता है कि आज भी पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के निम्न मध्यवर्गीय परिवारों और उनके अपने बच्चों से जुड़े सपनों की दास्तान बाकी है। आजादी के बाद के भारत में जिस तरह लोगों का मोहभंग होता है और त्रासदियां कम होने का नाम नहीं लेतीं...डिप्टी कलक्टरी ने उसे पूरी शिद्दत से रेखांकित किया है। यह रेखांकन आज भी कम से कम पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के कस्बों, कस्बाई शहरों और गांवों में देखा जा सकता है। उनकी रचनाओं में जिस तरह से देशज पात्र मसलन बबुआ, सुन्नर पांडे की पतोहू, शकलदीप बाबू आते हैं, उसकी भी खास वजह है। दरअसल अमरकांत स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े रहे। इलाहाबाद में जिस वक्त वे पढ़ाई कर रहे थे, उन्हीं दिनों बयालीस का आंदोलन छिड़ा हुआ था। उस आंदोलन में बलिया ने जो क्रांति की, वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का महत्वपूर्ण अध्याय है। लेकिन इस अध्याय के बावजूद गांवों और उनके लोगों को वह नहीं मिला, जिसके लिए उन्होंने खून बहाए थे। दिलचस्प बात यह है कि आजादी की छांव में ही ये सपने टूटे। उनके उपन्यास इन्हीं हथियारों से में भी आजादी के आंदोलन के उस महत्वपूर्ण अध्याय के दर्शन के साथ आजादी के बाद का मोहभंग भी दिखता है। दरअसल अमरकांत गांधी, लोहिया और जयप्रकाश से प्रभावित रहे हैं। यही वजह है कि वे हाशिए के आदमी की बात करते हैं। उनके यहां देशज पात्र दरअसल गांधी और लोहिया के हाशिये के ही लोग हैं। जिन्हें बाद में जयप्रकाश ने संपूर्ण क्रांति के जरिए आगे लाने का सपना देखा था। लेकिन ये सारे सपने ध्वस्त हो गए और जाहिर है कि अमरकांत की कहानियों में ये स्वप्नभंग देसज प्रतीकों के सहारे बार-बार नजर आता है।
पुरस्कार के बंटवारे के बहस के बीच हिंदी समाज के लिए संतोष की बात ये है कि दोनों दिग्गज हिंदी के अपने रचनाकार हैं।

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