शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

कैसे सधे सुर

उमेश चतुर्वेदी

जिंदगी में लगातार बढ़ती टेलीविजन की दखल से सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों में आ रहे नकारात्मक बदलावों को लेकर आवाजें उठनी अब नई बात नहीं रही। इस सिलसिले में अगर कुछ नया है तो वह है क्लासिकल संगीत की दुनिया से उठती मुखर आवाज। प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह से ऑल इंडिया म्यूजिशिन ग्रुप की मुलाकात की अहमियत भी इसीलिए बढ़ जाती है। शास्त्रीय संगीत में अपनी असाधारण साधना के चलते इस ग्रुप के सदस्यों का देश और दुनिया में नाम है। कत्थक नृत्य का दूसरा नाम बन चुके बिरजू महाराज, संतूर के सतरंगे सुरों की दुनिया के शहंशाह पंडित शिवकुमार शर्मा, बांसुरी की मधुर तान के लिए मशहूर पंडित हरिप्रसाद चौरसिया और राजन मिश्र, तबले की थाप के जरिए पूरी दुनिया में अपना सिक्का जमाने वाले उस्ताद जाकिर हुसैन, सुधा रघुनाथन, लीला सैंमसन, टीएन कृष्णन का ग्रुप बनाकर संगीत के बिगड़ते सुरों को ठीक करने के लिए आवाज उठाना निश्चित तौर पर साहस का काम है।

पहले उस्तादों की शागिर्दी में साधना के बाद प्रतिभाओं की खोज होती थी। इस तरह बनी-निखरी प्रतिभाओं को तब शास्त्रीय समाज में आदर के साथ देखा जाता था। लेकिन टेलीविजन ने प्रतिभा खोज के मायने ही बदल दिए हैं। अब रियलिटी शो के जरिए क्लासिकल संगीत और नृत्य जैसी विधाओं में भी प्रतिभाओं की खोज की जाती है, जिनके लिए पहले निष्काम साधना जरूरी मानी जाती थी। निश्चित तौर पर तब की शास्त्रीय प्रतिभाओं के पास लय और ताल की असल थाती होती थी, लेकिन उनके प्रभामंडल में ग्लैमर की छाया नहीं होती थी। भारत में वैसे भी संगीत को आत्मा से परमात्मा से मिलन की राह माना गया है। वैसे भी शास्त्र और बाजार अपने स्वभावों के मुताबिक एक-दूसरे के विरोधी माने जाते हैं। लेकिन टेलीविजन ने इस पारंपरिक समीकरण को बदल कर रख दिया है। टेलीविजन के जरिए सुरों की दुनिया में बाजार की पैठ बढ़ी है। जीटीवी का मशहूर कार्यक्रम सारेगामापा सिंगिंग सुपरस्टार हो या फिर स्टार प्लस का अमूल वॉयस ऑफ इंडिया, शास्त्रीयता की दुनिया में बढ़ती बाजार की पैठ के ही उदाहरण हैं। बाजार की बढ़ती पैठ ने शास्त्रीयता में भी पैसे की पहुंच बढ़ा दी है। कमाई बढ़ना गलत भी नहीं माना जा सकता। लेकिन कमाई के साथ जब शास्त्रीय परंपराओं और सुरों को ताक पर रखा जाता है तो साधकों को तकलीफ होती ही है। वैसे भी बाजार जब दखल देता है तो वह अपनी शर्तों पर चीजों में बदलाव लाता है। बाजार का एक बड़ा तर्क यही होता है कि जनता को जो पसंद है, उसे ही पेश किया जाय। चूंकि मौजूदा टेलीविजन चैनल बाजारवाद के दौर में ही विकसित हुए हैं, लिहाजा उन पर बाजार के लिए शास्त्रीयता से खिलवाड़ का आरोप लगता रहा है। उन्हें सुरों और शास्त्रीय परंपराओं से खिलवाड़ करने का दोषी माना जाता रहा है। संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष और मशहूर कवि अशोक वाजपेयी की अगुआई में ऑल इंडिया म्यूजिशियन ग्रुप ने प्रधानमंत्री से मिलकर अपनी यही चिंता जताई है। ऐसा नहीं कि संगीत की दुनिया की नामचीन हस्तियों ने पहली बार रियलिटी शो पर ऐसे सवाल उठाए हैं। सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर भी ऐसे कार्यक्रमों पर सवाल उठा चुकी हैं। इन कार्यक्रमों पर सिर्फ सुरों या संगीत के साथ खिलवाड़ करने का आरोप नहीं हैं। बल्कि उन पर यह भी आरोप है कि वे संगीत की उदात्त परंपरा को फूहड़ बना रहे हैं। इससे भारतीय शास्त्रीय संगीत का नुकसान हो रहा है। इससे हजारों साल से संभालकर रखी थाती का ही नुकसान होगा और उसे सही तरीके से बाद वाली पीढ़ी के लिए संजो कर रखना मुश्किल हो जाएगा।

बाजार का तर्क आजकल लोकतांत्रिक परंपराएं लागू करने के बहाने भी सामने आ रहा है। बिग बॉस और राखी का इंसाफ जैसे रियलिटी शो का प्रसारण समय बदलने का फरमान नवंबर के आखिरी हफ्ते में जब सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने जारी किया तो उस समय भी लोकतांत्रिक परिपाटी का ही तर्क दिया गया। कहा गया कि जनता पर ही यह छोड़ दिया जाना चाहिए कि वह किसी कार्यक्रम को पसंद करती है या नहीं...लेकिन बाजार के पैरोकार यह तर्क देते वक्त भूल जाते हैं कि लोकतंत्र की कामयाबी की पहली शर्त यह होती है कि जनता का मानसिक स्तर लोकतांत्रिक मूल्यों को समझने लायक हो। सुरों और नृत्य की शास्त्रीयता की परख शास्त्रीय जानकार ही कर सकता है। सामान्य जनता की पसंदगी और नापसंदगी के दम पर किसी शो या तथ्य को अच्छा या बुरा ठहराना दरअसल गलत कसौटी ही अख्तियार करना होगा। वैसे आधुनिक लोकतांत्रिक समाज का दावा करने वाले देश चाहे ब्रिटेन या फ्रांस या फिर जर्मनी, उनके यहां अपनी परंपरा की थाती को बचा कर रखने का जज्बा बरकार है। पूर्वी यूरोप के कई देशों को अपने संगीत और शास्त्रीय कलाओं की धरोहर पर गर्व है। इसलिए उनसे थोड़ी-भी छेड़छाड़ मंजूर नहीं है। बाजार तो उनके यहां भी है। फिर परंपराओं और मूल्यों की दुहाई देने वाले भारतीय समाज से ऐसी उम्मीद क्यों न की जाए। प्रधानमंत्री से इसी उम्मीद की दिशा में कदम उठाने की संगीतकारों के ग्रुप की मांग को इसी आधार पर जायज ठहराया जाना चाहिए।

शनिवार, 27 नवंबर 2010

सपाट बयानी के खतरे

उमेश चतुर्वेदी
तीन दिसंबर को बांग्लादेश को बने 39 साल हो जाएंगे। यूं तो बरसी और सालगिरह पर किसी महत्वपूर्ण घटना का याद आना असहज नहीं है। लेकिन बांग्लादेश की याद सिर्फ रस्मी तौर पर नहीं आ रही है। हर साल जब तीन दिसंबर आता है, बचपन में पढ़े एक रिपोर्ताज की स्मृतियां जाग उठती हैं। ब्रह्मपुत्र के मोर्चे पर शीर्षक इस रिपोर्ताज को तो किसी संकलन में पढ़ा था। जब साहित्य और पत्रकारिता से गहरा रिश्ता बना तो पता चला कि यह रिपोर्ताज पहले धर्मयुग में छपा था। बांग्लादेश के गठन की तैयारियों के बीच भारतीय सेना की पाकिस्तानी सेना से भिड़ंत भी हुई थी। उसी लड़ाई के एक मोर्चे से हिंदी के यशस्वी कवि और पत्रकार डॉक्टर धर्मवीर भारती ने यह रिपोर्ताज लिखा था। ब्रह्मपुत्र नदी के दोनों तरफ से जारी गोलाबारी के बीच धर्मवीर भारती खुद भी मौजूद थे। यह लेखन इसलिए ज्यादा याद आता है, क्योंकि युद्ध के मोर्चे से लिखे इस रिपोर्ताज में भाषा के जबर्दस्त प्रयोग दिखते हैं। पढ़ते वक्त लगता है जैसे हम सीधे-सीधे लड़ाई के दृश्यों से दो-चार हो रहे हैं। आज का जमाना होता तो धर्मवीर भारती का वह रिपोर्ताज भी खारिज कर दिया जाता यह कहते हुए कि पेस और मूवमेंट लड़ाई के मोर्चे की रिपोर्ट कैसी ? लेकिन ब्रह्मपुत्र के मोर्चे से लिखा यह रिपोर्ताज उन लोगों को जरूर सुकून पहुंचाता है और हिंदी की भाषाई ताकत को महसूस भी कराता है, जिन्हें भाषा में खिलंदड़ापन पसंद हैं।
धर्मवीर भारती ही क्यों, मैला आंचल और परती-परिकथा जैसी कृतियों के मशहूर लेखक फणीश्वर नाथ रेणु के उन रिपोर्ताजों को भी पढ़ना अपने आप में सुखद अनुभव है, जो ऋणजल-धनजल शीर्षक से संग्रहीत हैं। मूलत: दिनमान के लिए इन्हें लिखा गया था। 1973 की बिहार की भयंकर बाढ़, उसके पहले का सूखा, बाढ़ और सूखे के बीच पिसती बिहार की जनता, 1967 में पहली बार बिहार में संयुक्त सरकार बनना, उस सरकार की पहली कैबिनेट बैठक का विवरण...ऐसी कई घटनाओं पर रेणु ने रिपोर्ताज लिखे। दिनमान संपादक रघुवीर सहाय ने रेणु से आग्रह करके खासतौर पर ये रिपोर्ताज लिखवाए थे। उन्हें पढ़कर लोगों का दिल न पसीज जाए, गुस्से से मुट्ठियां न तन जाएं या फिर गर्व ना हो...ऐसा हो ही नहीं सकता। भाषाई चमत्कार और खास घटनाओं के लिए खास शब्दों का इस्तेमाल....इसकी बेहतरीन बानगी है रेणु के ये रिपोर्ताज. अस्सी के दशक तक भाषाई खिलंदड़ी के साथ रिपोर्ताज लेखन की यह परंपरा चलती रही। 1980 के दशक के आखिरी दिनों में भाषाई खिलंदड़ापन का यह प्रयोग टूटने लगा। क्योंकि बाद में आए हिंदी के कर्णधार संपादकों को इस खिलंदड़ापन में पंडिताऊपन नजर आने लगा था। उन्हें हिंदी पत्रकारिता के सबसे बड़े दुश्मन हिंदी से साहित्यकार पत्रकार नजर आने लगे थे। उनके खिलाफ जमकर अभियान चलाया गया। जिन धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, अज्ञेय ने हिंदी को मांजने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वे सब के सब नए संपादकों की नजर में हिंदी पत्रकारिता के खलनायक थे। खलनायकत्व का यह प्रचार अंतत: हिंदी की नवोन्मेषी विधाओं पर पड़ा। अब तो हालत यह है कि उनके दर्शन भी नहीं होते। 1970 के दशक में वाराणसी से निकलने वाले आज अखबार की तूती पूरे उत्तर प्रदेश और बिहार में बोलती थी। उसमें विवेकी राय का साप्ताहिक स्तंभ मनबोध मास्टर की डायरी छपती थी। भले ही इस स्तंभ के नाम में डायरी शब्द जुड़ा था, लेकिन हकीकत में यह डायरी की बजाय रिपोर्ताज ही था। मजे की बात यह है कि इसे पढ़ने वालों का अपना बड़ा पाठक वर्ग था। इन प्रकीर्ण विधाओं (बाद में पाठ्यक्रमों में रिपोर्ताज और डायरी के लिए प्रकीर्ण शब्द का ही इस्तेमाल किया जाता था।) ने पाठकों के ज्ञान के भंडार में वृद्धि तो की ही, उनका स्तरीय मनोरंजन भी किया। लेकिन इन विधाओं का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने भाषा को नए-नए शब्द दिए। ऐसा नहीं कि आज ऐसी विधाओं में लोग सक्रिय नहीं हैं। उदयन वाजपेयी, विवेकी राय, नर्मदाप्रसाद उपाध्याय जैसे नाम सक्रिय तो हैं, लेकिन मौजूदा पत्रकारिता में ऐसी रचनात्मकता को मंच उपलब्ध कराने की जगह ही नहीं रही। इसका असर यह हो रहा है कि हमारी नई पीढ़ी के शब्द भंडार में कमी होती जा रही है। हिंदी का हर चौथा शब्द उनकी भौंहों पर बल डालने के लिए काफी होता है। मजे की बात यह है कि मौजूदा पत्रकारिता नएपन और प्रगतिशीलता के नाम पर इसे ही बढ़ावा दे रही है। आज की शहराती पीढ़ी अपने भारत से ही परिचित नहीं है, रही-सही कसर उसे भाषा से भी काट कर पूरा किया जा रहा है।


सोमवार, 22 नवंबर 2010

नकारात्मक प्रतिभाओं की मशहूरियत का दौर


उमेश चतुर्वेदी
झांसी जिले के प्रेम नगर निवासी लक्ष्मण की मौत ने टेलीविजन की चंचल और मुंहफट बाला के रियलिटी शो राखी का इंसाफ को सवालों के घेरे में ला दिया है। लक्ष्मण के घरवालों के मुताबिक खुलेआम टीवी कैमरे के सामने राखी द्वारा उसे नामर्द कहे जाने के सदमे को वह झेल नहीं पाया। लक्ष्मण की मौत ने एनडीटीवी इमैजिन के इस शो को विवादों में ला दिया है और इसे बंद किए जाने की मांग उठने लगी है। पंजाब सरकार के एक मंत्री हीरा सिंह गाबड़िया तक इसे बंद करने की सलाह दे चुके हैं। मुंबई हाईकोर्ट में इसके खिलाफ याचिका भी दायर की जा चुकी है। ये पहला मौका नहीं है, जब राखी का यह शो विवादों में आया है। अभी कुछ ही हफ्तों पहले राखी के इसी शो में भोजपुरी फिल्मों की एक स्ट्रगलर और एक कास्टिंग डाइरेक्टर के बीच खुलेआम गालीगलौज हुआ और दोनों ने कैमरे के सामने एक-दूसरे पर हाथ उठा दिया।
दरअसल यह नकारात्मक प्रचार का दौर है। उदारीकरण ने जिंदगी के तमाम मूल्यों को किनारे रखने में मदद दी है। नकारात्मकता को प्रचार मिलता है और इस प्रचार के चलते दर्शकों की भीड़ ऐसे कार्यक्रमों की ओर टूट पड़ती है। इस दौर में नकारात्मक शख्सियतों को ही पसंद किया जा रहा है। लिहाजा टेलीविजन चैनलों को भी दर्शक जुटाने का यह नकारात्मक तरीका ही पसंद आ रहा है। चूंकि राखी के शो पर आरोप है कि एक शख्स की मौत हो गई है, लिहाजा उस पर इन दिनों उंगलियां खूब उठ रही हैं। लेकिन भारतीय टेलीविजन की दुनिया में दिखने वाला यह एक मात्र रियलिटी शो नहीं है, जिसका कंटेंट जिंदगी के तमाम मूल्यों को ध्वस्त करते हुए आगे बढ़ रहा है। बिग बॉस सीजन – 4 भी इन दिनों कलर्स पर छाया हुआ है। टैम की रेटिंग रिपोर्टें बताती हैं कि जिस दिन सलमान खान इस कार्यक्रम की एंकरिंग कर रहे होते हैं, उस दिन हिंदी मनोरंजन चैनलों को देखने वाले दर्शकों का सबसे ज्यादा हिस्सा इसी चैनल के पास होता है। बिग बॉस में हो रही घटनाएं पहले से तय हैं या नहीं, यह तो बाद के बहस का विषय है। लेकिन इतना तय है कि यहां भी जमकर ऐसे मूल्यों की धज्जियां उड़ाई जाती हैं, जिनकी शिक्षा लोग इस बदलाव के दौर में भी शायद ही अपने बच्चों को देना चाहें। डॉली बिंद्रा की खुलेआम जारी बदतमीजी और चीख-चिल्लाहट, पाकिस्तान की असफल अभिनेत्री वीना मलिक की अश्लीलता भरी अदाएं और उनके प्यार में अश्लीलता की हद तक डूबे महान समाजवादी नेता रजनी पटेल के पोते अस्मित पटेल को देखना आज उस समाज को पसंद आ रहा है, जिसके ड्राइंग या बेडरूम में टेलीविजन की अबाध पहुंच है। नकारात्मकता आज प्रचार पाने का माध्यम बन गई है। इसलिए रियलिटी शो को नकारात्मक विषय और नकारात्मक चरित्र पसंद आ रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो कलर्स को महान चोर बंटी को क्यों चुनना पड़ता। उसे डॉली बिंद्रा की चीख-पुकार क्यों पसंद आती। बीना मलिक पर आरोप है कि उनके क्रिकेट के खेल के सटोरियों से संबंध हैं। इस आरोप वाले व्यक्ति को जेल के सीखचों के पीछे होना चाहिए। उसकी साख सवालों के घेरे में होनी चाहिए। लेकिन वह एक प्रतिष्ठित चैनल के जरिए घर-घर पहुंच तो रही ही है, बदले में उसे मोटा माल भी मिल रहा है। सीमा परिहार बीहड़ों की धूल फांकते हुए अपनी जो पहचान नहीं बना पाईं, वे अब कलर्स के जरिए देश के सभ्य परिवारों के ड्राइंग रूम की शोभा बन चुकी हैं। रियलिटी शो का एक मकसद तो यही है कि मशहूर या कुख्यात शख्सियतों की जिंदगी में झांका जाय। राखी सावंत, डॉली बिंद्रा या ऐसी ही हस्तियों से किसी अच्छेपन की उम्मीद तो नहीं की जा सकती। ब्रेड के टुकड़े या एक सेव और चाय की एक प्याली के लिए भी ये शख्सियतें किस हद तक गिर सकती हैं, इसकी असल तस्वीर ये शो पेश तो कर ही रहे हैं। गालियों को तो जैसे टेलीसमाज में स्वीकृति हासिल हो गई है। तभी तो बिग बॉस की एंकरिंग करते हुए सलमान खान कुछ भी बोल देते हैं और दर्शक फिर भी तालियां बजा रहे होते हैं। एमटीवी रोडीज और यूटीवी के बिंदास भी बिंदासपन की ही असल तस्वीर पेश करते हैं। जहां गालियां नवाचार के तौर आराम से दी जाती हैं और सुनी भी जाती हैं। इन रियलिटी शो ने हमारे हास्य बोध को भी बदलकर रख दिया है। जहां द्विअर्थी संवादों की भरमार है। सोनी टीवी पर भी एक हास्य शो आता है। रियलिटी शो की तरह के इस शो में जितने द्विअर्थी संवादों का इस्तेमाल होता है, उससे दादा कोंडके की फिल्मों की याद आ जाती है। लेकिन दिलचस्प यह है कि उत्सव जैसी फिल्म में अभिनय से विख्यात हुए शेखर कपूर को ऐसे संवादों को हंसने का बहाना ही होते हैं। समाज तालियां पीट रहा है और कंपनियां इन तालियों के चलते विज्ञापनों की माया से भरी हुई हैं।
पश्चिमी दुनिया में भी ढेरों रियलिटी शो चल रहे हैं। वहां भी वे लोकप्रिय हैं। लेकिन शोध रिपोर्टें बताती हैं कि ये शो बच्चों में नकारात्मक प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं। जर्मनी की मीडिया शिक्षक माया गेयोत्स ने इस विषय पर शोध किया है। उनका कहना है कि 9 से 22 साल के लोग अनजाने में ही इन शोज़ से बहुत कुछ सीख जाते हैं। उनके मुताबिक बच्चे और युवा इन शोज़ से बहुत कुछ सीखते हैं। मिसाल के तौर पर जर्मनीज़ नेक्सट टॉप मॉडल में प्रतियोगियों से कई तरह के टास्क कराए जाते हैं, मसलन बिना कपड़ों के अपना फोटोशूट कराना। जब बच्चे यह सब देखते हैं तो वे सोचते हैं कि वे भी ऐसा कुछ कर सकते हैं। माया कहती हैं कि इन रियलिटी शो को देखते-देखते बच्चों को लगने लगता है कि जीवन में सफल होने और आगे बढ़ने के लिए खूबसूरत दिखना और अच्छे कपड़े पहनना बेहद ज़रूरी है। बच्चों को लगने लगता है कि ऐसा स्टार या फिर मॉडल बनना ही तरक्की कहलाता है।
माया के इन निष्कर्षों की तसदीक अपने देश में भी हो चुकी है। एक रियलिटी शो में हिस्सा लेते वक्त दो साल पहले इंदौर में एक नौजवान अपनी जान गंवाते-गंवाते बचा। वह पानी के टब में ज्यादा से ज्यादा देर तक डूबे रहे कर स्टार बनने की दौ़ड़ में शामिल था। स्टार बनने के चक्कर में रियलिटी शो में शामिल हुई कोलकाता की एक स्कूली लड़की को उस शो के निर्णायकों ने इतना डांटा कि वह अस्पताल पहुंच गई और उसे लकवा मार गया। वह अपनी आवाज भी खो चुकी थी। काफी इलाज के बाद ही वह स्वस्थ हो सकी। जब रामायण-महाभारत का दौर चल रहा था, तब राम और रावण की तरह तीर से लड़ाई करने का चलन बढ़ गया था। हालांकि वे रियलिटी शो नहीं थे। पूरी तरह से महाकाव्यात्म कथाओं पर आधारित वे धारावाहिक थे। आस्था और सांस्कृतिक इतिहास से जुड़ा होने के बावजूद उन धारावाहिकों पर सवाल उठे। बच्चों को समझाने और उन्हें चेताने की कोशिशें शुरू हो गई थीं। हालांकि उनमें जीवन मूल्यों की स्थापना पर जोर था। लेकिन तब से लेकर करीब दो दशक का वक्त बीत चुका है। इसके बावजूद अब के रियलिटी शो को लेकर चेताने की कोई कार्यवाही होती नहीं दिख रही। वैसे राखी का इंसाफ जैसे शो भारतीय कानून व्यवस्था का भी मजाक उड़ा रहे हैं। अगर राखी जैसे लोग ही इंसाफ कर सकते हैं तो कानून व्यवस्था संभालने और न्याय करने वाली संस्थाओं की क्या जरूरत रह जाती है। राखी अपने हावभाव के जरिए इंसाफ चाहें जितना भी करती हों, उनकी ये हरकत दर्शकों को पसंद आती है। बिग बॉस की डॉली बिंद्रा को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। नकारात्मक प्रचार की ताकत बढ़ रही है और बाजार चूंकि इसी के सहारे बढ़ रहा है, लिहाजा इसे बढ़ावा देने में उसकी भूमिका बढ़ती जा रही है। यही वजह है कि तमाम टेलीविजन चैनलों पर ऐसे शो की बाढ़ आई हुई है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बाजार को भले ही ये चीजें पसंद आती हैं। लेकिन समाज के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा, इसे निर्धारित करने का काम व्यवस्था संभालने वाली संस्थाओं का है, जिनसे ऐसे मसलों पर निर्मम और गंभीर कदमों की उम्मीद की जाती है। बीबीसी के चैनल फोर पर प्रसारित बिग ब्रदर कार्यक्रम में जेड गुडी ने शिल्पा शेट्टी पर नस्ली टिप्पणियां की थीं, तो उसका ब्रिटेन की मीडिया की सबसे बड़ी निगरानी संस्था ब्रा़डकास्टिंग रेग्युलेटरी अथॉरिटी ने संज्ञान लिया था और चैनल फोर को नोटिस जारी किया था। जिसका वहां के नागरिकों तक ने स्वागत किया था। लेकिन खेद का विषय यह है कि अपने यहां ऐसी पहल होती नहीं दिख रही।

बुधवार, 6 अक्टूबर 2010

क्यों पिछड़ा है राजस्थानी सिने उद्योग

राजस्थानी सिनेमा का यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि हिंदी की मुख्यधारा की फिल्मों में राजस्थानी परिवारों की कहानियां हिट रहती हैं, लेकिन राजस्थानी भाषा का अपना सिनेमा न तो क्लासिक और न ही कमर्शियल फिल्म के तौर पर अब तक खास पहचान बना पाया है। हालांकि हिंदी का शुरूआती सिनेमा राजस्थानी रजवाड़ों की कहानियों से भरा पड़ा था। मीराबाई से लेकर पन्ना धाय तक की कहानियां भी हिंदी सिनेमा का विषय बन चुकी हैं। मुगल-ए-आजम से लेकर जोधा-अकबर जैसी फिल्मों ने राजस्थानी पृष्ठभूमि का हिंदी सिनेमा ने कलात्मक और व्यवसायिक दोहन किया है। राजस्थानी तर्ज के नीबूड़ा-नीबूड़ा जैसे कई गीतों ने हिंदी सिनेमा के हिट होने में अहम योगदान दिया है। हम दिल दे चुके सनम तो पूरी तरह राजस्थानी पृष्ठभूमि की ही फिल्म थी। फिर क्या वजह है कि राजस्थानी सिनेमा अपनी अलहदा पहचान नहीं बना पाया। इसका जवाब देते हैं हिंदी में कई हिट फिल्में बना चुके के सी बोकाड़िया। आज का अर्जुन, तेरी मेहरबानियां जैसी हिट फिल्में बनाने और निर्देशित करने वाले बोकाड़िया राजस्थान के ही मेड़ता सिटी के रहने वाले हैं। उनका कहना है कि राजस्थान में हर 20-25 किलोमीटर के बाद भाषा बदल जाती है। यही वजह है कि राजस्थानी सिनेमा की दुर्दशा हो रही है। क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों के पिछड़ने की वजह की जब भी चर्चा होती है, तब यही सवाल उठता है। हरियाणा अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टीवल में हरियाणवी फिल्मों के विकास पर हो रही गोष्ठी में भी यही मजबूरी निर्माता-निर्देशक अश्विनी चौधरी ने जताई थी।
सवाल यह है कि क्या सचमुच बोलियों में विविधता ही हरियाणवी या राजस्थानी सिनेमा के विकास की बड़ी बाधा हैं। यह तर्क देने वाले भूल जाते हैं कि इस देश में बरसों से कहावत चली आ रही है- कोस-कोस पर पानी बदले, तीन कोस पर बानी। यह स्थिति भारत की हर भाषा की है। तेलुगू, तमिल, कन्नड़, मलयालम, मराठी, बांग्ला, भोजपुरी कोई भी ऐसी बोली नहीं है, जिसे उसके प्रभाव क्षेत्र में एक ही तरह से बोला जाता हो। खुद हिंदी के साथ भी ऐसी स्थिति नहीं है। बिहार वाले की हिंदी, मध्य प्रदेश वाले की हिंदी से अलग है। लखनऊ समेत मध्य उत्तर प्रदेश का व्यक्ति जिस हिंदी का इस्तेमाल करता है, झारखंड या छत्तीसगढ़ की हिंदी से वह अलग होती है। लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं और हिंदी का सिनेमा चल रहा है। उसकी व्यवासियक और क्लासिकल, दोनों पहचान है। ऐसे में बोलियों की विविधता को क्षेत्रीय सिनेमा के विकास में बाधक मानने वाले तर्क पर गौर किया जाना जरूरी है।

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

क्षेत्रीय सिनेमा के विकास के लिए राज्य का संरक्षण जरूरी


समानांतर और सरोकार वाले सिनेमा को लेकर अपने यहां जब भी चर्चा होती है, बांग्ला और मलयालम जैसी क्षेत्रीय भाषाओं का नाम सबसे उपर होता है। सार्थक सिनेमा की कड़ी में मराठी, उड़िया और असमी जैसी भाषाओं ने भी अपनी पहचान दर्ज करा दी है। कमर्शियल फिल्मों की दुनिया में तमिल, तेलुगू, कन्नड़ का कोई जोड़ नहीं है। भोजपुरी तो इन दिनों अपने कमर्शियल सिनेमा को लेकर क्षेत्रीय भाषाओं में नई पहचान बना रही है। इन अर्थों में देखा जाय तो हरियाणवी फिल्मों का अब तक का विकास निराश करता है। हरियाणा के यमुनानगर में आयोजित तीसरे अंतरराष्ट्रीय हरियाणा फिल्म फेस्टिवल में हरियाणवी सिनेमा का विकास विषय पर आयोजित गोष्ठी में इसी निराशा को समझने की कोशिश की गई। इस मौके पर अपनी पहली ही हरियाणवी फिल्म लाडो से चर्चित हो चुके अश्विनी चौधरी ने मार्के की बात कही। उन्होंने कहा कि अच्छे सिनेमा का बेहतर स्रोत साहित्य होता है। सच कहें तो सिनेमा के लिए साहित्य परखा हुआ दस्तावेज होता है। लेकिन हरियाणवी सिनेमा का संकट यह है कि यहां कोई अपना साहित्य ही नहीं है। यही वजह है कि जब कोई हरियाणवी सिनेमा में हाथ आजमाना चाहता है तो कहानी के लिए उसे लोक साहित्य की ओर देखना पड़ता है। लेकिन लोक के साथ संकट यह है कि वह सिनेमा के लिए हर वक्त उर्वर और कामयाब कहानी नहीं दे सकता। कमर्शियल सिनेमा को जहां आम लोगों का साथ मिलता है, वहीं सरोकारी सिनेमा को समाज के प्रबुद्ध वर्ग का साथ मिलता है। अश्विनी चौधरी के मुताबिक हरियाणवी समाज में इसकी भी कमी है और सबसे बड़ी बात यह है कि हरियाणा की बोलियों में एक रूपता नहीं हैं। यही वजह है कि अगर कोई हरियाणवी फिल्म बनाना चाहता है तो उसके सिनेकार को ये चिंता सताती रहती है कि वह किस बोली में फिल्म बनाए।
बोलियों की समस्या को लेकर अश्विनी चौधरी की इस राय से हरियाणवी सिनेमा की पहली सुपर हिट फिल्म चंद्रावल की हीरोईन ऊषा शर्मा सहमत नहीं हैं। उनका कहना था कि अगर बोलियां बाधा रहतीं तो उनकी फिल्म हरियाणा के बाहर उत्तरी राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली और पंजाब के कुछ हिस्सों तक में हिट रही थी।
गोष्ठी में शामिल सभी वक्ता कम से एक मुद्दे पर सहमत थे। उनका मानना था कि क्षेत्रीय सिनेमा के पनपने में राज्य का सहयोग कम से कम शुरूआती दौर में होना चाहिए। क्योंकि जहां-जहां क्षेत्रीय सिनेमा विकसित हुआ है, वहां – वहां क्षेत्रीय सिनेमा का शुरूआती दौर में राज्य ने संरक्षण दिया है।
चंद्रावल का सीक्वल बनाने जा रही ऊषा शर्मा को अफसोस है कि हरियाणा में अब तक राज्य की अपनी कोई फिल्म पॉलिसी नहीं है। 1985 में उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री से फिल्म नीति बनाने की मांग रखी थी। इसमें हरियाणवी भाषा में कम से कम दो फिल्में बना चुके निर्माता को तीस लाख रूपए का राजकीय अनुदान देने की मांग रखी थी। इसके साथ ही उन्होंने कम से कम अस्सी फीसदी शूटिंग हरियाणा में होने वाली फिल्मों को भी यही सहायता देने की मांग रखी थी। इसके साथ ही हर सिनेमा हॉल को हरियाणवी फिल्में कम से कम हर हफ्ते दो शो दिखाने की मांग भी रखी। यह सच है कि अगर यह मांग मान ली जाती तो शायद हरियाणा में सिनेमा के विकास को गति मिल सकती थी। लेकिन अधिकारियों के चलते अब तक न तो राज्य की अपनी फिल्म पॉलिसी बन पाई है और न ही सिनेमा हॉलों को कोई आदेश दिया जा सका है।
ऊषा शर्मा की इस राय से सहमत होने के बावजूद भोजपुरी जैसी क्षेत्रीय भाषाओं के सिनेमा का विस्तार सवाल खड़े करता है। यह सच है कि भोजपुरी का बाजार हरियाणवी की तुलना में बड़ा है। लेकिन यह भी सच है कि उसे न तो बिहार, न ही उत्तर प्रदेश और न ही झारखंड की सरकारों से कोई प्रोत्साहन मिल पाया है। इसके बावजूद कम से कम कमर्शियल स्तर पर भोजपुरी सिनेमा का विस्तार होता जा रहा है। इसका जवाब अश्विनी चौधरी की तकरीर में मिलता है। अश्विनी चौधरी ने कहा कि सिनेमा को बढ़ावा देने में मध्य वर्ग का भी योगदान होता है, लेकिन हरियाणा में कम से कम अपने सिनेमा से प्यार करने वाला मध्यम वर्ग विकसित नहीं हो पाया है। अगर इन तर्कों को ही आखिरी मान लिया जाएगा तो हरियाणवी ही नहीं, किसी भी भाषा और उसके सिनेमा के विकास की गुंजाइश कम होती जाएगी। इस मसले पर सबसे बढ़िया सुझाव रहा शीतल शर्मा का, जिनका कहना था कि अगर रचनात्मक लोग आगे आंएगें तो मध्यवर्ग को आकर्षित किया जा सकेगा और बोलियों की एक रूपता के संकट से भी पार पाया जा सकेगा।
गोष्ठी का संचालन कर रहे हरियाणा के मशहूर संस्कृतिकर्मी अनूप लाठर ने महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा कि बाजार तो चंद्रावल ने ही बना दिया था। यह बात और है कि उस बाजार की दिशा में हरियाणवी सिनेमा आगे नहीं बढ़ पाया। उनके मुताबिक शुरूआती हरियाणवी सिनेमा में प्रशिक्षित कलाकारों की कमी तो थी ही, आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल भी कम ही हुआ। अपनी फिल्म लाडो के संदर्भ में अश्विनी चौधरी भी इस तथ्य से सहमत नजर आ रहे थे।
ऐसी गोष्ठियों का मकसद किसी मुकम्मल नतीजे पर पहुंचना होता है। हालांकि यह गोष्ठी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाईं। लेकिन अजित राय के शब्दों में कहें तो ऐसी गोष्ठियां किसी मसले का रातोंरात हल नहीं सुझातीं, बल्कि बदलाव की जमीन तैयार करती हैं। ऐसे में यह उम्मीद करना बेमानी नहीं होगा कि हरियाणवी फिल्म के विकास की दिशा में यह गोष्ठी भी एक कदम जरूर साबित होगी।

रविवार, 3 अक्टूबर 2010

अलग –अलग विधा हैं साहित्य और सिनेमा



साहित्य और सिनेमा के रिश्ते की जब भी चर्चा होती है, हिंदी में एक तरह की वैचारिक गर्मी आ जाती है। किसी साहित्यिक कृति पर बनी फिल्म को लेकर अक्सर साहित्यकारों को शिकायत रहती है कि फिल्मकार या निर्देशक ने उसकी रचना की आत्मा को मार डाला। हिमांशु जोशी ने अपनी कहानी सुराज पर बनी फिल्म में मनमाने बदलाव के बाद भविष्‍य में अपनी कहानी पर फिल्म बनाने की अनुमति देने से कान ही पकड़ लिये। हालांकि राजेंद्र यादव, जिनके मशहूर उपन्यास सारा आकाश पर इसी नाम से फिल्म बन चुकी है, मानते रहे हैं कि कहानी और उपन्यास जहां लेखक की रचना होती है, वहीं फिल्म पूरी तरह निर्देशक की कृति होती है। कुछ ऐसा ही विचार हरियाणा अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टीवल के तीसरे दिन सिनेमा और साहित्य के रिश्ते पर आयोजित गोष्ठी में शामिल वक्ताओं के भी रहे।
मशहूर फिल्मकार के. बिक्रम सिंह का कहना है कि साहित्य और सिनेमा के रिश्ते पर चर्चा के वक्त हिंदी में विवाद की असल वजह है कि दरअसल हिंदी में विजुअल आधारित सोच का विकास नहीं हुआ है, बल्कि सोच में शाब्दिकता का जोर ज्यादा है। उनका कहना है कि सिनेमा में कला, संगीत, सिनेमॉटोग्राफी, कला निर्देशन जैसी कई विधाओं का संगम होता है। ऐसे में साहित्य को पूरी तरह से सेल्युलायड पर उतारना संभव नहीं होता। उन्होंने सत्यजीत रे की फिल्म पाथेर पांचाली का उदाहरण देते हुए कहा कि इस उपन्यास में जहां करीब पांच सौ चरित्र हैं, वहीं फिल्म में महज दस-बारह। उन्होंने श्रीलंका के मशहूर उपन्यासकार लेक्सटर जेंस पेरी का उदाहरण देते हुए कहा कि उनके उपन्यास टेकावा पर जब फिल्म बनी और उनसे प्रतिक्रिया पूछी गई तो पैरी ने कहा था कि उपन्यास उनका है, जबकि फिल्म निर्देशक की है। उन्होंने रवींद्र नाथ टैगोर के हवाले से कहा कि सिनेमा कला के तौर पर तभी स्थापित हो सकेगा, जब वह साहित्य से छुटकारा पा लेगा। हालांकि मशहूर फिल्म समीक्षक और कवि विनोद भारद्वाज ने रवींद्र नाथ टैगोर की कहानी चारूलता का उदाहरण देते हुए कहा कि अच्छे साहित्य पर अच्छी फिल्में बनाई जा सकती हैं। जिस पर सत्यजीत रे ने बेहतरीन फिल्म बनाई है। भारद्वाज ने शरत चंद्र के उपन्यास देवदास पर बनी विमल राय की फिल्म देवदास और अनुराग कश्यप की देव डी का उदाहरण देते हुए कहा कि एक ही कृति पर अलग-अलग ढंग से सोचते हुए अच्छी फिल्में जरूर बनाई जा सकती हैं। उनका सुझाव है कि साहित्यकारों को यह सोचना चाहिए कि महान साहित्यिक कृतियों के फिल्मांकन के वक्त छेड़छाड़ उस कृति की महानता से छेड़छाड़ नहीं है। साहित्यिक कृतियों पर बनने वाली फिल्मों की रिलीज के बाद साहित्य और सिनेमा के रिश्तों में आने वाली तल्खी का ध्यान फ्रेंच फिल्मकार गोदार को भी था। यही वजह है कि वे अच्छी और महान कृति पर फिल्म बनाने का विरोध करते थे। वैसे सिनेमा और साहित्य के रिश्ते को समझने के लिए फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे के पूर्व निदेशक त्रिपुरारिशरण नया नजरिया देते हैं। उनका कहना है कि चूंकि साहित्य का जोर कहने और सिनेमा का जोर देखने पर होता है, लिहाजा भारत में दोनों विधाओं के रिश्तों में खींचतान दिखती रही है। उनका मानना है कि चूंकि यूरोप में कहने और देखने का अनुशासन विकसित हो चुका है, लिहाजा वहां साहित्य और सिनेमा के रिश्ते को लेकर वैसे सवाल नहीं उठते, जैसे भारत में उठते हैं। शरण के मुताबिक यही वजह है कि भारत में प्रबुद्ध सिनेकार महत्वपूर्ण रचनाओं को छूना तक नहीं चाहते। उनका सुझाव है कि सिनेमा और साहित्य असल में दो तरह की दो अलग विधाएं हैं, लिहाजा उनके बीच तुलना होनी ही नहीं चाहिए।

पुस्तक समीक्षा


संपादकीय लेखन के विकास का गवाह

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी पत्रकारिता को शुरूआती दौर में वे सारी चुनौतियां झेलनी पड़ीं, जिनका सामना उदारीकरण के दौर में आए मीडिया बूम के पहले तक सामना करना पड़ रहा था पाठकों की संख्या, ग्राहकों की उदासीनता और पैसे की कमी ने हिंदी पत्रकारिता को शुरूआती दौर से ही परेशान किए रखा है। पिछली सदी के शुरूआती बरसों में ये चुनौतियां और भी पहाड़ सरीखी अंग्रेजी राज के दमन तंत्र के चलते हो जाती थीं। इसके बावजूद प्रताप नारायण मिश्र का चाहे ब्राह्मण नामक पत्र हो या फिर गणेश शंकर विद्यार्थी का प्रताप या फिर माधव राव सप्रे का छत्तीसगढ़ मित्र, हर पत्र का संपादक अपने दौर की समस्याओं को लेकर अपने संपादकीयों में चिंता जाहिर करता रहा है। तरूशिखा सुरजन के संपादन में आई किताब हिंदी पत्रकारिता का प्रतिनिधि संकलन के पृष्ठों से गुजरते हुए इसके बार-बार दर्शन होते हैं।
हिंदी पत्रकारिता में एक प्रवृत्ति आज भी देखने को मिलती है। अखबारों की तुलना में पत्रिकाओं को चलाना और उनमें लिखना-पढ़ना कहीं कम महत्वपूर्ण माना जाता रहा है। हैरत की बात यह है कि हिंदी पत्रकारिता के शुरूआती दौर में अपनी पत्रिकाओं को जमाने के लिए तब के संपादक लोगों को पत्रिकाओं को दैनिक अखबारों की तुलना में कहीं ज्यादा संग्रहणीय बताने की जरूरत महसूस होती थी। इस संकलन के शुरूआती संपादकीयों में ऐसी चिंताएं बार-बार दिखती हैं। सरस्वती के दिसंबर 1900 के अंक में उसके प्रकाशक ने अपनी परेशानियां गिनाते वक्त इसकी चर्चा की है। 438 पृष्ठ की इस भारी-भरकम किताब में शामिल हिंदी की पहली महिला पत्रिका बालबोधिनी के संपादक भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर रतलाम की सुगृहिणी की संपादक हेमंत कुमार चौधरी तक के संपादकीय जहां हमें उस दौर में स्त्रीशिक्षा को लेकर जताई जा रही चिंताओं से हिंदी पाठकों को रूबरू कराते हैं तो वहीं प्रताप, अभ्युदय, चांद, सरस्वती के संपादकीय राष्ट्रीय आंदोलन की चिंताओं और भाषा की समस्या से भरे पड़े हैं। विशाल भारत के अपने संपादकीय में सन 1940 में भी बनारसी दास चतुर्वेदी किसानों और मजदूरों की समस्याओं को लेकर अपनी चिंताएं जता चुके हैं। इस संकलन में जहां आजादी के पहले राष्ट्र को बनाने और उसके आजाद होने के बाद की नीतियों पर केंद्रित संपादकीय शामिल हैं, तो बाद के दौर के संपादकीय नेहरू के बाद कौन, पाकिस्तान से लड़ाई और आपातकाल की चिंताओं से पाठकों को रूबरू कराते हैं।
हिंदी पत्रकारिता में संपादकीय लेखन का किस तरह विकास हुआ है, इसे समझने में भी यह संकलन मददगार साबित होता है। हालांकि इसमें संपादन की सीमाएं भी दिखती हैं। खासतौर पर स्नेहलता चौधरी और हिंदी पत्रकारिता के आदि संपादक युगुल किशोर शुक्ल के संपादकीयों को सीधे-सीधे पेश करने की बजाय उन पर लिखे लेख पेश किए गए हैं। जिसका जिक्र अखबारी स्तंभों की तरह नीचे किया गया है। इससे इनकी पाठकीयता के आस्वादन में बाधा आती है।

किताब - हिंदी पत्रकारिता का प्रतिनिधि संकलन
संपादक – तरूशिखा सुरजन
प्रकाशक – राधाकृष्ण प्रकाशन
7 / 31, अंसारी मार्ग, दरियागंज
नई दिल्ली- 110002
मूल्य - रूपए 550 /