शनिवार, 27 नवंबर 2010

सपाट बयानी के खतरे

उमेश चतुर्वेदी
तीन दिसंबर को बांग्लादेश को बने 39 साल हो जाएंगे। यूं तो बरसी और सालगिरह पर किसी महत्वपूर्ण घटना का याद आना असहज नहीं है। लेकिन बांग्लादेश की याद सिर्फ रस्मी तौर पर नहीं आ रही है। हर साल जब तीन दिसंबर आता है, बचपन में पढ़े एक रिपोर्ताज की स्मृतियां जाग उठती हैं। ब्रह्मपुत्र के मोर्चे पर शीर्षक इस रिपोर्ताज को तो किसी संकलन में पढ़ा था। जब साहित्य और पत्रकारिता से गहरा रिश्ता बना तो पता चला कि यह रिपोर्ताज पहले धर्मयुग में छपा था। बांग्लादेश के गठन की तैयारियों के बीच भारतीय सेना की पाकिस्तानी सेना से भिड़ंत भी हुई थी। उसी लड़ाई के एक मोर्चे से हिंदी के यशस्वी कवि और पत्रकार डॉक्टर धर्मवीर भारती ने यह रिपोर्ताज लिखा था। ब्रह्मपुत्र नदी के दोनों तरफ से जारी गोलाबारी के बीच धर्मवीर भारती खुद भी मौजूद थे। यह लेखन इसलिए ज्यादा याद आता है, क्योंकि युद्ध के मोर्चे से लिखे इस रिपोर्ताज में भाषा के जबर्दस्त प्रयोग दिखते हैं। पढ़ते वक्त लगता है जैसे हम सीधे-सीधे लड़ाई के दृश्यों से दो-चार हो रहे हैं। आज का जमाना होता तो धर्मवीर भारती का वह रिपोर्ताज भी खारिज कर दिया जाता यह कहते हुए कि पेस और मूवमेंट लड़ाई के मोर्चे की रिपोर्ट कैसी ? लेकिन ब्रह्मपुत्र के मोर्चे से लिखा यह रिपोर्ताज उन लोगों को जरूर सुकून पहुंचाता है और हिंदी की भाषाई ताकत को महसूस भी कराता है, जिन्हें भाषा में खिलंदड़ापन पसंद हैं।
धर्मवीर भारती ही क्यों, मैला आंचल और परती-परिकथा जैसी कृतियों के मशहूर लेखक फणीश्वर नाथ रेणु के उन रिपोर्ताजों को भी पढ़ना अपने आप में सुखद अनुभव है, जो ऋणजल-धनजल शीर्षक से संग्रहीत हैं। मूलत: दिनमान के लिए इन्हें लिखा गया था। 1973 की बिहार की भयंकर बाढ़, उसके पहले का सूखा, बाढ़ और सूखे के बीच पिसती बिहार की जनता, 1967 में पहली बार बिहार में संयुक्त सरकार बनना, उस सरकार की पहली कैबिनेट बैठक का विवरण...ऐसी कई घटनाओं पर रेणु ने रिपोर्ताज लिखे। दिनमान संपादक रघुवीर सहाय ने रेणु से आग्रह करके खासतौर पर ये रिपोर्ताज लिखवाए थे। उन्हें पढ़कर लोगों का दिल न पसीज जाए, गुस्से से मुट्ठियां न तन जाएं या फिर गर्व ना हो...ऐसा हो ही नहीं सकता। भाषाई चमत्कार और खास घटनाओं के लिए खास शब्दों का इस्तेमाल....इसकी बेहतरीन बानगी है रेणु के ये रिपोर्ताज. अस्सी के दशक तक भाषाई खिलंदड़ी के साथ रिपोर्ताज लेखन की यह परंपरा चलती रही। 1980 के दशक के आखिरी दिनों में भाषाई खिलंदड़ापन का यह प्रयोग टूटने लगा। क्योंकि बाद में आए हिंदी के कर्णधार संपादकों को इस खिलंदड़ापन में पंडिताऊपन नजर आने लगा था। उन्हें हिंदी पत्रकारिता के सबसे बड़े दुश्मन हिंदी से साहित्यकार पत्रकार नजर आने लगे थे। उनके खिलाफ जमकर अभियान चलाया गया। जिन धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, अज्ञेय ने हिंदी को मांजने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वे सब के सब नए संपादकों की नजर में हिंदी पत्रकारिता के खलनायक थे। खलनायकत्व का यह प्रचार अंतत: हिंदी की नवोन्मेषी विधाओं पर पड़ा। अब तो हालत यह है कि उनके दर्शन भी नहीं होते। 1970 के दशक में वाराणसी से निकलने वाले आज अखबार की तूती पूरे उत्तर प्रदेश और बिहार में बोलती थी। उसमें विवेकी राय का साप्ताहिक स्तंभ मनबोध मास्टर की डायरी छपती थी। भले ही इस स्तंभ के नाम में डायरी शब्द जुड़ा था, लेकिन हकीकत में यह डायरी की बजाय रिपोर्ताज ही था। मजे की बात यह है कि इसे पढ़ने वालों का अपना बड़ा पाठक वर्ग था। इन प्रकीर्ण विधाओं (बाद में पाठ्यक्रमों में रिपोर्ताज और डायरी के लिए प्रकीर्ण शब्द का ही इस्तेमाल किया जाता था।) ने पाठकों के ज्ञान के भंडार में वृद्धि तो की ही, उनका स्तरीय मनोरंजन भी किया। लेकिन इन विधाओं का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने भाषा को नए-नए शब्द दिए। ऐसा नहीं कि आज ऐसी विधाओं में लोग सक्रिय नहीं हैं। उदयन वाजपेयी, विवेकी राय, नर्मदाप्रसाद उपाध्याय जैसे नाम सक्रिय तो हैं, लेकिन मौजूदा पत्रकारिता में ऐसी रचनात्मकता को मंच उपलब्ध कराने की जगह ही नहीं रही। इसका असर यह हो रहा है कि हमारी नई पीढ़ी के शब्द भंडार में कमी होती जा रही है। हिंदी का हर चौथा शब्द उनकी भौंहों पर बल डालने के लिए काफी होता है। मजे की बात यह है कि मौजूदा पत्रकारिता नएपन और प्रगतिशीलता के नाम पर इसे ही बढ़ावा दे रही है। आज की शहराती पीढ़ी अपने भारत से ही परिचित नहीं है, रही-सही कसर उसे भाषा से भी काट कर पूरा किया जा रहा है।


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