सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

क्षेत्रीय सिनेमा के विकास के लिए राज्य का संरक्षण जरूरी


समानांतर और सरोकार वाले सिनेमा को लेकर अपने यहां जब भी चर्चा होती है, बांग्ला और मलयालम जैसी क्षेत्रीय भाषाओं का नाम सबसे उपर होता है। सार्थक सिनेमा की कड़ी में मराठी, उड़िया और असमी जैसी भाषाओं ने भी अपनी पहचान दर्ज करा दी है। कमर्शियल फिल्मों की दुनिया में तमिल, तेलुगू, कन्नड़ का कोई जोड़ नहीं है। भोजपुरी तो इन दिनों अपने कमर्शियल सिनेमा को लेकर क्षेत्रीय भाषाओं में नई पहचान बना रही है। इन अर्थों में देखा जाय तो हरियाणवी फिल्मों का अब तक का विकास निराश करता है। हरियाणा के यमुनानगर में आयोजित तीसरे अंतरराष्ट्रीय हरियाणा फिल्म फेस्टिवल में हरियाणवी सिनेमा का विकास विषय पर आयोजित गोष्ठी में इसी निराशा को समझने की कोशिश की गई। इस मौके पर अपनी पहली ही हरियाणवी फिल्म लाडो से चर्चित हो चुके अश्विनी चौधरी ने मार्के की बात कही। उन्होंने कहा कि अच्छे सिनेमा का बेहतर स्रोत साहित्य होता है। सच कहें तो सिनेमा के लिए साहित्य परखा हुआ दस्तावेज होता है। लेकिन हरियाणवी सिनेमा का संकट यह है कि यहां कोई अपना साहित्य ही नहीं है। यही वजह है कि जब कोई हरियाणवी सिनेमा में हाथ आजमाना चाहता है तो कहानी के लिए उसे लोक साहित्य की ओर देखना पड़ता है। लेकिन लोक के साथ संकट यह है कि वह सिनेमा के लिए हर वक्त उर्वर और कामयाब कहानी नहीं दे सकता। कमर्शियल सिनेमा को जहां आम लोगों का साथ मिलता है, वहीं सरोकारी सिनेमा को समाज के प्रबुद्ध वर्ग का साथ मिलता है। अश्विनी चौधरी के मुताबिक हरियाणवी समाज में इसकी भी कमी है और सबसे बड़ी बात यह है कि हरियाणा की बोलियों में एक रूपता नहीं हैं। यही वजह है कि अगर कोई हरियाणवी फिल्म बनाना चाहता है तो उसके सिनेकार को ये चिंता सताती रहती है कि वह किस बोली में फिल्म बनाए।
बोलियों की समस्या को लेकर अश्विनी चौधरी की इस राय से हरियाणवी सिनेमा की पहली सुपर हिट फिल्म चंद्रावल की हीरोईन ऊषा शर्मा सहमत नहीं हैं। उनका कहना था कि अगर बोलियां बाधा रहतीं तो उनकी फिल्म हरियाणा के बाहर उत्तरी राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली और पंजाब के कुछ हिस्सों तक में हिट रही थी।
गोष्ठी में शामिल सभी वक्ता कम से एक मुद्दे पर सहमत थे। उनका मानना था कि क्षेत्रीय सिनेमा के पनपने में राज्य का सहयोग कम से कम शुरूआती दौर में होना चाहिए। क्योंकि जहां-जहां क्षेत्रीय सिनेमा विकसित हुआ है, वहां – वहां क्षेत्रीय सिनेमा का शुरूआती दौर में राज्य ने संरक्षण दिया है।
चंद्रावल का सीक्वल बनाने जा रही ऊषा शर्मा को अफसोस है कि हरियाणा में अब तक राज्य की अपनी कोई फिल्म पॉलिसी नहीं है। 1985 में उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री से फिल्म नीति बनाने की मांग रखी थी। इसमें हरियाणवी भाषा में कम से कम दो फिल्में बना चुके निर्माता को तीस लाख रूपए का राजकीय अनुदान देने की मांग रखी थी। इसके साथ ही उन्होंने कम से कम अस्सी फीसदी शूटिंग हरियाणा में होने वाली फिल्मों को भी यही सहायता देने की मांग रखी थी। इसके साथ ही हर सिनेमा हॉल को हरियाणवी फिल्में कम से कम हर हफ्ते दो शो दिखाने की मांग भी रखी। यह सच है कि अगर यह मांग मान ली जाती तो शायद हरियाणा में सिनेमा के विकास को गति मिल सकती थी। लेकिन अधिकारियों के चलते अब तक न तो राज्य की अपनी फिल्म पॉलिसी बन पाई है और न ही सिनेमा हॉलों को कोई आदेश दिया जा सका है।
ऊषा शर्मा की इस राय से सहमत होने के बावजूद भोजपुरी जैसी क्षेत्रीय भाषाओं के सिनेमा का विस्तार सवाल खड़े करता है। यह सच है कि भोजपुरी का बाजार हरियाणवी की तुलना में बड़ा है। लेकिन यह भी सच है कि उसे न तो बिहार, न ही उत्तर प्रदेश और न ही झारखंड की सरकारों से कोई प्रोत्साहन मिल पाया है। इसके बावजूद कम से कम कमर्शियल स्तर पर भोजपुरी सिनेमा का विस्तार होता जा रहा है। इसका जवाब अश्विनी चौधरी की तकरीर में मिलता है। अश्विनी चौधरी ने कहा कि सिनेमा को बढ़ावा देने में मध्य वर्ग का भी योगदान होता है, लेकिन हरियाणा में कम से कम अपने सिनेमा से प्यार करने वाला मध्यम वर्ग विकसित नहीं हो पाया है। अगर इन तर्कों को ही आखिरी मान लिया जाएगा तो हरियाणवी ही नहीं, किसी भी भाषा और उसके सिनेमा के विकास की गुंजाइश कम होती जाएगी। इस मसले पर सबसे बढ़िया सुझाव रहा शीतल शर्मा का, जिनका कहना था कि अगर रचनात्मक लोग आगे आंएगें तो मध्यवर्ग को आकर्षित किया जा सकेगा और बोलियों की एक रूपता के संकट से भी पार पाया जा सकेगा।
गोष्ठी का संचालन कर रहे हरियाणा के मशहूर संस्कृतिकर्मी अनूप लाठर ने महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा कि बाजार तो चंद्रावल ने ही बना दिया था। यह बात और है कि उस बाजार की दिशा में हरियाणवी सिनेमा आगे नहीं बढ़ पाया। उनके मुताबिक शुरूआती हरियाणवी सिनेमा में प्रशिक्षित कलाकारों की कमी तो थी ही, आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल भी कम ही हुआ। अपनी फिल्म लाडो के संदर्भ में अश्विनी चौधरी भी इस तथ्य से सहमत नजर आ रहे थे।
ऐसी गोष्ठियों का मकसद किसी मुकम्मल नतीजे पर पहुंचना होता है। हालांकि यह गोष्ठी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाईं। लेकिन अजित राय के शब्दों में कहें तो ऐसी गोष्ठियां किसी मसले का रातोंरात हल नहीं सुझातीं, बल्कि बदलाव की जमीन तैयार करती हैं। ऐसे में यह उम्मीद करना बेमानी नहीं होगा कि हरियाणवी फिल्म के विकास की दिशा में यह गोष्ठी भी एक कदम जरूर साबित होगी।

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