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रविवार, 3 अक्टूबर 2010
अलग –अलग विधा हैं साहित्य और सिनेमा
साहित्य और सिनेमा के रिश्ते की जब भी चर्चा होती है, हिंदी में एक तरह की वैचारिक गर्मी आ जाती है। किसी साहित्यिक कृति पर बनी फिल्म को लेकर अक्सर साहित्यकारों को शिकायत रहती है कि फिल्मकार या निर्देशक ने उसकी रचना की आत्मा को मार डाला। हिमांशु जोशी ने अपनी कहानी सुराज पर बनी फिल्म में मनमाने बदलाव के बाद भविष्य में अपनी कहानी पर फिल्म बनाने की अनुमति देने से कान ही पकड़ लिये। हालांकि राजेंद्र यादव, जिनके मशहूर उपन्यास सारा आकाश पर इसी नाम से फिल्म बन चुकी है, मानते रहे हैं कि कहानी और उपन्यास जहां लेखक की रचना होती है, वहीं फिल्म पूरी तरह निर्देशक की कृति होती है। कुछ ऐसा ही विचार हरियाणा अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टीवल के तीसरे दिन सिनेमा और साहित्य के रिश्ते पर आयोजित गोष्ठी में शामिल वक्ताओं के भी रहे।
मशहूर फिल्मकार के. बिक्रम सिंह का कहना है कि साहित्य और सिनेमा के रिश्ते पर चर्चा के वक्त हिंदी में विवाद की असल वजह है कि दरअसल हिंदी में विजुअल आधारित सोच का विकास नहीं हुआ है, बल्कि सोच में शाब्दिकता का जोर ज्यादा है। उनका कहना है कि सिनेमा में कला, संगीत, सिनेमॉटोग्राफी, कला निर्देशन जैसी कई विधाओं का संगम होता है। ऐसे में साहित्य को पूरी तरह से सेल्युलायड पर उतारना संभव नहीं होता। उन्होंने सत्यजीत रे की फिल्म पाथेर पांचाली का उदाहरण देते हुए कहा कि इस उपन्यास में जहां करीब पांच सौ चरित्र हैं, वहीं फिल्म में महज दस-बारह। उन्होंने श्रीलंका के मशहूर उपन्यासकार लेक्सटर जेंस पेरी का उदाहरण देते हुए कहा कि उनके उपन्यास टेकावा पर जब फिल्म बनी और उनसे प्रतिक्रिया पूछी गई तो पैरी ने कहा था कि उपन्यास उनका है, जबकि फिल्म निर्देशक की है। उन्होंने रवींद्र नाथ टैगोर के हवाले से कहा कि सिनेमा कला के तौर पर तभी स्थापित हो सकेगा, जब वह साहित्य से छुटकारा पा लेगा। हालांकि मशहूर फिल्म समीक्षक और कवि विनोद भारद्वाज ने रवींद्र नाथ टैगोर की कहानी चारूलता का उदाहरण देते हुए कहा कि अच्छे साहित्य पर अच्छी फिल्में बनाई जा सकती हैं। जिस पर सत्यजीत रे ने बेहतरीन फिल्म बनाई है। भारद्वाज ने शरत चंद्र के उपन्यास देवदास पर बनी विमल राय की फिल्म देवदास और अनुराग कश्यप की देव डी का उदाहरण देते हुए कहा कि एक ही कृति पर अलग-अलग ढंग से सोचते हुए अच्छी फिल्में जरूर बनाई जा सकती हैं। उनका सुझाव है कि साहित्यकारों को यह सोचना चाहिए कि महान साहित्यिक कृतियों के फिल्मांकन के वक्त छेड़छाड़ उस कृति की महानता से छेड़छाड़ नहीं है। साहित्यिक कृतियों पर बनने वाली फिल्मों की रिलीज के बाद साहित्य और सिनेमा के रिश्तों में आने वाली तल्खी का ध्यान फ्रेंच फिल्मकार गोदार को भी था। यही वजह है कि वे अच्छी और महान कृति पर फिल्म बनाने का विरोध करते थे। वैसे सिनेमा और साहित्य के रिश्ते को समझने के लिए फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान, पुणे के पूर्व निदेशक त्रिपुरारिशरण नया नजरिया देते हैं। उनका कहना है कि चूंकि साहित्य का जोर कहने और सिनेमा का जोर देखने पर होता है, लिहाजा भारत में दोनों विधाओं के रिश्तों में खींचतान दिखती रही है। उनका मानना है कि चूंकि यूरोप में कहने और देखने का अनुशासन विकसित हो चुका है, लिहाजा वहां साहित्य और सिनेमा के रिश्ते को लेकर वैसे सवाल नहीं उठते, जैसे भारत में उठते हैं। शरण के मुताबिक यही वजह है कि भारत में प्रबुद्ध सिनेकार महत्वपूर्ण रचनाओं को छूना तक नहीं चाहते। उनका सुझाव है कि सिनेमा और साहित्य असल में दो तरह की दो अलग विधाएं हैं, लिहाजा उनके बीच तुलना होनी ही नहीं चाहिए।
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