रविवार, 3 अक्तूबर 2010

पुस्तक समीक्षा


संपादकीय लेखन के विकास का गवाह

उमेश चतुर्वेदी
हिंदी पत्रकारिता को शुरूआती दौर में वे सारी चुनौतियां झेलनी पड़ीं, जिनका सामना उदारीकरण के दौर में आए मीडिया बूम के पहले तक सामना करना पड़ रहा था पाठकों की संख्या, ग्राहकों की उदासीनता और पैसे की कमी ने हिंदी पत्रकारिता को शुरूआती दौर से ही परेशान किए रखा है। पिछली सदी के शुरूआती बरसों में ये चुनौतियां और भी पहाड़ सरीखी अंग्रेजी राज के दमन तंत्र के चलते हो जाती थीं। इसके बावजूद प्रताप नारायण मिश्र का चाहे ब्राह्मण नामक पत्र हो या फिर गणेश शंकर विद्यार्थी का प्रताप या फिर माधव राव सप्रे का छत्तीसगढ़ मित्र, हर पत्र का संपादक अपने दौर की समस्याओं को लेकर अपने संपादकीयों में चिंता जाहिर करता रहा है। तरूशिखा सुरजन के संपादन में आई किताब हिंदी पत्रकारिता का प्रतिनिधि संकलन के पृष्ठों से गुजरते हुए इसके बार-बार दर्शन होते हैं।
हिंदी पत्रकारिता में एक प्रवृत्ति आज भी देखने को मिलती है। अखबारों की तुलना में पत्रिकाओं को चलाना और उनमें लिखना-पढ़ना कहीं कम महत्वपूर्ण माना जाता रहा है। हैरत की बात यह है कि हिंदी पत्रकारिता के शुरूआती दौर में अपनी पत्रिकाओं को जमाने के लिए तब के संपादक लोगों को पत्रिकाओं को दैनिक अखबारों की तुलना में कहीं ज्यादा संग्रहणीय बताने की जरूरत महसूस होती थी। इस संकलन के शुरूआती संपादकीयों में ऐसी चिंताएं बार-बार दिखती हैं। सरस्वती के दिसंबर 1900 के अंक में उसके प्रकाशक ने अपनी परेशानियां गिनाते वक्त इसकी चर्चा की है। 438 पृष्ठ की इस भारी-भरकम किताब में शामिल हिंदी की पहली महिला पत्रिका बालबोधिनी के संपादक भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर रतलाम की सुगृहिणी की संपादक हेमंत कुमार चौधरी तक के संपादकीय जहां हमें उस दौर में स्त्रीशिक्षा को लेकर जताई जा रही चिंताओं से हिंदी पाठकों को रूबरू कराते हैं तो वहीं प्रताप, अभ्युदय, चांद, सरस्वती के संपादकीय राष्ट्रीय आंदोलन की चिंताओं और भाषा की समस्या से भरे पड़े हैं। विशाल भारत के अपने संपादकीय में सन 1940 में भी बनारसी दास चतुर्वेदी किसानों और मजदूरों की समस्याओं को लेकर अपनी चिंताएं जता चुके हैं। इस संकलन में जहां आजादी के पहले राष्ट्र को बनाने और उसके आजाद होने के बाद की नीतियों पर केंद्रित संपादकीय शामिल हैं, तो बाद के दौर के संपादकीय नेहरू के बाद कौन, पाकिस्तान से लड़ाई और आपातकाल की चिंताओं से पाठकों को रूबरू कराते हैं।
हिंदी पत्रकारिता में संपादकीय लेखन का किस तरह विकास हुआ है, इसे समझने में भी यह संकलन मददगार साबित होता है। हालांकि इसमें संपादन की सीमाएं भी दिखती हैं। खासतौर पर स्नेहलता चौधरी और हिंदी पत्रकारिता के आदि संपादक युगुल किशोर शुक्ल के संपादकीयों को सीधे-सीधे पेश करने की बजाय उन पर लिखे लेख पेश किए गए हैं। जिसका जिक्र अखबारी स्तंभों की तरह नीचे किया गया है। इससे इनकी पाठकीयता के आस्वादन में बाधा आती है।

किताब - हिंदी पत्रकारिता का प्रतिनिधि संकलन
संपादक – तरूशिखा सुरजन
प्रकाशक – राधाकृष्ण प्रकाशन
7 / 31, अंसारी मार्ग, दरियागंज
नई दिल्ली- 110002
मूल्य - रूपए 550 /

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