राजस्थानी सिनेमा का यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि हिंदी की मुख्यधारा की फिल्मों में राजस्थानी परिवारों की कहानियां हिट रहती हैं, लेकिन राजस्थानी भाषा का अपना सिनेमा न तो क्लासिक और न ही कमर्शियल फिल्म के तौर पर अब तक खास पहचान बना पाया है। हालांकि हिंदी का शुरूआती सिनेमा राजस्थानी रजवाड़ों की कहानियों से भरा पड़ा था। मीराबाई से लेकर पन्ना धाय तक की कहानियां भी हिंदी सिनेमा का विषय बन चुकी हैं। मुगल-ए-आजम से लेकर जोधा-अकबर जैसी फिल्मों ने राजस्थानी पृष्ठभूमि का हिंदी सिनेमा ने कलात्मक और व्यवसायिक दोहन किया है। राजस्थानी तर्ज के नीबूड़ा-नीबूड़ा जैसे कई गीतों ने हिंदी सिनेमा के हिट होने में अहम योगदान दिया है। हम दिल दे चुके सनम तो पूरी तरह राजस्थानी पृष्ठभूमि की ही फिल्म थी। फिर क्या वजह है कि राजस्थानी सिनेमा अपनी अलहदा पहचान नहीं बना पाया। इसका जवाब देते हैं हिंदी में कई हिट फिल्में बना चुके के सी बोकाड़िया। आज का अर्जुन, तेरी मेहरबानियां जैसी हिट फिल्में बनाने और निर्देशित करने वाले बोकाड़िया राजस्थान के ही मेड़ता सिटी के रहने वाले हैं। उनका कहना है कि राजस्थान में हर 20-25 किलोमीटर के बाद भाषा बदल जाती है। यही वजह है कि राजस्थानी सिनेमा की दुर्दशा हो रही है। क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों के पिछड़ने की वजह की जब भी चर्चा होती है, तब यही सवाल उठता है। हरियाणा अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टीवल में हरियाणवी फिल्मों के विकास पर हो रही गोष्ठी में भी यही मजबूरी निर्माता-निर्देशक अश्विनी चौधरी ने जताई थी।
सवाल यह है कि क्या सचमुच बोलियों में विविधता ही हरियाणवी या राजस्थानी सिनेमा के विकास की बड़ी बाधा हैं। यह तर्क देने वाले भूल जाते हैं कि इस देश में बरसों से कहावत चली आ रही है- कोस-कोस पर पानी बदले, तीन कोस पर बानी। यह स्थिति भारत की हर भाषा की है। तेलुगू, तमिल, कन्नड़, मलयालम, मराठी, बांग्ला, भोजपुरी कोई भी ऐसी बोली नहीं है, जिसे उसके प्रभाव क्षेत्र में एक ही तरह से बोला जाता हो। खुद हिंदी के साथ भी ऐसी स्थिति नहीं है। बिहार वाले की हिंदी, मध्य प्रदेश वाले की हिंदी से अलग है। लखनऊ समेत मध्य उत्तर प्रदेश का व्यक्ति जिस हिंदी का इस्तेमाल करता है, झारखंड या छत्तीसगढ़ की हिंदी से वह अलग होती है। लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं और हिंदी का सिनेमा चल रहा है। उसकी व्यवासियक और क्लासिकल, दोनों पहचान है। ऐसे में बोलियों की विविधता को क्षेत्रीय सिनेमा के विकास में बाधक मानने वाले तर्क पर गौर किया जाना जरूरी है।
इस ब्लॉग पर कोशिश है कि मीडिया जगत की विचारोत्तेजक और नीतिगत चीजों को प्रेषित और पोस्ट किया जाए। मीडिया के अंतर्विरोधों पर आपके भी विचार आमंत्रित हैं।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
-
उमेश चतुर्वेदी लोहिया जी कहते थे कि दिल्ली में माला पहनाने वाली एक कौम है। सरकारें बदल जाती हैं, लेकिन माला पहनाने वाली इस कौम में कोई बदला...
-
टेलीविजन के खिलाफ उमेश चतुर्वेदी वाराणसी का प्रशासन इन दिनों कुछ समाचार चैनलों के रिपोर्टरों के खिलाफ कार्रवाई करने में जुटा है। प्रशासन का ...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें