मंगलवार, 5 नवंबर 2013

अपनी किस्मत पर आंसू बहा रहे हैं कस्बे के टाकीज



(यह निबंध वरिष्ठ पत्रकार अशोक मिश्र के संपादन में प्रकाशित हो रही महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय की पत्रिका बहुवचन के सिनेमा विशेषांक में प्रकाशित हो चुका है. )
उमेश चतुर्वेदी
1982 की बात है....उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में मेरे ननिहाल के नजदीकी कस्बे बैरिया में एक सिनेमा हॉल खुला। उसके मैनेजर बनाए गए थे हमारे रिश्ते के एक चाचा। उन दिनों पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों में सिनेमा देखने को चरित्र से जोड़कर देखा जाता था। ऐसी मान्यता थी कि जो सिनेमा देखता है और खासकर अगर वह छात्र हुआ तो समझो उसकी पढ़ाई-लिखाई गई तेल लेने...शायद शिक्षा से सिनेमा के बने इसी आंखमिचौली वाले रिश्ते की वजह से उन दिनों गांवों में सिनेमा देखने को चरित्रहीनता की तरह देखा जाता था.। लेकिन सबसे बड़ी बात यह कि ऐसी सोच के बावजूद चरित्रहीनता के इस दलदल में डूबने की इच्छा ज्यादातर दिलों की होती थी। अगर दिल नौजवान हुआ तो पूछना ही क्या...उन दिनों किशोरवास्था से गुजर रहा अपना मन भी चरित्रहीन बनने की दबी-छुपी चाहत रखे हुए था। तब तक जिला मुख्यालय तक का दर्शन महज साल में एक बार तब ही हो पाता था, जब ददरी मेला लगता था।

बुधवार, 30 अक्टूबर 2013

पहले प्यार की तरह याद रही राजेंद्र यादव से पहली मुलाकात

हंस संपादक से अपना पहला परिचय सारिका में प्रकाशित उनकी कहानी जहरबाद से हुआ था..शायद 1990 या 1991 की सारिका में छपा था..इसके पहले साहित्य के विद्यार्थी के नाते पिछली सदी के साठ के दशक में कहानी को नया मुहावरा देकर नए सिरे से प्रतिष्ठित करने वाले नई कहानी आंदोलन के बारे में पढ़ तो चुका था..लेकिन उलटबांसी देखिए कि पाठ्यक्रम में नई कहानी आंदोलन के तीनों कथाकारों मोहन राकेश, राजेंद्र यादव और कमलेश्वर की एक भी कहानी नहीं थी..अलबत्ता इतिहास में उनका जिक्र जरूर था..यह बात और है कि एमए की पढ़ाई के दौरान पत्रिकाओं से नाता गहराता गया और तीनों की ही कई रचनाएं पढ़ने को मिलीं..बहरहाल जब मैंने पहली बार सारा आकाश पढ़ा तो राजेंद्र यादव से मिलने की उत्कंठा बढ़ गई..बाद में हंस का तो पारायण ही करने लगा.इन्हीं दिनों साहित्यिक हस्तियों से इंटरव्यू का चस्का लगा..दिल्ली 1993 में आया तो बिना वक्त लिए राजेंद्र यादव से मिलने जा पहुंचा हंस के दफ्तर..राजेंद्र जी की जिंदादिली देखिए कि उन्होंने बिना पूछे-जांचे इंटरव्यू भी दे दिया..उसी दौरान रामशरण जोशी जी आए..तब वे नई दुनिया के दिल्ली ब्यूरो प्रमुख थे..यादव जी ने उनसे मेरा परिचय कराया और पूछा कि इस नाम को जानते हो..मैंने कहा नई दुनिया ..तब यादव जी का जवाब था..वो तो कब की पुरानी हो गई..इसी दौरान प्रेमपाल शर्मा सपत्नीक वहां पधारे..उनसे भी वहीं परिचय हुआ..यह पहली मुलाकात और उस दौरान हुई बातचीत तब के स्वतंत्र भारत में प्रकाशित हुई..जिसे किताबघर से प्रकाशित राजेंद्र यादव के मेरे साक्षात्कार में भी शामिल किया गया है..इसका शीर्षक है- मैं साहित्य की लड़ाई को हवाई हमला मानता हूं..बाद के दौर में कितने लोगों से इंटरव्यू किए..किसी ने नखरे दिखाए तो किसी ने बार-बार बुलाकर नहीं दिया..लेकिन राजेंद्र जी की यह अदा आजतक याद है..बाद में उनसे बीसियों मुलाकातें हुईं..ढेरों इंटरव्यू किए..लेकिन पहली याद पहले प्यार की तरह चस्पा रही..आखिरी बार 26 अक्टूबर 2013 को दूरदर्शन के मुख्यालय में मुलाकात हुई..वे दृश्यांतर पत्रिका का लोकार्पण करने आए थे..

शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

टेलीविजन पत्रकारिताः संदर्भ एस पी सिंह

जितेन्द्र कुमार


(जितेंद्र कुमार का यह लेख हंस  के मीडिया विशेषांक के लिए लिखा गया था जो जनवरी 2007 में प्रकाशित हुआ, जिसके अतिथि संपादक अजीत अंजुम थे। किसी कारणवश इस लेख को छापने से मना कर दिया गया। इसकी मूल प्रति हंस के दफ्तर में ही कहीं खो गयी थी लेकिन इसकी फोटोकॉपी कुछ ही दिन पहले पुराने कागजात में मिल गई। इसे बाद में अनिल चमड़िया के संपादकत्व में कथादेश  के मीडिया विशेषांक के लिए मांगा गया लेकिन उस समय लेख उपलब्ध नहीं होने के कारण वहां नहीं छप सका। )
अपनी बात शुरू करने से पहले एक कहानी। बात उन दिनों की है जब दिल्ली में मेट्रो रेल शुरू ही हुई थी। मेरे एक मित्र मेट्रो से घर जा रहे थे। उन्हें कश्मीरी गेट पर मेट्रो का टिकट खरीदना था। उन्होंने टिकट खरीदते समय 50 रुपए का नोट दिया। टिकट लेते समय ही ट्रेन आ गई और वे हड़बड़ी में मेट्रो में बैठ गए। मेट्रो में बैठने के बाद उनको याद आया कि अरे, बकाया पैसे तो उन्हें मिले ही नहीं। अगले स्टेशन पर उतर कर उन्होंने इस बात की शिकायत ‘शिकायत कक्ष’ में की। थोड़ी देर पूछताछ और दरियाफ्त करने के बाद यह पाया गया कि सचमुच उनके पैसे वहीं रह गए हैं, अतः वे आकर अपने बचे हुए पैसे ले जाएं। खैर, अगले दिन सवेरे उनसे मिलना था लेकिन उन्होंने फोन करके मुझसे आग्रह किया कि दोपहर के बाद मिलने का कार्यक्रम रखा जाए। जब हम मिले तो उन्होंने बताया कि वह कल वाली घटना की शिकायत मेट्रो प्रमुख सहित इससे जुड़े देश के तमाम लोगों से कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि जब आपको पैसे मिल गए हैं तो फिर शिकायत किस बात की कर रहे थे? इस पर उनका जवाब था- ''देखिए, मेट्रो अभी बनने की प्रक्रिया में है, अभी जो भी खामियां हैं, अगर नीति-निर्माता और इसके कर्ता-धर्ता ईमानदारी पूर्वक चाहें तो वे खामियां दूर की जा सकती है। मैंने उन्हें सुझाव दिया है कि दिल्ली मेट्रो को ऐसा सिस्टम बनाना चाहिए जिसमें यात्रियों को टिकट (टोकन) के साथ ही बचे हुए पैसे वापस कर दिए जाएं।'' और थोड़े दिनों के बाद ही मेट्रो में यह व्यवस्था बन गई कि टोकन के साथ ही पैसे भी वापस किए जाने लगे।
टीवी पत्रकारिता के शिखर पुरुष: पंद्रह साल में फर्श पर आई विरासत

सोमवार, 23 सितंबर 2013

सार्वजनिक प्रसारक की चुनौती और दायित्व

(दूरदर्शन ने हाल ही में एक पत्रिका दृश्यांतर का प्रकाशन शुरू किया है..उसी के पहले अंक में यह लेख प्रकाशित हुआ है.)
उमेश चतुर्वेदी
देश में जितनी तेजी से टेलीविजन चैनलों और एफएम रेडियो का विस्तार हुआ है, उतनी ही तेजी से इन पर प्रसारित हो रहे कंटेंट को लेकर सवाल भी उठ खड़े हुए हैं। बेशक बाजार में चमक-दमक भरी दुनिया वाले निजी चैनलों का दबदबा कायम है। क्षेत्रीय भाषाओं के साथ मिलकर कुल मिलाकर पांच सौ से ज्यादा टेलीविजन चैनलों की भारतीय दुनिया से सकारात्कम कंटेंट की विदाई या तो हो चुकी है या फिर प्रक्रिया में है। हालांकि एक धारा ऐसी भी है जो एक फिल्म की तर्ज पर अंग्रेजी में कंटेंट इज किंग यानी कंटेंट ही असल ताकत है का नारा बुलंद कर रही है। लेकिन जब बेतुके कंटेंट, बेतुकी समाचार कथाएं और बेतुके सोप ऑपेरा की दुनिया से खासतौर पर बौद्धिक वर्ग का पाला पड़ता है तो एक बार फिर सवाल उठने लगता है कि क्या भारत जैसे बहुवर्णी और संस्कृतिबहुल देश में ऐसे प्रसारक नहीं होने चाहिए, जो देसी संस्कृति का खयाल तो रखे ही, संपूर्ण भारतीयता की अवधारणा के साथ फिक्शन और समाचार दोनों तरह के कंटेंट पेश करें।

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

अपने समाज में झांके अमेरिका


उमेश चतुर्वेदी
दुनिया में जब भी कहीं अराजकता या आम जनता पर कथित हमला होता है, अमेरिका खुद-ब-खुद लोकतंत्र और मानवता का हिमायती बन कर वहां हस्तक्षेप करने के लिए उतावला हो जाता है। दुनिया में आज लोकतंत्र की जो अवधारणा तकरीबन मान्य हो चुकी है, वह लोकतांत्रिक व्यवस्था अमेरिका और ब्रिटेन की प्रचलित व्यवस्था ही है। इतना ही नहीं, जब कहीं मानवाधिकार पर सवाल उठते हैं या मानव अधिकारों पर स्थानीय सरकारें हमला करती हैं, अमेरिका अपने आप दुनिया का दरोगा बनकर वहां हस्तक्षेप करने को उतावला हो जाता है। लेकिन क्या अमेरिकी समाज सचमुच इतना लोकतांत्रिक और मानवतावादी हो चुका है, जहां उसके ही बनाए लोकतांत्रिक मॉडल खरे उतरते हों। भारतीय मूल की नीना दावुलूरी के 15 सितंबर को मिस अमेरिका चुने जाने के बाद से अमेरिकी समाज में जो कुछ होता दिख रहा है, उससे अमेरिकी समाज के लोकतांत्रिक और मानवाधिकारवादी होने की हकीकत सामने आ जाती है।

गुरुवार, 12 सितंबर 2013

विरोधी विचारधारा का वैचारिक बहिष्कार

उमेश चतुर्वेदी
उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के हंस का 28  साल पहले नई कहानी आंदोलन की त्रयी के अहम रचनाकार राजेंद्र यादव ने जब दोबारा प्रकाशन शुरू किया था, तब एक ही उम्मीद थी कि हंस साहित्य का नीर-क्षीर विवेकी तो होगा ही, हिंदी साहित्य के रचनात्मक पटल पर अपनी अमिट छाप भी छोड़ेगा। हंस ने हिंदी की साहित्यिक रचनाधर्मिता में आलोड़न पैदा भी किया। हंस में छपी चर्चित कहानियों की सूची काफी लंबी है..उदय प्रकाश का तिरिछ  और और अंत में प्रार्थना, शिवमूर्ति का तिरिया चरितर, सृंजय का कामरेड का कोट जैसी कहानियां हंस में प्रकाशित होने के बाद महीनों तक चर्चा में रहीं..हिंदी साहित्य में हंस की उपस्थिति और उसकी हनक का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसमें प्रकाशित होने के लिए रचनाकार लालायित रहते हैं...राजेंद्र यादव का संपादकीय मेरी-तेरी उसकी बात पर भी हिंदी का बौद्धिक जगत निगाहें लगाए रखता है.

सोमवार, 9 सितंबर 2013

जीवन-परिवेश से जुड़ी कहानियां

जिनकी मुट्ठियों में सुराख था
लेखिका: नीलाक्षी सिंह
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ
नई दिल्ली-110003
मूल्य: 170 रु.                           
                                                     (कादंबिनी में प्रकाशित)
उमेश चतुर्वेदी
नब्बे के दशक में हिंदी पत्रकारिता में स्वीकार्य सहज शब्दों और भाषा की मान्यता ने सिर्फ पत्रकारिता को ही सपाट नहीं बनाया, बल्कि एक हद तक साहित्य को भी इसी परिपाटी ने बांध लिया। जिसका असर भाषायी बुनावट को लेकर प्रयोगधर्मिता में आई कमी के तौर पर नजर आया। लेकिन इसी दौर में रची-बढ़ी युवा कथाकार नीलाक्षी सिंह की कहानियां भाषायी बुनावट की इस मान्यता को ना सिर्फ अस्वीकार करती हैं, बल्कि अपने विषय और कथ्य के जरिए संवेदनाओं के नए वितान का दर्शन कराती हैं। नीलाक्षी की कहानियों की खास बात यह है कि वहां कथ्य जहां गंभीरता और संजीदगी के साथ हृदय प्रदेश को गहरे तक मथता जाता है तो दूसरी तरफ भाषायी बुनावट अनुभव के नए क्षितिज का चमत्कारिक ढंग से दर्शन कराती हैं। उनके ताजा संग्रह जिनकी मुट्ठियों में सुराख थामें सिर्फ छह ही कहानियां हैं। लेकिन अपने रचाव में वे औपन्यासिक विस्तार का दर्शन कराती हैं।