जिनकी मुट्ठियों में
सुराख था
लेखिका: नीलाक्षी सिंह
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ
नई दिल्ली-110003
मूल्य: 170 रु.
(कादंबिनी में
प्रकाशित)
उमेश चतुर्वेदी
नब्बे के दशक में
हिंदी पत्रकारिता में स्वीकार्य सहज शब्दों और भाषा की मान्यता ने सिर्फ
पत्रकारिता को ही सपाट नहीं बनाया, बल्कि
एक हद तक साहित्य को भी इसी परिपाटी ने बांध लिया। जिसका असर भाषायी बुनावट को
लेकर प्रयोगधर्मिता में आई कमी के तौर पर नजर आया। लेकिन इसी दौर में रची-बढ़ी
युवा कथाकार नीलाक्षी सिंह की कहानियां भाषायी बुनावट की इस मान्यता को ना सिर्फ
अस्वीकार करती हैं, बल्कि अपने
विषय और कथ्य के जरिए संवेदनाओं के नए वितान का दर्शन कराती हैं। नीलाक्षी की
कहानियों की खास बात यह है कि वहां कथ्य जहां गंभीरता और संजीदगी के साथ हृदय
प्रदेश को गहरे तक मथता जाता है तो दूसरी तरफ भाषायी बुनावट अनुभव के नए क्षितिज
का चमत्कारिक ढंग से दर्शन कराती हैं। उनके ताजा संग्रह ‘जिनकी मुट्ठियों में सुराख था’ में सिर्फ छह ही कहानियां हैं। लेकिन अपने
रचाव में वे औपन्यासिक विस्तार का दर्शन कराती हैं।
इस संग्रह की आखिरी कहानी 'जिनकी मुट्ठियों में सुराख था’ जीवन की क्रूरताओं को उघाड़-उघाड़ कर बयान करती है। इस कहानी में नीलाक्षी ने साबित किया है कि वे सीधे-सादे परिवेश को लेकर भी कितना कौतूहल पैदा कर सकती हैं। इस कहानी में पात्रों का चित्रण ऐसा है कि लगता है कि वे सामने आ खड़े हुए हों। इस संग्रह की सबसे महत्वपूर्ण कहानी लगती है ‘साया कोई यूं’। यह एक सीधी-सादी ऐसी ग्रामीण घरवाली की कहानी है, जिसने रसोई-बर्तन से बाहर की दुनिया के बारे में कभी कुछ सोचा ही नहीं था। लेकिन जैसे ही पंचायत चुनावों में उसके गांव के मुखिया का पद महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाता है तो उसके पति को अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा उसके ही जरिए परवान चढ़ने लगती है। वह अपनी पत्नी को मुखिया का उम्मीदवार बना देता है। लेकिन मुखिया का उम्मीदवार बनते ही इस स्त्री की कहानी जैसे औपन्यासिक विस्तार ले लेती है। इन सबके बीच जब उसे अपने पति की राजनीतिक कुचालों का आभास होता है, वह अपनी प्रतिद्वंद्वी महिला प्रत्याशी को मुहर लगाने में भी हिचक नहीं दिखाती और कहानी अपने नए रूप में चमत्कारिक बन जाती है। इसके ठीक उलट कहानी ‘स्वांग’ में शहरी परिवेश का चित्रण है। यह कहानी ना सिर्फ नई आर्थिकी के अंतर्विरोधों को सामने लाती है, बल्कि उसके जरिए ग्रामीण प्रतिभाओं के हनन के खिलाफ संवाद भी करती है। इस कहानी में गांव से आया एक गोल्डमैडलिस्ट युवक चौकीदार की नौकरी करने को मजबूर है, लेकिन वह एक ऐसे यंत्र का आविष्कार करने में कामयाब होता है, जिससे सामने बैठे व्यक्ति के मन की बात जान ली जाती है। यह यंत्र उसे लोकप्रिय और मशहूर बना देता है, लेकिन ग्रामीण पृष्ठभूमि की वजह से यह आविष्कार भी उसे पैसा और रोजगार नहीं हासिल करा पाता। कहानी का मार्मिक अंत तब नजर आता है, जब मेहनत की कमाई पर जिंदगी जीने की कल्पना करने वाला यह नौजवान एक कॉलगर्ल की सच्चाई के सामने हार जाता है। इसी तरह सूत्र कहानी में जिंदगी के तमाम फलसफे और खुशियां छुपी हुई हैं। जिंदगी के कई तरह के सूत्रों मसलन खुशी, शांति, उन्नति, शून्यता आदि का इस कहानी में जीवंत वर्णन है। ‘आदमी, औरत और घर’ में भारतीय मध्यमवर्गीय परिवारों का परिचित चेहरा नजर आता है, यह कहानी एक मायने में अज्ञेय की गैंग्रीन के कथानक की ही याद दिलाती है। जिसमें बात-बेबात कलह, मार-पिटाई, चीखना-चिल्लाना, अपशब्दों की बौछार आदि’। इसी तरह एक दंपत्ति की पूरी जिंदगी कट जाती है। वे दोनों एक होकर भी एक नहीं हो पाते। लेकिन बुढ़ापे में हुई एक दुर्घटना के बाद जब दोनों हकीकत में करीब आते हैं तो उन्हें पता चलता है कि आखिर में उन्होंने क्या खोया है। नीलाक्षी सिंह की खासियत यह है कि हर कहानी के अनुरूप उन्होंने नई भाषा गढ़ी है। यही वजह है कि ये सारी कहानियां अपने आप में ना सिर्फ अनूठी बन पड़ी हैं, बल्कि पढ़ने में नये तरह का आनंद भी देती हैं। जीवन की जटिलताओं को पढ़ते वक्त मायूसी भी हासिल होती तो बाद में लगता है, जैसे कुछ नया हासिल हुआ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें