उमेश चतुर्वेदी
उपन्यास सम्राट
प्रेमचंद के हंस का 28 साल पहले नई कहानी आंदोलन की त्रयी के अहम
रचनाकार राजेंद्र यादव ने जब दोबारा प्रकाशन शुरू किया था, तब एक ही उम्मीद थी कि
हंस साहित्य का नीर-क्षीर विवेकी तो होगा ही, हिंदी साहित्य के रचनात्मक पटल पर
अपनी अमिट छाप भी छोड़ेगा। हंस ने हिंदी की साहित्यिक रचनाधर्मिता में आलोड़न पैदा
भी किया। हंस में छपी चर्चित कहानियों की सूची काफी लंबी है..उदय प्रकाश का
तिरिछ और और अंत में प्रार्थना, शिवमूर्ति
का तिरिया चरितर, सृंजय का कामरेड का कोट जैसी कहानियां हंस में प्रकाशित होने के
बाद महीनों तक चर्चा में रहीं..हिंदी साहित्य में हंस की उपस्थिति और उसकी हनक का
अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसमें प्रकाशित होने के लिए रचनाकार
लालायित रहते हैं...राजेंद्र यादव का संपादकीय मेरी-तेरी उसकी बात पर भी
हिंदी का बौद्धिक जगत निगाहें लगाए रखता है.
.राजेंद्र यादव ने इसमें भी कभी हनुमान
को डाकू तो कभी राम मंदिर आंदोलन पर सवाल उठाकर यथेष्ट चर्चा और विरोध हासिल
किया... हिंदी के वैचारिक जगत में हंस के जरिए उठे आलोड़न की वैधता और पक्ष-विपक्ष
पर सवाल उठते रहे हैं..लेकिन उसकी बौद्धिक उपस्थिति की अंदाजा इसी बात से लगाया जा
सकता है कि प्रेमचंद जयंती के बहाने हर साल 31 जुलाई को होने वाले हंस के सालाना
बौद्धिक जुटान की तरफ हिंदी का बौद्धिक जगत निगाहें गड़ाए इंतजार कर रहा होता
है...लेकिन तीन –चार साल से यह
जुटान भी अब साहित्यिक और राजनीतिक जगत में सक्रिय अति वामपंथी तत्वों के विरोध और
बहिष्कार के लिए चर्चा में रहता आया है...इस परंपरा में देखा जाय तो इस साल का
आयोजन भी मशहूर नक्सलवादी कवि वरवरा राव और लेखिका अरूंधति रॉय के बहिष्कार के
चलते चर्चा में है।
गौरतलब है कि 31
जुलाई के कार्यक्रम का विषय था –अभिव्यक्ति
और प्रतिबंध। इस सिलसिले में हंस ने आधिकारिक तौर पर चार लोगों को वक्ता के तौर पर
आमंत्रित किया था। इनमें थे मशहूर कवि और पूर्व प्रशासक अशोक वाजपेयी, कभी भारतीय
जनता पार्टी के महासचिव रहे के एन गोविंदाचार्य, हिंदी की वैश्विक लेखिका अरूंधती
रॉय और नक्सलवादी कवि वरवरा राव। शाम पांच बजे यह कार्यक्रम शुरू होने वाला था।
कार्यक्रम के दो प्रमुख वक्ता अशोक वाजपेयी और गोविंदाचार्य तय वक्त से पहले ही
दिल्ली के ऐवान-ए-गालिब पहुंच गए थे। राजेंद्र यादव, अरूंधती रॉय और वरवरा राव का
इंतजार कर रहे थे। बकौल राजेंद्र यादव, बांग्लादेशी नारीवादी लेखिका तस्लीमा नसरीन
भी इस कार्यक्रम में बतौर वक्ता आमंत्रित थीं। लेकिन सुरक्षा कारणों के लिहाज से
उनके नाम का ऐलान नहीं किया गया था। राजेंद्र यादव तस्लीमा और वरवरा राव के आने का ऐलान करते रहे।
यह बात और है कि दोनों शामिल नहीं हुए। तस्लीमा के बारे में राजेंद्र ने ही मंच से
बताया कि उन्हें सुरक्षा अधिकारी आने नहीं दे रहे हैं तो वरवरा राव हवाई जहाज से
दिल्ली पहुंच कर दिल्ली यूनिवर्सिटी चले गये थे। जहां से उन्होंने ऐवान-ए-गालिब आने
का वादा भी किया था। यह बात और है कि उन्होंने अपना फोन बंद कर दिया। मंच पर जब
दोनों वक्ता यानी अशोक वाजपेयी और गोविंदाचार्य बोल चुके और तब तक ना तो वरवरा राव
ही आए और ना ही अरूंधती रॉय तो राजेंद्र यादव की निराशा छुप नहीं पाई। उन्होंने
मंच से ही कहा कि लगता है कि उनके कुछ शुभचिंतकों ने वरवरा राव को समझा दिया है।
इस कार्यक्रम के कुछ ही देर बाद फेसबुक पर वरवरा राव का एक वक्तव्य अवतरित हो
गया...जिसके मुताबिक उन्हें पता ही नहीं था कि उनके साथ कौन बोलने वाला है। तब
उनका नाम कैसे आमंत्रित वक्ताओं की सूची में शामिल हो गया तो उसका भी जवाब
उन्होंने अपने वक्तव्य में दिया है - ‘हंस’ की ओर से 11 जुलाई 2013 को लिखा हुए निमंत्रण लगभग 10 दिन बाद मिला। इस पत्र में मेरी सहमति लिए
बिना ही राजेंद्र यादव ने ‘छूट’ लेकर मेरा नाम निमंत्रण कार्ड में डाल देने की घोषणा कर रखी थी। बहरहाल, मैंने इस बात की तवज्जो नहीं दिया कि हमें
कौन, क्यों और किस मंशा से बुला रहा है? मेरे साथ मंच पर इस विषय पर बोलने वाले कौन
हैं?’ आगे वरवरा राव ने लिखा है-‘अशोक वाजपेयी का सत्ता प्रतिष्ठान और कारपोरेट सेक्टर
के साथ जुड़ाव आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है। इसी तरह क्या गोविंदाचार्य के
बारे में जांच पड़ताल आप सभी को करने की जरूरत बनती है? हिंदुत्व की फासीवादी राजनीति और साम्राज्यवाद की जी
हूजूरी में गले तक डूबी हुई पार्टी, संगठन के सक्रिय सदस्य की तरह सालों साल काम करने वाले गोविंदाचार्य को
प्रेमचंद जयंती पर ‘अभिव्यक्ति
और प्रतिबंध’ विषय पर बोलने के
लिए किस आधार पर बुलाया गया ?’ रही बात अरूंधती रॉय की तो राजेंद्र यादव और
अरूंधति के बीच बातचीत कर रहे पत्रकार जितेंद्र कुमार के मुताबिक चूंकि अरूंधति
पहले भी हंस के कार्यक्रम में आ चुकी हैं..लिहाजा यादव जी ने उनसे बातचीत तो की,
लेकिन बिना उनकी सहमति के ही उनका नाम शामिल कर लिया क्योंकि उन्हें लगता था कि
अरूंधति आ ही जाएंगी।
बहरहाल वरवरा राव और
अरूंधति के बहिष्कार के बाद हिंदी के बौद्धिक जगत में बहस छिड़ गई है कि क्या
वामपंथ इतना कमजोर हो गया है कि वह किसी रूपवादी(अशोक वाजपेयी) और किसी
दक्षिणपंथी(गोविंदाचार्य) के साथ मंच साझा करने मात्र से वह भरभरा कर ढह जाएगा।
इसे लेकर आरोप और प्रत्यारोपों के दौर जारी हैं..वैसे यह पहला मौका नहीं है, जब
हंस के किसी सालाना कार्यक्रम का बहिष्कार हुआ है। 2011 में पत्रकार हेमचंद्र
पांडे की हत्या और उनके बारे में नई दुनिया में छपी एक खबर को लेकर नई दुनिया के
तत्कालीन संपादक आलोक मेहता की भरे मंच से लानत-मलामत की गई थी। इसी साल छत्तीसगढ़
के पुलिस महानिदेशक और लेखक विश्वरंजन को वैदिकी हिंसा हिंसा ना भवति नामक
कार्यक्रम में बोलने के लिए बुलाया गया था। जिसका अरूंधति रॉय ने बहिष्कार किया
था। बढ़ते विवाद की वजह से विश्वरंजन भी नहीं आए थे। पिछले साल यानी 2012 में हंस
ने अपने सालाना आयोजन में चर्चा का विषय रखा था- दीन की बेटियां। जिसमें पाकिस्तान
से दो लेखिकाएँ किश्वर नाहीद और ज़ाहिदा हिना आई थीं। तब दोनों ने कहा था कि अगर तसलीमा नसरीन इस
कार्यक्रम में शामिल होंगी तो वेे उसमें नहीं जाएंगी और मंच साझा नहीं करेंगी। दरअसल
दिल्ली के कुछ उर्दू अख़बारों ने ये खबर एक दिन पहले छाप दी थी कि ‘दीन की बेटियां’ कार्यक्रम में तसलीमा नसरीन को भी वक्ता के तौर पर
बुलाया गया है। हालांकि ऐसा नहीं था।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें