उमेश चतुर्वेदी
दुनिया
में जब भी कहीं अराजकता या आम जनता पर कथित हमला होता है, अमेरिका
खुद-ब-खुद लोकतंत्र और मानवता का हिमायती बन कर वहां हस्तक्षेप करने के लिए
उतावला हो जाता है। दुनिया में आज लोकतंत्र की जो अवधारणा तकरीबन मान्य हो
चुकी है, वह लोकतांत्रिक व्यवस्था अमेरिका और ब्रिटेन की प्रचलित व्यवस्था
ही है। इतना ही नहीं, जब कहीं मानवाधिकार पर सवाल उठते हैं या मानव
अधिकारों पर स्थानीय सरकारें हमला करती हैं, अमेरिका अपने आप दुनिया का
दरोगा बनकर वहां हस्तक्षेप करने को उतावला हो जाता है। लेकिन क्या अमेरिकी
समाज सचमुच इतना लोकतांत्रिक और मानवतावादी हो चुका है, जहां उसके ही बनाए
लोकतांत्रिक मॉडल खरे उतरते हों। भारतीय मूल की नीना दावुलूरी के 15 सितंबर
को मिस अमेरिका चुने जाने के बाद से अमेरिकी समाज में जो कुछ होता दिख रहा
है, उससे अमेरिकी समाज के लोकतांत्रिक और मानवाधिकारवादी होने की हकीकत
सामने आ जाती है। 53 साल के मिस अमेरिका के इतिहास में यह पहला मौका है, जब
किसी भारतीय मूल की लड़की ने यह खिताब जीता है। अव्वल तो होना यह चाहिए था
कि नीना का अमेरिकी समाज उसी तरह स्वागत करता, जिस तरह वह अपने श्वेत
चमड़ी वाले लोगों का करता है। लेकिन लगता है कि आंध्र प्रदेश मूल की नीना
की सांवली त्वचा अमेरिकी समाज को स्वीकार्य नहीं हो पाई है। ट्विटर और
फेसबुक पर उनके खिलाफ जारी टिप्पणियों ने सारी सीमाएं तोड़ दी हैं। कोई
उन्हें हिंदू कर्मकांडों का विश्वासी बता रहा है तो कई लोगों को उका रिश्ता
अरब आतंकवादियों से भी जोड़ने से हिचक नहीं हो रही है। गोया हिंदू
कर्मकांड कोई मानवता विरोधी काम हो। उन्हें अरब आतंकवादी भी बताया जाना
अमेरिकी लोगों की उस सोच को ही दर्शाता है, जो उनके जेहन में अरब के लोगों
को लेकर है। उनकी सोच से तो यही जाहिर हो रहा है कि अरब देशों में सिर्फ और
सिर्फ आतंकवादी ही बसते हैं।
कोलंबस
ने जिस अमेरिका की खोज की थी, उस पर आज के श्वेत त्वचा वाले लोग नहीं थे।
हकीकत तो यह है कि अमेरिका के मूल निवासी वहां के रेड इंडियन ही हैं।
अब्राहम लिंकन और बाद के दौर में मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने जिस देश में
समानता और मानवता का बीज बोया था, लगता है अमेरिकी समाज ने उसे गहरे तक
आत्मसात नहीं कर पाया है। अगर ऐसा होता तो वह अमेरिका में ही पैदा हुई और
पली-बढ़ी नीना को दूसरे श्वेत त्वचा वाले लोगों की ही तरह अपना नागरिक
मानता और मिस अमेरिका बनने के बाद उनके पीछे दीवानगी दिखा रहा होता। मिस
अमेरिका को आतंकवादी और हिंदू कर्मकांडी बताकर अमेरिकी समाज दरअसल अपने ही
बीच के उन लोगों पर भी अविश्वास जता रहा है, जो इस प्रतिष्ठित खिताब का
मूल्यांकन करने वाली ज्यूरी के सदस्य थे।
वैसे
यह पहला मौका नहीं है, जब अमेरिका में नस्ली भेदभाव और टिप्पणियां हुई
हों। हाल के दिनों में अमेरिका में सिख समुदाय पर हमले बढ़े हैं। अमेरिका
के ही साउथ कैरोलिना प्रांत के गवर्नर निकी हेले पर भी चुनाव अभियान के
दौरान ना सिर्फ नस्ली टिप्पणियां की गईं थीं, बल्कि एक व्यक्ति से
विवाहेत्तर संबंध रखने का भी आरोप लगाया गया था। कैटरीना तूफान से प्रभावित
इलाकों में तत्कालीन बुश प्रशासन ने राहत कार्यों में देरी इसलिए की,
क्योंकि प्रभावित लोगों में सबसे ज्यादा अफ्रीकी मूल के नागरिक थे। नस्ली
टिप्पणियों के बारे में ज्यादा जानकारी हासिल करनी हो तो उन भारतीय कॉल
सेंटरों के कर्मचारियों से बात करने के बाद साफ तस्वीर सामने आ सकती है, जो
अमेरिकी देशों की कंपनियों के लिए काम करते हैं। आए दिन उन्हें जैसी
गालियां सुननी पड़ती हैं, वे अंग्रेजी जमाने की उन कहावतों को याद दिलाती
हैं, जब वे यहां शासन में थे और भारतीय लोगों को इंसान की बजाय जानवर समझते
थे। ऐसी स्थिति उस देश के लिए शर्मनाक है, जो खुद को प्रोफेशनल के लिए
स्वर्ग, मानवतावादी और लोकतंत्र का पहरुआ मानता है। लेकिन उसका समाज कितना
बदल पाया है, इसकी हकीकत बयान करने के लिए नीना दावुलूरी, निक्की हेले या
सिखों पर बढ़ते हमले काफी हैं। इसके बावजूद हमारे देश में एक बड़ा तबका ऐसा
है जो लगातार वाह अमेरिका करता रहता है। अगर वह एक बार अमेरिका चला गया तो
वहां की चीजों का गुणगान सिर्फ और सिर्फ वाह अमेरिका के अंदाज में करता
है। जबकि दूसरा तबका ऐसा है, जो आह अमेरिका के दर्द अपने सीने में लिए घूम
रहा है। उसे इस बात की तकलीफ है कि वह अमेरिका जाकर मानवता और लोकतंत्र के
स्वर्ग का स्वाद नहीं चख पाया। यह भी एक बड़ी वजह है कि अमेरिका की तरफ
भारतीयों का पलायन बढ़ा और अब वे करीब 19 लाख की संख्या के साथ अमेरिका के
तीसरे नंबर का बड़ा समुदाय बन चुका है। अमेरिका की आबादी में करीब शून्य
दशमलव सात फीसदी की भागीदारी वाला भारतीय समुदाय भारत के दूसरे लोगों के
लिए आज भी प्रेरणा का केंद्र बना हुआ है। बहरहाल नीना दावुलूरी पर उठे
सवालों ने अमेरिकी समाज की हकीकत को ही बयान किया है। अमेरिकी समाज की इस
हकीकत के ही चलते वामपंथी धड़े अमेरिका के मानवतावादी मंसूबे और लोकतंत्र
के मॉडल पर सवाल उठाते रहे हैं। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि अमेरिका
अपनी इस सामाजिक हकीकत पर गौर करे। अन्यथा ताकत के दम पर स्थापित उसकी
सत्ता को जो नैतिक आधार उसके कथित मानवतावादी और लोकतंत्रवादी दावों से
मिलता रहा है, उसके दरकते जाने का खतरा बढ़ता जाएगा। अमेरिका को यह भी नहीं
भूलना चाहिए कि दुनिया में दूसरी भी कई ताकतें आर्थिक तौर पर उसके बरक्स
खड़े होने की कोशिशों में हैं। यदि एक बार उसका नैतिक आधार दरका तो तय
मानिए कि उसकी बादशाहत पर सवाल उठ खड़े होंगे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें