शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

राजनीति और साहित्य के रिश्ते

उमेश चतु्र्वेदी
अभी हाल ही में एक साहित्यिक आयोजन में जाने का मौका मिला। जैसा कि आज आयोजनों की नियति बन गई है- सेटिंग-गेटिंग और ईटिंग, इस आयोजन में भी ये सारी चीजें देखने को मिलीं। अपनी दिलचस्पी इस सेटिंग और गेटिंग में नहीं थी। लेकिन उदारीकरण के दौर में हिंदी और उसके नियंताओं की नीयत और उनके ज्ञान को नजदीक से देखने का मौका जरूर मिला। जैसा कि हिंदी आयोजनों की एक और प्रवृत्ति है, राजनीति और राजनेताओं को गाली देना और अपने को उनकी तुलना में कहीं ज्यादा ऊंचा और बेहतर साबित करना, इस आयोजन में भी हुआ। लेकिन हकीकत में ऐसा कभी होता नहीं है। जैसे ही कार्यक्रम में राजनेता आता है, उसके पीछे गाली देने वाले साहित्यकार सबसे पहले लपक पड़ते हैं। अपने आयोजन को सफल बताने के लिए वे उस नेता का नाम ले लेकर उसके भाषण को उद्धृत करने लगते हैं। राजनेता की हैसियत जैसी हुई, अपने आयोजन को उतना ही कामयाब बताने में वह साहित्यकार जुट जाता है। तब वह अपनी महानता भूल जाता है। साहित्य की महानता भी उसकी नजर में पीछे छूट जाती है। राजनीति को गाली देना और उससे दूरी बनाने का दावा और फि र उसके पीछे चलने का पाखंड हिंदी की ही नियति रही है। यही वजह है कि यहां राजनेता भी साहित्यकार को अपने पैर की जूती समझने लगता है। उसे पता है कि पुरस्कारों, अनुदानों और नियुक्ति के लिए हिंदी साहित्यकार को उसके पास आना ही है। लिहाजा वह अपनी हैसियत और अपने सम्मान का लुत्फ उठाता रहता है। इसका असर यह होता है कि वह साहित्य को लेकर एक खास तरह का वैसा आदरभाव नहीं दिखा पाता, जैसा बंगला, मलयालम और मराठी या कन्नड़ में दिखता है। मराठी के वरिष्ठ रचनाकर कुसुमाग्रज को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जा रहा था, तब मंच पर उस जमाने के उप प्रधानमंत्री यशवंत राव बलवंत राव चव्हाण बैठ गए थे। कुसुमाग्रज ने उनके साथ मंच पर बैठने से इनकार कर दिया था। हिंदी में ऐसा साहस दिखाने की हैसियत कितने लेखकों में हैं। ज्ञानपीठ संस्थान से एक प्रमुख पुरस्कार प्राप्त कर चुके हिंदी के एक वरिष्ठ लेखक पुरस्कार समारोह के अगले दिन अपने मित्रों को समारोह में शामिल न होने का उलाहना इन शब्दों में दे रहे थे - भाई आप क्यों आने लगे समारोह में, लेकिन मैं आपको बता दूं कि यह पुरस्कार खुद नेता प्रतिपक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने दिया। दिलचस्प बात यह है कि स्वर्गीय लेखक महोदय घोषित तौर पर फासीवाद के विरोधी थे। जैसी की धारणा है, वाजपेयी की बीजेपी भी फासीवादी पार्टी ही है। इन पंक्तियों के लेखक के सामने यह घटना घटी थी, क्योंकि तब उन लेखक महोदया का इंटरव्यू लेने के लिए वह उस वक्त लेखक महोदय के घर पर ही मौजूद था।
ऐसी हालत कम के कम दूसरी भारतीय भाषाओं में नहीं है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहते हुए रामकृष्ण हेगड़े दिल्ली की एलटीजी हॉल में पहुंच गए थे। तब साहित्य अकादमी का संवत्सर व्याख्यान चल रहा था। आयोजकों ने मुख्यमंत्री को अपने श्रोता समाज में देखा तो वे उनकी मिजाजपुरसी में जुट गए। उन्होंने आगे बैठने या मंच पर जाने से साफ मना कर दिया। उन्होंने साफ कहा कि यह मंच साहित्यकारों का है, उनका नहीं। बंगला में अपने लेखकों को पढऩे और उनका व्याख्यान दिलवाने के लिए लोकसभा का स्पीकर बनते ही सोमनाथ चटर्जी अगर जुट जाते हैं तो उसकी वजह यह है कि यहां का लेखक राजनीति की सीमाएं ही नहीं जानता, बल्कि उसकी ताकत भी जानता है। वहां के संस्कृतिकर्मियों में कम से कम पाखंड तो नहीं है।
हिंदी साहित्यकार की नियति है कि वह राजनेता से आगे की सोचने का दावा करता है। लेकिन हकीकत तो यह है कि वह राजनीति की दुनिया से कम से कम पचास साल पीछे है। वह राजनीति की तरह आगे की नहीं सोच रहा, उसे अभी-भी ज्ञानकांड से परहेज है। विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों की हालत तो और भी ख्रराब है। वे सूर-तुलसी-कबीर से आगे ही नहीं बढ़ पाए हैं। आज की राजनीति, मौजूदा समय की परेशानियां और उसके भावी निहितार्थ उसकी चिंताएं नहीं हैं। इसका असर यह हो रहा है कि अधिसंख्य हिंदी साहित्यकार और प्राध्यापक रूमानी दुनिया में खोए हुए हैं। उनकी रचनात्मकता में धार की लगातार कमी हो रही है। राजनीति से दूरी दिखाने का पाखंड तो है, लेकिन उसके साथ ही वे राजनीति के फायदे भी उठाना चाहते हैं। इसका असर यह हो रहा है कि राजनीति की सिर्फ गंदगी ही हमारे दौर में नजर आ रही है। साहित्यिक समाज पर उसका ही ज्यादा असर है। ऐसे में क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हिंदी के साहित्यकार इस पाखंड से दूर हो जाएं कि वे साहित्यकार के नाते राजनेताओं से अलग हैं। वे अपनी श्रेष्ठताग्रंथि से दूर हो जाएं। राजनीति की सीमाएं और ताकत स्वीकार कर लें। निश्चित तौर पर इससे हिंदी साहित्य का भला ही होगा।

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

रामजी बाबू की याद

उमेश चतुर्वेदी
नियति ने लेखन और पत्रकारिता की दुनिया में ढकेलने का निश्चय कर लिया था, शायद यही वजह है कि पाठ्यक्रम से इतर किताबें और पत्रिकाओं के पढ़ने का चस्का कम ही उम्र में लग गया था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के आखिरी छोर पर स्थित बलिया में राजेंद्र प्रसाद के प्रतिभा प्रकाशन की वजह से देश-विदेश की अहम पत्रिकाएं मिलती रही थीं। इसी बुक स्टाल पर पहली बार हिंदी की स्थिति को लेकर शायद हिंदुस्तान में एक लेख पढ़ा था और उसके लेखक की भाषा ने जैसे मोह ही लिया था। बाद के दिनों में जब कादंबिनी से साबका पड़ा तो उस लेखक के सारगर्भित लेख गाहे-बगाहे पढ़ने को मिलने लगे। रामजी प्रसाद सिंह उर्फ रामजी बाबू से मानसिक परिचय की नींव ऐसे ही पड़ी। उन्हीं दिनों उनसे मिलने की इच्छा होने लगी थी। इसी बीच भारतीय जनसंचार संस्थान में दाखिला मिल गया और दिल्लीवासी हो गया। यहां पढ़ाई के दौरान पता चला कि रामजी बाबू यहां पढ़ा चुके हैं। लेकिन उनसे मुलाकात का सौभाग्य नहीं मिला। उनसे मुलाकात सबसे पहले 1995 में तब हुई, जब बनारस वाले रत्नाकर पांडे ने दिल्ली के विज्ञान भवन में राजीव गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन करवाया। जिसका तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उद्घाटन किया था। सुनहरीबाग मस्जिद के पास बस से उतरकर मैं जब मौलाना आजाद रोड पर विज्ञान भवन के लिए चला तो उसी वक्त मेरे आगे-आगे खद्दर का कुर्ता-पाजामा पहने एक बुजुर्ग शख्स चल रहे थे। मुझे तब तक पता नहीं था कि आगे-आगे चल रहे सज्जन वे रामजी बाबू हैं, जिनसे मिलने की इच्छा बरसों से मेरे मन में दबी हुई है। उनसे परिचय भी कुछ अजीब ढंग से हुआ। विज्ञान भवन में घुसते वक्त जैसी की रवायत है, एसपीजी वालों के रूखे व्यवहार का सामना करना पड़ा। बात इतनी तक होती तो गनीमत थी। लेकिन उस दिन तैनात एसपीजी वाले तकरीबन अपमानजनक व्यवहार ही कर रहे थे। इससे मेरा ठेठ गंवई मन उबाल खा गया और उनसे उलझ पड़ा। दिलचस्प बात यह है कि मेरे ठीक पहले हाथ में पास थामे रामजी बाबू के साथ भी एसपीजी वाले रूखा ही व्यवहार कर रहे थे। लेकिन जैसा कि उनका स्वभाव था, चेहरे पर हल्की मुस्कराहट लिए हुए इस अनपेक्षित व्यवहार को वे ऐसे टाल रहे थे, जैसे इस व्यवहार की उन्हें अपेक्षा ही थी। लेकिन मेरा उबाल खाना उन्हें थोड़ा असहज लगा और पीछे मुड़कर उन्होंने समझाया, ये तो पुलिस वाले हैं, आप क्यों अपना आपा खोते हैं और पीठ पर हाथ रखे मुझे लेकर अंदर चले गए। उनके इस अपनापाभरे व्यवहार ने मुझे अंदर तक भिगो दिया। उनकी सहजता और शालीनता मुझे अंदर तक भिगो गई। इसके बाद से उनका कायल हो गया। पत्रकारिता की दुनिया में वे कम ही विचरण करते थे। लेकिन कभी-कभी किसी मीटिंग-समारोह में आते तो मैं उनसे मिलने जाने की कोशिश कर ही रहा होता कि वे पास चले आते। हर बार मैं उनसे एक ही आग्रह करता था कि कुछ लिखिए। एक बार वरिष्ठ पत्रकार और भाई अवधेश कुमार ने मेरे आग्रह को सुनकर चुटीली टिप्पणी भी कर डाली थी- रामजी बाबू सन्यासी हो गए हैं। इसके जवाब में उनकी निश्छल मुस्कराहट ही रह गई थी।
बाद में जी न्यूज में जब ज्वाइन किया तो वहां एक अक्खड़ किस्म के सहयोगी से पल्ला पड़ा। शुरू के दिनों में उस शख्स से बचने की कोशिश करता। बाद में पता चला कि यह अक्खड़ सहयोगी रोहिताश्व तो अपने रामजी बाबू का ही बेटा है तो उनसे घनिष्ठता बढ़ गई। घनिष्ठता से ही पता चला कि रोहिताश्व की अक्खड़ता की असल वजह तो रामजी बाबू की सादगी और ईमानदारी ही है। जिसका उन्हें कम से कम कोई आर्थिक फायदा कभी नहीं मिला। ईमानदारी की राह पर चलते लोगों के सामने जब बेईमान लोग आगे बढ़ते हैं तो ईमानदार शख्स को भले ही परेशानी नहीं होती, लेकिन उसकी संतानों को ईमानदारी का औचित्य ही परेशान करने लगता है। सवालों का दिन रात का यह सामना ही उन्हें अक्खड़ और बदमिजाज बना देता है। बहरहाल रोहिताश्व से जानपहचान बढ़ने और तमाम वादों के बाद उसके घर नहीं जा सका। रामजी बाबू से उनके घर जाकर नहीं मिल पाया। पत्रकारिता जगत के इस मनीषी को घर जाकर देखने की इच्छा मन में ही रह गई। जो शख्स हिंदुस्तान समाचार जैसी एजेंसी का महाप्रबंधक रह चुका हो, इसके बावजूद वह मौजूदा सांसारिक माया से निर्लिप्त रह पाया हो, ऐसा कम ही होता है। रामजी बाबू उसी धारा के पत्रकार थे। भारतीय पत्रकारिता की आज भी अगर नाक ऊंची है तो उसमें रामजी बाबू जैसे पत्रकारों का योगदान और त्याग सबसे ज्यादा है।

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

प्यार भरे स्वाभिमान को तरसती भारतीय भाषाएं

उमेश चतुर्वेदी
चिली की राष्ट्रपति डॉक्टर मिशेल बास्लेट गणतंत्र दिवस के ठीक पहले भारत के दौरे पर थीं। चूंकि पांच साल बाद चिली का कोई इतना बड़ा नेता भारत के दौरे पर था, लिहाजा उनके सम्मान में भारत सरकार की ओर से कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी गई। उनके सम्मान में उपराष्ट्रपति डॉक्टर हामिद अंसारी ने एक भोज दिया। जैसी की रवायत है, भोज के पहले मेजबान और मेहमान दोनों ने औपचारिक बयान दिया। लेकिन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के बयान देते ही एक ऐसी घटना हो गई, जिसे लेकर वहां कुछ देर तक सन्नाटा छा गया। हमारे नेता विदेशी नेताओं और मेहमानों के समक्ष अंग्रेजी में ही बोलने के आदी रहे हैं। उपराष्ट्रपति ने उसी परंपरा का निर्वाह किया और औपचारिक बयान अंग्रेजी में ही देने लगे। उनके ऐसा करते ही डॉ.बास्लेट के लिए चिली सरकार की तरफ से दुभाषिया तैनात था। वह दुभाषिया कामचलाऊ अंग्रेजी ही जानता था। उसे हिंदी और स्पेनिश ही आती थी। उपराष्ट्रपति ने बयान पढ़ना शुरू क्या किया, दुभाषिया ने टूटी-फूटी अंग्रेजी में उसे टोक दिया। उसने कहा कि उसकी राष्ट्रभाषा स्पेनिश है। चिली दुभाषिये न उपराष्ट्रपति से अनुरोध किया कि उसकी राष्ट्रपति चूंकि अंग्रेजी नहीं जानती, लिहाजा बेहतर हो कि वे स्पेनिश या हिंदी में बोलें। क्योंकि हिंदी से वह अनुवाद कर सकता था। इसके आगे क्या हुआ, इसका जिक्र किया जाना यहां ज्यादा जरूरी नहीं है।
सोचने की बात यह है कि क्या ऐसी घटनाओं से हम भारतीयों को कोई सीख मिलती है। राजनेताओं को गलियाना और उनकी लानत-मलामत करना तो हमारी दिनचर्या में शामिल है ही। लेकिन हम खुद भी ऐसी घटनाओं के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं। हमें अपनी श्रेष्ठताबोध के प्रदर्शन का एक ही जरिया नजर आता है अंग्रेजी। नव उदार आर्थिक-सामाजिक परिवेश में अंग्रेजी का बोलबाला कुछ ज्यादा बढ़ गया है। बाजार की अब तक की मजबूरी हिंदी समेत भारतीय भाषाएं हैं। लिहाजा बाजार इन्हें अपने उत्पाद को बेचने के लिए इन भाषाओं का इस्तेमाल भर कर रहा है। चूंकि नई बाजार व्यवस्था में चूंकि उत्पाद को विज्ञापन के जरिए ही अपने लक्ष्य समूह तक पहुंचाया जा सकता है, इसलिए भारतीय भाषाओं में विज्ञापन बनाया जा रहा है और उन्हें देसी मीडिया के जरिए ही फैलाया जा रहा है। भारतीय भाषाओं के मीडिया के विस्तार की एक वजह यह भी है। लेकिन हमारा ध्यान इस ओर नहीं है। वैसे भी बाजार का एक नियम होता है, अपने उत्पाद को बेहतर बनाना। चूंकि भाषाएं भी इस नव बाजारवादी व्यवस्था में एक उत्पाद बन रही हैं, लिहाजा इन्हें बेहतर बनाने की उम्मीद पालना बेमानी नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि भाषाओं के मामले में बेहतर बनाने की कोशिश नहीं की जा रही है। इस पूरे उहापोह में अंग्रेजी की बन आई है। सुदूर गाजीपुर में रहकर रचनाकर रहे विवेकी राय अंग्रेजी के इस विकास को नव उपनिवेशवाद मानते हैं। हिंदी का भला चाहने वालों की भी राय कुछ अलग नहीं है। लेकिन अंग्रेजी का यह जनविस्तार बढ़ता जा रहा है। इसलिए इन दिनों एक राय कमोबेश पूरे देश में बन गई है कि अंग्रेजी पढ़-बोलकर ही मलाई खाई जा सकती है।
अंग्रेजी बोध के विस्तार का यह बीज अंग्रेजीदां राजनेताओं ने ही बोया था, जो अब फैल गया है। संविधान में यह कहीं नहीं लिखा कि अंग्रेजी नहीं जानने वाला प्रधानमंत्री नहीं बन पाएगा। लेकिन 1989 में जब देवीलाल जनता दल के नेता चुने गए तो उन्होंने यह कहते हुए ताज वीपी सिंह के सिर रख दिया था कि उन्हें अंग्रेजी नहीं आती और प्रधानमंत्री बनने वाले को अंग्रेजी आनी चाहिए। अंग्रेजी के प्रति राजनीति की असल चाहत को बयां करने के लिए यह एक घटना काफी है। यही वजह है कि विदेशी राजनेताओं के सामने वे अपनी भाषा के अपमान की कीमत पर भी अंग्रेजी में बोलना पसंद करते हैं। ऐसे लोगों के लिए चिली की राष्ट्रपति मिशेल बास्लेट नजीर बन सकती हैं। दस-बारह साल पहले कजाकिस्तान के राष्ट्रपति साहित्य अकादमी के संवत्सर व्याख्यान देने आए थे। लोगों को लगता था कि विदेशी होने के नाते उनका भाषण अंग्रेजी में होगा, लेकिन उन्हें अंग्रेजी नहीं आती थी और उन्होंने अपना भाषण कजाक भाषा में ही दिया। अपनी भाषा के प्रति प्रेम को फ्रांस में भी देखा जा सकता है। दो साल पहले विश्वबैंक की एक बैठक से फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी इसलिए बाहर निकल गए थे, क्योंकि वहां फ्रांसीसी मूल का विश्वबैंक का एक अधिकारी फ्रेंच की बजाय अंग्रेजी में बोल रहा था। इन उदाहरणों का मकसद भाषाओं के प्रति कट्टरता की हद तक प्यार फैलाना नहीं है, बल्कि ये समझाने की कोशिश भर है कि अपनी भाषाओं के प्रति दुनिया के गैरअंग्रेजी भाषी देशों में कितना सम्मान और प्यार है। बेहतर तो यह होता कि हम भी अपने भाषाओं में ऐसा ही प्यारभरा स्वाभिमान भर पाते।

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

लोहिया की भविष्यवाणी नहीं, हमारा नजरिया कमजोर है

उमेश चतुर्वेदी
मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा की हाल ही में एक किताब आई है ‘दी मेकर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया ’। गुहा ने इस किताब में मौजूदा भारत के निर्माण में योगदान देने वाले राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की जिंदगी और उनके कामों की विश्लेषणात्मक जानकारी दी है। इस किताब में अगर डॉक्टर राममनोहर लोहिया का जिक्र नहीं होता तो आश्चर्य की बात होती। लोहिया का जिक्र हुआ है। इसमें अंग्रेजी को लेकर उनके एक कथन को रामचंद्र गुहा उद्धृत करने से रोक नहीं पाए हैं। अंग्रेजी को लेकर लोहिया का वह कथन है - "नदी अपनी धारा बदलेगी, अंग्रेजी निरर्थक हो जाएगी। रूसी भाषा लम्बे डग भरेगी। कुछ समय बाद रूसी भाषा इसी तरह इठलाएगी। रूसी व अंग्रेजी भाषा के बीच आगे बढ़ने का द्वंद्व होगा। अंग्रेजी अन्तरराष्ट्रीय स्तर की भाषा है, यह मिथक ही रह जाएगा। ”
भारतीय राजनीति में एक पीढ़ी ऐसी रही है, जिसके लिए हिंदी ना सिर्फ देसी सम्मान, बल्कि संघर्ष की भाषा रही है। लेकिन समय के साथ वह पीढ़ी लगातार खत्म होती जा रही है। ऐसे में हिंदी के लिए खालिस देसी ढंग से संघर्ष का माद्दा खत्म होता नजर आ रहा है। हालांकि एक वर्ग ऐसा जरूर है, जिसके लिए मीडिया में हिंदी का बढ़ता प्रभाव, और हिंदी मीडिया का दैत्याकार विकास उनके हीनताबोध को एक हद तक परे रखने का जरिया बनता है। इन्हीं में हिंदी मीडिया और संस्कृति की दुनिया में विचरण करने और अपनी रोजी-रोटी कमाने वाला वर्ग भी शामिल है। उसे जब अंग्रेजियत भरा समाज अपने साथ बुलाता है, बैठाकर उसे सुनता है तो वह एक बारगी हिंदी को महत्व मिलते देखता है। फिर वह हिंदी के जयगान में कूद पड़ता है। खालिस अंग्रेजी ढंग से शुरू हुए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में इस साल हिंदी साहित्यकारों और समीक्षकों को अपनी तकरीर सुनाने का मौका मिला तो उसे महसूस हुआ कि अंग्रेजी के सामने हिंदी भाषा की स्वीकारोक्ति का दौर शुरू हो गया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की आर्थिक मदद के सहारे शुरू हुए इस लिटरेचर फेस्टिवल में हिंदी को भी मंच पर बैठाकर सुनने के सम्मान लायक समझा गया तो उसका स्वागत होना चाहिए। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी दौर में भारतीय प्रधानमंत्री को सरकारी बाबुओं की अंग्रेजी में खराब ड्रॉफ्टिंग से कोफ्त होने लगी है। उन्हें सड़कों के किनारे सार्वजनिक निर्माण विभाग, परिवहन निगम या नगर निगमों के लगाए साइन बोर्डों पर हिंदी की टूटती टांग तो नहीं दिखी। लेकिन बाबुओं की खराब अंग्रेजी ड्रॉफ्टिंग परेशान जरूर करने लगी है। इसलिए कैबिनेट सचिव के एम चंद्रशेखर के जरिए ड्रॉफ्टिंग सुधारने का फरमान जारी कराना उन्हें बेहद जरूरी काम लगता है। ऐसे में क्या यह मान लिया जाय़ कि राममनोहर लोहिया की भविष्यवाणी गलत साबित होने वाली है। भारतीय राजनीति से गायब होती हिंदी समर्थक संघर्षशील राजनीतिक पीढ़ी के अल्पसंख्यक होते लोग भले ही ऐसा नहीं मानते, लेकिन ऑक्सफोर्ड या दूसरे विदेशी संस्थानों से निकलकर देसी राजनीति करने का स्वांग करने वाली पीढ़ी को लोहिया के ये विचार बेमानी नजर आने लगे हैं। उन्हें लगने लगा है कि भारत के अंग्रेजी ज्ञान के ही चलते बराक ओबामा को भारत की चौखट पर नाक रगड़ना पड़ा या फिर डेविड कैमरून पाकिस्तान को चेतावनी देने लगे या फिर चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ को भारत आना पड़ा।
तर्कशास्त्री सत्य को दो रूपों में देखते हैं। इस लिहाज से देखा जाय तो एक सचाई तो यह है ही। लेकिन पूरी सचाई यही नहीं है। दिल्ली स्थित स्पेनिश सांस्कृतिक केंद्र के निदेशक ऑस्कर पुजोल जब यह कहते हैं कि हिंदी में क्षमता है, दम है और सुंदरता भी तो वह भी एक सत्य को ही उजागर कर रहे होते हैं। उनका कहना है कि यह मिथ है कि दुनिया में अंग्रेजी सबसे ज्यादा बोली और समझी जाने वाली भाषा है और कार्य-व्यापार में उसका इस्तेमाल होता है तो यह भी आधा सच ही होता है। हालांकि नव उदारवादी व्यवस्था से निकले भारतीय समाज इसी तर्क के सहारे ही अंग्रेजी की ताकत को बढ़ा रहा है और राम मनोहर लोहिया की भविष्यवाणी पर सवाल उठा रहा है। लेकिन पुजॉल का कहना है कि स्पेनिश अंग्रेजी से कहीं ज्यादा कार्यव्यापार की भाषा है।
हाल ही में जारी इंटरनेट वर्ल्ड स्टेट्स के आँकड़े भी दूसरे अर्थ में पुजोल की ही बात को आगे बढ़ाते हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक अगले पांच साल में इंटरनेट की दुनिया में चीनी भाषा अंग्रेजी भाषा को पछाड़ देगी। इस रिपोर्ट के अनुसार चीन में पिछले वर्ष 2010 में 3.6 करोड नए इंटरनेट उपभोक्ता बढ़े। इस तरह से चीन के इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या अब 44 करोड तक पहुँच गई है। जबकि इंटरनेट के जन्मदाता अमेरिका में ही उसके उपयोगकर्ताओं की संख्या 22 करोड ही है। वैसे अंग्रेजी का उपयोग करने वाले लोग ना केवल अमेरिका बल्कि यूरोप, एशिया,ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में भी हैं, लेकिन वैश्विक आँकडों पर गौर करें तो भी अंग्रेजी के उपयोगकर्ताओं की संख्या 53.7 करोड ही है. दूसरी तरफ चीनी भाषा के उपयोगकर्ताओ की संख्या 44 करोड है। इस रिपोर्ट के मुताबिक
दुनिया भर में इंटरनेट उपयोग करने वाले लोगों का 42 फीसदी अंग्रेजी भाषी है, और इतना ही प्रतिशत चीनी भाषी भी है। इस तरह से इंटरनेट पर चीनी भाषा के और विकसित होनी की पूरी सम्भावना है। भारतीय राजनेताओं को राममनोहर लोहिया की भविष्यवाणी भले ही पूरी होती नजर नहीं आ रही हो, लेकिन इंटरनेट की दुनिया के ये आंकड़े तो उसकी तसदीक ही कर रहे हैं।
तकनीक भाषा को भी बदलती है। यह सच है कि अपने यहां राजकाज और ताकत की भाषा अभी तक अंग्रेजी ही बनी हुई है। पश्चिमी सोच वाले कथित पैराटूपर लोकतांत्रिक राजनेताओं की खेप को अंग्रेजी में ही काम करना सुविधाजनक लगता है। लिहाजा हकीकत की धरती पर वे हिंदी की दिशा में कदम नहीं उठाना चाहते। लेकिन इंटरनेट वर्ल्ड की रिपोर्ट में चीन के लिए कहा गया है कि वहां के राजनेताओं ने अपनी भाषा में इंटरनेट के विकास के लिए जो कदम उठाए हैं, उसका ही असर होगा कि पांच साल में इंटरनेट की दुनिया की नंबर वन भाषा उनकी अपनी चीनी ही होगी। इन अर्थों में अपने प्रधानमंत्री का आदेश जहां भारत की अपनी लचर भाषा नीति को ही आईना दिखाता नजर आता है। लिटरेचर फेस्टिवलों में बुलावा मिलने की धुंध में इसे लोग देखना भी नहीं चाहते। बेहतर तो यह होता कि दोनों ही हालात से बचने की कोशिश होती।

शनिवार, 29 जनवरी 2011

साधनों की पवित्रता पर भी उठे सवाल

उमेश चतुर्वेदी
गांधी जी कहा करते थे कि सर्वोत्तम साध्य के लिए साधन भी पवित्र होना चाहिए। उदारीकरण का दायरा आज इतना बढ़ गया है कि हर नया और बेहतर साध्य हासिल करने की इच्छा रखने वाले लोगों के सामने संकट खड़ा हो गया है। उदारीकरण का चपेटा इतना बड़ा और गहरा है कि पवित्र साधनों की जमात लगातार कम हुई है। लेकिन मानवता आधारित दुनिया रचने की सफल-असफल कोशिशों में जुटी छिटफुट ताकतों और आत्माओं के लिए पवित्रता की गांधीवादी धारणा लगातार परेशान कर रही है। 27 जनवरी को खत्म हुए बहुप्रचारित जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की शुरूआत में भी पवित्रता की इस अवधारणा ने सवाल जरूर खड़े किए। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि सवाल उठाने वाले क्रांतिजीवियों की ही बातों को उन्हीं के बीच के लोगों ने उपहासात्मक स्वर में नकार दिया। सबसे दिलचस्प बात यह है कि जिन्होंने साधनों की अपवित्रता के जरिए इस लिटरेचर फेस्टिवल के बहिस्कार का मजाक उड़ाया, दरअसल वे लोग भी क्रांतिजीवी के तौर पर ही जाने जाते हैं। लेकिन बहिस्कार और विरोध की अपील करने वाले लोगों और उपहास उड़ाने वाले लोगों में अंतर सिर्फ इतना ही है कि उपहास उड़ाने वाले लोगों को इस बहुप्रचारित और बहुप्रतिष्ठित समारोह के विमर्श सत्रों में बोलने के लिए बुलाया गया था।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को सदा की तरह इस बार भी हिंदी मीडिया ने भी जमकर कवरेज दी। जहां नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार ओरहान पामुक आएंगे, अंग्रेजी की स्टार लेखिका किरण देसाई होंगी, अपने स्वभाव के मुताबिक अंग्रेजी मीडिया इसकी कवरेज करेगा ही। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि इस बार हिंदी मीडिया ने भी इस बार इस फेस्टिवल में चले विमर्श सत्रों और पाठ सत्रों की खबरें प्रकाशित करने में कंजूसी नहीं दिखाई। वैसे भी हमारी हिंदी मीडिया को अपनी भाषा के लेखकों की तुलना में अंग्रेजी के रचनाकार ज्यादा बड़े स्टार नजर आते हैं, लिहाजा उनकी कवरेज उन्हें गौरवबोध से भर देता है। इस गौरवबोध में विरोध के सुर और उनके मुद्दे कहीं खो गए। विरोध करने वालों को इस फेस्टिवल के तीन प्रायोजकों के नामों पर खास आपत्ति थी। इस फेस्टिवल के एक आयोजक डीएससी लिमिटेड पर दिल्ली के कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान बाजार दर से 23 फीसद ज्यादा दरों पर ठेके मिले। इसकी तस्दीक देश का सतर्कता आयोग कर चुका है। इसके दूसरे प्रायोजक दुनिया की जानी-मानी खनन कंपनी रियो-टिंटो से भी सहायता लेने पर आपत्ति रही। विरोधियों का मानना है कि रियो-टिंटों दुनियाभर में अवैध तरीकों से ना सिर्फ खनन के ठेके हथियाती है, बल्कि वह नस्ली और फासिस्ट ताकतों की सहायता भी करती है। इसके साथ ही उस पर अमानवीय तरीके से श्रम कानूनों का उल्लंघन करने और पर्यावरण अधिकारों से खिलवाड़ का भी आरोप है। विरोधियों को इस आयोजन के तीसरे प्रायोजक शेल ऑयल कंपनी के प्रायोजन पर भी एतराज रहा। दुनिया की इस सबसे बड़ी ऊर्जा कंपनी पर नाइजीरिया के लेखक और पर्यावरण कार्यकर्ता केन सारो वीवा की हत्या कराने का आरोप है। इन आरोपों के मद्देनजर इस फेस्टिवल का विरोध करने की कोशिश तो हुई, लेकिन एक हद से आगे नहीं बढ़ पाई। नई मीडिया यानी इंटरनेट पत्रकारिता की इन दिनों कम से कम हिंदी में ऐसे विषयों पर गरमा-गरम बहसों के लिए पहचान बन गई है। हिंदी की नई मीडिया को यह पहचान दिलाने में क्रांतिजीवी वैचारिक धारा की सबसे बड़ी भूमिका रही है। इसके बावजूद जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को लेकर कहीं कोई बहस और चर्चा नहीं देखने को नहीं मिली।
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक बहरहाल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को जनता ने खूब सराहा है। इसमें लेखकों से ज्यादा प्रदर्शनकारी कलाओं मसलन फिल्म और संगीत से जुड़ी हस्तियों की उपस्थिति का ज्यादा योगदान रहा है। प्रदर्शनकारी कलाओं और टेलीविजन के स्टारों के जरिए ही अगर साहित्य को लेकर एक माहौल बनता है, जनता उसे स्वीकार करती है तो उसकी प्रशंसा की ही जानी चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि इस महोत्सव को लेकर उठे सवालों पर चर्चा भी न की जाए। लोकतांत्रिक समाज में महान साहित्यिक परंपराएं जारी रखने के लिए उदात्त वैचारिक बहसें भी जरूरी होती हैं। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का ‘जयगान’ करने वालों को भी इसे स्वीकार करने से नहीं हिचकना चाहिए। क्योंकि उनके अस्वीकार बोध से विरोधियों के उठाए सवाल अप्रासंगिक नहीं हो जाते। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की कामयाबी के जरिए डीएससी लिमिटेड, रियो टिंटो या शेल ऑयल कंपनी जैसी कंपनिया अपने अनाचारों को जनमानस की स्मृतियों से लोप करके नई छवि गढ़ने की कोशिश करती हैं। इन तथ्यों से भी इनकार नहीं किया जा सकता।

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

इंडिया का यंग रिपब्लिक

उमेश चतुर्वेदी
प्रशांत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के एक निजी विश्वविद्यालय में पढ़ाई कर रहा है। आम नौजवानों की तरह प्रशांत की चाहत बिजनेस मैनेजर या आईएएस अफसर बनने की नहीं है। जिंदगी का उसका लक्ष्य साफ है, उसे अपने ताऊ की तरह ठेठ राजनेता बनना है। ऐसे में आम मान्यता तो यही है कि पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को कम से कम वह दूसरे नौजवानों की तुलना में राष्ट्रीय भावनाएं उसे जोर मारेंगी। लेकिन छब्बीस जनवरी को इस बार उसका इरादा देश की सेनाओं की परेड देखना नहीं है। उस दिन उसकी योजना अपने दोस्तों के साथ फिल्म देखने की है। प्रशांत का कहना है कि साल दर साल वही परेड..क्या रखा है इसमें। इससे बेहतर है कि कुछ नया करो और इन्ज्वाय करो।
ऐसी सोच रखने वाला अकेला नौजवान नहीं है प्रशांत...आज के अधिकांश शहरी नौजवानों की सोच कुछ ऐसी ही है। एक दौर था, जब पंद्रह अगस्त, दो अक्टूबर और छब्बीस जनवरी राष्ट्रीयताबोध को जगाने और इसी बहाने एक बार फिर अपने रोएं फड़काने का माध्यम होता था। तब देशभक्ति का मतलब देश के लिए मर मिटना, राष्ट्रीयता के प्रतीकों का सम्मान करना होता था। लेकिन आज के नौजवानों के लिए इसके मायने बदल गए हैं। इसका मतलब यह नहीं कि आज का नौजवान देशभक्त नहीं रहा। लेकिन राष्ट्रभक्ति दिखाने और उसे जताने का माध्यम बदल गया है। आज का नौजवान देश के लिए कुछ करना तो चाहता है, लेकिन उसकी सोच कुछ अलग है। आईएमआई दिल्ली से एमबीए कर चुकी अंकिता कहती है – “ कॉमनवेल्थ से लेकर 2 जी घोटाले में जिस तरह नेताओं का नाम सामने आया है, उससे किस देशभक्ति का आभास मिलता है। इससे अच्छे तो आज के नौजवान हैं, जिन्हें अपनी पढ़ाई-लिखाई और कैरियर से मतलब है। ”
हर पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी को पथभ्रष्ट मानती है। उसकी नजर में उसका गुजरा जमाना ही बेहतर होता है। जाहिर है आज की पीढ़ी को भी अपनी पुरानी पीढ़ी से ऐसे उलाहने सुनने को मिलते हैं – “आज के नौजवानों को न तो अपने कल्चर से मतलब है न अपने संस्कारों से...” लेकिन इसका भी जवाब नई पीढ़ी के पास है। नई पीढ़ी को लगता है कि पुरानी पीढ़ी को उनकी संस्कृति के चलते क्या हासिल हुआ। इन नौजवानों का कहना है कि पुरानी पीढ़ी के लिए संस्कार और संस्कृति की बात करते रह गए। लेकिन उन्हें बदले में अपने जायज कामों को भी कराने के लिए घूस देने पड़े। पानी – बिजली के गलत बिलों को सही कराना हो या स्कूल में भर्ती कराना, उन्हें रिश्वत देनी पड़ी। नौजवानों का सवाल है कि अगर पुराने दिन इतने ही अच्छे थे, संस्कारों और संस्कृति की इतनी ही बात थी तो फिर क्या हुआ कि भ्रष्टाचारियों की बन आई, राजनीति का मतलब सेवा की बजाय अकूत पैसा कमाना रह गया। दिल्ली विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करके कलम मांजना सीख रहे विनय झा कहते हैं-“ आज की पीढ़ी कम से कम वैसी भ्रष्ट नहीं है, जैसी पुरानी पीढ़ी में थे। आज नौकरी शुरू करने वाले नौजवान को पता है कि वह अपनी सीट पर किसलिए है और उसे अपनी जिम्मेदारी का अहसास है। ”
भारत की जवान पीढ़ी में इन दिनों चेतन भगत, अद्वैत काला या अरविंद अडिगा जैसे उपन्यासकारों की रचनाओं का बोलबाला है। उनके उपन्यास देखते ही देखते लाखों की प्रतियों में बिक रहे हैं। हालांकि भारतीय भाषाओं और हिंदी में बिक्री के ऐसे आंकड़े नजर नहीं आ रहे। कहा तो यह भी जा रहा है कि आज की पीढ़ी के पास चूंकि नैतिक संस्कार वैसे नहीं है, जैसे कि पुरानी पीढ़ी के पास थे। नैतिकता को लेकर जारी वैचारिक और पीढ़ीगत संस्कार ही इन रचनाओं की सफलता का जरिया बने हैं। इसके लिए नौजवान सवालों के घेरे में हैं। लेकिन शिक्षा के अधिकार के लिए संघर्षरत धीरेंद्र सिंह कहते हैं कि चूंकि आज की पीढ़ी की वैचारिकता में गहराई नहीं है। अपने आसपास के संघर्ष और उदारीकरण की छाया में बढ़ रही दुनिया की आपाधापी के बीच आज का नौजवान विकसित हो रहा है, इसलिए उसे चेतन भगत या अद्वैत काला पसंद आ रहे हैं। सच तो यह भी है कि इन लेखकों ने नई पीढ़ी के इसी वैचारिक संघर्ष को अपनी रचनाओं में धार दी है। हालांकि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से फ्रेंच की पढ़ाई कर रहे अजित कुमार कहते हैं कि पुरानी पीढ़ी क्यों भूल गई कि उन्हें भी एचह्वीलर पर बिकने वाला पल्प लिटरेचर एक दौर में बेहद पसंद था।
लेकिन आमोद - प्रमोद भरी दुनिया, दुनियादारी को लेकर सचेत नजरिया और अपने काम से काम रखने वाली नई पीढ़ी की सोच और कर्म में गहराई देश के भविष्य पर भी असर डाल सकती है। एसजीटी मेडिकल एंड डेंटल इंस्टीट्यूट के रजिस्ट्रार एसएन राजू कहते हैं कि उदारीकरण के चलते नई पीढ़ी दुनिया को सिर्फ सतही नजरिए से देखने का आदी बन गई है। उनका कहना है कि सतही नजरिया ज्यादा दिन तक नहीं चलता। आमोद-प्रमोद की एक सीमा होती है। लेकिन जिंदगी की कड़वी सच्चाईयों का सामना गहरे नजरिए से ही किया जा सकता है। राजू को चिंता है कि आज की पीढ़ी के पास जिंदगी की असल चुनौतियां झेलने का माद्दा कम होता जा रहा है।
लेकिन यह सच्चाई का एक ही पहलू है। अगर जिंदगी से जूझने का माद्दा नहीं रहता तो आज की देसी पीढ़ी की मेहनत और मेधा का झंडा अमेरिका के नासा से लेकर सिलिकॉन वैली तक नहीं फहरता। हां, यह बात और है कि आज की पीढ़ी के भारत और इंडिया में फर्क और अंतर बढ़ता जा रहा है। पहले शहरी युवा के साथ भारत का ग्रामीण युवा भी आसानी से घुलमिल सकता था। लेकिन उदारीकरण और नई संस्कृति के चलते ऐसा होना आसान नहीं रहा। आज भारत का ग्रामीण युवा शहरी नौजवानों के मुकाबले अपने को कमतर कर के आंक रहा है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि वह 1974 के जेपी आंदोलन की तरह बदलाव लाने की भी नहीं सोच पा रहा है। आंदोलन तो उसके जेहन से दूर होते जा रहे हैं। सिंगूर या छोटे-मोटे एनजीओ के आंदोलन इसके अपवाद जरूर हो सकते हैं। राज सत्ता आंदोलनों से वैरभाव रखती हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि आंदोलन उनके खिलाफ हैं। इस तथ्य में एक हद तक सच्चाई भी है। लेकिन यह भी सच है कि आंदोलनों के गर्भ से विचार की नई राह निकलती है, विकास के नए नजरिए पैदा होते हैं। इन अर्थो में आंदोलन सामाजिक जिंदगी में भूचाल लाकर उसमें गति पैदा करता है। दुनिया के लोकतांत्रिक समाजों में ये जिम्मेदारी नौजवान पीढ़ी ही उठाती रही है। लेकिन दुर्भाग्वश भारतीय गणराज्य के नौजवानों में फिलहाल ऐसा आलोड़न उठता नहीं दिख रहा है।

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

हिंदी में खबरों का व्यापार

उमेश चतुर्वेदी
2008 के गुजरात चुनावों की बात है। कांग्रेस के सचिव और महाराष्ट्र राज्य के सह प्रभारी मोहन प्रकाश को राज्य में मीडिया के जरिए पार्टी के प्रचार की जिम्मेदारी दी गई थी। इस सिलसिले में उन्होंने गुजरात के तकरीबन सभी जिला मुख्यालयों का दौरा किया और प्रेस कांफ्रेंस भी की। हर कांफ्रेंस के बाद उनके पास स्थानीय पत्रकारों का झुंड उनके पास आ जाता और वे उनसे घुमा-फिरा कर कुछ पूछने लगते। उन सवालों का लब्बोलुआब यही होता कि उनकी कांफ्रेंस को कवर करने के लिए कितने की थैली मिलेगी। हर बार वे स्थानीय पत्रकारों को टालते रहे और इसकी शिकायत करते रहे। उन्हें लगता था कि चुनाव के बहाने अपनी कमाई के लिए ये स्थानीय पत्रकारों की कारस्तानी है। लेकिन 2009 के आम चुनावों में उन्हें पता चला कि असल माजरा क्या था। दरअसल यह पेड न्यूज का एक तरीका था।
2009 के आम चुनावों में देश के तकरीबन सभी बड़े न्यूज चैनलों ने कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी से बुके में पैकेज की मांग रखी। सत्ता की दौड़ में शामिल रही दोनों प्रमुख पार्टियां इस चुनाव में हर मुद्दे पर एक-दूसरे का गलाकाट विरोध कर रही थीं। लेकिन एक मुद्दा ऐसा था, जिस पर दोनों की राय एक थी और वह मुद्दा था पेड न्यूज। दोनों ने तय किया था कि चैनलों की मनमानी और बुके में विज्ञापन जारी करने की जिद्दी मांग के आगे वे नहीं झुकेंगी। दोनों की मर्जी थी कि अपने लिए फायदेमंद चैनलों को ही वे विज्ञापन देंगीं। लेकिन पेड न्यूज पर निगाह गड़ाए चैनलों की जिद्दी मांग के आगे उन्हें झुकना पड़ा। जनता की अदालत को हर हाल पर अपने पक्ष में झुकाने के लिए दिन-रात एक कर रही दोनों पार्टियों ने समाचार चैनलों को करोड़ों की कीमत के विज्ञापन दिए। दिलचस्प बात यह है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार का खुलासा करते रहने का कथित नैतिक दावा करने वाले चैनलों ने यह पूरी की पूरी रकम चेक की बजाय नगद लिया और उसकी पक्की रसीद भी नहीं दी।
पुरानी धारा के राजनेताओं को लगता रहा है कि उनके बयान और उनकी प्रेस रिलीज प्रकाशित करना प्रेस का परम पुनीत काम है। लेकिन पिछले आम चुनाव ने हिंदी भाषी इलाके के नेताओं की आंखें खोल दीं। कोयला खदानों के लिए मशहूर झारखंड के धनबाद जिले के जनता दल यूनाइटेड के नेता अनिल कुमार सिंह को भी पिछले आम चुनाव में ही पता चला कि कभी-कभी खबर छापने के नाम पर पैसे मांगने वाले एक-आध भ्रष्ट पत्रकार थे। लेकिन उस दौरान पूरा मीडिया ही कमाई में जुटा हुआ था। अनिल सिंह की कांफ्रेंस को कवर के एवज में पूर्वी भारत के एक मशहूर अखबार के पत्रकार ने खुलेआम पैसा मांगा। इस मांग से बौखलाए अनिल ने उसके संपादक को कोलकाता में फोन किया। लेकिन उस रिपोर्टर का बाल बांका भी नहीं हुआ। हैरान अनिल जब खोजबीन में जुटे, तब जाकर उन्हें पता चला कि दरअसल उस अखबार के प्रबंधन ने ही अपने रिपोर्टरों को कमाई का लक्ष्य निर्धारित कर रखा था। ऐसे में उनसे पैसे की मांग नहीं रखी जाती तो क्या किया जाता। पिछले आम चुनाव में जिस तरह पूरे देश में पेड न्यूज का खुला खेल हुआ, वह राजनीति को हैरान करने वाला था। हैरान तो जनता भी हो रही थी। एक ही अखबार के एक ही पेज पर एक खबर में दूसरा शख्स जीतता नजर आ रहा था तो दूसरी खबर में उसका प्रतिद्वंदी जीतता नजर आ रहा था। अगर उसी सीट के दूसरे उम्मीदवार ने अखबार को पैसे नहीं दिए तो उसके खिलाफ हवा दिखाने में भी अखबार ने देर नहीं लगाई। जनता को पता नहीं चल रहा था कि अखबार किस मुद्दे पर सही है। दरअसल अखबारों ने अपनी यूनिटों के लिए कमाई का लक्ष्य तय कर रखा था। यूनिटों के प्रमुखों ने हर रिपोर्टर और हर पेज के प्रभारी को लक्ष्य बांट रखा था। लक्ष्य को पूरा करने के लिए रिपोर्टरों और पेज प्रभारियों ने नेताओं पर जमकर दबाव बनाया और अपने-अपने अखबारों ने मोटी कमाई। इसके साथ उन्होंने खुद भी कमाई की। जिस रिपोर्टर और पेज प्रभारी ने इस कमाई में हिस्सेदार बनने में हिचक दिखाई, उसे किनारे कर दिया गया। पेड न्यूज की बात जब तक पूरी तरह प्रचारित नहीं हुई, तब तक हिंदी मीडिया में कथित तौर पर राष्ट्रीय कहे जाने वाले अखबार अपने को पाकसाफ बताते रहे। लेकिन जैसे-जैसे बात खुलती गई, पता चला कि राष्ट्रीय अखबारों के स्थानीय संस्करण भी इस बहती गंगा में हाथ धोने में पूरी शिद्दत से जुटे थे। राष्ट्रीय अखबारों की इस मिलीभगत का ही परिणाम था कि प्रेस कौंसिल की मसविदा समिति ने इस पर 77 पेज की रिपोर्ट बनाई, लेकिन उन्होंने सदस्यों पर दबाव बनाकर इस रिपोर्ट को महज 13 पेज में सिमटा दिया और उसे ही अब प्रकाशित किया जा रहा है। हालांकि पुरंजय गुहा ठाकुरता और के श्रीनिवास रेड्डी की तैयार की हुई यह रिपोर्ट मूल रूप में www.prabhashjoshi.in पर देखी जा सकती।
हिंदी में पेड न्यूज को लेकर सबसे ज्यादा हो-हल्ला बेशक 2009 के आम चुनावों में अखबारों की भागीदारी के सार्वजनिक खुलासे के बाद भले ही हुआ, लेकिन इसकी शुरूआत नब्बे के दशक में ही हो गई थी। जब मध्य भारत के एक हिंदी अखबार ने स्थानीय निकाय के चुनाव में अपने पत्रकारों को खबरों के लिए कमाई का लक्ष्य तय कर दिया था। तब यह रकम पिछले चुनाव की तरह ज्यादा नहीं थी। उस चलन के चपेटे में भारतीय जनता पार्टी के एक राष्ट्रीय महासचिव का परिवार भी आया था। चूंकि वे इन पंक्तियों के लेखक से अपना नाम जाहिर नहीं करने का वचन ले चुके हैं, लिहाजा उनका नाम नहीं दिया जा रहा है। तब उनके परिवार का कोई सदस्य स्थानीय निकाय चुनाव में हिस्सा ले रहा था। जब उनसे उसके पक्ष में खबरें छापने के लिए पैसे मांगे गए थे। भारतीय जनता पार्टी के उस नेता ने तब इसे पेड न्यूज की बजाय स्थानीय पत्रकार की अपनी कारस्तानी समझा था। महाराष्ट्र से जुड़े रहे एक नेता ने भी बताया था कि 2005 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भी कुछ अखबारों ने कमाई के लिए उम्मीदवारों की खबरें छापने का सौदा किया था। इसी दौरान पंजाब के चुनावों में भी खबरों को प्रकाशित करने के लिए खेल हुए थे। दिल्ली नगर निगम के 1995 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता मदन लाल खुराना से दिल्ली के एक प्रतिष्ठित अखबार के संवाददाता ने खुलेआम पैसा मांगा था। जिसकी शिकायत उन्होंने अखबार के संपादक और मालिक से की थी। तब माना गया था कि यह संवाददाता ने अपनी कमाई के लिए रास्ता ढूंढा़ था। तब निश्चित तौर पर अखबार चुनावों को अपनी साख बढ़ाने का माध्यम मानते थे। उस वक्त हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के कुछ स्थानीय मुफस्सिल संवाददाता(स्ट्रिंगर) अपनी कमाई के लिए उम्मीदवारों से जरूर थैली लेते थे। बाद में अखबारों को उनके ही नाम पर कमाई होने की इस कुप्रवृत्ति पर निगाह पड़ी और उन्होंने इसे खुद की कमाई का साधन बनाकर इसे स्याह से सफेद धंधा बना दिया। बदले में स्ट्रिंगर और रिपोर्टर के लिए कमीशन भी तय कर दिया। जिसका चलन पेड न्यूज के तौर पर पिछले आम चुनाव में खुलेआम तौर पर दिखा।
अखबारों का तीन मुख्य काम माना जाता है, सूचना देना, शिक्षा देना और मनोरंजन करना। लोकतांत्रिक समाज में अखबारों से उम्मीद की जाती है कि वे अपने पाठकों का इन्हीं कसौटियों पर खयाल रखेंगे और लोकतांत्रिक समाज के नैतिक पहरूआ की भूमिका निभाएंगे। लेकिन बड़े और नैतिक कहे जाने वालों ने भी पेड न्यूज की गंगा में डूब कर ही पार उतरने में ही खुद की भलाई देखी। ऐसे में अखबारों की इस नैतिक पहरूआ की भूमिका पर ही सवाल उठ खड़ा हुआ है। बावेला इसी लिए मचा है। सवाल यह भी है कि अनैतिकता की इस सीमा में कैद होने के बाद अखबार लोकतांत्रिक समाज की निगरानी कैसे कर पाएंगे और उनकी कथित निगरानी पर भरोसा कौन करेगा।