उमेश चतुर्वेदी
मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा की हाल ही में एक किताब आई है ‘दी मेकर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया ’। गुहा ने इस किताब में मौजूदा भारत के निर्माण में योगदान देने वाले राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की जिंदगी और उनके कामों की विश्लेषणात्मक जानकारी दी है। इस किताब में अगर डॉक्टर राममनोहर लोहिया का जिक्र नहीं होता तो आश्चर्य की बात होती। लोहिया का जिक्र हुआ है। इसमें अंग्रेजी को लेकर उनके एक कथन को रामचंद्र गुहा उद्धृत करने से रोक नहीं पाए हैं। अंग्रेजी को लेकर लोहिया का वह कथन है - "नदी अपनी धारा बदलेगी, अंग्रेजी निरर्थक हो जाएगी। रूसी भाषा लम्बे डग भरेगी। कुछ समय बाद रूसी भाषा इसी तरह इठलाएगी। रूसी व अंग्रेजी भाषा के बीच आगे बढ़ने का द्वंद्व होगा। अंग्रेजी अन्तरराष्ट्रीय स्तर की भाषा है, यह मिथक ही रह जाएगा। ”
भारतीय राजनीति में एक पीढ़ी ऐसी रही है, जिसके लिए हिंदी ना सिर्फ देसी सम्मान, बल्कि संघर्ष की भाषा रही है। लेकिन समय के साथ वह पीढ़ी लगातार खत्म होती जा रही है। ऐसे में हिंदी के लिए खालिस देसी ढंग से संघर्ष का माद्दा खत्म होता नजर आ रहा है। हालांकि एक वर्ग ऐसा जरूर है, जिसके लिए मीडिया में हिंदी का बढ़ता प्रभाव, और हिंदी मीडिया का दैत्याकार विकास उनके हीनताबोध को एक हद तक परे रखने का जरिया बनता है। इन्हीं में हिंदी मीडिया और संस्कृति की दुनिया में विचरण करने और अपनी रोजी-रोटी कमाने वाला वर्ग भी शामिल है। उसे जब अंग्रेजियत भरा समाज अपने साथ बुलाता है, बैठाकर उसे सुनता है तो वह एक बारगी हिंदी को महत्व मिलते देखता है। फिर वह हिंदी के जयगान में कूद पड़ता है। खालिस अंग्रेजी ढंग से शुरू हुए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में इस साल हिंदी साहित्यकारों और समीक्षकों को अपनी तकरीर सुनाने का मौका मिला तो उसे महसूस हुआ कि अंग्रेजी के सामने हिंदी भाषा की स्वीकारोक्ति का दौर शुरू हो गया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की आर्थिक मदद के सहारे शुरू हुए इस लिटरेचर फेस्टिवल में हिंदी को भी मंच पर बैठाकर सुनने के सम्मान लायक समझा गया तो उसका स्वागत होना चाहिए। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी दौर में भारतीय प्रधानमंत्री को सरकारी बाबुओं की अंग्रेजी में खराब ड्रॉफ्टिंग से कोफ्त होने लगी है। उन्हें सड़कों के किनारे सार्वजनिक निर्माण विभाग, परिवहन निगम या नगर निगमों के लगाए साइन बोर्डों पर हिंदी की टूटती टांग तो नहीं दिखी। लेकिन बाबुओं की खराब अंग्रेजी ड्रॉफ्टिंग परेशान जरूर करने लगी है। इसलिए कैबिनेट सचिव के एम चंद्रशेखर के जरिए ड्रॉफ्टिंग सुधारने का फरमान जारी कराना उन्हें बेहद जरूरी काम लगता है। ऐसे में क्या यह मान लिया जाय़ कि राममनोहर लोहिया की भविष्यवाणी गलत साबित होने वाली है। भारतीय राजनीति से गायब होती हिंदी समर्थक संघर्षशील राजनीतिक पीढ़ी के अल्पसंख्यक होते लोग भले ही ऐसा नहीं मानते, लेकिन ऑक्सफोर्ड या दूसरे विदेशी संस्थानों से निकलकर देसी राजनीति करने का स्वांग करने वाली पीढ़ी को लोहिया के ये विचार बेमानी नजर आने लगे हैं। उन्हें लगने लगा है कि भारत के अंग्रेजी ज्ञान के ही चलते बराक ओबामा को भारत की चौखट पर नाक रगड़ना पड़ा या फिर डेविड कैमरून पाकिस्तान को चेतावनी देने लगे या फिर चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ को भारत आना पड़ा।
तर्कशास्त्री सत्य को दो रूपों में देखते हैं। इस लिहाज से देखा जाय तो एक सचाई तो यह है ही। लेकिन पूरी सचाई यही नहीं है। दिल्ली स्थित स्पेनिश सांस्कृतिक केंद्र के निदेशक ऑस्कर पुजोल जब यह कहते हैं कि हिंदी में क्षमता है, दम है और सुंदरता भी तो वह भी एक सत्य को ही उजागर कर रहे होते हैं। उनका कहना है कि यह मिथ है कि दुनिया में अंग्रेजी सबसे ज्यादा बोली और समझी जाने वाली भाषा है और कार्य-व्यापार में उसका इस्तेमाल होता है तो यह भी आधा सच ही होता है। हालांकि नव उदारवादी व्यवस्था से निकले भारतीय समाज इसी तर्क के सहारे ही अंग्रेजी की ताकत को बढ़ा रहा है और राम मनोहर लोहिया की भविष्यवाणी पर सवाल उठा रहा है। लेकिन पुजॉल का कहना है कि स्पेनिश अंग्रेजी से कहीं ज्यादा कार्यव्यापार की भाषा है।
हाल ही में जारी इंटरनेट वर्ल्ड स्टेट्स के आँकड़े भी दूसरे अर्थ में पुजोल की ही बात को आगे बढ़ाते हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक अगले पांच साल में इंटरनेट की दुनिया में चीनी भाषा अंग्रेजी भाषा को पछाड़ देगी। इस रिपोर्ट के अनुसार चीन में पिछले वर्ष 2010 में 3.6 करोड नए इंटरनेट उपभोक्ता बढ़े। इस तरह से चीन के इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या अब 44 करोड तक पहुँच गई है। जबकि इंटरनेट के जन्मदाता अमेरिका में ही उसके उपयोगकर्ताओं की संख्या 22 करोड ही है। वैसे अंग्रेजी का उपयोग करने वाले लोग ना केवल अमेरिका बल्कि यूरोप, एशिया,ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में भी हैं, लेकिन वैश्विक आँकडों पर गौर करें तो भी अंग्रेजी के उपयोगकर्ताओं की संख्या 53.7 करोड ही है. दूसरी तरफ चीनी भाषा के उपयोगकर्ताओ की संख्या 44 करोड है। इस रिपोर्ट के मुताबिक
दुनिया भर में इंटरनेट उपयोग करने वाले लोगों का 42 फीसदी अंग्रेजी भाषी है, और इतना ही प्रतिशत चीनी भाषी भी है। इस तरह से इंटरनेट पर चीनी भाषा के और विकसित होनी की पूरी सम्भावना है। भारतीय राजनेताओं को राममनोहर लोहिया की भविष्यवाणी भले ही पूरी होती नजर नहीं आ रही हो, लेकिन इंटरनेट की दुनिया के ये आंकड़े तो उसकी तसदीक ही कर रहे हैं।
तकनीक भाषा को भी बदलती है। यह सच है कि अपने यहां राजकाज और ताकत की भाषा अभी तक अंग्रेजी ही बनी हुई है। पश्चिमी सोच वाले कथित पैराटूपर लोकतांत्रिक राजनेताओं की खेप को अंग्रेजी में ही काम करना सुविधाजनक लगता है। लिहाजा हकीकत की धरती पर वे हिंदी की दिशा में कदम नहीं उठाना चाहते। लेकिन इंटरनेट वर्ल्ड की रिपोर्ट में चीन के लिए कहा गया है कि वहां के राजनेताओं ने अपनी भाषा में इंटरनेट के विकास के लिए जो कदम उठाए हैं, उसका ही असर होगा कि पांच साल में इंटरनेट की दुनिया की नंबर वन भाषा उनकी अपनी चीनी ही होगी। इन अर्थों में अपने प्रधानमंत्री का आदेश जहां भारत की अपनी लचर भाषा नीति को ही आईना दिखाता नजर आता है। लिटरेचर फेस्टिवलों में बुलावा मिलने की धुंध में इसे लोग देखना भी नहीं चाहते। बेहतर तो यह होता कि दोनों ही हालात से बचने की कोशिश होती।
मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा की हाल ही में एक किताब आई है ‘दी मेकर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया ’। गुहा ने इस किताब में मौजूदा भारत के निर्माण में योगदान देने वाले राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं की जिंदगी और उनके कामों की विश्लेषणात्मक जानकारी दी है। इस किताब में अगर डॉक्टर राममनोहर लोहिया का जिक्र नहीं होता तो आश्चर्य की बात होती। लोहिया का जिक्र हुआ है। इसमें अंग्रेजी को लेकर उनके एक कथन को रामचंद्र गुहा उद्धृत करने से रोक नहीं पाए हैं। अंग्रेजी को लेकर लोहिया का वह कथन है - "नदी अपनी धारा बदलेगी, अंग्रेजी निरर्थक हो जाएगी। रूसी भाषा लम्बे डग भरेगी। कुछ समय बाद रूसी भाषा इसी तरह इठलाएगी। रूसी व अंग्रेजी भाषा के बीच आगे बढ़ने का द्वंद्व होगा। अंग्रेजी अन्तरराष्ट्रीय स्तर की भाषा है, यह मिथक ही रह जाएगा। ”
भारतीय राजनीति में एक पीढ़ी ऐसी रही है, जिसके लिए हिंदी ना सिर्फ देसी सम्मान, बल्कि संघर्ष की भाषा रही है। लेकिन समय के साथ वह पीढ़ी लगातार खत्म होती जा रही है। ऐसे में हिंदी के लिए खालिस देसी ढंग से संघर्ष का माद्दा खत्म होता नजर आ रहा है। हालांकि एक वर्ग ऐसा जरूर है, जिसके लिए मीडिया में हिंदी का बढ़ता प्रभाव, और हिंदी मीडिया का दैत्याकार विकास उनके हीनताबोध को एक हद तक परे रखने का जरिया बनता है। इन्हीं में हिंदी मीडिया और संस्कृति की दुनिया में विचरण करने और अपनी रोजी-रोटी कमाने वाला वर्ग भी शामिल है। उसे जब अंग्रेजियत भरा समाज अपने साथ बुलाता है, बैठाकर उसे सुनता है तो वह एक बारगी हिंदी को महत्व मिलते देखता है। फिर वह हिंदी के जयगान में कूद पड़ता है। खालिस अंग्रेजी ढंग से शुरू हुए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में इस साल हिंदी साहित्यकारों और समीक्षकों को अपनी तकरीर सुनाने का मौका मिला तो उसे महसूस हुआ कि अंग्रेजी के सामने हिंदी भाषा की स्वीकारोक्ति का दौर शुरू हो गया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की आर्थिक मदद के सहारे शुरू हुए इस लिटरेचर फेस्टिवल में हिंदी को भी मंच पर बैठाकर सुनने के सम्मान लायक समझा गया तो उसका स्वागत होना चाहिए। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी दौर में भारतीय प्रधानमंत्री को सरकारी बाबुओं की अंग्रेजी में खराब ड्रॉफ्टिंग से कोफ्त होने लगी है। उन्हें सड़कों के किनारे सार्वजनिक निर्माण विभाग, परिवहन निगम या नगर निगमों के लगाए साइन बोर्डों पर हिंदी की टूटती टांग तो नहीं दिखी। लेकिन बाबुओं की खराब अंग्रेजी ड्रॉफ्टिंग परेशान जरूर करने लगी है। इसलिए कैबिनेट सचिव के एम चंद्रशेखर के जरिए ड्रॉफ्टिंग सुधारने का फरमान जारी कराना उन्हें बेहद जरूरी काम लगता है। ऐसे में क्या यह मान लिया जाय़ कि राममनोहर लोहिया की भविष्यवाणी गलत साबित होने वाली है। भारतीय राजनीति से गायब होती हिंदी समर्थक संघर्षशील राजनीतिक पीढ़ी के अल्पसंख्यक होते लोग भले ही ऐसा नहीं मानते, लेकिन ऑक्सफोर्ड या दूसरे विदेशी संस्थानों से निकलकर देसी राजनीति करने का स्वांग करने वाली पीढ़ी को लोहिया के ये विचार बेमानी नजर आने लगे हैं। उन्हें लगने लगा है कि भारत के अंग्रेजी ज्ञान के ही चलते बराक ओबामा को भारत की चौखट पर नाक रगड़ना पड़ा या फिर डेविड कैमरून पाकिस्तान को चेतावनी देने लगे या फिर चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ को भारत आना पड़ा।
तर्कशास्त्री सत्य को दो रूपों में देखते हैं। इस लिहाज से देखा जाय तो एक सचाई तो यह है ही। लेकिन पूरी सचाई यही नहीं है। दिल्ली स्थित स्पेनिश सांस्कृतिक केंद्र के निदेशक ऑस्कर पुजोल जब यह कहते हैं कि हिंदी में क्षमता है, दम है और सुंदरता भी तो वह भी एक सत्य को ही उजागर कर रहे होते हैं। उनका कहना है कि यह मिथ है कि दुनिया में अंग्रेजी सबसे ज्यादा बोली और समझी जाने वाली भाषा है और कार्य-व्यापार में उसका इस्तेमाल होता है तो यह भी आधा सच ही होता है। हालांकि नव उदारवादी व्यवस्था से निकले भारतीय समाज इसी तर्क के सहारे ही अंग्रेजी की ताकत को बढ़ा रहा है और राम मनोहर लोहिया की भविष्यवाणी पर सवाल उठा रहा है। लेकिन पुजॉल का कहना है कि स्पेनिश अंग्रेजी से कहीं ज्यादा कार्यव्यापार की भाषा है।
हाल ही में जारी इंटरनेट वर्ल्ड स्टेट्स के आँकड़े भी दूसरे अर्थ में पुजोल की ही बात को आगे बढ़ाते हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक अगले पांच साल में इंटरनेट की दुनिया में चीनी भाषा अंग्रेजी भाषा को पछाड़ देगी। इस रिपोर्ट के अनुसार चीन में पिछले वर्ष 2010 में 3.6 करोड नए इंटरनेट उपभोक्ता बढ़े। इस तरह से चीन के इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या अब 44 करोड तक पहुँच गई है। जबकि इंटरनेट के जन्मदाता अमेरिका में ही उसके उपयोगकर्ताओं की संख्या 22 करोड ही है। वैसे अंग्रेजी का उपयोग करने वाले लोग ना केवल अमेरिका बल्कि यूरोप, एशिया,ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में भी हैं, लेकिन वैश्विक आँकडों पर गौर करें तो भी अंग्रेजी के उपयोगकर्ताओं की संख्या 53.7 करोड ही है. दूसरी तरफ चीनी भाषा के उपयोगकर्ताओ की संख्या 44 करोड है। इस रिपोर्ट के मुताबिक
दुनिया भर में इंटरनेट उपयोग करने वाले लोगों का 42 फीसदी अंग्रेजी भाषी है, और इतना ही प्रतिशत चीनी भाषी भी है। इस तरह से इंटरनेट पर चीनी भाषा के और विकसित होनी की पूरी सम्भावना है। भारतीय राजनेताओं को राममनोहर लोहिया की भविष्यवाणी भले ही पूरी होती नजर नहीं आ रही हो, लेकिन इंटरनेट की दुनिया के ये आंकड़े तो उसकी तसदीक ही कर रहे हैं।
तकनीक भाषा को भी बदलती है। यह सच है कि अपने यहां राजकाज और ताकत की भाषा अभी तक अंग्रेजी ही बनी हुई है। पश्चिमी सोच वाले कथित पैराटूपर लोकतांत्रिक राजनेताओं की खेप को अंग्रेजी में ही काम करना सुविधाजनक लगता है। लिहाजा हकीकत की धरती पर वे हिंदी की दिशा में कदम नहीं उठाना चाहते। लेकिन इंटरनेट वर्ल्ड की रिपोर्ट में चीन के लिए कहा गया है कि वहां के राजनेताओं ने अपनी भाषा में इंटरनेट के विकास के लिए जो कदम उठाए हैं, उसका ही असर होगा कि पांच साल में इंटरनेट की दुनिया की नंबर वन भाषा उनकी अपनी चीनी ही होगी। इन अर्थों में अपने प्रधानमंत्री का आदेश जहां भारत की अपनी लचर भाषा नीति को ही आईना दिखाता नजर आता है। लिटरेचर फेस्टिवलों में बुलावा मिलने की धुंध में इसे लोग देखना भी नहीं चाहते। बेहतर तो यह होता कि दोनों ही हालात से बचने की कोशिश होती।
1 टिप्पणी:
बेहतरीन लेख.. सर
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