शनिवार, 29 जनवरी 2011

साधनों की पवित्रता पर भी उठे सवाल

उमेश चतुर्वेदी
गांधी जी कहा करते थे कि सर्वोत्तम साध्य के लिए साधन भी पवित्र होना चाहिए। उदारीकरण का दायरा आज इतना बढ़ गया है कि हर नया और बेहतर साध्य हासिल करने की इच्छा रखने वाले लोगों के सामने संकट खड़ा हो गया है। उदारीकरण का चपेटा इतना बड़ा और गहरा है कि पवित्र साधनों की जमात लगातार कम हुई है। लेकिन मानवता आधारित दुनिया रचने की सफल-असफल कोशिशों में जुटी छिटफुट ताकतों और आत्माओं के लिए पवित्रता की गांधीवादी धारणा लगातार परेशान कर रही है। 27 जनवरी को खत्म हुए बहुप्रचारित जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की शुरूआत में भी पवित्रता की इस अवधारणा ने सवाल जरूर खड़े किए। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि सवाल उठाने वाले क्रांतिजीवियों की ही बातों को उन्हीं के बीच के लोगों ने उपहासात्मक स्वर में नकार दिया। सबसे दिलचस्प बात यह है कि जिन्होंने साधनों की अपवित्रता के जरिए इस लिटरेचर फेस्टिवल के बहिस्कार का मजाक उड़ाया, दरअसल वे लोग भी क्रांतिजीवी के तौर पर ही जाने जाते हैं। लेकिन बहिस्कार और विरोध की अपील करने वाले लोगों और उपहास उड़ाने वाले लोगों में अंतर सिर्फ इतना ही है कि उपहास उड़ाने वाले लोगों को इस बहुप्रचारित और बहुप्रतिष्ठित समारोह के विमर्श सत्रों में बोलने के लिए बुलाया गया था।
जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को सदा की तरह इस बार भी हिंदी मीडिया ने भी जमकर कवरेज दी। जहां नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार ओरहान पामुक आएंगे, अंग्रेजी की स्टार लेखिका किरण देसाई होंगी, अपने स्वभाव के मुताबिक अंग्रेजी मीडिया इसकी कवरेज करेगा ही। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि इस बार हिंदी मीडिया ने भी इस बार इस फेस्टिवल में चले विमर्श सत्रों और पाठ सत्रों की खबरें प्रकाशित करने में कंजूसी नहीं दिखाई। वैसे भी हमारी हिंदी मीडिया को अपनी भाषा के लेखकों की तुलना में अंग्रेजी के रचनाकार ज्यादा बड़े स्टार नजर आते हैं, लिहाजा उनकी कवरेज उन्हें गौरवबोध से भर देता है। इस गौरवबोध में विरोध के सुर और उनके मुद्दे कहीं खो गए। विरोध करने वालों को इस फेस्टिवल के तीन प्रायोजकों के नामों पर खास आपत्ति थी। इस फेस्टिवल के एक आयोजक डीएससी लिमिटेड पर दिल्ली के कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान बाजार दर से 23 फीसद ज्यादा दरों पर ठेके मिले। इसकी तस्दीक देश का सतर्कता आयोग कर चुका है। इसके दूसरे प्रायोजक दुनिया की जानी-मानी खनन कंपनी रियो-टिंटो से भी सहायता लेने पर आपत्ति रही। विरोधियों का मानना है कि रियो-टिंटों दुनियाभर में अवैध तरीकों से ना सिर्फ खनन के ठेके हथियाती है, बल्कि वह नस्ली और फासिस्ट ताकतों की सहायता भी करती है। इसके साथ ही उस पर अमानवीय तरीके से श्रम कानूनों का उल्लंघन करने और पर्यावरण अधिकारों से खिलवाड़ का भी आरोप है। विरोधियों को इस आयोजन के तीसरे प्रायोजक शेल ऑयल कंपनी के प्रायोजन पर भी एतराज रहा। दुनिया की इस सबसे बड़ी ऊर्जा कंपनी पर नाइजीरिया के लेखक और पर्यावरण कार्यकर्ता केन सारो वीवा की हत्या कराने का आरोप है। इन आरोपों के मद्देनजर इस फेस्टिवल का विरोध करने की कोशिश तो हुई, लेकिन एक हद से आगे नहीं बढ़ पाई। नई मीडिया यानी इंटरनेट पत्रकारिता की इन दिनों कम से कम हिंदी में ऐसे विषयों पर गरमा-गरम बहसों के लिए पहचान बन गई है। हिंदी की नई मीडिया को यह पहचान दिलाने में क्रांतिजीवी वैचारिक धारा की सबसे बड़ी भूमिका रही है। इसके बावजूद जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को लेकर कहीं कोई बहस और चर्चा नहीं देखने को नहीं मिली।
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक बहरहाल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को जनता ने खूब सराहा है। इसमें लेखकों से ज्यादा प्रदर्शनकारी कलाओं मसलन फिल्म और संगीत से जुड़ी हस्तियों की उपस्थिति का ज्यादा योगदान रहा है। प्रदर्शनकारी कलाओं और टेलीविजन के स्टारों के जरिए ही अगर साहित्य को लेकर एक माहौल बनता है, जनता उसे स्वीकार करती है तो उसकी प्रशंसा की ही जानी चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि इस महोत्सव को लेकर उठे सवालों पर चर्चा भी न की जाए। लोकतांत्रिक समाज में महान साहित्यिक परंपराएं जारी रखने के लिए उदात्त वैचारिक बहसें भी जरूरी होती हैं। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का ‘जयगान’ करने वालों को भी इसे स्वीकार करने से नहीं हिचकना चाहिए। क्योंकि उनके अस्वीकार बोध से विरोधियों के उठाए सवाल अप्रासंगिक नहीं हो जाते। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की कामयाबी के जरिए डीएससी लिमिटेड, रियो टिंटो या शेल ऑयल कंपनी जैसी कंपनिया अपने अनाचारों को जनमानस की स्मृतियों से लोप करके नई छवि गढ़ने की कोशिश करती हैं। इन तथ्यों से भी इनकार नहीं किया जा सकता।

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