उमेश चतु्र्वेदी
अभी हाल ही में एक साहित्यिक आयोजन में जाने का मौका मिला। जैसा कि आज आयोजनों की नियति बन गई है- सेटिंग-गेटिंग और ईटिंग, इस आयोजन में भी ये सारी चीजें देखने को मिलीं। अपनी दिलचस्पी इस सेटिंग और गेटिंग में नहीं थी। लेकिन उदारीकरण के दौर में हिंदी और उसके नियंताओं की नीयत और उनके ज्ञान को नजदीक से देखने का मौका जरूर मिला। जैसा कि हिंदी आयोजनों की एक और प्रवृत्ति है, राजनीति और राजनेताओं को गाली देना और अपने को उनकी तुलना में कहीं ज्यादा ऊंचा और बेहतर साबित करना, इस आयोजन में भी हुआ। लेकिन हकीकत में ऐसा कभी होता नहीं है। जैसे ही कार्यक्रम में राजनेता आता है, उसके पीछे गाली देने वाले साहित्यकार सबसे पहले लपक पड़ते हैं। अपने आयोजन को सफल बताने के लिए वे उस नेता का नाम ले लेकर उसके भाषण को उद्धृत करने लगते हैं। राजनेता की हैसियत जैसी हुई, अपने आयोजन को उतना ही कामयाब बताने में वह साहित्यकार जुट जाता है। तब वह अपनी महानता भूल जाता है। साहित्य की महानता भी उसकी नजर में पीछे छूट जाती है। राजनीति को गाली देना और उससे दूरी बनाने का दावा और फि र उसके पीछे चलने का पाखंड हिंदी की ही नियति रही है। यही वजह है कि यहां राजनेता भी साहित्यकार को अपने पैर की जूती समझने लगता है। उसे पता है कि पुरस्कारों, अनुदानों और नियुक्ति के लिए हिंदी साहित्यकार को उसके पास आना ही है। लिहाजा वह अपनी हैसियत और अपने सम्मान का लुत्फ उठाता रहता है। इसका असर यह होता है कि वह साहित्य को लेकर एक खास तरह का वैसा आदरभाव नहीं दिखा पाता, जैसा बंगला, मलयालम और मराठी या कन्नड़ में दिखता है। मराठी के वरिष्ठ रचनाकर कुसुमाग्रज को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जा रहा था, तब मंच पर उस जमाने के उप प्रधानमंत्री यशवंत राव बलवंत राव चव्हाण बैठ गए थे। कुसुमाग्रज ने उनके साथ मंच पर बैठने से इनकार कर दिया था। हिंदी में ऐसा साहस दिखाने की हैसियत कितने लेखकों में हैं। ज्ञानपीठ संस्थान से एक प्रमुख पुरस्कार प्राप्त कर चुके हिंदी के एक वरिष्ठ लेखक पुरस्कार समारोह के अगले दिन अपने मित्रों को समारोह में शामिल न होने का उलाहना इन शब्दों में दे रहे थे - भाई आप क्यों आने लगे समारोह में, लेकिन मैं आपको बता दूं कि यह पुरस्कार खुद नेता प्रतिपक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने दिया। दिलचस्प बात यह है कि स्वर्गीय लेखक महोदय घोषित तौर पर फासीवाद के विरोधी थे। जैसी की धारणा है, वाजपेयी की बीजेपी भी फासीवादी पार्टी ही है। इन पंक्तियों के लेखक के सामने यह घटना घटी थी, क्योंकि तब उन लेखक महोदया का इंटरव्यू लेने के लिए वह उस वक्त लेखक महोदय के घर पर ही मौजूद था।
ऐसी हालत कम के कम दूसरी भारतीय भाषाओं में नहीं है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहते हुए रामकृष्ण हेगड़े दिल्ली की एलटीजी हॉल में पहुंच गए थे। तब साहित्य अकादमी का संवत्सर व्याख्यान चल रहा था। आयोजकों ने मुख्यमंत्री को अपने श्रोता समाज में देखा तो वे उनकी मिजाजपुरसी में जुट गए। उन्होंने आगे बैठने या मंच पर जाने से साफ मना कर दिया। उन्होंने साफ कहा कि यह मंच साहित्यकारों का है, उनका नहीं। बंगला में अपने लेखकों को पढऩे और उनका व्याख्यान दिलवाने के लिए लोकसभा का स्पीकर बनते ही सोमनाथ चटर्जी अगर जुट जाते हैं तो उसकी वजह यह है कि यहां का लेखक राजनीति की सीमाएं ही नहीं जानता, बल्कि उसकी ताकत भी जानता है। वहां के संस्कृतिकर्मियों में कम से कम पाखंड तो नहीं है।
हिंदी साहित्यकार की नियति है कि वह राजनेता से आगे की सोचने का दावा करता है। लेकिन हकीकत तो यह है कि वह राजनीति की दुनिया से कम से कम पचास साल पीछे है। वह राजनीति की तरह आगे की नहीं सोच रहा, उसे अभी-भी ज्ञानकांड से परहेज है। विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों की हालत तो और भी ख्रराब है। वे सूर-तुलसी-कबीर से आगे ही नहीं बढ़ पाए हैं। आज की राजनीति, मौजूदा समय की परेशानियां और उसके भावी निहितार्थ उसकी चिंताएं नहीं हैं। इसका असर यह हो रहा है कि अधिसंख्य हिंदी साहित्यकार और प्राध्यापक रूमानी दुनिया में खोए हुए हैं। उनकी रचनात्मकता में धार की लगातार कमी हो रही है। राजनीति से दूरी दिखाने का पाखंड तो है, लेकिन उसके साथ ही वे राजनीति के फायदे भी उठाना चाहते हैं। इसका असर यह हो रहा है कि राजनीति की सिर्फ गंदगी ही हमारे दौर में नजर आ रही है। साहित्यिक समाज पर उसका ही ज्यादा असर है। ऐसे में क्या यह बेहतर नहीं होगा कि हिंदी के साहित्यकार इस पाखंड से दूर हो जाएं कि वे साहित्यकार के नाते राजनेताओं से अलग हैं। वे अपनी श्रेष्ठताग्रंथि से दूर हो जाएं। राजनीति की सीमाएं और ताकत स्वीकार कर लें। निश्चित तौर पर इससे हिंदी साहित्य का भला ही होगा।
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