उमेश चतुर्वेदी
कई प्रखर नामों के बिना भारतीय समाजवाद के विकास
और भारतीय राजनीति में गरीबों-मजलूमों की मजबूत आवाज की कल्पना नहीं की जा सकती।
आजादी का पूरा आंदोलन गरीबी और भुखमरी को दूर करके भारत को स्वराज के जरिए सुराज
तक पहुंचाने के मकसद से ओतप्रोत रहा। लेकिन भारतीय संसद में दिल से गरीबों के
समर्थन में आवाज कम ही उठी। भारतीय संसद में गरीबों की आवाज पहली बार संजीदा ढंग
से 1963 में उठी। यही वह साल है, जब डॉक्टर राम मनोहर लोहिया पहली बार फर्रूखाबाद
के उपचुनाव में जीतकर लोकसभा पहुंचे थे। लोकसभा में लोहिया के पहुंचते ही पहली बार
कांग्रेस सरकार को अहसास हुआ कि संसद में सचमुच कोई विपक्ष है।
लोहिया ने तीन आने
में देश के ज्यादातर लोगों के गुजारा करने का सवाल उठाकर देश को चौंका दिया। इसके
बाद से ही भारतीय संसद में प्रतिपक्ष की भूमिका बदलने लगती है। इसका असर तब तक
रोमानी ढंग से नेहरू के समाजवाद में भारत का भविष्य ढूंढ़ने वाले मीडिया का रूख
बदलना शुरू हुआ। लेकिन समाजवाद के सुधी प्रशंसकों से लेकर धुर समाजवादी एक्टिविस्टों
में से भी बहुत लोगों को यह पता नहीं है कि लोहिया को राजनीति का लोहा बनाने के
पीछे कलकत्ता(अब कोलकाता) के मारवाड़ी परिवार में जन्मे बालकृष्ण गुप्त का बड़ा
योगदान रहा है। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष और समाजवादी नेता रवि रे के शब्दों में कहें
तो लोहिया और बालकृष्ण गुप्त एक दूसरे के अनन्य रहे। रवि रे तो गुप्त को लोहिया की
छाया तक कहते रहे हैं.. व्यापारी और कारोबारी परिवार में भी पैदा होकर बालकृष्ण
गुप्त ने उस लोहिया को वैचारिक और आर्थिक संबल प्रदान किया, जो उद्योगवादी नीतियों
की बनिस्बत कृषि तंत्र के साथ गांव-गरीब के विकास पर जोर देते थे। बाद में
बालकृष्ण गुप्त संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की तरफ से राज्यसभा के सदस्य रहे। महान
राजनीति विज्ञानी प्रोफेसर हेराल्ड लास्की के शिष्य रहे बालकृष्ण गुप्त लिखते भी
रहे। स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर समाजवादी आंदोलन तक में उन्होंने महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई। नेपाल की क्रांति में भी बालकृष्ण गुप्त की भूमिका रही। इन सब
अनुभवों को लेकर गुप्त लगातार लिखते रहे। इन्हीं बालकृष्ण गुप्त के 60-70 साल के
लेखन से चुनिंदा लेखों को संकलित करके सारंग उपाध्याय और अनुराग चतुर्वेदी ने
हाशिए पर पड़ी दुनिया नाम से पुस्तक प्रकाशित की है।
बालकृष्ण गुप्त पर केंद्रित यह पुस्तक पांच
खंडों में विभक्त है। इनमें पहला खंड संस्मरणों पर केंद्रित है। दूसरा खंड हाशिए
पर पड़ी दुनिया के नाम से है। जिसमें दुनिया के दूसरे हिस्से में हाशिए पर पड़े
देशों और उनकी जनता के सवालों को गंभीरता से उठाया गया है। तीसरा खंड बुद्धिजीवी,
नेहरू, लोहिया और वामपंथ नाम से है। चौथा खंड बिड़ला,गोयनका और अंधी योजनाएं नाम
से है तो आखिरी और पांचवां खंड दस्तावेज नाम से है। जिनमें उनके बारे में और उनके
लिखे दोनों ही तरह के लेख संकलित हैं।
पहले खंड में उन पर अशोक सेक्सरिया और यमुना
सिंह ने बहुत ही मार्मिक संस्मरण लिखा है। अशोक सेक्सरिया तो उन्हें बड़ा भाई
मानते थे और उन्होंने उन्हे इसी रूप में याद किया है तो यमुना सिंह ने उन्हें
लोहिया के रेड गार्ड के तौर पर याद किया है। दूसरे खंड में खुद बालकृष्ण गुप्त के
लिखे लेख हैं। गुप्त शुरू से ही यायावर रहे। अपनी यायावरी में उन्होंने 24 साल की
उम्र में ही रूस की यात्रा कर ली और वहां से ट्राटस्की से मिलने वे पेरिस भी जा
पहुंचे। बहरहाल हाशिए पर पड़ी दुनिया खंड में दुनिया के उन हिस्सों में फैली गरीबी
और उन देशों के लूट-तंत्र पर हावी पश्चिमी हाथों का चित्रण है। इसी खंड में रूप पर
भी उनका यात्रा वृत्तांत है। सही मायने में कहा जाय तो इस खंड में साम्राज्यवाद के
बढ़ते कदम और गुलामी की बेड़ियों के चलते पिसती जनता और जनता के अधिकारों के क्षरण
की बानगी है।
लोहिया भारतीय बुद्धिजीवियों से इस लिए परेशान
रहा करते थे, क्योंकि उनकी नजर में भारतीय बुद्धिजीवियों की अपनी कोई सोच नहीं
रही। वे पश्चिम की दुनिया से आयातित विचारों के जरिए भारतीय समाज और राजनीति की
व्याख्य़ा करते रहते थे। कहना न होगा कि बालकृष्ण गुप्त बी लोहिया की इस सोच से
प्रभावित थे। नेहरूवाद के दौर में भारतीय बौद्धिक वर्ग ने जिस तरह वामपंथ के नाम
पर सत्ता की चाकरी की और नेहरूवाद को रोमानी यथार्थवाद से जोड़ दिया, उससे गुप्त
विक्षुब्ध नजर आते हैं और तीसरे खंड में उनके इस विक्षोभ के बार-बार दर्शन होते
हैं। उन्हें भी लोहिया की तरह भारतीय बुद्धिजीवियों में मौलिक सोच की कमी की चिंता
खाए जाती रही है।
आज के दौर में कारपोरेट लूट को लेकर सवाल उठते रहे
हैं। आज अंबानी और अडानी की कमाई पर सवाल उठ रहे है। साठ के दशक में ऐसे ही सवाल
बिड़ला, टाटा और डालमिया पर उठते रहे थे। कारोबारी परिवार में पैदा होने के बावजूद
समाजवादी हृदय का ही असर रहा कि बालकृष्ण गुप्त अपने लेखों और राज्यसभा की अपनी
बहसों में उनके लूट तंत्र और उसके पीछे तत्कालीन कांग्रेसी सत्ता और अफसरशाही के
नापाक गठबंधन की पोल खोलते रहे। पुस्तक के चौथे खंड में बिड़ला की कमाई, विदेशी
कंपनियों को कमाई के लिए सरकारी सहयोग पर गुप्त के विचार और लेख हैं। आज के दौर
में भी महंगी दवाएं, विदेशी कंपनियों को छूट जैसे सवाल कारपोरेट-राजनीति के गठजोड़
के सवाल उठ रहे हैं। दुर्भाग्यवश ये सवाल अब राजनीति की बजाय सामाजिक क्षेत्र से
उठ रहे हैं। बालकृष्ण गुप्त ने ये सवाल साठ के दशक में अपने लेखों और संसद में
उठाए थे। आखिरी खंड में गुप्त का एक इंटरव्यू, राज्यसभा में दिया एक भाषण, दो
अधलिखी कहानियां, उन पर दिनमान की श्रद्धांजलि संकलित है।
पुस्तक में संकलित बालकृष्ण गुप्त का अपना लेखन
पचास-साठ साल पुराना है तौ उन पर लिखे गए लेख भी करीब चालीस साल पुराने हैं। जाहिर
है कि इस लेखन के जरिए तत्कालीन राजनीति, राजनीति के साथ तब के कारोबारी घरानों के
गठजोड़ और उसके बीच पिसते गरीब के सवाल को संजीदगी के साथ समझा जा सकता है। इस
पुस्तक को उसी दौर में जाकर पढ़ना होगा। इससे उद्योग तंत्र के खिलाफ समाजवाद की
तुर्शी ही नहीं, भारतीय राजनीति के केंद्र लाए गए गरीब और उनके सवालों को भी समझने
का सूत्र हासिल हो सकता है।
पुस्तक – हाशिए पर पड़ी दुनिया
लेखक – बालकृष्ण गुप्त
संपादक- सारंग उपाध्याय/ अनुराग चतुर्वेदी
प्रकाशक-राजकमल
प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य – 600 रूपए
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें