उमेश चतुर्वेदी
(वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय द्वारा संपादित पत्रिका यथावत में प्रकाशित)
31 जुलाई 2014 की दिल्ली के ऐवान-ए-गालिब सभागार में हर साल
की तरह गहमागहमी तो थी, लेकिन बौद्धिक समाज के बीच वह गर्मजोशी नजर नहीं आ रही थी,
जो कथा और विचार पत्रिका हंस के सालाना जलसे की जान हुआ करती थी..इसके
पुनर्संस्थापक और संपादक रहे राजेंद्र यादव से सहमति रखने वाले हों या असहमति,
इक्का-दुक्का अवसरों को छोड़ दें तो इस कार्यक्रम में अपनी शिरकत जरूर करते
रहे..2013 के कार्यक्रम की अनुगूंज ऐसी रही थी कि जिस वाम और प्रगतिवादी खेमे की
बौद्धिकता को चरम पर पहुंचाने के लिए राजेंद्र यादव अपने हंस रूपी मंच का इस्तेमाल
करते रहे थे, उसी राजेंद्र यादव के खिलाफ उनकी ही धारा के समझे जाने वाले लोगों ने
मोर्चा खोल दिया था। राजेंद्र जी का अपराध सिर्फ इतना ही था कि उन्होंने उस साल का
कार्यक्रम -वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति- जिसमें उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के
वरिष्ठ नेता रहे और राष्ट्रवादी खेमे के प्रखर चिंतक गोविंदाचार्य को मंच पर ना
सिर्फ बुलाया था, बल्कि उनका सारगर्भित भाषण कराया था।
प्रगतिवादी खेमे को गोविंदाचार्य
को भेजे निमंत्रण ने वैचारिक आलोड़न के साथ राजेंद्र यादव पर हमला करने का मौका
मुहैया करा दिया था। नाराजगी तो इतनी बढ़ी कि मंच के प्रमुख वक्ता के तौर पर बुलाए
गए माओवादी विचारकर और बुद्धिजीवी बरबर राव दिल्ली पहुंचने के बावजूद राजेंद्र
यादव के कार्यक्रम में नहीं पहुंचे। लोकतंत्र और प्रगतिवाद के पैरोकार धारा के
बौद्धिक आखिर राष्ट्रवादी विचारक के साथ मंच साझा कैसे कर सकते थे? उनकी अपनी धारा के बीच उनके अपने
लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर सवाल जो खड़ा हो जाता। आईं तो अरूंधती राय भी नहीं
थीं..बहरहाल तमाम विरोधों के बावजूद राजेंद्र यादव अपने फैसले पर अडिग रहे..शायद
यही राजेंद्र यादव की ताकत रही। इसीलिए हंस के जरिए उन्होंने हिंदी क्षेत्र में जो
वैचारिक आलोड़न की शुरूआत की, उनकी मौत के वक्त तक उनके साथ रही। लेकिन यह
आलोड़नकेंद्रिकता ही इस बार के हंस के सालाना जलसे से नदारद रही।
ऐवान ए गालिब में
शुरू होने के बाद शायद ही हंस का कोई कार्यक्रम रहा हो, जिसमें दिल्ली और आसपास
सक्रिय हिंदी-उर्दू रचनाकारों, पत्रकारों की भारी भीड़ मौजूद ना रहती रही हो। कई
बार तो लोगों को सीटों पर जगह नहीं मिलती थी तो लोग सभागार की सीढ़ियों पर नजर आया
करते थे। सीढ़ियों पर बैठने में हिंदी की दुनिया के नामचीन हस्तियों तक को गुरेज
नहीं होता था। सहमति हो या असहमति, सबकी जिज्ञासा इसी में रहती कि आखिर मंच से इस
बार राजेंद्र यादव के संयोजन में किस विचार की खिचड़ी पकती है या क्या कुछ घटित
होने जा रहा है। राजेंद्र यादव के संयोजन वाले मंचीय घटनाक्रमों के एक स्थायी
सूत्रधार हिंदी के वरिष्ठतम आलोचक नामवर सिंह रहते थे। लेकिन इस बार नामवर मंच तो
क्या सभागार तक में नजर नहीं आए। हिंदी के सुप्रसिद्ध नामों में से भी गिनेचुने ही
नजर आए..मसलन वरिष्ठ कवि अजित कुमार, कथाकार कृष्णबिहारी आदि..ऐसा नहीं कि इस बार
मंचीय बहस का विषय कमजोर था। इस बार चर्चा का विषय था ''वैकल्पिक राजनीति की तलाश''। सबसे बड़ी बात यह रही कि मंच पर बोलने के लिए राष्ट्रवादी कांग्रेस
पार्टी के नेता डीपी त्रिपाठी, सीपीआई की महिला विंग से जुड़ी जगमति सांगवान,
जामिया मिलिया में इतिहास के असोसिएट प्रोफेसर मुकुल केशवन, राष्ट्रीय सलाहकार
परिषद की पूर्व सदस्य अरूणा रॉय थी..अहम यह भी रहा कि मंचस्थ लोगों के बीच अध्यक्ष
के रूप में चुनाव विश्लेषक, समाजवादी विचारक और अब आम आदमी पार्टी के नेता
योगेंद्र यादव थे और हां मंच पर राजेंद्र यादव की नुमाइंदगी उनकी बेटी रचना यादव
कर रही थीं। मंच का संचालन जनसत्ता के पत्रकार रहे और अब सीएसडीएस में बौद्धिक अभय
कुमार दुबे ने की। उन्होंने 15-15 मिनट की मियाद वक्ताओं के लिए तय कर दी। सभागार
में खाली कुर्सियों की वजह शायद उन्होंने संचालन की शुरूआत में ही कर दी..जब
उन्होंने मशहूर कवि रघुवीर सहाय की कविता की पंक्ति उद्धृत की... ''...हल्की सी दुर्गंध से भर गया सभाकक्ष।'' बहरहाल वक्ताओं ने इस बार निराश ही किया..जगमति सांगवान
प्रेमचंद की रचनाओं के हवाले से वैकल्पिक राजनीति की तलाश में प्रेमचंद की
नायक-नायिकाओं के सपने साकार करने पर जोर दिया तो मुकुल केशवन आजादी की लड़ाई के
दौरान कांग्रेस के विकसित “जुलॉजिकल नेशनलिज्म” पर जोर देते रहे और आधुनिक भारत के लिए
जरूरी बताते रहे। अरूणा रॉय तो यही समझाती रह गईं कि वे राष्ट्रीय सलाहकार परिषद
की सदस्य क्यों बनीं और सत्ता के सामने उन्होंने कितना सच बोला है। रही-सही
कसर योगेंद्र यादव ने अपने अध्यक्षीय भाषण में पूरी कर दी..जब उन्होंने अपनी नफीस
और शालीन हिंदी में बोला तो बहुत कुछ, लेकिन उसका संदेश क्या था -साफ नहीं हो
पाया। ऐसे में डीपी त्रिपाठी को तो मंच लूटना ही था और वे लूट ले गए। डीपी
त्रिपाठी ने समन्वय, संवाद और लोकतंत्र और उसमें विकल्प की तलाश पर जो भी बोला, वह
अर्धउन्मीलित सभागार को जगाने के लिए काफी था। मंच पर दो राजनेताओं की मौजूदगी और
उनकी अभिव्यक्ति ने राजनीति की सीमाएं और ताकत को भी सही तरीके से अभिव्यक्त किया।
डीपी त्रिपाठी के वक्तव्य ने साबित किया कि राजनीति में रहने के बाद भी किस तरह
वैचारिकता को झिंझोड़ा जा सकता है तो वहीं योगेंद्र के वक्तव्य से साफ हुआ कि
विचारक अगर किसी राजनीति के खूंटे से बंधता है तो कभी-कभी उसकी वैचारिकता की धार
भी कमजोर हो जाती है। जिस मंच से 2012 में एक विवादित वक्तव्य के चलते पूर्व पुलिस
अधिकारी और तब महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति रहे विभूति नारायण राय
ने चर्चित भाषण दिया हो और हॉल से लेकर बाहर हंगामा मच गया हो या फिर उत्तराखंड के
पत्रकार हेमचंद्र पांडे की नक्सली मुठभेड़ में पुलिस के हाथों मारे जाने की घटना
को लेकर वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता की घेराबंदी की गई हो ,फिर भी राजेंद्र यादव
साहित्य की दुनिया के केंद्र में बने रहे हो, उसी मंच पर इस बार वैसी जीवंतता नजर
नहीं आई..आम तौर पर राजेंद्र यादव बड़े घरानों से सहयोग लेने से बचते रहे..लेकिन
इस बार एक बदलाव नजर आया..इस आयोजन के प्रायोजक अम्बुजा
सीमेंट के मालिकान का धर्मार्थ संस्थान नेवतिया फाउंडेशन के साथ मशहूर होटल समूह रमाडा
प्लाज़ा भी था।
उमेश चतुर्वेदी, द्वारा जयप्रकाश, दूसरा तल, निकट
शिवमंदिर, एफ-23 ए, कटवारिया सराय, नई दिल्ली-110016,फोन-9899870697
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें