गुरुवार, 12 जुलाई 2012

फौलादी शरीर में एक नाजुक दिल रहता था


उमेश चतुर्वेदी 
2003के गर्मियों की बात है। तब मैं बीएजी फिल्म्स में काम करता था। कहने के लिए मेरा काम रोजाना नामक दूरदर्शन के समाचार प्रोग्राम के लिए पीआईबी स्तरीय रिपोर्टिंग करना था। लेकिन कायदे से ज्यादातर काम नए-नवेले आए स्टार न्यूज चैनल के लिए पीआईबी स्तर वाली रिपोर्टिंग करना होता था। तब स्टार के पास कोई पीआईबी रिपोर्टर नहीं होता था, उनके रिपोर्टर को पीआईबी मान्यता मिलने की कम से कम एक साल तक संभावना नहीं थी।
तब बीएजी को स्टार के प्रमुख ब्यूरो के अलावा दूसरी जगहों से रिपोर्टिंग का काम मिला हुआ था। उसी बहाने मैं स्टार का अघोषित संवाददाता था। इसी दौरान वाजपेयी सरकार ने रूस्तम-ए-हिंद दारा सिंह को सांस्कृतिक कोटे से राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया। स्टार न्यूज को दारा सिंह के इंटरव्यू की जरूरत थी। लिहाजा उसने बीएजी से फर्माइश रखी और तब के हमारे रिपोर्टिंग प्रमुख मनोज रस्तोगी ने अल्लसुबह मुझे जगा दिया। उनका निर्देश था कि मैं जाकर दारा सिंह का बाइट लाऊं। मुझे ही पता भी लगाना था कि उस दिन राज्यसभा सदस्य के तौर पर शपथ लेने आए दारा सिंह कहां ठहरे हैं। बहरहाल थोड़ी मेहनत और राज्यसभा सचिवालय की मदद से पता लग गया कि दारा सिंह दिल्ली के पंजाब भवन में ठहरे हुए हैं। मैं और कैमरा मैन नवीन बंसल(आजकल सीएनएन आईबीएन में हैं) के साथ दारा सिंह से वक्त लेकर बाइट लेने पहुंच गए। रूस्तम-ए-हिंद दारा सिंह ने सुबह नौ बजे का वक्त दिया। मैं और बंसल जी पंजाब भवन पहुंचकर उनके सुइट में उनका इंतजार करने लगे। दारा सिंह के साथ बिंदु भी आए थे। तब वे चंडीगढ़ में कोई स्टूडियो चला रहे थे। उन्होंने अपना विजिटिंग कार्ड भी दिया था। वह कार्ड मेरे पास अब भी कहीं होगा। उनका चेहरा भी मैं भूल गया था। वह तो भला हो बिग बॉस कार्यक्रम का, जिसमें बिंदु आए तो चेहरा याद आया। बहरहाल दारा सिंह थोड़े इंतजार के बाद आए। तब तक हमने कैमरा-लैपल माइक सबकुछ तैयार कर लिया था। एंगल और लाइटिंग का भी इंतजाम हो चुका था। दारा सिंह आए और हम ऐसे मौकों पर वीआईपी या अपने न्यूज स्रोत से सीधे औपचारिक बातचीत की उम्मीद करते हैं, लिहाजा वैसा ही कर रहे थे। लेकिन दारा सिंह इनसे अलग थे। वैसे भी मेरे मन में पहलवानों को लेकर दूसरी ही छवि थी। आमतौर पर मैं पहलवानों को अक्खड़ ही मानता था। लिहाजा मुझे लगता था कि दारा सिंह भी अक्खड़ ही होंगे। लेकिन दारा सिंह शरीर से जितने फौलादी थे, उनके अंदर  उतना ही नाजुक एक दिल निवास करता था। उन्होंने हमसे छूटते ही पूछा- आप इतनी सुबह आए हैं। नाश्ता भी किया है या नहीं। हमारा सबकुछ ठीकठाक का जवाब उन्हें पसंद नहीं आया। उनका तर्क था- मैं जितने भी पत्रकारों को जानता हूं, वे देर तक सोते हैं। उनका मानना था कि मैं भी देर तक सोता रहा होउंगा और वक्त मिलने पर उनसे मिलने बिना कुछ खाए-पिए भागा चला आया होउंगा। वैसे सच भी यही था। दारा सिंह ने बिना कोई औपचारिक जवाब-सवाल किए हमारे लिए लस्सी मंगवाई। पहले बाइट लेने का हमारा तर्क भी उन्हें मंजूर नहीं हुआ। उनका कहना था कि बाइट ली जाती रहेगी, लेकिन सेहत पहले है। उनकी जिद्दभरी मनुहार के आगे हमें लस्सी पीनी पड़ी। फिर उन्होंने बाइट दी। बाइट देते वक्त भी वे सहज बने रहे। उसके बाद उन्होंने बाकायदा घर-परिवार के बारे में पूछना शुरू किया। आमतौर पर फिल्मी दुनिया वाले लोग औपचारिक ही रहते हैं। लेकिन दारा सिंह फिल्मी दुनिया में जाने के बाद भी औपचारिक नहीं बन पाए थे। सिर्फ मेरे ही नहीं, बंसल जी के घर-परिवार की भी जानकारी ली। राज्यसभा का सदस्य बनने के बाद दारा सिंह सिंह संसद कम ही आए। अपनी भी किस्मत ऐसी रही कि बाद में रिपोर्टिंग से नाता टूट गया और संसद भवन का गलियारा अपने से दूर हो गया। बहरहाल दो बार संसद के गलियारों में दारा सिंह और मिले। हर बार वही लस्सी या चाय की इसरार करते थे। हां, घर परिवार के बारे में भी पूछना नहीं भूलते थे। ऐसा करते वक्त उनके चेहरे पर सहज मुस्कान बनी रहती थी। इसके बाद जिंदगी में उनसे फिर मिलने का मौका नहीं मिला। लेकिन उनकी यह सहज और उदार छवि आज तक मेरे मन के किसी कोने में संजीदगी से साथ टंगी पड़ी है।