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शनिवार, 5 दिसंबर 2009
भदेसपन की बुद्धू बक्से में प्रभावी दस्तक
उमेश चतुर्वेदी
बुद्धू बक्से के पर्दे पर बिहार और उत्तर भारतीय हिंदी भाषियों को अब तक दरबान, चपरासी और मजाक का पात्र बनते रहे उत्तर भारतीय हिंदीभाषी अब कहानियों के केंद्र में हैं और मजे की बात ये है कि इनकी उपस्थिति अब टीआरपी की दौड़ में सफलता की गारंटी भी मानी जा रही है। अगले जनम मोंहे बिटिया ही कीजौ, सबकी जोड़ी वही बनाता-भाग्यविधाता, तेरे मेरे सपने, ना आना इस देस लाडो और बैरी पिया जैसे धारावाहिक इस बात की तस्दीक कर रहे हैं कि बाजार के दबाव में भी कभी हंसोड़ और मजाक के पर्याय रहे उत्तर भारतीय छोटे शहरों की पृष्ठभूमि वाली कहानियां भी अब बुद्धू बक्से के ना सिर्फ केंद्र में हैं, बल्कि विज्ञापन के बाजार को नियंत्रित करने वाली टैम जैसी खालिस अंग्रेजी दां कंपनी की रेटिंग में भी अव्वल स्थान बनाने में कामयाब रही हैं।
पढ़े-लिखे होने का दावा करने वाले दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे महानगरों में भले ही सत्ता विमर्श के केंद्र में बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग आने लगे हैं, इसके बावजूद उन्हें लेकर इन महानगरों के साथ ही इनके आसपास के इलाकों के लोगों का आग्रह कम नहीं हुआ है। दिल्ली की सड़कों पर बिहारी शब्द आज भी सम्मान का पात्र नहीं है, मुंबई में भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना को धूल चटाने की हैसियत रखने वाला पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार का समाज उन कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की नजर में भी सम्मान हासिल नहीं कर पाया है। इसके बावजूद वह मायानगरी जैसे खालिस अंग्रेजी दां हाथों से संचालित होने वाले टेलीविजन धारावाहिकों की दुनिया में इस इलाके की देसज पृष्ठभूमि वाली कहानियां और देसज पात्र प्रमुख पात्र संभ्रांत वर्ग के ड्राइंग रूम तक प्रभावी असर बना पाए हैं तो हैरतभरे सवाल उठेंगे ही।
चाहे आजादी का आंदोलन रहा हो या फिर बाद के दौर में दिल्ली की गद्दी पर कब्जे की लड़ाई, उत्तर भारत की खास भूमिका रही है। अंग्रेजों से लोहा लेने में गंगा-घाघरा की उपजाऊ मिट्टी से निकले सपूतों ने अहम भूमिका निभाई। आजादी के बाद 1991 तक दिल्ली की गद्दी पर वही काबिज होता रहा, जिसने उत्तर भारत के सबसे बड़े इलाके उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकांश लोगों के दिलों पर राज किया। पीबी नरसिंह राव पहले प्रधान मंत्री रहे, जिनकी पार्टी को इन दोनों राज्यों से पहले की तरह सम्मान और प्यार हासिल नहीं हो पाया। इसके बावजूद इस इलाके के लोगों को सामाजिक विमर्श में वह स्थान नहीं मिल पाया, जिसका वह हकदार था। लेकिन यह हालत अब बदल रही है। अंग्रेजी वर्चस्व वाली टेलीविजन की दुनिया में विमर्श और कहानी का केंद्र बन रहे इस समाज की भी स्वीकार्यता बढ़ने लगी है। यह स्वीकार्यता ही है कि चाहे अगले जनम मोहें बिटिया ही कीजौ हो या फिर सबकी जोड़ी वही बनाता-भाग्य विधाता, ठेठ उत्तर भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली कहानी और उसके देसज पात्र अब केंद्रीय भूमिका में हैं। अब उनकी कहानी भी संभ्रांत समझे जाने वाले परिवारों के लोगों की आंखों से भी आंसू लाने के लिए मजबूर कर रहे हैं।
पहले अंग्रेजों के खिलाफ जोरदार लड़ाई लड़ने वाले इस इलाके ने विकास की दौड़ में पिछड़कर काफी कीमत चुकाई। आजादी के बाद दिल्ली की गद्दी के दावेदारों ने इस इलाके के वोटों के लिए इस इलाके के लोगों की ताबेदारी तो की, लेकिन ये भी सच है कि उन्हें विकास की जैसी चिकनी और साफ-सफ्फाक सड़क मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिली। इसके लिए इलाके के राजनेता भी ज्यादा जिम्मेदार रहे। खेती के साथ प्रधानमंत्री और असरदार मंत्रियों की भरपूज उपज यहां की धरती राजनीति और समाज को देती रही, लेकिन जो हरियाली यहां के चेहरों पर आनी चाहिए थी, उससे यहां के चेहरे हमेशा महरूम रहे। संविधान के संकल्प के मुताबिक आजादी के पंद्रह साल बाद भी अंग्रेजी इस देश के राजकाज और भाग्यविधाता की भूमिका से अलग होती नजर नहीं आई तो डॉक्टर राममनोहर लोहिया की अगुआई में अंग्रेजी हटाओ आंदोलन में इसी इलाके ने जोरदार भूमिका निभाई। आज समाजवादी धारा की राजनीति में नीतीश कुमार, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव जैसे लोग असरदार बने हुए हैं, उसके पीछे भी कहीं ना कहीं लोहिया का ये आंदोलन भी रहा है। लेकिन दुर्भाग्य ये कि इस पीढ़ी के अधिकांश नेताओं ने सत्ता की सवारी करने के बाद अपने इस आंदोलन और आंदोलन की साथी रही अपनी जनता को भी भुलाने में देर नहीं लगाई। जब कर्णधार ही अपने लोगों का सम्मान नहीं करेंगे, दुनिया क्योंकर सम्मानित करती। दूसरी बात ये हुई कि अंग्रेजी विरोधी आंदोलन के बावजूद हिंदी का वर्चस्व राजकाज की दुनिया में नहीं बढ़ा तो अंग्रेजी को लेकर एक खास तरह की कट्टरता का भी विस्तार हुआ। इन कट्टरवादियों की नजर में अंग्रेजी ना जानने वाले लोग हंसोड़ और मजाक के साथ ही उपहास के ही पात्र बन गए। कहना ना होगा, फिल्मी दुनिया हो या फिर टेलीविजन का रूपहला संसार - वहां बिहार या उत्तर प्रदेश के लोग भदेस और देसज रूप में ही सामने आते रहे। बाद के दौर में भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच जब राजनीति विदूषक जैसी भूमिका में आ गई तो इस इलाके के लोग और भी ज्यादा मजाक और दया के पात्र बन गए। सही मायने में फिल्मी और टेलीविजन के पर्दे भी इसी दुनिया की ही कॉपी कर रहे थे।
यहीं पर याद आते हैं खुशवंत सिंह। भारतीय अंग्रेजी लेखन और पत्रकारिता में खुशवंत सिंह सम्मानित नाम है, लेकिन खांटी हिंदीभाषियों को उनकी कई टिप्पणियां चुभती रही हैं। हिंदी की दुनिया में भी सम्मान के साथ पढ़े जाने के बावजूद हिंदीवालों को लेकर उनके विचार आग्रही ही रहे हैं। एक बार उन्होंने हिंदी की संप्रेषणीयता पर यह कहते हुए सवाल उठाया था कि उसके पास रैट और माउस के लिए एक ही शब्द चूहा ही है। इसी तरह उनकी नजर में उत्तर भारतीयों ने चूंकि अंग्रेजी की पढ़ाई नहीं की – यही वजह है कि उन्हें ज्यादातर दरबान या चपरासी की नौकरियां ही करनी पड़ीं हैं। खुशवंत सिंह भी भारत के उसी अंग्रेजीदां तबके के ही प्रतिनिधि रहे हैं। जिनकी सोच हिंदीभाषियों और खासकर उत्तर भारतीयों को लेकर पूर्वाग्रही रही है।
हालांकि उत्तर भारत की तस्वीर का एक उजला पक्ष भी है। भदेसपन और देसज संस्कारों के साथ ही अंग्रेजी विरोध के चलते जो उत्तर भारत और बिहार कथित संभ्रांत भारतीयों के लिए आशंका की वजह रहे हैं, वहां पढ़ाई को लेकर भी खासतरह की भूख बढ़ी है। केंद्रीय सिविल सेवाओं के लिए यहां के छात्रों के उत्साह को देखिए कि ये परीक्षाएं आयोजित करने वाले संघ लोक सेवा आयोग की ही पिछले साल की एक रिपोर्ट बताती है कि 2015 तक देश के सभी तकरीबन छह सौ जिलों का डीएम या एसपी या फिर दोनों बिहारी ही होगा। इस बीच भदेसपन और जंगलराज का पर्याय रहे बिहार में भी बदलाव की बयार बह रही है। वहां भी सत्ता तंत्र को लेकर भरोसा बढ़ा है। हालांकि वह भरोसा भी अभी काफी नहीं है। लेकिन बदलाव की शुरूआत ने देश की सोच भी बदली है। लिहाजा अब बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग भी सामाजिक और राजनीतिक विमर्श के केंद्र में हैं। उनकी चिंताओं और परेशानियों की ओर भी ध्यान जा रहा है। यही वजह है कि अब किसी चैनल का ध्यान तेरे मेरे सपने के जरिए अब खालिस उत्तर भारतीय गांवों के सपने बेचने का बहाना मिल गया है या फिर अगले जनम मोहें बिटिया ही कीजौ की लाली के बहाने बिहार की लड़कियों और जमींदारी प्रथा की कुरीतियों को बेचने का बाजार बनने लगा है।
यहां हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को अपनी यूएसपी अपना देसज स्वरूप ही नजर आती रही है। उसी देसज से देश का संभ्रांत किस्म का इलाका परहेज करता रहा है। परहेज ही क्यों हंसी भी उड़ाता रहा है। फिल्म और टेलीविजन की दुनिया भी इसका अपवाद नहीं रही है। प्रकाश झा, शत्रुघ्न सिन्हा और आशुतोष राणा जैसे खांटी हिंदी और देसज पृष्ठभूमि वाले लोगों के फिल्मी दुनिया में आने के बावजूद भी मायानगरी के नजरिए में खास बदलाव नहीं आया। लेकिन अब इसे लेकर बदलाव नजर आ रहा है तो इसकी एक मात्र वजह सिर्फ सियासी परिवर्तन का चक्र ही नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हंसी का पात्र रहे इस देसज इलाके में भी बाजार ने नए तरह से पैठ बनाई है। निश्चित तौर पर इसमें सियासी बदलाव की बयार ने यहां की खुशहाली में अहम भूमिका निभाई है। इसके साथ ही पिछले दो दशक से यह इलाका जिस तरह केंद्रीय राजनीति में भूमिका नहीं निभा पा रहा था, उसमें भी बदलाव आ रहा है। अब यह इलाका एक बार फिर राजनीतिक और सामाजिक विमर्श की दुनिया में प्रभावी भूमिका निभाने की तैयारी में जुट गया है। इस इलाके के मानस में एक बदलाव ये भी आया है कि अब यह भूमिका खाली हाथ नहीं निभाई जाएगी, बल्कि इसकी कीमत भी वसूली जाएगी। जब समाज इस तरह उठ खड़ा होता है, उसे विमर्श के केंद्रों को भी उचित अहमियत देनी पड़ती है। कहना ना होगा- फिल्म और टेलीविजन की ये दुनिया भी वही कर रही है। इस समाज को सम्मानित कर रही है।
गुरुवार, 3 दिसंबर 2009
ह्वाइट हाउस में हिंदी का जयघोष
उमेश चतु्र्वेदी
हिंदुस्तानी महानगरीय उपेक्षाबोध के बीच लगातार ताकतवर बन रही हिंदी ने ह्वाइट हाउस तक में दस्तक दे दी है। इस दस्तक का जरिया हमारे अपने राजनेता या हिंदीभाषी हस्तीन नहीं बने हैं। दुनिया के सबसे बड़े सत्ता के केंद्र ह्वाइट हाउस में हिंदी का ये जयगान दुनिया के सबसे ताकतवर आदमी की जबान के जरिए हुआ है। ह्वाइट हाउस में भारतीय प्रधानमंत्री के सम्मान में दिए भोज में पहुंचे मनमोहन सिंह का ठेठ हिंदी में ही स्वागत किया। उन्होंने भले ही सिर्फ एक लाइन – आपका स्वागत है- बोलकर अमेरिकी धरती पर सिर्फ भारतीय प्रतिनिधिमंडल का दिल ही नहीं जीता है, बल्कि ये साफ संदेश दे दिया है कि हिंदी और उसे बोलने वाले करीब पचास करोड़ लोगों को लेकर उसका नजरिया कैसे बदल रहा है। अमेरिकी धरती पर हिंदुस्तानी लोगों की धमक को महसूस करने के बाद उनकी मातृभाषा को इस तरह सम्मानित करने का भले ही ये पहला मौका है, लेकिन इससे साफ है कि आने वाले दिनों में अमेरिकी राजनीति के लिए हिंदी और हिंदुस्तानी लोग कितनी अहम होने जा रही है।
बाजारवाद के बढ़ते दौर में भले ही हिंदी बाजार की एक बड़ी ताकत बन गई है। लेकिन यह भी सच है कि अब भी यह नीति नियंताओं और अभिजन समाज के नियमित विमर्श का जरिया नहीं बन पाई है। दूसरे देशों की कौन कहे, भारतीय अभिजन समाज और नीति नियंता अब तक अपनी सोच और विमर्श की भाषा के तौर पर हिंदी को सहजता से अपना नहीं पाए हैं। कहना ना होगा, उद्योग, समाज और राजनीति की दुनिया में नीतियों के प्रभावित करने वाला ये समाज ज्यादातर महानगरों में ही रहता है और उसकी दैनंदिन की भाषा वही अंग्रेजी है, जिसका अमेरिका और ब्रिटेन में सहज व्यवहार होता है। दरअसल हमारा आज जो अभिजन समाज है, उसके पैमाने अमेरिका और ब्रिटेन के सामाजिक चलन से ही प्रभावित होते हैं। यही वजह है कि रोजी और रोटी की भाषा के तौर पर हिंदी के बढ़ते कदम के बावजूद आज भी उसे लेकर महानगरों में एक उपेक्षाबोध बना हुआ है। कहना न होगा कि इस उपेक्षाबोध की शुरूआत उसी ब्रिटिश और अमेरिकी मानसिकता के ही जरिए हुई थी। ये बिडंबना ही है कि हिंदी को लेकर ये उपेक्षाबोध उसकी अपनी ही धरती पर बना हुआ है, लेकिन जहां से इस उपेक्षाबोध का बीज पनपा था, वहां की राजनीति इसे लेकर उदार होती नजर आ रही है।
ये सच है कि हिंदी को लेकर दुनिया की महाशक्ति का नजरिया बदल रहा है। इसके बावजूद उसने पिछले साल यानी 2008 में तीस सितंबर को अपनी रेडियो सेवा वॉयस ऑफ इंडिया की हिंदी सर्विस को बंद कर दिया। ये सच है कि वॉयस ऑफ अमेरिका की हिंदी सेवा भारत में बीबीसी की तरह लोकप्रिय नहीं रही है। इसके बावजूद उसे चाहने वालों की कमी नहीं रही है। यही वजह है कि तब हिंदी सर्विस की आवाज बंद होने की खबर ने हिंदी प्रेमियों के एक बड़े तबके में मायूसी भर दी थी। जॉर्ज बुश ने जाते-जाते हिंदुस्तानी लोगों को जोरदार झटका दिया था। लेकिन ओबामा का नजरिया बदला नजर आ रहा है। ऐसी खबर है कि ओबामा की सरकार एक बार फिर से हिंदी सेवा को शुरू करने जा रही है। ये सच है कि 54 साल पहले जब हिंदी सर्विस की शुरूआत हुई थी, तब शीतयुद्ध का जमाना था और इस सर्विस के जरिए अमेरिकी सरकार का उद्देश्य अपनी नीतियों को लेकर प्रोपेगंडा करना था। लेकिन 1990 में सोवियत संघ के बिखराव के बाद से शीतयुद्ध का दौर खत्म होता चला गया। इसी बीच भारत और अमेरिकी संबंधों ने नया इतिहास रच दिया। बुश के ही दौर में भारत और अमेरिका के बीच एटमी समझौता हुआ। इस समझौते के साथ ही हिंदी – अमेरिकी भाई-भाई की नई इबारत लिखी गई। लेकिन इसी बुश के लिए हिंदी सर्विस बेगानी होती चली गई। लेकिन अब अमेरिका का नजारा बदल रहा है। यही वजह है कि हिंदी सर्विस की शुरूआत की खबरें और ह्वाइट हाउस में हिंदी का जयगान को घोष तकरीबन साथ-साथ सुनाई पड़ा है।
वैसे हिंदी को लेकर महाशक्ति का नजारा यूं ही नहीं बदला है। साठ करोड़ के विशाल मध्य वर्ग के सहारे भारत दुनिया के लिए बड़ा बाजार बनता नजर आ रहा है। वैश्विक आर्थिक मंदी के इस दौर में भी टिके रहकर भारतीय अर्थव्यवस्था ने साबित कर दिया है कि अमेरिकी बाजारवाद के दौर में भी उसमें काफी दमखम है। यही वजह है कि दुनिया के सबसे ताकतवर सत्ता केंद्र की नजर में ना सिर्फ हिंदुस्तानी लोग, बल्कि उसकी भाषा सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरी है। दुनिया की सबसे बड़ी ताकत जानती है कि भारतीय भूमि पर अंग्रेजी भले ही विमर्श की आज भी मजबूत भाषा बनी हुई है। लेकिन ये सच है कि आम लोगों से सहज संवाद और उन तक अपनी बात पहुंचाने का जरिया हिंदी ही बन सकती है। करीब पचास करोड़ लोगों का दिल अंग्रेजी की बजाय हिंदी के जरिए ही जीता जा सकता है। उसे ये भी पता है कि बाजार आज हिंदी की इस ताकत को पहचान गया है और उसका मौका-बेमौका इस्तेमाल भी कर रहा है। इसी हफ्ते आई एक खबर ने विकसित सरजमीं पर हिंदी की बढ़ती पहुंच और पकड़ को ही जाहिर किया है। ग्लोबल लैंग्वेज मॉनिटर (जीएलएम) के मुताबिक ऑस्कर विजेता फिल्म 'स्लमडॉग मिलिनेयर' के एक गीत के बोल में शामिल जुमला 'जय हो' दुनिया के सर्वाधिक लोकप्रिय शब्दों की लिस्ट में 16वें नंबर पर आ गया है। जबकि हिंदी फिल्मों के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द 'बॉलिवुड' 17वें पायदान पर है। साफ है कि हिंदी को लेकर विकसित दुनिया के आम मानस का भी नजारा बदल रहा है। ऐसे में दुनिया का सबसे बड़ा सत्ता केंद्र मनमोहन सिंह का हिंदी में स्वागत करके दरअसल विकसित दुनिया में हिंदी को लेकर आए बदलाव को ही रेखांकित कर रहा है।
ह्वाइट हाउस तक हिंदी ने दस्तक दे दी है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या विकास और ताकत के साथ ही सभ्यता और सलीके के लिए अमेरिका को अपना पैमाना बना चुके भारतीय महानगरीय मानस को हिंदी का ये जयघोष झकझोर पाएगा ।
शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2009
अंधेरे खोह में भटकती पत्रकारिता शिक्षा
उमेश चतुर्वेदी
तकनीकी शिक्षण का अपना एक अनुशासन होता है, उसकी अपनी जरूरतें होती हैं। यही कारण है कि इंजीनियरिंग और मेडिकल की ना सिर्फ शिक्षा हासिल करना, बल्कि उनकी शिक्षा देना बेहद चुनौतीभरा काम माना जाता रहा है। अब प्रबंधन की शिक्षा के साथ भी वैसा ही हो रहा है। क्योंकि प्रबंधन भी एक तरह से तकनीक ही है, सिर्फ अकादमिक शिक्षण या पढ़ाई भर नहीं है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि पत्रकारिता की पढ़ाई और उसका शिक्षण तकनीकी शिक्षण-प्रशिक्षण के दायरे में आता है या नहीं। जाहिर है ज्यादातर लोग इसका जवाब हां में ही देंगे। पत्रकारिता की पढ़ाई करने आ रहे छात्र और उनके अभिभावक कम से कम इसे तकनीकी शिक्षण और प्रशिक्षण के दायरे में मान रहे हैं। शायद यही वजह है कि मीडिया विस्फोट के इस दौर में हजारों-लाखों रूपए की मोटी फीस देकर छात्रों की भारी भीड़ पत्रकारिता के शिक्षण संस्थानों का रूख कर रही है। लेकिन डीम्ड विश्वविद्यालयों के साथ ही स्ववित्तपोषित विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों में जिस तरह पत्रकारिता की पढ़ाई हो रही है, उससे साफ है कि अपनी तरह से खास इस अनुशासन की पढ़ाई को लेकर छात्रों और उनके अभिभावकों में ठगे जाने का भाव बढ़ा है। इसका असर भावी पत्रकारों की गुणवत्ता पर भी पड़ रहा है। वैचारिक बहसों में जिस तरह पत्रकारिता इन दिनों निशाने पर है, उसके पीछे पत्रकारिता शिक्षण के मौजूदा ढर्रे की कितनी भूमिका है, इसे लेकर सवाल नहीं उठ रहे हैं। लेकिन अब वक्त आ गया है कि पत्रकारिता शिक्षण को प्रोफेशनल जरूरतों के निकष की बजाय तकनीकी अनुशासन के साथ ही वैचारिक धरातल पर भी परखा जाय।
उदारीकरण के बाद आए मीडिया विस्फोट के इस दौर में जिस तरह तकनीक पर पत्रकारिता अवलंबित होती गई है, इससे साफ है कि बाजार में तकनीकी कसौटी पर खरे उतरने वाले भावी पत्रकारों की मांग बढ़ गई है। सिर्फ इसी एक आधार के चलते खबरनवीसी के शिक्षण को इंजीनियरिंग और मेडिकल की तरह तकनीकी अनुशासन का शिक्षण और प्रशिक्षण माना जा सकता है। चूंकि पत्रकारिता इंजीनियरिंग और मेडिकल की तरह कोरा तकनीक ही नहीं है, बल्कि यहां वैचारिकता ना सिर्फ पूंजी है, बल्कि एक बड़ा औजार भी है। हिंदी पत्रकारिता के शलाका पुरूष राजेंद्र माथुर भले ही कहते रहें कि पत्रकार इतिहास निर्माता नहीं, बल्कि उसके ऐसे दर्शक होते हैं, जो अपनी पैनी निगाह के जरिए आम लोगों को इन घटनाओं से परिचित कराते हैं। लेकिन ये भी सच है कि अपनी वैचारिकता की पूंजी के जरिए हासिल नजरिए के चलते वे मौजूदा घटनाओं के प्रति लोगों को सचेत या फिर उत्साहित भी करते हैं। ताकि आने वाला कल जब विगत के कल का इतिहास के तौर पर मूल्यांकन करे तो उसे कोई पछतावा ना रहे। जाहिर है ये दृष्टि किसी विश्वविद्यालय या पत्रकारिता शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थान के क्लासरूम से हासिल नहीं किए जा सकते। अगर ऐसा होता तो भारतीय पत्रकारिता के शुरूआती पुरूष चाहे जेम्स ऑगस्टस हिक्की हों या अंबिका प्रसाद वाजपेयी या फिर बाबू राव विष्णुराव पराड़कर, उन्हें पत्रकारिता की दुनिया में याद भी नहीं किया जाता। क्योंकि उन्होंने किसी संस्थान से खबरनवीसी या वैचारिकता की ट्रेनिंग हासिल नहीं की थी। आज के दौर में भी प्रभाष जोशी, अच्युतानंद मिश्र, प्रणय रॉय या विनोद दुआ जैसे कई चमकते नाम हैं, जिनकी पत्रकारिता का प्रशिक्षण किसी विश्वविद्यालय या संस्थान में मिला हो। बहरहाल आज के दौर में बिना खास शिक्षण या प्रशिक्षण के किसी पत्रकार की उम्मीद नहीं की जाती, जैसे बिना किसी इंजीनियरिंग की पढ़ाई के इंजीनियर या मेडिकल की पढ़ाई के डॉक्टर की उम्मीद की जाती है। अगर ऐसा होगा तो उस पर सवाल उठने लाजिमी हैं। हकीकत में आज का पत्रकारिता शिक्षण अपने उहापोह से मुक्त नहीं हो पाया है। उसकी कोशिश या खुला ध्येय है प्रणय रॉय और प्रभाष जोशी जैसा पारंपरिक और श्रेष्ठ वैचारिक पत्रकार बनाना है, जो आज की तकनीक पर भी खरा उतरे। लेकिन उसका सबसे बड़ा संकट ये है कि वह अब तक ये तय नहीं कर पाया है कि पत्रकारिता का प्रशिक्षण तकनीकी है या वैचारिक। इसके लिए जितना पत्रकारिता के संस्थान जिम्मेदार हैं, उतना ही दोषी सरकार भी है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज तक पत्रकारिता का एकनिष्ठ पाठ्यक्रम तैयार हो चुका होता। इंजीनियरिंग और दूसरे तकनीकी संस्थानों की मान्यता के लिए बाकायदा तकनीकी शिक्षा परिषद है, मेडिकल की पढ़ाई पर निगाह रखने के लिए मेडिकल कौंसिल है। लेकिन इतिहास पर निगाह रखने वाली पढ़ाई के लिए ऐसी कोई रेग्युलेटरी संस्था नहीं है। यही वजह है कि कुकुरमुत्तों की तरह उगे डीम्ड विश्वविद्यालयों और कथित तकनीकी संस्थानों के साथ पत्रकारिता पढ़ाने के लिए मैदान में कूद पड़े हैं। इस कड़ी में स्ववित्त पोषित योजना के तहत जाने-माने विश्वविद्यालय भी शामिल हो चुके हैं। इसका असर है कि अधिकांश संस्थानों के पास किताबों और लैब का जबर्दस्त टोटा है। लेकिन पढ़ाई चालू है। निजी संस्थान मोटी फीस के बदले ढेरों सब्जबाग दिखा रहे हैं। वहीं स्ववित्तपोषित विभागों के नाम पर विश्वविद्यालयों या पुराने कॉलेजों में पत्रकारिता विभाग कम फीस ले रहे हैं। लेकिन सुविधाओं के मामले में उनकी भी वही हालत है, जो चमकती बिल्डिंग वाले निजी संस्थानों की है।
अव्वल तो अधिकांश संस्थानों या विश्वविद्यालयों में कोई मानक पाठ्यक्रम ही नहीं है। रही बात उन्हें पढ़ाने वालों की तो योग्यता की कसौटी पर खरे उतरने वाले कम ही लोग भावी पत्रकारों को पढ़ाने में जुटे हैं। स्ववित्तपोषित संस्थानों के तौर पर जिन विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में पत्रकारिता की पढ़ाई हो रही है, वहां पत्रकारिता विभाग या तो हिंदी विभाग की दासी है या फिर अंग्रेजी विभाग का दोयम दर्जे का साथी। हिंदी या अंग्रेजी विभाग के ठस्स विद्वान अपने को पत्रकारिता का पुरोधा भी मान बैठे हैं। उन्हें बाजार और तकनीक से कुछ लेना-देना नहीं है। उनके लिए पत्रकारिता का शिक्षण शेक्सपीयर के नाटकों या प्रेमचंद की कहानियों की पढ़ाई जैसा ही है। उन्हें ये भी पता नहीं है कि पत्रकारिता शिक्षण की दुनिया में क्रॉफ्ट और अकादमिक नजरिए को लेकर कोई बहस भी चल रही है। भारतीय पत्रकारिता खास तौर पर तकनीक और कंटेंट के साथ पहुंच के स्तर पर किस पायदान पर जा पहुंची है, इसका साफ अंदाजा अधिकांश पत्रकारिता संस्थानों और वहां पढ़ा रहे लोगों को नहीं है। जाहिर है इसका खामियाजा वह पीढ़ी भुगत रही है, जो जेम्स हिक्की या अंबिका प्रसाद वाजपेयी ना सही, प्रभाष जोशी और प्रणय रॉय बनने के लिए पत्रकारिता की पढ़ाई के समंदर में कूद पड़ी है।
जहां ठीक-ठाक पत्रकारिता शिक्षण हो रहा है, वहां क्रॉफ्ट और अकादमिक जोर को लेकर रस्साकशी जारी है। जिन अध्यापकों का प्रोफेशनल पत्रकारिता से साबका नहीं पड़ा है, वे संचार के सिद्धांतों के पारायण और पाठ से छात्रों को जोड़ना अच्छा लगता है। लेकिन विजिटिंग फैकल्टी के नाम पर प्रोफेशनल जब क्लास रूम में आते हैं तो वे तकनीक पर ही जोर देते हैं। जाहिर है उनके शिक्षण का मुख्य फोकस तकनीकी जानकारी और तकनीक के आधार पर कंटेंट को कसना सिखाना होता है। अगर वे अखबार से हुए तो उनकी दुनिया जनसत्ता और टाइम्स ऑफ इंडिया के न्यूज रूम के इर्द-गिर्द ही घूमती है। अगर टेलीविजन की दुनिया से हुए तो जी न्यूज, एनडीटीवी या आजतक का न्यूजरूम ही उनका आदर्श होता है। इस असर से पत्रकारिता प्रशिक्षण पाने के बाद प्रोफेशनल संस्थानों में ट्रेनिंग के लिए जाने वाले छात्र बच नहीं पाते। उन्हें मुंह बिचकाकर उनकी सैद्धांतिक पढ़ाई का मजाक उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। क्रॉफ्ट और अकादमिक को लेकर अतिवादी जोर दरअसल एक तरह का अतिवाद ही है। हर तकनीक और क्रॉफ्ट का अपना एक सिद्धांत भी होता है। अकादमिक दुनिया को इस सैद्धांतिकता के आधार को खोजना और उसकी कसौटी पर क्रॉफ्ट को विश्लेषित करना होता है। इस तरह से पढ़े और गुने छात्रों में जो दृष्टि विकसित होती है, उसमें मौलिकता की गुंजाइश ज्यादा होती है। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा है। जिसका असर आज पत्रकारिता की प्रोफेशनल जिंदगी में खूब दिख रहा है। सवालों के घेरे में पत्रकारिता रोज आ रही है। नई पीढ़ी के पत्रकारों में मौलिक दृष्टि का अभाव साफ नजर आता है। अगर मौलिकता दिखती भी है तो उन्हें प्रयोग करने के लिए जरूरी समर्थन देने वाले साहसी सीनियर की भी कमी साफ नजर आती है।
साफ है तकनीक और अकादमिक के झंझट से मुक्त हुए बिना पत्रकारिता की अपनी वैचारिक जरूरत पर आधारित पत्रकारिता शिक्षण के इंतजाम नहीं किए जाएंगे, सवाल तो उठते ही रहेंगे। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय ने पत्रकारिता शिक्षण की इसी कमी को ध्यान में रखते हुए प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से पत्रकारिता पाठ्यक्रम में एकरूपता लाने और संस्थानों के साथ ही पढ़ाने वाले लोगों और संस्थानों के मानकीकरण की दिशा में कदम उठाया है। जरूरत इस बात की है कि प्रोफेशनल दुनिया की जरूरतों के मुताबिक पत्रकारिता शिक्षा ढले, लेकिन अकादमिकता को भी नजरंदाज ना किया जाए। जड़ नजरिए वाली अकादमिकता के बोझ तले दबा पत्रकारिता शिक्षण ना तो अकादमिक दुनिया के लिए मुफीद होगा ना ही अखबारी और टीवी संस्थान को ही फायदा पहुंचा पाएगा। और पत्रकारिता की मेधा का जो नुकसान होगा, उसका आकलन तो आने वाली पत्रकारीय पीढ़ियां ही कर पाएंगी।
मंगलवार, 15 सितंबर 2009
नहीं रूक पाएगा हिंदी का कारवां
उमेश चतुर्वेदी
सितंबर के महीने जैसे-जैसे नजदीक आता जाता है, सरकारी दफ्तरों के उस खास विभाग की रौनक बढ़ाने की कवायद शुरू हो जाती है, जिसे हिंदी अथवा राजभाषा विभाग कहा जाता है। ऐसे माहौल में हिंदी के पाखंड दिवस के करीब एक पखवाड़ा पहले केंद्र सरकार का मंत्री हिंदी की पढ़ाई को जरूरी बनाने की हिमायत करता हुआ बयान दे तो हैरत होना स्वाभाविक ही है। मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल के इस बयान पर शक की गुंजाइश भी इसलिए ज्यादा है, क्योंकि हिंदी ऐसे बयानों के जरिए करीब उनसठ साल से ठगी जाती रही है। राजभाषा को हकीकत में वह हक अब तक नहीं मिल पाया, जिसकी वह स्वाभाविक तौर पर हकदार है।
राजनीतिक बयानों की गंभीरता को हमेशा इतिहास और विगत के कदमों के आधार पर परखा जाता रहा है। लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि कपिल सिब्बल अंग्रेजी के धुआंधार वक्ता हैं। कांग्रेस पार्टी का प्रवक्ता रहते उन्होंने प्रेस को अपनी पार्टी से संबंधित जितनी जानकारियां अंग्रेजी के जरिए दी थीं, शायद ही हिंदी में दी होंगी। संसद में भी चाहे विपक्षी सदस्य के तौर पर बहस में हिस्सेदारी रही हो या फिर मंत्री के तौर पर बहसों का जवाब देना, कपिल सिब्बल अंग्रेजी को ही सहज मानते रहे हैं। ऐसे कपिल सिब्बल अगर देशभर के स्कूलों में हिंदी पढ़ाए जाने की वकालत कर रहे हैं तो इसे सामान्य बयान भर मानकर उपेक्षित नहीं किया जाना चाहिए।
दरअसल कपिल सिब्बल के इस सुझाव की वजह जो चिंताएं हैं, उसी पखवाड़े राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रमुख कुप सी सुदर्शन ने जाहिर किया है। कांग्रेस के एक मुखर नेता के साथ संघ के पूर्व प्रमुख के बयानों को जोड़ना कुछ लोगों को भले ही गलत लग सकता हो। लेकिन हकीकत यही है। सुदर्शन ने कहा है कि अंग्रेजियत इस देश की संस्कृति को बिगाड़ तो रही ही है, देश में एकता की भावना पर भी असर डाल रही है। कपिल सिब्बल ने भी जब हिंदी पढ़ाने की वकालत की तो उनका भी यही कहना था कि हिंदी की पढ़ाई के जरिए देशभर के बच्चे एकता के सूत्र में बंध सकेंगे।
ये कड़वी सचाई है कि सरकारी कोशिशों के जरिए हिंदी अपना असल मुकाम हासिल नहीं कर पाई। दूसरे शब्दों में कहें तो हिंदी को उसके असल मुकाम पर पहुंचाने में सरकारी खेल ने ज्यादा अड़ंगा लगाया। हिंदी को दासी बनाए रखने की सरकारी कवायद की शुरूआत 1965 में ही हो गई थी, जब भाषा संबंधी संसद के संकल्प में ये तय कर दिया गया कि जब तक एक भी राज्य सरकार हिंदी के राजभाषा होने का विरोध करती रहेगी, उसे व्यवहारिक तौर पर राजभाषा नहीं बनाया जा सकेगा। सच तो ये है कि ये संकल्प बाद में आया, लेकिन उसकी पूर्व पीठिका 21 नवंबर 1962 को ही बन गई थी। इस दिन गठित नगालैंड राज्य की राजभाषा ही अंग्रेजी है। जाहिर है कि नगालैंड जैसे राज्य हिंदी को क्योंकर अपनाने लगे। साठ के दशक में तमिलनाडु में उभरे हिंदी विरोध के लिए गुलजारी लाल नंदा के एक आदेश को जिम्मेदार माना जाता है। मशहूर पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने अपनी पुस्तक स्कूप में इस घटना का जिक्र किया है। दरअसल संवैधानिक प्रावधानों के चलते 26 जनवरी 1965 से हिंदी को राजभाषा के तौर पर अंग्रेजी का स्थान ले लेना था। इसे देखते हुए ही बतौर राजभाषा विभाग के इंचार्ज मंत्री के नाते नंदा ने ये आदेश दिया था। लेकिन पहले से जारी केंद्रीय सत्ता में हिंदी विरोध की मानसिकता के चलते तमिलनाडु के नेताओं को ये प्रचारित करने का मौका मिल गया कि केंद्र सरकार गैरहिंदी भाषी राज्यों पर जबर्दस्ती हिंदी थोपना चाहती है। नंदा जी को अपनी गलती का अहसास हुआ और यह आदेश वापस ले लिया गया। लेकिन जो गलती होनी थी, वह हो गई थी। जिसका खामियाजा तमिलनाडु में खूनी संघर्ष के तौर पर दिखा। आंदोलन की रिपोर्टिंग करने दिल्ली से पहुंचे पत्रकारों को तब के मद्रास और अब के चेन्नई में ऑटो वालों से अपने हिंदी सवालों के जवाब में हिंदी में ही सुनने को मिला – हम हिंदी नहीं जानता। यानी हिंदी जानने वाला भी अपनी क्षेत्रीय अस्मिता और स्थानीय राष्ट्रवाद को बचाने के नाम पर हिंदी का विरोधी हो गया था। इस आंदोलन ने तमिलनाडु में सरकारी तौर पर ना सिर्फ हिंदी को लागू नहीं होने दिया, बल्कि केंद्र सरकार को हिंदी की उसकी असल जगह पर बैठाने के अपने संकल्प को अनंत काल तक टालने का मौका जरूर दे दिया।
सरकारी षडयंत्र के चलते हिंदी व्यवहार में राजभाषा भले नहीं बन पाई, लेकिन 1991 में शुरू हुए उदारीकरण के दौर ने हिंदी को नई पहचान दिलाई। बेशक यह नीति बनाने वालों की भाषा नहीं बन पाई है, लेकिन बाजार की सबसे प्रमुख भाषा जरूर बन गई। और तो और जिस राज्य ने हिंदी विरोध के नाम पर खून बहाया, बसें जलाईं और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया, अब उस तमिलनाडु के लोग भी अपने बच्चों को हिंदी पढ़ाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। पिछले दिनों एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक के चेन्नई संवाददाता ने खबर दी कि साठ के दशक के हिंदी विरोधी आंदोलनकारी पीढ़ी भी अब अपने बच्चों को हिंदी पढ़ाने के लिए बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही है। तमिलनाडु में बदलाव की ये बयार की असल वजह उदारीकरण ही है। इसी के चलते 1995 में दुनिया की जिन पांच भाषाओं को स्टार समूह के मालिक रूपर्ट मर्डोक ने भविष्य की ताकतवर भाषाएं बताया था, उसमें हिंदी भी थी। मर्डोक जानते थे कि हिंदी में बाजार को दुहने की अकूत ताकत है। यही वजह है कि स्टार समूह के चैनलों का भारतीय आसमान पर हमला हुआ और देखते ही देखते स्टार समूह भारत की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया क्रांति का अगुआ बन गया। हमारे शासक भले ही हिंदी को नकारते रहे, लेकिन जिनकी बदौलत हिंदी अपने अहम स्थान से दूर हुई, उसी शासक वर्ग अंग्रेज कौम के ही एक प्रभावी शख्स ने हिंदी की ताकत को पहचानने में भूल नहीं की।
आज अगर कपिल सिब्बल हिंदी की वकालत कर रहे हैं तो इसकी वजह ये नहीं है कि उनकी पार्टी के पहले के कर्ताधर्ताओं ने जो किया, उसे लेकर उनके मन में कोई पश्चाताप है। या फिर वे उस भूल को सुधारना चाहते हैं। हकीकत तो यही है कि अंग्रेजियत के वर्चस्व के इस दौर में भी हिंदी अपनी ताकत बढ़ाती जा रही है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, गुजरात से लेकर उस नगालैंड तक, जिसकी राजभाषा अंग्रेजी है, हिंदी को जानने-बोलने, समझने और गुनगुनाने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। सर्वोच्च अदालतों तक में उसे लागू करने के लिए मांग बढ़ती जा रही है। दिल्ली हाईकोर्ट में हिंदी में सुनवाई और इंसाफ को लेकर तीन हजार से ज्यादा वकीलों का मैदान में कूद पड़ना कोई कम नहीं है। जाहिर है, अपने विस्तार में हिंदी का सहारा लेकर ताकतवर बना बाजार अब हिंदी को भी ताकतवर बना रहा है। ये ताकत ही है कि हिंदी को लेकर अंग्रेजी दां लोगों तक का रवैया बदलता नजर आ रहा है। इससे साफ है कि आने वाले दिनों में हिंदी की जयजयकार बढ़ती ही जाएगी। जरूरत इस बात की है कि खांटी हिंदी वाले भी इस तथ्य को समझें और अपनी ताकत को सकारात्मक तरीके से इस नेक काम में लगाएं।
रविवार, 23 अगस्त 2009
अंदरखाने में भी हुई डील
उमेश चतुर्वेदी
यह लेख प्रथम प्रवक्ता के 01 सितंबर 2009 के अंक में प्रकाशित हुआ है।
भारतीय लोकतंत्र में इस बात पर शक नहीं है कि इस देश का सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री का पद है। जाहिर है उन्हें नियंत्रित करने वाली पार्टियों के अध्यक्ष की ताकत भी कम नहीं होगी। इस देश में शायद ही कोई मानेगा कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके निर्देशन में काम करने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी मीडिया के सामने कमजोर होंगे। लेकिन ये सोलह आने सही है कि पिछले आम चुनावों में देश की सत्ता संभाल रहे ये दोनों दिग्गज भी कमजोर साबित हुए। चुनावी समर के दौरान सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह को भी मीडिया को अंदरखाने में पैकेज देना पड़ा। नाम ना छापने की शर्त पर कांग्रेस पार्टी के ही एक रसूखदार नेता को इस तथ्य को स्वीकार करने से गुरेज नहीं है।
चुनाव के दौरान प्रत्याशियों के पक्ष में खबर छापने और पैसे या पैकेज डील ना करने वाले प्रत्याशियों की खबरों को सिरे से नकार देने का आरोप तो मीडिया पर लग ही रहा है। पैसे कमाने की इस बहती गंगा में हाथ धोने में देश के कई बड़े मीडिया घरानों के बारे में खुलेआम सवाल-जवाब हो ही रहे हैं। इसे लेकर आरोपी मीडिया को भी बचाव में उतरना पड़ा है। लेकिन ये भी सच है कि एक-एक वोट के जुगाड़ में लगी कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी जैसी पार्टियों ने मीडिया के एक बड़े धड़े की इस जायज-नाजायज मांग के आगे घुटने टेकने में ही अपनी भलाई समझी। भारतीय जनता पार्टी के सांसद और वरिष्ठ पत्रकार चंदन मित्रा देश के बड़े खबरिया चैनलों पर आरोप लगा ही चुके हैं कि उन्होंने एक संगठन बनाकर पार्टियों से विज्ञापन बटोरे। लेकिन कांग्रेस नेता का खुलासा इससे आगे की बात बता रहा है। उन्होंने कहा कि कई बड़े चैनलों ने अंदरखाने में उनसे बिना किसी रसीद और पक्की खाता-बही के भी पैसे लिए। इसमें कई बड़े और नामी पत्रकार भी शामिल हैं। उत्तर प्रदेश के एक नेता ने भी नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि एक चैनल ने तो बाकायदा बीएसपी के नेताओं से भी अंदरखाने में डीलिंग की। जिसमें उसके संपादक का ही बड़ा हाथ रहा।
वैसे स्थानीय और जिला स्तर पर ऐसे आरोप पहले भी लगते रहे हैं। कुछ तथ्यों में सच्चाई भी रही है। कुछ एक लोग राष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसा करते रहे होंगे। लेकिन आमतौर पर पत्रकारिता के मूल मानदंडों का खयाल रखा जाता था। लेकिन इस बार इसे खुलकर स्वीकार किया गया, यही वजह है कि इस बार सवाल भी ज्यादा उठ रहे हैं। वैसे सच तो ये है कि मध्य प्रदेश के एक अखबार ने 1996 के स्थानीय चुनावों में अपनी जिला यूनिटों को प्रत्याशियों से कमाई का लक्ष्य दिया था। जिसने नहीं दिया, उनका अखबार ने बॉयकाट किया और इसकी कीमत उन प्रत्याशियों को चुकानी पड़ी थी। लेकिन कमाई का ये रास्ता चल निकला तो इसे मीडिया घरानों ने अपनाने में देर नहीं लगाई।
धीरे-धीरे ये रोग पूरे देश में फैलने लगा। पंजाब के पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के एक प्रचार प्रभारी को इस नई परिपाटी से पहली बार साबका पड़ा। अब तक वे जानते थे कि प्रचार के लिए राज्य या राष्ट्रीय मुख्यालय से अपने लक्ष्य समूह वाले अखबारों और टीवी चैनलों को विज्ञापन जारी किया जाता है। लेकिन उस विधानसभा चुनाव में पहली बार उन्हें पता चला कि मीडिया घरानों ने अपनी जिला यूनिटों को लक्ष्य दे रखे थे। अब मरता पत्रकार क्या ना करता, लिहाजा दो-दो तीन-तीन संस्थानों के स्थानीय पत्रकारों ने आपस में गुट बनाकर खुद की मार्केटिंग की और दबाव बनाकर उनसे विज्ञापन की मांग की। इसके कुछ महीनों बाद गुजरात में विधानसभा चुनाव हुए। जब वे गुजरात के चुनाव प्रचार के समंदर में उतरे तो वहां भी पत्रकारीय भ्रष्टाचार की इस गंगा से साबका पड़ा। रही-सही कसर लोकसभा चुनावों में पूरी हो गई। लिहाजा अब तो वे मान के चलते हैं कि हर राज्य में उन्हें ऐसा ही अनुभव होने वाला है।
जिस तरह से मीडिया के एक वर्ग की जायज-नाजायज मांगों के सामने बड़े – बड़े दलों के बड़े नेताओं तक को झुकना पड़ा, उससे साफ है कि आज मीडिया कितना ताकतवर हो गया है और एक-एक वोट की जुगत में जुटे नेताओं के लिए ऐसे मीडिया को नकारना भी उनके लिए आसान नहीं रहा। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल ये है कि भ्रष्टाचार पर सवाल उठाने की ताकत रखने वाले मीडिया संस्थान इस परिपाटी के बाद क्या सरकार और नेताओं पर उसी आक्रामकता से सवाल उठा सकेंगे। इसका जवाब पाना फिलहाल आसान नहीं लगता। लेकिन इसके साथ ये भी सच है कि जो पार्टी या उसके ताकतवर नेता मीडिया की इस नाजायज मांग के सामने झुक सकते हैं, क्या गारंटी है कि वे देश के उन अहम मसलों को शिद्दत से हल कर पाएंगे, जिनके लिए मजबूती और दृढ़ता की जरूरत होती है।
साफ है कि ये मान्यताओं और उसूलों पर संकट का दौर है। लेकिन ये भी सच है कि संकट के दौर ही नए उसूलों, मजबूत परंपराओं और मानवीय मूल्यों की स्थापना की नई राह भी सुझाते हैं। जब हिंदी पत्रकारिता के शलाका पुरूष और नौजवान पत्रकारों की टोली इसके खिलाफ आवाज उठाने में नहीं हिचक रही है तो नई उम्मीद का दीया जलाना गलत नहीं होगा।
बुधवार, 29 जुलाई 2009
निजीपन में सेंध यानी सच का सामना
उमेश चतुर्वेदी
कड़वी सचाई का सामना बहादुर ही कर पाते हैं। बचपन से ही हमें ये बताया जाता रहा है। ये शिक्षा हमें देते वक्त इस बात की भी ताकीद की जाती रही है कि जब तक उस सचाई के उजागर होने से व्यापक समुदाय का हित न जुड़ा हो, चाहे कितना भी कड़वी हकीकत क्यों ना हो, उसका खुलासा नहीं किया जाना चाहिए। पारंपरिक मीडिया इसे सूत्र वाक्य की तरह लेता रहा है। यही वजह है कि किसी व्यक्ति विशेष की निजी जिंदगी में ताक-झांक करने से देसी मीडिया बचता रहा है। इसी सूत्र वाक्य के सहारे सत्तर के दशक में भारतीय मीडिया ने भी राजनेताओं की जिंदगी के काले सच को उजागर करना शुरू किया तो राजनीति की दुनिया में भूचाल आ गया था। तब से जब भी मौका लगता है, राजनीति मीडिया के ऐसे कामों पर सवाल उठाने से पीछे नहीं रहती। लेकिन दिलचस्प बात ये है कि इस बार राजनीति की दुनिया से जुड़े लोगों की निजी जिंदगी के अंधेरे पक्ष का खुलासा नहीं हो रहा है, बल्कि इस बार सवालों से मुठभेड़ करने आम और खास हर तरह के लोग खुद आ रहे हैं और राजनीति की दुनिया में भूचाल आ गया है। 22 जुलाई को राज्य सभा में जिस तरह स्टार प्लस के कार्यक्रम सच का सामना पर दलगत राजनीति से उपर उठकर राजनेताओं ने सवाल उठाया है, उससे तो कम से कम यही ध्वनि निकलती है।
14 जुलाई को कलर्स के लोकप्रिय सीरियल बालिका वधू पर लोकसभा में जिस तरह बड़े नेताओं ने सवाल उठाया, उससे सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने बालिका वधू की मानिटरिंग का आदेश ही दे डाला। ये क्या संजोग है कि जिस सच का सामना जैसे रियलिटी शो पर संसद में सवाल उठा है, वह इसके ठीक अगले दिन यानी 15 जुलाई को शुरू हुआ। बहरहाल सरकार ने सच का सामना की मानिटरिंग का कोई खुला आदेश तो नहीं दिया है। लेकिन जिस तरह सीरियलों की भूमिका पर संसद में चर्चा कराने के लिए सरकार तैयार हो गई है, उससे साफ है कि आने वाले दिन ऐसे सीरियल निर्माताओं के लिए परेशानियां लेकर आ सकते हैं।
22 जुलाई को राज्य सभा में समाजवादी पार्टी के सांसद कमाल अख्तर को आपत्ति थी कि सच का सामना में अश्लील सवाल पूछे जा रहे हैं और इससे भारतीय संस्कृति का खुला उल्लंघन हो रहा है। इसके साथ ही व्यक्ति की निजता में भी सेंध लगाई जा रही है। मंडल- कमंडल से लेकर आर्थिक मुद्दों पर अलग-अलग राय रखने वाले अपने राजनीतिक दलों की एक बात के लिए जरूर दाद दी जानी चाहिए। जब भी भारतीय संस्कृति पर हमले की बात होती है, सारे दल एक साथ खड़े नजर आते हैं। सच का सामना चूंकि राजनीतिक दलों की नजर में भारतीय संस्कृति का उल्लंघन कर रहा है, लिहाजा इसके खिलाफ पूरी राज्यसभा एकमत नजर आई।
संसद में सच का सामना को लेकर चर्चा होगी तो इससे जुड़े तमाम मुद्दे सामने तो आएंगे ही। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या सचमुच इसके लिए सिर्फ स्टार प्लस चैनल ही जिम्मेदार है। जिस अमेरिकी कार्यक्रम की तर्ज पर भारतीय लोग सच का सामना कर रहे हैं, उसके मूल देश में व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता का संवैधानिक तौर पर खास खयाल रखा गया है। वहां भी यह कार्यक्रम विवादास्पद रहा है। लेकिन इससे इस कार्यक्रम में शामिल होने आए लोग अपनी जवावदेही से बच नहीं सकते। इस कार्यक्रम में शामिल हो रहे लोग मासूम और अनपढ़ नहीं हैं। विनोद कांबली को आप क्या मासूम मानेंगे। जिस स्मिता नाम की महिला से उसकी सेक्स फैंटेसी के बारे में पूछे गए सवाल को लेकर संसद में सवाल उछला है, वह भी मासूम नहीं रही हैं। जिस तरह की परिपाटी आज के टेलीविजन की दुनिया में पसरी हुई है, उससे ऐसे सवालों का अंदाजा लगाना किसी समझदार व्यक्ति के लिए कोई कठिन काम नहीं है। साफ है ये लोग पढ़े-लिखे और समझदार हैं और उन्हें एक करोड़ रूपए जीतने का सपना अपनी निजी जिंदगी की सार्वजनिक चीड़फाड़ के लिए तैयार कर रहा है।
ये सच है कि साल भर पहले तक मनोरंजन चैनल की दुनिया का बेताज बादशाह रहा स्टार प्लस अपनी लोकप्रियता बनाए रखने के लिए इन दिनों जूझ रहा है। इसके चलते उसे अपनी प्रोग्रामिंग में ताजगी लाने के लिए मजबूर होना पड़ा है। जैसा कि अपने यहां परिपाटी है, आइडिया की ताजगी हमें अमेरिका में ही मिलती- दिखती है। लिहाजा वह अमेरिकी कार्यक्रम की तर्ज पर इस कार्यक्रम को लाने के लिए मजबूर हुआ है। चैनल को भी ये अंदाजा रहा होगा कि सचाई का सामना करने वाले लोगों को चाहे ज्यादा परेशानी ना हो, देश में इसे लेकर बवाल जरूर होगा और फिर कार्यक्रम चर्चा में आएगा। और चर्चा में आएगा तो उसकी टीआरपी बढ़ेगी ही। यह टीआरपी की ही माया है कि उसे लोगों की निजी जिंदगी में आक्रामक तरीके से घुसने के लिए मजबूर कर रहा है और उसकी यही मजबूरी खटकने लगी है।
खबरिया चैनलों की बढ़ती भीड़ के भी दौर में स्टिंग और निजी जिंदगी में दखलंदाजी का जोर बढ़ गया था। यह परिपाटी इतनी तेजी से बढ़ी कि लोगों ने इस पर सवाल उठाने शुरू कर दिए। तब खबरिया चैनलों को गैरजिम्मेदार ठहराने में हर दूसरा व्यक्ति आगे आ रहा था। मुंबई पर हमले के बाद खबरिया चैनलों में ऐसे चलन कम हुए हैं। उन्हें खबरों की विमर्श वाली दुनिया में गोते लगाने के लिए लौटना पड़ा है। लेकिन हकीकत देखिए कि ऐसे कार्यक्रमों से अब तक बचे रहे मनोरंजन चैनलों को भी इसी दौ़ड़ में शामिल होना पड़ा है, और उनकी भी वजह वही है, प्रतिद्वंद्विता और टीआरपी की चाह। राज्यसभा में उन पर उठा सवाल दरअसल खबरिया चैनलों के साथ शुरू हुए टीवी प्रोग्रामिंग के विरोध का ही विस्तार है।
संसद में चर्चा के बाद इस कार्यक्रम को जायज ठहराया जाएगा या फिर गलत, लेकिन एक चीज साफ है कि इस बहस में वे मुद्दे भी उठेंगे, जिसकी वजह से आज आम आदमी अपने गोपनीय चीजों को भी उजागर करने के लिए मजबूर हुआ है। उदारीकरण की हवा में, जब हर किसी चीज का पैमाना पैसा बन गया है, ऐसे में एक करोड़ का लालच चाहे कोई टीवी चैनल दे या फिर कोई और, ऐसे कार्यक्रमों पर रोक लगा पाना आसान नहीं होगा। लेकिन ये भी सच है कि अगर हर तरह के कार्यक्रमों के लिए सरकारी दखलंदाजी बढ़ती रही तो चाहे खबरिया चैनल हों या फिर मनोरंजन के चैनल, उनके लिए सही तरीके से काम कर पाना आसान नहीं होगा। लेकिन इसके बचाव की राह क्या होगी, इस पर बेहतर हो कि सरकार या संसद की बजाय मीडिया और उसके कर्ता-धर्ता खुद विचार करें।
सोमवार, 20 जुलाई 2009
बालिका वधू पर सवाल
उमेश चतुर्वेदी
14 जुलाई को लोकसभा में सवाल भर्तृहरि महताब का था...जवाब अंबिका सोनी ने दिया ...लेकिन उनका जवाब पूरा होने का जैसे जनता दल यू के अध्यक्ष शरद यादव कर रहे थे। उन्होंने छूटते ही बालिका वधू पर शारदा एक्ट के उल्लंघन और इसके जरिए बाल विवाह को बढ़ावा देने का आरोप जड़ दिया। शरद यादव कोई मामूली नेता नहीं हैं, लिहाजा अंबिका सोनी को कहना पड़ा कि वे इस पर विचार करेंगी। यानी बालिका वधू पर सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने निगरानी या तो शुरू कर दी है या फिर वह जल्द ही करने वाला है। जाहिर है, यदि मंत्रालय को ऐसा लगा तो टेलीविजन की सबसे मासूम और नन्हीं बहू को देखने के आदी रहा एक बड़ा दर्शक वर्ग इससे वंचित हो सकता है।
इसका नतीजा चाहे जो हो, लेकिन ये सच है कि बालिका वधू पर संसद में उठी निगाहों की प्रासंगिकता और जरूरत पर भी सवाल उठने लगे हैं। टेलीविजन की अतिरेकी भूमिका को लेकर शरद यादव की चिंताएं और उनके रूख से हर वह शख्स परिचित है, जो उनके थोड़ा-बहुत भी करीब रहा है। पूर्व गृह राज्य मंत्री गावित के खिलाफ चले स्टिंग ऑपरेशन को लेकर वे एक चैनल के खिलाफ वे कितने नाराज थे, इसे उन लोगों ने देखा है, जो राज्य सभा की कार्यवाही को कवर करते रहे हैं। लेकिन बालिका वधू पर उनका सवाल उठाना और उस पर ये आरोप लगाना कि यह बाल विवाह को बढ़ावा दे रहा है, समझ से परे लग रहा है। ये सच है कि टीआरपी के दबाव में खबरिया चैनलों ने जिस तरह खबरों से खिलवाड़ किया, उससे राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक बड़ा वर्ग टेलीविजन से खार खाए बैठा है। मीडिया जगत में भी इस परिपाटी पर सवाल उठे...इस गलती को दबी जबान से ही सही, मीडिया के अंदरूनी हलके में भी स्वीकार किया जाने लगा है। लेकिन बालिका वधू पर सवाल और उसे लेकर सूचना और प्रसारण मंत्री के जवाब को लोग पचा नहीं पा रहे हैं।
ये सच है कि एक दौर में टेलीविजन का प्राइम टाइम सास-बहू के अंतहीन झगड़ों और उच्च वर्ग के परिवारों के बीच जारी षडयंत्र के किस्सों से गुंजायमान था। ऐसे माहौल में एक वर्ग को मनोरंजन चैनलों से भी ऊब होने लगी थी। ऐसे माहौल में जब पिछले साल बालिका वधू ने दस्तक दी तो दर्शकों ने इसे हाथोंहाथ लिया। एकरस कार्यक्रमों की भीड़ में बालिका वधू हवा के नए झोंके की तरह सामने आया। और देखते ही देखते इस सीरियल की नन्हीं बहू आनंदी यानी अविका गौर घर-घर की महिलाओं की चहेती बन गई। एक दौर तो ऐसा भी आया कि मनोरंजन चैनलों के प्राइम टाइम पर इसी धारावाहिक की तूती बोलने लगी और इसके साथ ही नए नवेले चैनल कलर्स ने अपना झंडा गाड़ दिया। फिर तो ना आना इस देश लाडो, अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ जैसे धारावाहिक आए और प्राइम टाइम में छा गए। सास-बहू की एकरस कहानियों से भरी प्राइम टाइम की दुनिया में इन धारावाहिकों की सफलता की वजह रहे इनके नए – नए और तकरीबन टेलीविजन की दुनिया से अछूते रहे विषय। प्राइम टाइम की दुनिया में भले ही इन धारावाहिकों की तूती बोल रही है, लेकिन राजनेताओं की निगाहें इन पर टेढ़ी होती जा रही हैं।
ये भी सच है कि बालिका वधू की कहानी में वह कसावट नहीं रही , जो शुरूआती कई हफ्तों में दिखती रही थी। टीआरपी के दबाव और कमाई के चलते इस धारावाहिक की कहानी में भी कई असहज और अप्रासंगिक मोड़ आने लगे हैं, जिनका कोई तर्क नहीं नजर आता। कुछ यही हालत अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ और ना आना इस देश लाडो की कहानी के साथ भी हो रहा है। लेकिन इसका ये भी मायने नहीं है कि ये धारावाहिक बाल विवाह, कन्या भ्रूण हत्या और बिहार में लड़की बेचने की कुप्रथाओं को बढ़ावा दे रहे हैं। सही बात तो ये धारावाहिक जिन चैनलों पर दिखाए जा रहे हैं, उन्हें सामान्य एंटीना के जरिए नहीं देखा जा सकता। इन्हें देखने के लिए केबल या डीटीएच की जरूरत होगी। और इस देश में विकास के तमाम दावों के बावजूद बड़े शहरों को छोड़ दें तो केबल या डीटीएच का खर्च वहन करने की क्षमता निम्न मध्यवर्ग और कम पढ़े-लिखे परिवारों के पास नहीं है। जाहिर है, उन घरों तक इन धारावाहिकों की पहुंच ही नहीं है। ऐसे में शरद यादव या भर्तृहरि महताब के इस आरोप को कैसे सही माना जा सकता है कि ये धारावाहिक शारदा एक्ट या फिर बाल विवाह कानून का उल्लंघन कर रहे हैं।
अगर कुरीतियों को दिखाना भी उसे बढ़ावा देना है तो भ्रष्टाचार को उजागर करना भी उसे महिमा मंडित करना हो जाएगा। और अगर एक बार हमने इसे मान लिया तो ये भी सच है कि भ्रष्टाचार का खुलासे पर भी संसद से लेकर सड़क पर सवाल उठने लगेंगे। जाहिर है ये मौका खुद मीडिया की अतिरेकी भूमिकाओं ने मुहैया कराया है। ऐसे में सबसे बड़ी जरूरत ये है कि राजनीति की ओर से हो रहे ऐसे सवालों का तार्किक जवाब दिया जाय। मीडिया और कला की मॉनिटरिंग होनी चाहिए। इसे खुले मन से मीडिया को भी स्वीकार करना चाहिए। लेकिन इसका ये भी मतलब नहीं है कि हर गैरजरूरी सवालों का भी सामना किया जाय। कम से कम मनोरंजन चैनलों के बदलाव भरे सीरियलों पर उठे सवाल तो ऐसी ही श्रेणी में आते हैं।
सोमवार, 8 जून 2009
ये सीरियल कुछ खास है!
उमेश चतुर्वेदी
हिंदी टेलीविजन की दुनिया में इन दिनों दो समानांतर धाराएं आगे बढ़ती नजर आ रही हैं। एक तरफ खबरिया चैनलों की दुनिया है, जहां पारंपरिक खबरों की सिमटती दुनिया का फिलहाल कोई तार्किक अंत होता नजर नहीं आ रहा है, जबकि दूसरी तरफ है मनोरंजन चैनलों की बदलती दुनिया। सास-बहू के अंतहीन झगड़े और महानगरों के बड़े और रईसजादे परिवारों के भीतर जारी साजिशों की दुनिया अब बदलती नजर आ रही है। कभी महिलाओं जीवन की करूणागाथा के प्रतीक रहे गीत अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजौ की पैरोडी अब सकारात्मक तौर पर बदल चुकी है। अब अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ से लेकर ना आना लाडो इस देश के बहाने अब महानगरीय जिंदगी की वे शामें बदलने लगीं हैं, जो टेलीविजन के पर्दे के सहारे आगे बढ़ती रही हैं।
हिंदी फिल्मी दुनिया के बारे में माना जाता है कि वहां जो मसाला एक बार हिट हो जाता है, उसकी तेजी से नकल शुरू हो जाती है। एक फिल्मी फार्मूले के दोहन की होड़ लग जाती है। सेटेलाइट चैनलों की बढ़ती भीड़ के शुरूआती दौर यानी करीब आठ साल पहले बॉलीवुड के इसी रोग ने हिंदी टेलीविजन चैनलों को भी घेर लिया था। सास-बहू के अंतहीन झगड़ों, प्यार-मोहब्बत की नाटकीय किस्सागोई और परिवार के भीतर रची जा रही साजिशों का इतना जोर बढ़ा कि बुद्धू बक्से की वह दुनिया ही पूरी तरह बदल गई, जिसकी बुनियाद हमलोग, बुनियाद, मैला आंचल, गणदेवता और शांति जैसे सीरियलों के जरिए रखी गई थी। निश्चित तौर पर ये दूरदर्शन का दौर था। दूरदर्शन के विस्तार के शुरूआती सालों में वही किस्सा दोहराया गया, जो कभी आजादी के ठीक बाद रेडियो के लिए तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री केसकर और आकाशवाणी के महानिदेशक जगदीश चंद्र माथुर ने मिलकर लिखा था। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि जिस दौर में यानी नब्बे के दशक में जब हिंदी टेलीविजन की सेटेलाइट दुनिया बदलने लगी थी, उसी दौर में उदारीकरण की शुरूआत हुई। और सास-बहू के साजिशों के किस्से रंगीन सेटेलाइट चैनलों के सहारे भारतीय मध्यवर्ग के ड्राइंग रूमों की शोभा बढ़ाने लगे। यह भी सच है कि जी टीवी ना सिर्फ हिंदी, बल्कि देश का पहला निजी सेटेलाइट चैनल रहा। अपने शुरूआती दिनों में उस पर वैसा बाजारवाद हावी नहीं रहा, जो आज से छह महीने पहले तक हर सेटेलाइट चैनल की पहचान बना हुआ था। हम पांच जैसे कुछ अर्थवान धारावाहिक उसकी जान रहे। उसे पहली बार टक्कर 1998 के आसपास मिलना शुरू हुआ, जब सोनी का टीवी चैलन लांच हुआ। इसके साथ ही शुरू हुए प्रतिस्पर्धा के दौर को तेजी मिली करीब आठ साल पहले, जब पीटर मुखर्जी की अगुआई में स्टार ग्रुप ने भारत में अपने पांव रखे। इसके साथ ही महानगरों से लेकर छोटे शहरों तक के ड्राइंग रूम की तस्वीर बदलने लगी। निश्चित रूप से इसमें एकता कपूर के बनाए सीरियल क्योंकि सास भी कभी बहू थी या कहानी घर-घर की जैसे सीरियलों ने नई परिपाटी शुरू की। चूंकि तब तक बाजारवाद अपने चरम पर पहुंच चुका था, तब मुनाफा कमाना हर प्रोफेशन की पहली शर्त बन गया था। ऐसे में दूरदर्शनी जमाने शुरू हुई परंपरा को आघात लगना ही था। यही वह दौर है, जब शहरी मध्यवर्ग तेजी से उभर रहा था। इसका असर ये हुआ कि सास-बहू मार्का ये धारावाहिक और उनके साजिश रचने वाले पात्र ना सिर्फ लोकप्रिय हुए, बल्कि उनकी पहचान भी बनी। फिर तो ऐसे धारावाहिकों की जैसे बाढ़ ही आ गई। कसौटी जिंदगी की, कस्तूरी, कुमकुम एक प्यारा सा बंधन..जैसे तमाम सीरियल टेलीविजन के नए और तेजी से बढ़ रहे उपभोक्ताओं को तेजी से लुभाने लगे। टेलीविजन पर मनोरंजन का पूरा का पूरा संसार इसी फार्मूले पर चल पड़ा। जिसमें लोकप्रिय पात्र मरने के बाद जिंदा होते रहे। याद कीजिए क्योंकि सास भी कभी बहू थी के प्रमुख पात्र मिहिर को, इसे निभा रहे अमर उपाध्याय की मौत हुई, लेकिन कहानी की मांग के नाम पर उन्हें जिंदा किया गया। कसौटी जिंदगी की में भी ऐसा ही हुआ। स्टार प्लस अपने इन सीरियलों के जरिए आठ साल तक टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट में नंबर वन की कुर्सी पर बैठा रहा। जाहिर है इसमें सगुन, कहीं किसी रोज, विदाई, संजीवनी जैसे कई धारावाहिकों का योगदान रहा। पीटर मुखर्जी के स्टार ग्रुप से अलग होने के बाद ऐसी आशंका जताई जा रही थी कि उनके प्रोमोशन में शुरू हुए चैनल नाइन एक्स भी वैसा ही धमाका करेगा। लेकिन नहीं हुआ। अलबत्ता स्टार के दबाव में जी टीवी को भी सात फेरे, बेटियां जैसे सीरियल लाने पड़े। वहां भी वैसी ही साजिशें और अंदरूनी उठापटक जारी रही।
यही वह दौर रहा, जब हिंदी के खबरिया चैनलों पर पारंपरिक खबरों की बजाय सांप-बिच्छू नचाने, काल-कपाल और महाकाल दिखाने का दौर शुरू हुआ। ये कथानक और खबरें एक दौर तक तो अपने नयापन के चलते दर्शकों को लुभाती रहीं। लेकिन बाद में आलोचकों, समाजवैज्ञानिकों और प्रबुद्ध वर्ग द्वारा इसकी आलोचना होने लगी। लेकिन इस आलोचना से टेलीविजन चैनल अप्रभावित रहे। टीआरपी का दबाव और बहाना ऐसे सीरियलों को एलास्टिक की तरह बढ़ाते रहने का बहाना बना रहा। लेकिन पिछले साल आए टीवी 18 ग्रुप के नए चैनल कलर्स ने इन धारावाहिकों की दुनिया ही बदल दी। बाल विवाह के दंश पर आधारित सीरियल बालिका बधू आज टेलीविजन की रेटिंग प्वाइंट में नंबर वन बना हुआ है। इसकी वजह ये नहीं है कि इसमें पारंपरिक मसाले और लटके-झटके हैं। बल्कि इसमें बचपन में शादी के चलते परिवार, समाज और उस बच्चे की जिंदगी पर कैसा और क्या असर पड़ता है, इसे कथा में पिरोया गया है। कहना ना होगा, ऐसे अर्थवान धारावाहिक के जरिए हिंदी के मनोरंजन चैनलों की दुनिया फिर एक बार उसी ढर्रे पर लौटरने लगी है, जिसकी शुरूआत रमेश सिप्पी जैसे निर्माता और मनोहर श्याम जोशी जैसे लेखक के साथ दूरदर्शन ने नब्बे के दशक के शुरूआती दिनों में बुनियाद और हमलोग जैसे धारावाहिकों के जरिए की थी। कलर्स पर इन दिनों जितने भी सीरियल आ रहे हैं, उनमें कथ्य को लेकर ताजगी तो है ही, व्यापक सामाजिक सरोकारों से भी जुड़े हैं। कलर्स का ही एक और सीरियल है, ना आना इस देश मेरी लाडो। इसमें बालिका भ्रूण हत्या के मामले को कथा के फ्रेम में बेहतर तरीके से पिरोकर पेश किया गया है। जो देखने वाले का दिल छू लेता है। इसी तरह जीवन साथी में भी एक ऐसे परिवार की कहानी पेश की गई है, जहां परिवार का मुखिया अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए अपने परिवार और अपनी बेटी तक को दांव पर लगाने से नहीं चूकता। इसी तरह एक और अर्थवान सीरियल उतरन भी दिखाया जा रहा है, जिसमें एक बड़ा रईस परिवार अपनी एक गलती के चलते उसकी शिकार गरीब महिला और उसकी बेटी को ठाटबाट से पाल रहा है।
कलर्स के इन अर्थवान धारावाहिकों ने इस बाजार के अगुआ रहे स्टार प्लस, सोनी और जीटीवी को भी अर्थवान धारावाहिकों की दौड़ में शामिल होने के लिए मजबूर कर दिया। अब जीटीवी भी अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ जैसा धारावाहिक दिखाना पड़ रहा है। इसी तरह एक और धारावाहिक आपकि अंतरा जैसा धारावाहिक भी शुरू करना पड़ा है। वैसे जब क अक्षर वाले धारावाहिकों का दौर जारी था, उसी दौर में जस्सी जैसी कोई नहीं जैसा सीरियल सोनी पर दिखाया जाता रहा। उसका सीआईडी अभी तक चल ही रहा है। लेकिन नए दौर के चलन में उसे भी लेडीज स्पेशल लेकर आना पड़ा है। जिसमें चार महिलाओं की जिंदगी और आम जिंदगी में उनकी जद्दोजहद को पेश किया जा रहा है।
कलर्स के जरिए शुरू हुई धारावाहिकों की विविधरंगी दुनिया में दो चीजें खासतौर से नोट की जा सकती हैं। एक ये कि अधिकांश धारावाहिक महिला समस्याओं से दोचार होने के कथ्य से भरे पड़े हैं। दूसरा, अब तक बिहार और बिहारी लोग टेलीविजन धारावाहिकों में सिर्फ बदहाली और नौकर वाली भूमिकाओं के पर्याय रहे हैं। लेकिन अब वहां की भी वह जिंदगी लोगों के सामने आ रही है, जिसमें जिंदगी की परेशानियां भी हैं तो खूबसूरत रंग भी। उम्मीद की जानी चाहिए कि मनोरंजन चैनलों की दुनिया में आ रहे इस सकारात्मक बदलाव से खबरिया चैनल भी जल्द ही सबक लेंगे और खबरों की दुनिया भी उसी तरह बदलाव से भरी नजर आ सकेगी।
मंगलवार, 26 मई 2009
अखबारों के खिलाफ उठी आवाज
उमेश चतुर्वेदी
लोकसभा चुनावों के दौरान उम्मीदवारों से पैसे लेकर खबरें छापने और अखबारी पैकेज न लेने वाले उम्मीदवारों की चुनाव प्रचार तक की खबरों को जगह ना देने का विरोध वरिष्ठ पत्रकार तो कर रहे हैं, लेकिन चिंता की बात ये है कि खुद पत्रकारिता में इसे लेकर कोई अपराधबोध नजर नहीं आ रहा है। हिंदी के शीर्ष पत्रकार प्रभाष जोशी तो इस परिपाटी के खिलाफ मशाल लेकर निकल पड़े हैं। उन्होंने इसके खिलाफ अभियान छेड़ दिया है। प्रभाष जी मशाल लेकर निकलें और उसे भले ही अखबारों का साथ नहीं मिले, लेकिन जिस तरह से पत्रकारों का साथ मिलना शुरू हुआ है, उससे साफ है कि ये बात दूर तलक जाएगी।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के नोएडा परिसर की गोष्ठी लोकसभा चुनावों में मीडिया की भूमिका में प्रभाष जोशी ने कहा कि अखबारों और पाठकों के बीच विश्वास का रिश्ता होता है। अखबार में छपी चीजों पर पाठक भरोसा करता है। लेकिन उम्मीदवारों से पैसे लेकर खबरें छाप कर अखबार पाठकों के इसी भरोसे को तोड़ रहे हैं। प्रभाष जी जैसे वरिष्ठ पत्रकार ही ऐसा कह सकते हैं। क्योंकि ये भी सच है कि पत्रकारिता की दुनिया में इसे लेकर खास उहापोह नजर नहीं आ रहा है। इसका उदाहरण खुद उन्हें अपने ही शहर इंदौर में नजर आया। मई के दूसरे हफ्ते में वे इंदौर के अखबारों में शुरू हुई इस परिपाटी को लेकर तैयार रिपोर्ट को जारी किया तो उसकी एक कॉलम तक की खबर नहीं छपी। प्रभाष जी को इस बात का अफसोस है कि ये रिपोर्ट बी जी वर्गीज जैसे पत्रकारिता के शलाका पुरूष के हाथों हुआ, और इंदौर के अखबारों ने उनकी वरिष्ठता और पत्रकारिता में उनके योगदान तक का भी ध्यान नहीं रखा।
यह सिर्फ प्रभाष जी की ही पीड़ा नहीं है। पत्रकार और बीजेपी के राज्यसभा सांसद चंदन मित्रा ने तो इससे भी आगे की बात बताई। उनके मुताबिक चैनलों ने भी लोकसभा चुनावों के दौरान जमकर चांदी काटी है। उन्होंने खबरिया चैनलों का नाम तो नहीं लिया, लेकिन ये जरूर बताया कि खबरों के लिए आपस में मारकाट मचाने वाले कई चैनलों में राजनीतिक दलों से प्रचार का पैकेज हासिल करने के लिए जबर्दस्त एकता नजर आई। उन्होंने शर्त रखी थी कि ना सिर्फ उन्हें, बल्कि उनके बुके के दूसरे चैनलों को भी पैकेज देना होगा। दिलचस्प बात ये है कि पहले तो राजनीतिक दलों ने इसे नकार दिया, लेकिन बाद में उन्हें इसे मानना पड़ा। उनके अनुमान के मुताबिक अकेले चैनलों ने इस दौरान करीब 100 करोड़ का बिजनेस किया।
गोष्ठी में शामिल अधिकांश वरिष्ठ पत्रकारों का मानना था कि पैसे लेकर खबरें छापने का चलन अब शुरू हुआ है। लेकिन इसका प्रतिकार वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय और श्याम खोसला ने किया। रामबहादुर जी के मुताबिक 14 साल पहले महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में भी राजनीतिक दलों ने जमकर पैसे लिए थे। जबकि श्याम खोसला के मुताबिक पंजाब के विधानसभा चुनावों में भी ऐसा काफी पहले शुरू हो गया था। बहरहाल सबका यही मानना था कि इस परिपाटी से ना तो पाठकों को सही सूचनाएं पाने का अधिकार सुरक्षित रहेगा, ना ही यह लोकतंत्र के लिए बेहतर होगा। लेकिन आर्थिक पत्रकार आलोक पुराणिक का मानना कि जब मीडिया कंपनियां पूंजी बाजार और शेयर मार्केट से पूंजी जुटाएंगी तो उनका सबसे बड़ा उद्देश्य लाभ कमाना रह जाएगा। सही मायने में यही हो भी रहा है। लिहाजा उन पर भी अपने शेयरधारकों को फायदा पहुंचाने का दबाव बढ़ गया है और इस दबाव में उनके लिए ईमानदार पत्रकारिता से ज्यादा जरूरी पैसे कमाना रह गया है। इस गोष्ठी में राजनीति की ओर से सोमपाल शास्त्री ने अपनी पीड़ाएं जाहिर कीं। बागपत से पिछला लोकसभा चुनाव लड़ चुके सोमपाल शास्त्री ने कहा कि जिस तरह अखबारों ने उनसे खबरों के बदले पैकेज की मांग की, उससे उनका मन इतना खट्टा हुआ कि एक बारगी उन्होंने अखबारों के खिलाफ ही आवाज बुलंद करने की तैयारी कर ली थी।
बहरहाल इस परिपाटी का विरोध कैसे हो। इसका जवाब वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र प्रभु ने सुझाया कि अखबारी संस्थानों में ट्रेड यूनियनों को जब तक बढावा नहीं दिया जाएगा, पत्रकारों की नौकरियों की गारंटी नहीं होगी, तब तक वे इसके खिलाफ नहीं उठ खड़े होंगे। प्रभाष जी ने भी इसे स्वीकार तो किया, लेकिन उनका मानना था कि सिर्फ इतने से ही बात नहीं बनेगी। प्रभाष जी इस परिपाटी के खिलाफ जनजागरण पर तो निकल ही पड़े हैं। उनकी योजना चुनाव आयोग से ये मांग करने की है कि वह चुनाव प्रक्रिया के दौरान अखबारों में छपे विज्ञापनों का खर्च भी उनके चुनाव खर्च में जोड़े। इसके साथ ही वे वरिष्ठ पत्रकारों के साथ सुप्रीम कोर्ट में भी इसके खिलाफ याचिका दायर करने की तैयारी में हैं। इसके साथ ही उनका कहना है कि वकालत और डॉक्टरी जैसे प्रोफेशन की तरह पत्रकारों को शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करना जरूरी किया जाना चाहिए। और गड़बड़ी करने पर उन्हें पत्रकार यूनियन निष्कासित भी करे। प्रभाष जी को इस बात का भी मलाल है कि इस गलत परिपाटी के खिलाफ एक भी पाठक खुलकर सामने नहीं आया। उन्होंने कहा कि अब पाठकों को जगाना होगा ताकि वे आदर्श पत्रकारिता के पक्ष में उठ कर खड़े हो सकें। उन्होंने कहा कि मीडिया की साख बचाने के लिए यह जरूरी है कि पैसे लेकर छापी जाने वाली खबरों को विज्ञापन का रूप दिया जाए। इसकी सूचना पाठकों को स्पष्ट रूप से देनी आवश्यक होनी चाहिए।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति अच्युतानंद मिश्र पाठकों को जागरूक करने और उनके क्लब बनाने की वकालत करते रहे हैं। इस गोष्ठी में भी उन्होंने इस बात को आगे बढ़ाने पर जोर दिया। विश्वविद्यालय के नोएडा परिसर के निदेशक अशोक टंडन ने कहा कि इस अभियान का सिलसिला यहीं नहीं थमेगा।
रविवार, 10 मई 2009
पत्रिका चर्चा
नए अनुभवों से गुजरने की यात्रा
उमेश चतुर्वेदी
टेलीविजन चैनलों के विस्तार के इस दौर में साहित्यिक और सांस्कृतिक मंचों पर एक रोना सामान्य हो गया है। हर वक्ता को गंभीर पाठकों का अभाव हर समारोह में सालता रहता है। ऐसे स्यापे भरे माहौल में अगर 2009 ने नई उम्मीदें जगाईं हैं। साल के पहले ही महीने में दस साल के लंबे अंतराल के बाद पूर्वाग्रह जैसी गंभीर पत्रिका ने पाठकों की दुनिया के बीच दोबारा प्रवेश किया। मध्य प्रदेश की राजधानी भारत भवन की ये पत्रिका पहले अशोक वाजपेयी के संपादन में निकलती थी। भोपाल जैसी जगह से प्रकाशित होती रही इस पत्रिका ने सांस्कृतिक और साहित्यिक जगत में गंभीर और वैचारिक रचनाओं के जरिए इस पत्रिका ने समय और संस्कृति में खूब हस्तक्षेप किया। लेकिन जब भारत भवन महज सांस्कृतिक केंद्र ना रहकर सियासी अखाड़े में तब्दील होता गया – इस पत्रिका पर संकट के बादल मंडराने लगे और दस साल पहले इसका प्रकाशन स्थगित कर दिया गया। लेकिन पिछले साल जब भारत भवन के न्यासी मंडल का पुनर्गठन हुआ और उसमें प्रभाकर श्रोत्रिय शामिल किए गए – तब से एक बार फिर उम्मीद जताई जाने लगी थी कि भारत भवन की खोई प्रतिष्ठा वापस लौटेगी और वह एक बार फिर कम से कम साहित्यिक केंद्र के तौर पर सकारात्मक कदम उठाने में संभव होगा। पूर्वग्रह का प्रकाशन कम से कम इस उम्मीद पर खरा तो उतरता ही है। प्रभाकर श्रोत्रिय के संपादन में निकले इसके 124 वें अंक में ढेरों ऐसी रचनाएं हैं – जिनसे गुजरना पाठकों को नई सूचनाएं, नए विचार और नई उम्मीद दे सकता है। इस अंक में ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता कवि कुंवर नारायण पर खास सामग्री दी गई है। इनमें उनकी चुनिंदा रचनाओं का विश्लेषण, कुछ बेहतरीन रचनाएं और उनका साक्षात्कार शामिल है। इस अंक में स्वर्गीय प्रभा खेतान का एक लेख स्त्री और मीडिया भी प्रकाशित किया गया है। स्त्री की नई छवियां रचते मीडिया का इतना बेहतरीन विश्लेषण प्रभा ही कर सकती थीं।
2009 जहां नई उम्मीदें लेकर आया है – वहीं पिछले साल ने भी कुछ सकारात्मक नींव भी रखी। पिछले साल कुछ पत्रिकाओं के लिए नियमित होने के लिए भी याद किया जाएगा। कथन इसी साल से लगातार नियमित अंतराल पर प्रकाशित हो रही है। निश्चित तौर पर इसके लिए नई संपादक संज्ञा उपाध्याय की रचना दृष्टि, सोच और मेहनत का खासा योगदान है। इसी दौरान जनगाथा का भी नियमित तौर पर प्रकाशन शुरू हुआ है। बिहार के आरा में रह रहे कथाकार और बैंककर्मी अनंत कुमार सिंह और उनके दोस्तों की रचनात्मक जिद्द के चलते ये पत्रिका भी पाठकों के लिए नियमित अंतराल पर उपलब्ध रहने लगी है। पत्रिका के जनवरी अंक में यूं तो ढेरों रचनाएं हैं। लेकिन पत्रकार कुमार नरेंद्र सिंह का लेख आतंकवाद की सांप्रदायिक समझ. सुभाष शर्मा का नारीवादी लेखिका डोरिस लेसिंग पर लेख – कोई भी चीज स्थायी नहीं इस अंक में पठनीय बन पड़े हैं।
कोलकाता की भारतीय भाषा परिषद की पत्रिका वागर्थ की संपादकीय अगुआई कवि और आलोचक विजय बहादुर सिंह ने संभाल ली है। उनके संपादन में आया वागर्थ नई रचनात्मक उम्मीद जगा रहा है। वागर्थ के जनवरी अंक का संपादकीय खासतौर पर निराला को समर्पित है। इस संपादकीय में निराला को नए ढंग से समझने की कोशिश की गई है। पारंपरिक वाम सोच से आगे भी निराला की रचनात्मकता सक्रिय थी, इस संपादकीय के जरिए समझा जा सकता है। इस अंक में आलोक श्रीवास्तव की कविताएं पहला वसंत, तुम मेरा ही स्वप्न अपनी भावप्रवणता के लिए ध्यान आकर्षित करती हैं। केशव तिवारी की कविता रातों में अक्सर रोती थी मर चिरैया पीछे छूटे गांव को पूरी मार्मिकता से याद कराकर सराबोर कर देती है।
संपादक बदलने की चर्चा हो रही है तो इसी कड़ी में अगला नाम आता है कृति ओर का। कृति ओर अब कवि विजेंद्र की जगह रमाकांत शर्मा के संपादन में निकलने लगी है। हालांकि उनका नाम अब भी प्रधान संपादक की जगह साया हो रहा है। वागर्थ की तरह इसका संपादकीय भी विचारोत्तेजक बन पड़ा है। इस संपादकीय में लोक से निकलती कविता और उसके लोकभाष्य पर गंभीर विवेचन किया गया है। इस संपादकीय में कवि को प्रकृति के साथ चलने की जमकर वकालत की गई है। संपादकीय के मुताबिक कविता के लिए जीवन द्रव्य जितना जरूरी है – उतना ही जरूरी प्रकृतिबोध भी है। संपादकीय में कहा गया है कि यही वजह है कि सजग और संवेदनशील कवि प्रकृति का साथ कभी नहीं छोड़ता। खराब और आधी-अधूरी कविता के पैरोकार ही यह मानकर चलते हैं कि आज प्रकृति को स्मृति के रूप में याद करके ही लिखा जा सकता है।
यूं तो हिंदी में ढेरों पत्रिकाएं लगातार अपनी उपस्थिति बनाए हुए हैं। लेकिन इन पत्रिकाओं से गुजरना मौजूदा समय की नब्ज से दो-चार होने में मदद तो देता ही है, सांस्कृतिक और वैचारिक दुनिया के नए अनुभवों से लबरेज होने और अपनी नई दृष्टि बनाने में भी मददगार है।
उमेश चतुर्वेदी
टेलीविजन चैनलों के विस्तार के इस दौर में साहित्यिक और सांस्कृतिक मंचों पर एक रोना सामान्य हो गया है। हर वक्ता को गंभीर पाठकों का अभाव हर समारोह में सालता रहता है। ऐसे स्यापे भरे माहौल में अगर 2009 ने नई उम्मीदें जगाईं हैं। साल के पहले ही महीने में दस साल के लंबे अंतराल के बाद पूर्वाग्रह जैसी गंभीर पत्रिका ने पाठकों की दुनिया के बीच दोबारा प्रवेश किया। मध्य प्रदेश की राजधानी भारत भवन की ये पत्रिका पहले अशोक वाजपेयी के संपादन में निकलती थी। भोपाल जैसी जगह से प्रकाशित होती रही इस पत्रिका ने सांस्कृतिक और साहित्यिक जगत में गंभीर और वैचारिक रचनाओं के जरिए इस पत्रिका ने समय और संस्कृति में खूब हस्तक्षेप किया। लेकिन जब भारत भवन महज सांस्कृतिक केंद्र ना रहकर सियासी अखाड़े में तब्दील होता गया – इस पत्रिका पर संकट के बादल मंडराने लगे और दस साल पहले इसका प्रकाशन स्थगित कर दिया गया। लेकिन पिछले साल जब भारत भवन के न्यासी मंडल का पुनर्गठन हुआ और उसमें प्रभाकर श्रोत्रिय शामिल किए गए – तब से एक बार फिर उम्मीद जताई जाने लगी थी कि भारत भवन की खोई प्रतिष्ठा वापस लौटेगी और वह एक बार फिर कम से कम साहित्यिक केंद्र के तौर पर सकारात्मक कदम उठाने में संभव होगा। पूर्वग्रह का प्रकाशन कम से कम इस उम्मीद पर खरा तो उतरता ही है। प्रभाकर श्रोत्रिय के संपादन में निकले इसके 124 वें अंक में ढेरों ऐसी रचनाएं हैं – जिनसे गुजरना पाठकों को नई सूचनाएं, नए विचार और नई उम्मीद दे सकता है। इस अंक में ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता कवि कुंवर नारायण पर खास सामग्री दी गई है। इनमें उनकी चुनिंदा रचनाओं का विश्लेषण, कुछ बेहतरीन रचनाएं और उनका साक्षात्कार शामिल है। इस अंक में स्वर्गीय प्रभा खेतान का एक लेख स्त्री और मीडिया भी प्रकाशित किया गया है। स्त्री की नई छवियां रचते मीडिया का इतना बेहतरीन विश्लेषण प्रभा ही कर सकती थीं।
2009 जहां नई उम्मीदें लेकर आया है – वहीं पिछले साल ने भी कुछ सकारात्मक नींव भी रखी। पिछले साल कुछ पत्रिकाओं के लिए नियमित होने के लिए भी याद किया जाएगा। कथन इसी साल से लगातार नियमित अंतराल पर प्रकाशित हो रही है। निश्चित तौर पर इसके लिए नई संपादक संज्ञा उपाध्याय की रचना दृष्टि, सोच और मेहनत का खासा योगदान है। इसी दौरान जनगाथा का भी नियमित तौर पर प्रकाशन शुरू हुआ है। बिहार के आरा में रह रहे कथाकार और बैंककर्मी अनंत कुमार सिंह और उनके दोस्तों की रचनात्मक जिद्द के चलते ये पत्रिका भी पाठकों के लिए नियमित अंतराल पर उपलब्ध रहने लगी है। पत्रिका के जनवरी अंक में यूं तो ढेरों रचनाएं हैं। लेकिन पत्रकार कुमार नरेंद्र सिंह का लेख आतंकवाद की सांप्रदायिक समझ. सुभाष शर्मा का नारीवादी लेखिका डोरिस लेसिंग पर लेख – कोई भी चीज स्थायी नहीं इस अंक में पठनीय बन पड़े हैं।
कोलकाता की भारतीय भाषा परिषद की पत्रिका वागर्थ की संपादकीय अगुआई कवि और आलोचक विजय बहादुर सिंह ने संभाल ली है। उनके संपादन में आया वागर्थ नई रचनात्मक उम्मीद जगा रहा है। वागर्थ के जनवरी अंक का संपादकीय खासतौर पर निराला को समर्पित है। इस संपादकीय में निराला को नए ढंग से समझने की कोशिश की गई है। पारंपरिक वाम सोच से आगे भी निराला की रचनात्मकता सक्रिय थी, इस संपादकीय के जरिए समझा जा सकता है। इस अंक में आलोक श्रीवास्तव की कविताएं पहला वसंत, तुम मेरा ही स्वप्न अपनी भावप्रवणता के लिए ध्यान आकर्षित करती हैं। केशव तिवारी की कविता रातों में अक्सर रोती थी मर चिरैया पीछे छूटे गांव को पूरी मार्मिकता से याद कराकर सराबोर कर देती है।
संपादक बदलने की चर्चा हो रही है तो इसी कड़ी में अगला नाम आता है कृति ओर का। कृति ओर अब कवि विजेंद्र की जगह रमाकांत शर्मा के संपादन में निकलने लगी है। हालांकि उनका नाम अब भी प्रधान संपादक की जगह साया हो रहा है। वागर्थ की तरह इसका संपादकीय भी विचारोत्तेजक बन पड़ा है। इस संपादकीय में लोक से निकलती कविता और उसके लोकभाष्य पर गंभीर विवेचन किया गया है। इस संपादकीय में कवि को प्रकृति के साथ चलने की जमकर वकालत की गई है। संपादकीय के मुताबिक कविता के लिए जीवन द्रव्य जितना जरूरी है – उतना ही जरूरी प्रकृतिबोध भी है। संपादकीय में कहा गया है कि यही वजह है कि सजग और संवेदनशील कवि प्रकृति का साथ कभी नहीं छोड़ता। खराब और आधी-अधूरी कविता के पैरोकार ही यह मानकर चलते हैं कि आज प्रकृति को स्मृति के रूप में याद करके ही लिखा जा सकता है।
यूं तो हिंदी में ढेरों पत्रिकाएं लगातार अपनी उपस्थिति बनाए हुए हैं। लेकिन इन पत्रिकाओं से गुजरना मौजूदा समय की नब्ज से दो-चार होने में मदद तो देता ही है, सांस्कृतिक और वैचारिक दुनिया के नए अनुभवों से लबरेज होने और अपनी नई दृष्टि बनाने में भी मददगार है।
सोमवार, 20 अप्रैल 2009
शुरूआती पत्रकारिता के दिनों की एक याद
उमेश चतुर्वेदी
1996 की बात है, तब मैं शावक पत्रकार था, अमर उजाला ग्रुप के आर्थिक अखबार अमर उजाला कारोबार में मेरी नई-नई नौकरी लगी थी। तब के संपादक ने नौकरी देते वक्त मुझसे ट्रेड यूनियन और साहित्यिक-सांस्कृतिक रिपोर्टिंग कराने का वादा किया था। लेकिन बाद में उन्होंने मंडी रिपोर्टिंग के काम पर लगा दिया। मेरे तत्कालीन बॉस ने एक दिन मुझसे कहा कि आप जाकर एशिया के सबसे बड़े हार्डवेयर मार्केट पर स्टोरी करके लाइए। मैंने पता लगाया कि वह मार्केट नई दिल्ली स्टेशन के पास स्वामी श्रद्धानंद मार्ग पर है। अजमेरी गेट की तरफ से मैंने आगे बढ़कर स्वामी श्रद्धानंद मार्ग का रास्ता वहां तैनात एक सिपाही से पूछा। सिपाही ने मुझे ऐसे घूरा- जैसे मुझे खा जाएगा। माजरा नहीं समझ पाया, लिहाजा ये बताने में मैंने देर नहीं लगाई कि पत्रकार हूं। सिपाही का रवैया बदल गया। उसने मुझे आंख के इशारे से रास्ता बता दिया। उसके बताए रास्ते पर आगे बढ़ने के पहले तक मुझे उस रास्ते के हकीकत की जानकारी नहीं थी। लेकिन उस रास्ते पर आगे बढ़ते ही मेरी हैरत का ठिकाना नहीं रहा। श्रद्धानंद जैसे क्रांतिकारी संन्यासी के नाम पर बनी ये सड़क पहले जीबी रोड के नाम पर जानी जाती थी। इसी जीबी रोड के ग्राउंड फ्लोर पर सचमुच एशिया का सबसे बड़ा हार्डवेयर मार्केट फैला पड़ा है। इसी रास्ते के आखिरी छोर पर लाहौरी गेट समेत पुरानी दिल्ली के कई रिहायशी इलाके हैं। इसी रास्ते से घर-परिवार वाले लोग भी रोजाना हाट-बाजार जाते हैं। कभी रिक्शे से तो कभी पैदल, वे निर्विकार भाव से वैसे ही गुजरते हैं – जैसे दूसरे इलाके में वे जाते हैं। बाजार की चमक के बीच अंधेरी सीढ़ियां भी दिख रही थीं और उनसे होकर उपर जो रास्ता जाता है, वहां कोई और ही दुनिया थी। छतों पर खड़ी लड़कियां और महिलाएं बार-बार कुछ वैसे ही बुला रही थीं – जैसे सब्जी बाजार में सब्जी वाले तरकारी और जिंस का भाव लगाते हुए ग्राहकों को बुलाते हैं। तब जाकर मुझे पता चला कि एशिया के सबसे बड़े हार्डवेयर बाजार के छत पर देह का बाजार लगता है। मेरे लिए ये नया अनुभव था। मेरा मन घृणा और विक्षोभ से भर गया। रोटी के लिए अपनी अस्मत की बोली लगाते हुए देखना मेरे लिए ये पहला अनुभव था। उस रात मैं सो नहीं पाया। सारी रात मनुष्य जीवन की मजबूरियां मुझे बेधती रहीं।
बहरहाल मैं रिपोर्टर की हैसियत से गया था और मुझे हार्डवेयर बाजार पर स्टोरी करनी ही थी। लिहाजा मैं मार्केट एसोसिएशन के तत्कालीन अध्यक्ष के पास पहुंचा, लेकिन उनके किसी रिश्तेदार की मौत हो गई थी। लिहाजा उनसे मुलाकात नहीं हुई। तब मैं पूर्व अध्यक्ष के पास पहुंचा। वहां पहुंचा तो श्रद्धानंद मार्ग पुलिस चौकी का हेडकांस्टेबल उनकी चंपूगिरी में मसरूफ था। मैंने पूर्व अध्यक्ष जी को अपना परिचय बताया और मार्केट के बारे में जानकारी मांगी। जानकारी देने की बजाय अपनी दुकान से मुझे बाहर लेकर वे निकल पड़े। वे मुझे लेकर नई दिल्ली से सदर जाने वाली रेलवे लाइन और हार्डवेयर मार्केट के बीच वाले इलाके की ओर चले। ये वाकया नवंबर महीने का है। लेकिन उस खाली जगह में पतझड़ जैसा माहौल था। वहां प्रयोग किए जा चुके कंडोम ऐसे बिखरे पड़े थे, जैसे पतझड़ के दिनों में पेड़ों के नीचे पत्तियां बिखरी होती हैं। एक साथ इतने यूज्ड कंडोम देखकर मुझे उबकाई आने लगी। मैं उल्टे पांव लौट पड़ा। पीछे-पीछे मार्केट एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष की आवाज थी, पहले हमारी इस समस्या पर लिखो तब जाकर कोई दूसरी खबर दूंगा।
एशिया के सबसे बड़े हार्डवेयर मार्केट की चमक-दमक के पीछे कितना कचरा है और उसका छत कितने स्याह अंधेरे से घिरा है, ये मैं तभी जान पाया। उसी दिन मुझे हेड कांस्टेबल ने बताया कि वहां आनेवाले ज्यादातर ग्राहक रिक्शे-ठेले वाले या फिर स्कूलों के जवान होते छात्र होते हैं। ये भी पता चला कि सेना के जवान भी अच्छी-खासी संख्या में यहां अपना दिल बहलाने आते हैं। आप उन्हें रोकते नहीं – मेरे इस सवाल को लेकर हेड कांस्टेबल का जवाब था , उसकी यानी पुलिस वालों की कोशिश होती है कि छात्र कोठों पर जा नहीं पाएं। इसके लिए वे लाठियां भांजने से भी नहीं हिचकते। लेकिन लगे हाथों वह ये भी जोड़ने से नहीं चूका कि यहां आने वाले को कोई रोक पाया है भला।
मैं गांव का हूं...वह भी एक संभ्रांत ब्राह्मण परिवार से ..पारिवारिक संस्कारों ने कोठों के अंधेरे कोने की तहकीकात से रोक दिया। लिहाजा वहां नहीं जा पाया, लेकिन स्याह अंधेरे के पीछे की दुनिया का दर्द समझने में कोई चूक नहीं हुई। दर्द समझने में संस्कार भी कभी बाधक बनते हैं भला .......
1996 की बात है, तब मैं शावक पत्रकार था, अमर उजाला ग्रुप के आर्थिक अखबार अमर उजाला कारोबार में मेरी नई-नई नौकरी लगी थी। तब के संपादक ने नौकरी देते वक्त मुझसे ट्रेड यूनियन और साहित्यिक-सांस्कृतिक रिपोर्टिंग कराने का वादा किया था। लेकिन बाद में उन्होंने मंडी रिपोर्टिंग के काम पर लगा दिया। मेरे तत्कालीन बॉस ने एक दिन मुझसे कहा कि आप जाकर एशिया के सबसे बड़े हार्डवेयर मार्केट पर स्टोरी करके लाइए। मैंने पता लगाया कि वह मार्केट नई दिल्ली स्टेशन के पास स्वामी श्रद्धानंद मार्ग पर है। अजमेरी गेट की तरफ से मैंने आगे बढ़कर स्वामी श्रद्धानंद मार्ग का रास्ता वहां तैनात एक सिपाही से पूछा। सिपाही ने मुझे ऐसे घूरा- जैसे मुझे खा जाएगा। माजरा नहीं समझ पाया, लिहाजा ये बताने में मैंने देर नहीं लगाई कि पत्रकार हूं। सिपाही का रवैया बदल गया। उसने मुझे आंख के इशारे से रास्ता बता दिया। उसके बताए रास्ते पर आगे बढ़ने के पहले तक मुझे उस रास्ते के हकीकत की जानकारी नहीं थी। लेकिन उस रास्ते पर आगे बढ़ते ही मेरी हैरत का ठिकाना नहीं रहा। श्रद्धानंद जैसे क्रांतिकारी संन्यासी के नाम पर बनी ये सड़क पहले जीबी रोड के नाम पर जानी जाती थी। इसी जीबी रोड के ग्राउंड फ्लोर पर सचमुच एशिया का सबसे बड़ा हार्डवेयर मार्केट फैला पड़ा है। इसी रास्ते के आखिरी छोर पर लाहौरी गेट समेत पुरानी दिल्ली के कई रिहायशी इलाके हैं। इसी रास्ते से घर-परिवार वाले लोग भी रोजाना हाट-बाजार जाते हैं। कभी रिक्शे से तो कभी पैदल, वे निर्विकार भाव से वैसे ही गुजरते हैं – जैसे दूसरे इलाके में वे जाते हैं। बाजार की चमक के बीच अंधेरी सीढ़ियां भी दिख रही थीं और उनसे होकर उपर जो रास्ता जाता है, वहां कोई और ही दुनिया थी। छतों पर खड़ी लड़कियां और महिलाएं बार-बार कुछ वैसे ही बुला रही थीं – जैसे सब्जी बाजार में सब्जी वाले तरकारी और जिंस का भाव लगाते हुए ग्राहकों को बुलाते हैं। तब जाकर मुझे पता चला कि एशिया के सबसे बड़े हार्डवेयर बाजार के छत पर देह का बाजार लगता है। मेरे लिए ये नया अनुभव था। मेरा मन घृणा और विक्षोभ से भर गया। रोटी के लिए अपनी अस्मत की बोली लगाते हुए देखना मेरे लिए ये पहला अनुभव था। उस रात मैं सो नहीं पाया। सारी रात मनुष्य जीवन की मजबूरियां मुझे बेधती रहीं।
बहरहाल मैं रिपोर्टर की हैसियत से गया था और मुझे हार्डवेयर बाजार पर स्टोरी करनी ही थी। लिहाजा मैं मार्केट एसोसिएशन के तत्कालीन अध्यक्ष के पास पहुंचा, लेकिन उनके किसी रिश्तेदार की मौत हो गई थी। लिहाजा उनसे मुलाकात नहीं हुई। तब मैं पूर्व अध्यक्ष के पास पहुंचा। वहां पहुंचा तो श्रद्धानंद मार्ग पुलिस चौकी का हेडकांस्टेबल उनकी चंपूगिरी में मसरूफ था। मैंने पूर्व अध्यक्ष जी को अपना परिचय बताया और मार्केट के बारे में जानकारी मांगी। जानकारी देने की बजाय अपनी दुकान से मुझे बाहर लेकर वे निकल पड़े। वे मुझे लेकर नई दिल्ली से सदर जाने वाली रेलवे लाइन और हार्डवेयर मार्केट के बीच वाले इलाके की ओर चले। ये वाकया नवंबर महीने का है। लेकिन उस खाली जगह में पतझड़ जैसा माहौल था। वहां प्रयोग किए जा चुके कंडोम ऐसे बिखरे पड़े थे, जैसे पतझड़ के दिनों में पेड़ों के नीचे पत्तियां बिखरी होती हैं। एक साथ इतने यूज्ड कंडोम देखकर मुझे उबकाई आने लगी। मैं उल्टे पांव लौट पड़ा। पीछे-पीछे मार्केट एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष की आवाज थी, पहले हमारी इस समस्या पर लिखो तब जाकर कोई दूसरी खबर दूंगा।
एशिया के सबसे बड़े हार्डवेयर मार्केट की चमक-दमक के पीछे कितना कचरा है और उसका छत कितने स्याह अंधेरे से घिरा है, ये मैं तभी जान पाया। उसी दिन मुझे हेड कांस्टेबल ने बताया कि वहां आनेवाले ज्यादातर ग्राहक रिक्शे-ठेले वाले या फिर स्कूलों के जवान होते छात्र होते हैं। ये भी पता चला कि सेना के जवान भी अच्छी-खासी संख्या में यहां अपना दिल बहलाने आते हैं। आप उन्हें रोकते नहीं – मेरे इस सवाल को लेकर हेड कांस्टेबल का जवाब था , उसकी यानी पुलिस वालों की कोशिश होती है कि छात्र कोठों पर जा नहीं पाएं। इसके लिए वे लाठियां भांजने से भी नहीं हिचकते। लेकिन लगे हाथों वह ये भी जोड़ने से नहीं चूका कि यहां आने वाले को कोई रोक पाया है भला।
मैं गांव का हूं...वह भी एक संभ्रांत ब्राह्मण परिवार से ..पारिवारिक संस्कारों ने कोठों के अंधेरे कोने की तहकीकात से रोक दिया। लिहाजा वहां नहीं जा पाया, लेकिन स्याह अंधेरे के पीछे की दुनिया का दर्द समझने में कोई चूक नहीं हुई। दर्द समझने में संस्कार भी कभी बाधक बनते हैं भला .......
गुरुवार, 2 अप्रैल 2009
पुस्तक समीक्षा
इतिहास और निजता का संसार
उमेश चतुर्वेदी
इंटरनेट ने चिट्ठियों के संसार पर विराम लगा दिया..रही-सही कसर फोन और मोबाइल फोन ने पूरी कर दी। किसी का हालचाल जानना है तो पंडोरा बॉक्स काफी है। बीएसएनएल की मोबाइल फोन सेवा का उद्घाटन करते वक्त तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मोबाइल फोन को पंडोरा बॉक्स ही कहा था। पंडोरा बॉक्स के इस चलन के दौर ने निजी अनुभवों...सामयिक पीड़ाओं, राजनीतिक - सामाजिक चिंताओं और अपने उछाह-प्यार को दर्ज कराने का सबसे बड़ा माध्यम रही चिट्ठियों के अस्तित्व पर ही जैसे सवाल उठा दिया है। मोबाइल और इंटरनेट के दौर में हम क्या और कितना कुछ खो रहे हैं – इसका आभास तब हुआ, जब मशहूर कथाकार और ललित निबंधकार विवेकी राय की पुस्तक पत्रों की छांव में से साबका पड़ा। इस किताब में विवेकी राय को लिखे 111 चिट्ठियां तो शामिल हैं। जिन्हें अमृतलाल नागर, रामधारी सिंह दिनकर, भगवत शरण उपाध्याय, धर्मवीर भारती, कुबेरनाथ राय सरीखे नामी और महत्वपूर्ण साहित्यकारों के साथ ही नामी गिरामी हस्तियों ने लिखा है। इसी तरह विवेकी राय के लिखे 29 पत्र भी इस किताब में शामिल हैं।
कम्युनिज्म में भले ही ये मान्यता रही हो कि डीक्लास होने की प्रक्रिया सिर्फ उसके यहां ही है। लेकिन 1978 में विवेकी राय को लिखे एक पत्र में अमृतलाल नागर सरीखा व्यक्ति बताता है कि डीक्लास होने की प्रक्रिया केवल साम्यवादी ही नहीं है – अध्यात्मवादी भीहै तो हैरत होती है। इसी चिट्ठी में अपने उपन्यास मानस का हंस में बुंदेली और अवधी शब्दों को शामिल करने और उन्हें नेचुरल पुट देने की प्रक्रिया भी समझाई है। अपने इस प्रयोग को सही साबित करने के लिए वे कहते हैं कि लेखकों को अपने प्रयोग करते समय किसी हद तक अपने पाठकों का ध्यान रखना चाहिए।
विवेकी राय को लिखी एक और चिट्ठी की ओर भी किताब के सुधी पाठक का ध्यान जाना स्वाभाविक है। इसमें दिनकर की भी एक चिट्ठी है – जिसमें उन्होंने अपनी मशहूर कविता दिल्ली की रचनाप्रक्रिया पर रोशनी डाली है। दिनकर लिखते हैं - “ आपने दिल्ली कविता में जोश का जो उतार देखा है। वह उतार नहीं...चढ़ाव का दृष्टांत है। सुबह के समय फूल पर शबनम होती है, मगर दोपहरी के फूल पर तो शबनम होती ही नहीं।”
विवेकी राय की चिट्ठियों को पढ़ते हुए आपको अनामदास का पोथा में उपसंहार को जल्दीबाजी में लिखने की प्रक्रिया पर हजारी प्रसाद द्विवेदी का स्वीकृतिबोध भी मिल सकता है। ऐसे न जाने कितने दृष्टांत हैं – जो इस पूरी पुस्तक में बिखरे पड़े हैं। यही इस पुस्तक की उपलब्धि है।
हालांकि इस किताब में ढेरों निजी चिट्ठियां भी शामिल हैं। जिनमें उनकी माता जबिति देवी की गंगोत्री यात्रा का जिक्र है। तो कई मित्रों के उलाहने और मजाक भी हैं। कई अति निजी चिट्ठियां भी इस किताब में शामिल हैं। ऐसी ही एक चिट्ठी की कुछ पंक्तियों को यहां शामिल करने का लोभ संवरण करना आसान नहीं है। ये चिट्ठी है उतराखंड शोध संस्थान के पूर्व निदेशक गिरिराज शाह की – जो उन्होंने नैनीताल से 2003 में लिखी थी। गिरिराज शाह लिखते हैं – कभी सोचता हूं, यदि साहित्य साधना के स्थान पर क्रिकेट साधना या अभिनय साधना अथवा नेतागिरी की होती तो शायद सम्मान, संपदा और सुख (राजतिलक) मिलता जैसे अमिताभ बच्चन, लालू, मायावती, मुलायम और जयललिता तथा मदनलाल खुराना ‘खुरोट’ को मिल रहा है। टीवी और मीडिया में नित्य तस्वीर छपती और हिंदुस्तान के सौ करोड़ में से 99 करोड़ 99 लाख मूर्ख तालियां बजाते और चर्चा करते।
कुल मिलाकर ये पुस्तक सन 1940 के दशक से लेकर मौजूदा दौर के साहित्यिक और राजनीतिक इतिहास और कई मशहूर पुस्तकों की रचनाप्रक्रियाओं को जानने – समझने का अच्छा माध्यम बन पड़ी है।
पुस्तक – पत्रों की छांव में
लेखक – विवेकी राय
प्रकाशक – स्वामी सहजानंद सरस्वती स्मृतिकेंद्र
बड़ी बाग, गाज़ीपुर
मूल्य – 150 रूपए
उमेश चतुर्वेदी
इंटरनेट ने चिट्ठियों के संसार पर विराम लगा दिया..रही-सही कसर फोन और मोबाइल फोन ने पूरी कर दी। किसी का हालचाल जानना है तो पंडोरा बॉक्स काफी है। बीएसएनएल की मोबाइल फोन सेवा का उद्घाटन करते वक्त तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मोबाइल फोन को पंडोरा बॉक्स ही कहा था। पंडोरा बॉक्स के इस चलन के दौर ने निजी अनुभवों...सामयिक पीड़ाओं, राजनीतिक - सामाजिक चिंताओं और अपने उछाह-प्यार को दर्ज कराने का सबसे बड़ा माध्यम रही चिट्ठियों के अस्तित्व पर ही जैसे सवाल उठा दिया है। मोबाइल और इंटरनेट के दौर में हम क्या और कितना कुछ खो रहे हैं – इसका आभास तब हुआ, जब मशहूर कथाकार और ललित निबंधकार विवेकी राय की पुस्तक पत्रों की छांव में से साबका पड़ा। इस किताब में विवेकी राय को लिखे 111 चिट्ठियां तो शामिल हैं। जिन्हें अमृतलाल नागर, रामधारी सिंह दिनकर, भगवत शरण उपाध्याय, धर्मवीर भारती, कुबेरनाथ राय सरीखे नामी और महत्वपूर्ण साहित्यकारों के साथ ही नामी गिरामी हस्तियों ने लिखा है। इसी तरह विवेकी राय के लिखे 29 पत्र भी इस किताब में शामिल हैं।
कम्युनिज्म में भले ही ये मान्यता रही हो कि डीक्लास होने की प्रक्रिया सिर्फ उसके यहां ही है। लेकिन 1978 में विवेकी राय को लिखे एक पत्र में अमृतलाल नागर सरीखा व्यक्ति बताता है कि डीक्लास होने की प्रक्रिया केवल साम्यवादी ही नहीं है – अध्यात्मवादी भीहै तो हैरत होती है। इसी चिट्ठी में अपने उपन्यास मानस का हंस में बुंदेली और अवधी शब्दों को शामिल करने और उन्हें नेचुरल पुट देने की प्रक्रिया भी समझाई है। अपने इस प्रयोग को सही साबित करने के लिए वे कहते हैं कि लेखकों को अपने प्रयोग करते समय किसी हद तक अपने पाठकों का ध्यान रखना चाहिए।
विवेकी राय को लिखी एक और चिट्ठी की ओर भी किताब के सुधी पाठक का ध्यान जाना स्वाभाविक है। इसमें दिनकर की भी एक चिट्ठी है – जिसमें उन्होंने अपनी मशहूर कविता दिल्ली की रचनाप्रक्रिया पर रोशनी डाली है। दिनकर लिखते हैं - “ आपने दिल्ली कविता में जोश का जो उतार देखा है। वह उतार नहीं...चढ़ाव का दृष्टांत है। सुबह के समय फूल पर शबनम होती है, मगर दोपहरी के फूल पर तो शबनम होती ही नहीं।”
विवेकी राय की चिट्ठियों को पढ़ते हुए आपको अनामदास का पोथा में उपसंहार को जल्दीबाजी में लिखने की प्रक्रिया पर हजारी प्रसाद द्विवेदी का स्वीकृतिबोध भी मिल सकता है। ऐसे न जाने कितने दृष्टांत हैं – जो इस पूरी पुस्तक में बिखरे पड़े हैं। यही इस पुस्तक की उपलब्धि है।
हालांकि इस किताब में ढेरों निजी चिट्ठियां भी शामिल हैं। जिनमें उनकी माता जबिति देवी की गंगोत्री यात्रा का जिक्र है। तो कई मित्रों के उलाहने और मजाक भी हैं। कई अति निजी चिट्ठियां भी इस किताब में शामिल हैं। ऐसी ही एक चिट्ठी की कुछ पंक्तियों को यहां शामिल करने का लोभ संवरण करना आसान नहीं है। ये चिट्ठी है उतराखंड शोध संस्थान के पूर्व निदेशक गिरिराज शाह की – जो उन्होंने नैनीताल से 2003 में लिखी थी। गिरिराज शाह लिखते हैं – कभी सोचता हूं, यदि साहित्य साधना के स्थान पर क्रिकेट साधना या अभिनय साधना अथवा नेतागिरी की होती तो शायद सम्मान, संपदा और सुख (राजतिलक) मिलता जैसे अमिताभ बच्चन, लालू, मायावती, मुलायम और जयललिता तथा मदनलाल खुराना ‘खुरोट’ को मिल रहा है। टीवी और मीडिया में नित्य तस्वीर छपती और हिंदुस्तान के सौ करोड़ में से 99 करोड़ 99 लाख मूर्ख तालियां बजाते और चर्चा करते।
कुल मिलाकर ये पुस्तक सन 1940 के दशक से लेकर मौजूदा दौर के साहित्यिक और राजनीतिक इतिहास और कई मशहूर पुस्तकों की रचनाप्रक्रियाओं को जानने – समझने का अच्छा माध्यम बन पड़ी है।
पुस्तक – पत्रों की छांव में
लेखक – विवेकी राय
प्रकाशक – स्वामी सहजानंद सरस्वती स्मृतिकेंद्र
बड़ी बाग, गाज़ीपुर
मूल्य – 150 रूपए
मंगलवार, 24 मार्च 2009
किस करवट बैठेगी ब्लॉगिंग की दुनिया !
उमेश चतुर्वेदी
ब्लॉगिंग पर सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले ने ब्लॉगरों के मीडिया के सबसे शिशु माध्यम और उसके कर्ताधर्ताओं के सामने धर्मसंकट खड़ा कर दिया है। अपनी भड़ास निकालने का अब तक अहम जरिया माने जाते रहे ब्लॉगिंग की दुनिया सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से कितना मर्यादित होगी या उस पर बंदिशों का दौर शुरू हो सकता है - सबसे बड़ा सवाल ये उठ खड़ा हुआ है। चूंकि ये फैसला सुप्रीम कोर्ट की ओर से आया है, लिहाजा इस पर सवाल नहीं उठ रहे हैं।
इस लेख का मकसद इस फैसले की मीमांसा करना नहीं है - लेकिन इसके बहाने उठ रहे कुछ सवालों से दो-चार होना जरूर है। इन सवालों से रूबरू होने से पहले हमें आज के दौर के मीडिया की कार्यशैली और उन पर निगाह डाल लेनी चाहिए। उदारीकरण की भले ही हवा निकलती नजर आ रही है – लेकिन ये भी सच है कि आज मीडिया के सभी प्रमुख माध्यम – अखबार, टीवी और रेडियो बाजार की संस्कृति में पूरी तरह ढल चुके हैं। बाजार के दबाव में रणनीति के तहत सिर्फ आर्थिक मुनाफे के लिए पत्रकारिता को आज सुसभ्य और सुसंस्कृत भाषा में कारपोरेटीकरण कहा जा रहा है। यानी कारपोरेट शब्द ने बाजारीकरण के दबावों के बीच किए जा रहे कामों को एक वैधानिक दर्जा दे दिया है। जाहिर है – इस संस्कृति में उतना ही सच, आम लोगों के उतने ही दर्द और परेशानियां सामने आ पाती हैं, जितना बाजार चाहता है। भारत में दो घटनाओं को इससे बखूबी समझा जा सकता है। राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा के निठारी से लगातार बच्चे गायब होते रहे – लेकिन कारपोरेट मीडिया के लिए ये बड़ी खबर नहीं बने। लेकिन उसी नोएडा के एक पॉश इलाके से नवंबर 2006 में एक बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी एडॉबी इंडिया के सीईओ नरेश गुप्ता के बच्चे अंकित का अपहरण कर लिया गया तो ये मीडिया के लिए सबसे बड़ी खबर बन गई। इसके ठीक दो साल बाद मुंबई में ताज होटल पर जब आतंकियों ने हमला कर दिया तो उस घटना के साथ भी मीडिया ने कुछ वैसा ही सलूक किया – जैसा अंकित गुप्ता अपहरण के साथ हुआ। जबकि ऐसी आतंकी घटनाएं उत्तर पूर्व और कश्मीर घाटी में रोज घट रही हैं। नक्सलियों के हाथों बीसियों लोग रोजाना मारे जा रहे हैं। लेकिन इन घटनाओं के साथ मीडिया उतना उतावलापन नहीं दिखाता – जितना अंकित अपहरण या ताज हमला जैसी घटनाओं को लेकर दिखाता रहा है।
मीडिया के ऐसे कारपोरेटाइजेशन के दौर में कुछ अरसा पहले ब्लॉगिंग नई हवा के झोंके के साथ आया और वर्चुअल दुनिया में छा गया। ब्लॉगिंग पर दरअसल वह दबाव नहीं रहा – जो कारपोरेट मीडिया पर बना रहता है। इसलिए ब्लॉगरों के लिए सच्चाई को सामने लाना आसान रहा। इसके चलते ब्लॉगिंग कितनी ताकतवर हो सकती है – इसका अंदाजा तकनीक और आधुनिकता की दुनिया के बादशाह अमेरिका में हाल के राष्ट्रपति चुनावों में देखा गया। ये सच है कि अमेरिकी लोगों को बराक हुसैन ओबामा का बदलावभरा नेतृत्व पसंद तो आया। लेकिन ये भी उतना ही सच है कि उन्हें लेकर लोगों का मानस सुदृढ़ बनाने में ब्लॉगरों की भूमिका बेहद अहम रही। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के बाद एक सर्वे एजेंसी ने अपनी एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक तकरीबन साठ फीसदी अमेरिकी वोटरों को ओबामा के प्रति राय बनाने में ब्लॉगिंग ने अहम भूमिका निभाई। इस सर्वे एजेंसी के मुताबिक वोटरों का कहना था कि मीडिया के प्रमुख माध्यमों पर उनका भरोसा नहीं था, क्योंकि उन दिनों ये सारे प्रमुख माध्यम वही बोल रहे थे, जो ह्वाइट हाउस कह रहा था।
ब्लॉगरों की ताकत इराक और अफगानिस्तान में बुश के हमले की हकीकत दुनिया के सामने लाने में दिखी। आप याद कीजिए उस दौर को – तब इंबेडेड पत्रकारिता की बात जोरशोर से उछाली जा रही थी। क्या अमेरिकी – क्या भारतीय – दोनों मीडिया के दिग्गज इसकी वकालत कर रहे थे। जिन भारतीय अखबारों और चैनलों को अमेरिकी सेनाओं के साथ इंबेडेड होने का मौका मिल गया था – वे अपने को धन्य और इस व्यवस्था को बेहतर बताते नहीं थक रहे थे। सारा लब्बोलुआब ये कि इन हमलों को जायज ठहराने के लिए बुश प्रशासन और अमेरिकी सेना जो भी तर्क दे रही थी – दुनियाभर का कारपोरेट मीडिया इसे हाथोंहाथ ले रहा था। लेकिन अमेरिकी ब्लॉगरों ने हकीकत को बयान करके भूचाल ला दिया। ये ब्लॉगरों की ही देन थी कि बुश कटघरे में खड़े नजर आने लगे। उनकी लोकप्रियता का ग्राफ लगातार गिरता गया। और हालत ये हो गई कि 2008 आते –आते जार्ज बुश जूनियर अपने प्रत्याशी को जिताने के भी काबिल नहीं रहे।
भारत में ब्लॉगिंग की शुरूआत भले ही बेहतर लक्ष्यों को हासिल करने को लेकर ही हुई – लेकिन उतना ही सच ये भी है कि बाद में ये भड़ास निकालने का माध्यम बन गया। पिछले साल यानी 2008 की शुरुआत और 2007 के आखिरी दिनों में तो आपसी गालीगलौज का भी माध्यम बन गया। हिंदी के दो मशहूर ब्लॉगरों के बीच गालीगलौज आज तक लोगों को याद है। दो हजार छह के शुरूआती दिनों में तो दो-तीन ब्लॉग ऐसे थे – जिन पर पत्रकारिता जगत के बेडरूम की घटनाओं और रिश्तों को आंखोंदेखा हाल की तरह बताया जा रहा था। किस पत्रकार का किस महिला रिपोर्टर से संबंध है – ब्लॉगिंग का ये भी विषय था। जब इसका विरोध शुरू हुआ तो ये ब्लॉग ही खत्म कर दिए गए।
दरअसल कोई भी माध्यम जब शुरू होता है तो इसे लेकर पहले कौतूहल होता है। फिर उसके बेसिर-पैर वाले इस्तेमाल भी शुरू होते हैं। इस बीच गंभीर प्रयास भी जारी रहते हैं। नदी की धार की तरह माध्यम के विकास की धारा भी चलती रहती है और इसी धारा से तिनके वक्त के साथ दूर होते जाते हैं। हिंदी ब्लॉगिंग के साथ भी यही हो रहा है। आज भाषाओं को बचाने, देशज रूपों के बनाए रखने, स्थानीय संस्कृति की धार को बनाए रखने को लेकर ना जाने कितने ब्लॉग काम कर रहे हैं। तमाम ब्लॉग एग्रीगेटरों के मुताबिक हिंदी में ब्लॉगों की संख्या 10 हजार के आंकड़े को पार कर गई है। इनमें ऐसे भी ढेरों ब्लॉग हैं – जो राजनीतिक से लेकर सामाजिक रूढ़ियों पर चुभती हुई टिप्पणियां करते हैं।
जिस ब्लॉग पर टिप्पणियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला आया है – वह केरल के एक साइंस ग्रेजुएट अजीत का ब्लॉग है। उसने अपनी सोशल साइट पर शिवसेना के खिलाफ एक कम्युनिटी शुरू की थी। इसमें कई लोगों की पोस्ट, चर्चाएं और टिप्पणियां शामिल थीं। इसमें शिवसेना को धर्म के आधार पर देश बांटने वाला बताया गया था। जिसकी शिवसेना ने महाराष्ट्र हाईकोर्ट में शिकायत की थी। जिसके बाद हाईकोर्ट ने अजीत के खिलाफ नोटिस जारी किया था। अजीत ने सुप्रीम कोर्ट से शिकायत की कि ब्लॉग और सोशल साइट पर की गई टिप्पणी के लिए उसे जिम्मेदार ठहराया नहीं जा सकता। लेकिन चीफ जस्टिस के.जी.बालाकृष्णन और जस्टिस पी सतशिवम की पीठ ने कहा कि ब्लाग पर कमेंट भेजने वाला जिम्मेदार है,यह कहकर ब्लागर बच नहीं सकता है। यानी किसी मुद्दे पर ब्लाग शुरू करके दूसरों को उस पर मनचाहे और अनाप-शनाप कमेंट पोस्ट करने के लिए बुलाना अब खतरनाक है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से अनापशनाप लेखन पर रोक तो लगेगी। लेकिन असल सवाल दूसरा है। राजनीति विज्ञान और कानून की किताबों में कानून के तीन स्रोत बताए गए हैं। पहला – संसद या विधानमंडल, दूसरा सुप्रीम कोर्ट के फैसले और तीसरा परंपरा। ये सच है कि जिस तरह ब्लॉगिंग की दुनिया में सरकारी और सियासी उलटबांसियों के परखच्चे उड़ाए जा रहे हैं। उससे सरकार खुश नहीं है। वह ब्लॉगिंग को मर्यादित करने के नाम पर इस पर रोक लगाने का मन काफी पहले से बना चुकी है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय के गलियारों से रह-रहकर छन-छन कर आ रही जानकारियों से साफ है कि सरकार की मंशा क्या है। कहना ना होगा कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से सरकार को अपनी मुखालफत कर रही वर्चुअल दुनिया की इन आवाजों को बंद करने का अच्छा बहाना मिल जाएगा। जिसका इस्तेमाल वह देर-सवेर करेगी ही।
मुंबई हमले के दौरान टेलीविजन पर आतंकवादी के फोनो ने पहले से खार खाए बैठी सरकार को अच्छा मौका दे दिया। टेलीविजन चैनलों पर लगाम लगाने के लिए उसने केबल और टेलीविजन नेटवर्क कानून 1995 में नौ संशोधन करने का मन बना चुकी थी। लेकिन टेलीविजन की दुनिया इसके खिलाफ उठ खड़ी हुई तो सरकार को बदलना पड़ा। लेकिन हैरत ये है कि ब्लॉगरों के लिए अभी तक कोई ऐसा प्रयास होता नहीं दिख रहा।
ब्लॉगिंग पर सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले ने ब्लॉगरों के मीडिया के सबसे शिशु माध्यम और उसके कर्ताधर्ताओं के सामने धर्मसंकट खड़ा कर दिया है। अपनी भड़ास निकालने का अब तक अहम जरिया माने जाते रहे ब्लॉगिंग की दुनिया सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से कितना मर्यादित होगी या उस पर बंदिशों का दौर शुरू हो सकता है - सबसे बड़ा सवाल ये उठ खड़ा हुआ है। चूंकि ये फैसला सुप्रीम कोर्ट की ओर से आया है, लिहाजा इस पर सवाल नहीं उठ रहे हैं।
इस लेख का मकसद इस फैसले की मीमांसा करना नहीं है - लेकिन इसके बहाने उठ रहे कुछ सवालों से दो-चार होना जरूर है। इन सवालों से रूबरू होने से पहले हमें आज के दौर के मीडिया की कार्यशैली और उन पर निगाह डाल लेनी चाहिए। उदारीकरण की भले ही हवा निकलती नजर आ रही है – लेकिन ये भी सच है कि आज मीडिया के सभी प्रमुख माध्यम – अखबार, टीवी और रेडियो बाजार की संस्कृति में पूरी तरह ढल चुके हैं। बाजार के दबाव में रणनीति के तहत सिर्फ आर्थिक मुनाफे के लिए पत्रकारिता को आज सुसभ्य और सुसंस्कृत भाषा में कारपोरेटीकरण कहा जा रहा है। यानी कारपोरेट शब्द ने बाजारीकरण के दबावों के बीच किए जा रहे कामों को एक वैधानिक दर्जा दे दिया है। जाहिर है – इस संस्कृति में उतना ही सच, आम लोगों के उतने ही दर्द और परेशानियां सामने आ पाती हैं, जितना बाजार चाहता है। भारत में दो घटनाओं को इससे बखूबी समझा जा सकता है। राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा के निठारी से लगातार बच्चे गायब होते रहे – लेकिन कारपोरेट मीडिया के लिए ये बड़ी खबर नहीं बने। लेकिन उसी नोएडा के एक पॉश इलाके से नवंबर 2006 में एक बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी एडॉबी इंडिया के सीईओ नरेश गुप्ता के बच्चे अंकित का अपहरण कर लिया गया तो ये मीडिया के लिए सबसे बड़ी खबर बन गई। इसके ठीक दो साल बाद मुंबई में ताज होटल पर जब आतंकियों ने हमला कर दिया तो उस घटना के साथ भी मीडिया ने कुछ वैसा ही सलूक किया – जैसा अंकित गुप्ता अपहरण के साथ हुआ। जबकि ऐसी आतंकी घटनाएं उत्तर पूर्व और कश्मीर घाटी में रोज घट रही हैं। नक्सलियों के हाथों बीसियों लोग रोजाना मारे जा रहे हैं। लेकिन इन घटनाओं के साथ मीडिया उतना उतावलापन नहीं दिखाता – जितना अंकित अपहरण या ताज हमला जैसी घटनाओं को लेकर दिखाता रहा है।
मीडिया के ऐसे कारपोरेटाइजेशन के दौर में कुछ अरसा पहले ब्लॉगिंग नई हवा के झोंके के साथ आया और वर्चुअल दुनिया में छा गया। ब्लॉगिंग पर दरअसल वह दबाव नहीं रहा – जो कारपोरेट मीडिया पर बना रहता है। इसलिए ब्लॉगरों के लिए सच्चाई को सामने लाना आसान रहा। इसके चलते ब्लॉगिंग कितनी ताकतवर हो सकती है – इसका अंदाजा तकनीक और आधुनिकता की दुनिया के बादशाह अमेरिका में हाल के राष्ट्रपति चुनावों में देखा गया। ये सच है कि अमेरिकी लोगों को बराक हुसैन ओबामा का बदलावभरा नेतृत्व पसंद तो आया। लेकिन ये भी उतना ही सच है कि उन्हें लेकर लोगों का मानस सुदृढ़ बनाने में ब्लॉगरों की भूमिका बेहद अहम रही। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के बाद एक सर्वे एजेंसी ने अपनी एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक तकरीबन साठ फीसदी अमेरिकी वोटरों को ओबामा के प्रति राय बनाने में ब्लॉगिंग ने अहम भूमिका निभाई। इस सर्वे एजेंसी के मुताबिक वोटरों का कहना था कि मीडिया के प्रमुख माध्यमों पर उनका भरोसा नहीं था, क्योंकि उन दिनों ये सारे प्रमुख माध्यम वही बोल रहे थे, जो ह्वाइट हाउस कह रहा था।
ब्लॉगरों की ताकत इराक और अफगानिस्तान में बुश के हमले की हकीकत दुनिया के सामने लाने में दिखी। आप याद कीजिए उस दौर को – तब इंबेडेड पत्रकारिता की बात जोरशोर से उछाली जा रही थी। क्या अमेरिकी – क्या भारतीय – दोनों मीडिया के दिग्गज इसकी वकालत कर रहे थे। जिन भारतीय अखबारों और चैनलों को अमेरिकी सेनाओं के साथ इंबेडेड होने का मौका मिल गया था – वे अपने को धन्य और इस व्यवस्था को बेहतर बताते नहीं थक रहे थे। सारा लब्बोलुआब ये कि इन हमलों को जायज ठहराने के लिए बुश प्रशासन और अमेरिकी सेना जो भी तर्क दे रही थी – दुनियाभर का कारपोरेट मीडिया इसे हाथोंहाथ ले रहा था। लेकिन अमेरिकी ब्लॉगरों ने हकीकत को बयान करके भूचाल ला दिया। ये ब्लॉगरों की ही देन थी कि बुश कटघरे में खड़े नजर आने लगे। उनकी लोकप्रियता का ग्राफ लगातार गिरता गया। और हालत ये हो गई कि 2008 आते –आते जार्ज बुश जूनियर अपने प्रत्याशी को जिताने के भी काबिल नहीं रहे।
भारत में ब्लॉगिंग की शुरूआत भले ही बेहतर लक्ष्यों को हासिल करने को लेकर ही हुई – लेकिन उतना ही सच ये भी है कि बाद में ये भड़ास निकालने का माध्यम बन गया। पिछले साल यानी 2008 की शुरुआत और 2007 के आखिरी दिनों में तो आपसी गालीगलौज का भी माध्यम बन गया। हिंदी के दो मशहूर ब्लॉगरों के बीच गालीगलौज आज तक लोगों को याद है। दो हजार छह के शुरूआती दिनों में तो दो-तीन ब्लॉग ऐसे थे – जिन पर पत्रकारिता जगत के बेडरूम की घटनाओं और रिश्तों को आंखोंदेखा हाल की तरह बताया जा रहा था। किस पत्रकार का किस महिला रिपोर्टर से संबंध है – ब्लॉगिंग का ये भी विषय था। जब इसका विरोध शुरू हुआ तो ये ब्लॉग ही खत्म कर दिए गए।
दरअसल कोई भी माध्यम जब शुरू होता है तो इसे लेकर पहले कौतूहल होता है। फिर उसके बेसिर-पैर वाले इस्तेमाल भी शुरू होते हैं। इस बीच गंभीर प्रयास भी जारी रहते हैं। नदी की धार की तरह माध्यम के विकास की धारा भी चलती रहती है और इसी धारा से तिनके वक्त के साथ दूर होते जाते हैं। हिंदी ब्लॉगिंग के साथ भी यही हो रहा है। आज भाषाओं को बचाने, देशज रूपों के बनाए रखने, स्थानीय संस्कृति की धार को बनाए रखने को लेकर ना जाने कितने ब्लॉग काम कर रहे हैं। तमाम ब्लॉग एग्रीगेटरों के मुताबिक हिंदी में ब्लॉगों की संख्या 10 हजार के आंकड़े को पार कर गई है। इनमें ऐसे भी ढेरों ब्लॉग हैं – जो राजनीतिक से लेकर सामाजिक रूढ़ियों पर चुभती हुई टिप्पणियां करते हैं।
जिस ब्लॉग पर टिप्पणियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला आया है – वह केरल के एक साइंस ग्रेजुएट अजीत का ब्लॉग है। उसने अपनी सोशल साइट पर शिवसेना के खिलाफ एक कम्युनिटी शुरू की थी। इसमें कई लोगों की पोस्ट, चर्चाएं और टिप्पणियां शामिल थीं। इसमें शिवसेना को धर्म के आधार पर देश बांटने वाला बताया गया था। जिसकी शिवसेना ने महाराष्ट्र हाईकोर्ट में शिकायत की थी। जिसके बाद हाईकोर्ट ने अजीत के खिलाफ नोटिस जारी किया था। अजीत ने सुप्रीम कोर्ट से शिकायत की कि ब्लॉग और सोशल साइट पर की गई टिप्पणी के लिए उसे जिम्मेदार ठहराया नहीं जा सकता। लेकिन चीफ जस्टिस के.जी.बालाकृष्णन और जस्टिस पी सतशिवम की पीठ ने कहा कि ब्लाग पर कमेंट भेजने वाला जिम्मेदार है,यह कहकर ब्लागर बच नहीं सकता है। यानी किसी मुद्दे पर ब्लाग शुरू करके दूसरों को उस पर मनचाहे और अनाप-शनाप कमेंट पोस्ट करने के लिए बुलाना अब खतरनाक है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से अनापशनाप लेखन पर रोक तो लगेगी। लेकिन असल सवाल दूसरा है। राजनीति विज्ञान और कानून की किताबों में कानून के तीन स्रोत बताए गए हैं। पहला – संसद या विधानमंडल, दूसरा सुप्रीम कोर्ट के फैसले और तीसरा परंपरा। ये सच है कि जिस तरह ब्लॉगिंग की दुनिया में सरकारी और सियासी उलटबांसियों के परखच्चे उड़ाए जा रहे हैं। उससे सरकार खुश नहीं है। वह ब्लॉगिंग को मर्यादित करने के नाम पर इस पर रोक लगाने का मन काफी पहले से बना चुकी है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय के गलियारों से रह-रहकर छन-छन कर आ रही जानकारियों से साफ है कि सरकार की मंशा क्या है। कहना ना होगा कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से सरकार को अपनी मुखालफत कर रही वर्चुअल दुनिया की इन आवाजों को बंद करने का अच्छा बहाना मिल जाएगा। जिसका इस्तेमाल वह देर-सवेर करेगी ही।
मुंबई हमले के दौरान टेलीविजन पर आतंकवादी के फोनो ने पहले से खार खाए बैठी सरकार को अच्छा मौका दे दिया। टेलीविजन चैनलों पर लगाम लगाने के लिए उसने केबल और टेलीविजन नेटवर्क कानून 1995 में नौ संशोधन करने का मन बना चुकी थी। लेकिन टेलीविजन की दुनिया इसके खिलाफ उठ खड़ी हुई तो सरकार को बदलना पड़ा। लेकिन हैरत ये है कि ब्लॉगरों के लिए अभी तक कोई ऐसा प्रयास होता नहीं दिख रहा।
शुक्रवार, 6 मार्च 2009
चुनावी माहौल का बदला-बदला नजारा
उमेश चतुर्वेदी
चुनाव कार्यक्रमों का ऐलान करके चुनाव आयोग रेफरी की तरह मैदान में उतर गया है। उसे इंतजार है नियत तारीख पर चुनावी अखाड़े में उतरने वाले राजनीतिक दलों का..जो अखाड़े के नियम कायदे का पालन करते हुए अपने प्रतिद्वंद्वियों को पटखनी दे सकें। चुनाव आयोग का ये इंतजार तो खत्म हो जाएगा, लेकिन राजनीतिक दलों को मतगणना से ठीक पहले सब्जबाग दिखाने वाले एक्जिट पोल करने वाली कंपनियों की हालत खराब है। चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के मुताबिक एक्जिट पोल पर रोक लगा दी है। इससे मीडिया के जरिए अपना बाजार चमकाने वाली उन कंपनियों की हालत खराब है- जिनका दावा रहता आया है कि वे सटीक एक्जिट पोल करती रही हैं। सही मायने में देखा जाय तो डिजिटल टेक्नॉलजी के विस्तार के दौर में ये पहला मौका होगा, जिसमें इंटरनेट, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और रेडियो...सभी अपनी-अपनी भूमिकाएं निभाएंगे, लेकिन नहीं होगा तो एक्जिट पोल का धमाल।
चुनाव आयोग के मुताबिक पांच दौर में चुनाव होने जा रहे हैं। तकरीबन एक महीने तक चलने वाले इस चुनावी महायज्ञ में पहली बार होगा कि हर मतदान के बाद एक्जिट पोल वाले चौंकाने वाले नतीजे राजनेताओं और वोटरों को परेशान नहीं करेंगे। एक्जिट पोल पर रोक की सबसे बड़ी वजह तो यही बताई गई है कि इससे बाद के दौर के वोटरों को रूझान पर असर पड़ता है। अगर राजनीतिक दल और मीडिया संस्थान ये मानते रहे हैं कि एक्जिट पोल बाद के दौर में असर डालता है तो जाहिर है कि सियासत के खिलाड़ी इसका अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की कोशिश भी जरूर करते रहे होंगे। वैसे ऐसी खबरें आती भी रही हैं। इसका फायदा उठाने की कोशिश में चुनाव का मौसम आते ही कुकुरमुत्तों की तरह एक्जिट पोल और चुनाव सर्वे करने वाली कंपनियों की बाढ़ आती रही है। जब से चुनाव आयोग ने मतदान की तारीखों का ऐलान किया है – ऐसी कंपनियों की बाढ़ तो इस बार भी आ गई है। इसे देखना है तो आप सांसदों की कॉलोनियों नॉर्थ एवेन्यू और साउथ एवेन्यू में घूम आइए। वहां लकदक कपड़ों में अपने कथित सटीक चुनाव पूर्व सर्वे का दावा वाली चमकती फाइलें लिए एक्जीक्यूटिव और मार्केटिंग एजेंट घूमते नजर आ जाएंगे। टिकटों की चाहत में अपने राज्यों के दिल्ली स्थित भवनों में ठहरे नेताओं के यहां भी ऐसे लोगों की दस्तक बढ़ गई है। राजनेताओं से मिलते वक्त उनका एक ही दावा है कि उनका सर्वे का तरीका बेहद वैज्ञानिक है और वह तकरीबन सही और सटीक बैठता है।
चूंकि इस बार एक्जिट पोल नहीं होना है, अब चुनाव सर्वे की जरूरत भी नहीं रह गई है। लिहाजा वक्ती तौर के इन खिलाड़ियों ने नया तरीका अख्तियार कर लिया है। वे प्रत्याशियों और भावी उम्मीदवारों को समझाते फिर रहे हैं कि कौन सा मुद्दा उनके लिए क्लिक करेगा, वे उसकी पड़ताल करके आपको बताएंगे। यानी एक्जिट पोल करने वाले अब सलाहकार की भूमिका में नजर आ रहे हैं। बाजार में उनके खेल के लिए जगह नहीं बची तो उन्होंने अपनी भूमिका ही बदल डाली है या फिर बदलने की सोच रहे हैं। मजे की बात ये है कि ये खिलाड़ी एक सीट के सभी महत्वपूर्ण प्रत्याशियों या भावी उम्मीदवारों से मिल रहे हैं। यानी सबके लिए उनके पास ताबीज और टोटका है। यानी एक ही कंपनी का एक्जीक्यूटिव अगर कांग्रेस के प्रत्याशी से मिल रहा है तो उसके चुनावी क्षेत्र के लिए जरूरी और क्लिक करने वाले विषय और मुद्दे की तलाश का दावा कर रहा है और दिलचस्प बात ये है कि वही जब विपक्षी बीजेपी या किसी और दल के प्रत्याशी से मिल रहा है तो उसके योग्य मुद्दे खोजने की बात कर रहा है। इन कंपनियों का दावा है कि वे उम्मीदवार को फायदा पहुंचाने वाले मुद्दों को खोज कर उसके लायक मीडिया प्लानिंग बना और तैयार कर सकते हैं – जिसका फायदा उन्हें चुनावी मैदान में मिल सकता है।
तकनीक किस हद तक इस चुनाव में हंगामा बरपाने जा रहा है – इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब तकरीबन हर प्रत्याशी को सीडी और डीवीडी बनवाने का सुझाव दिया जा रहा है। एक्जिट पोल करने का दावा करने वाली कुछ कंपनियां भी इस दौड़ में शामिल हो गई हैं। मजे की बात ये है कि इस दौड़ में उस बीजेपी के उम्मीदवार भी शामिल हैं – जिन्हें पिछला यानी 2004 का आम चुनाव हारने के पीछे तकनीक आधारित हाईटेक प्रचार को ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार ठहराया गया था। बीजेपी के हाईटेक प्रचार की खिल्ली उड़ाने वाली कांग्रेस भी इस दौड़ में शामिल है। लेकिन इस बार बीजेपी भी उसका मजाक नहीं उड़ा रही है।
इस सबका असर मीडिया में भी नजर आ रहा है। अब चुनाव में कौन बाजी मारेगा – इसे लेकर अभी चर्चा नहीं हो रही। चुनाव प्रचार अपने चरम पर पहुंचेगा तो शायद ये चर्चा भी जोर पकड़े। लेकिन फिलहाल मीडिया भी खामोश है और कहना ना होगा कि इसमें चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों के प्रकाशन और प्रसारण पर लगी रोक की अहम भूमिका है। वोटर तो बेचारा पहले की ही तरह खामोश है। उसे बस इंतजार है उस दिन का- जब वह अपनी बदहाली दूर करने का दावा करने और बेहतर भविष्य का सपना दिखाने वाले नेताजी के पक्ष में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का बटन दबाएगा। ये बात और है कि हर बार की तरह उसका सपना हकीकत की जमीं पर कम ही उतर पाएगा।
गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009
सियासी मैदान में इंटरनेट की दस्तक
उमेश चतुर्वेदी
अमेरिका में हाल ही में हुए राष्ट्रपति चुनाव और भारत में होने जा रहे आम चुनाव में मंदी की छाया के अलावा और कोई समानता है तो वह है इंटरनेट का इस्तेमाल। 1969 में इंटरनेट के जन्म के बाद ये पहला मौका है – जब भारतीय चुनावों में इंटरनेट का जोरदार इस्तेमाल होने की उम्मीद जताई जा रही है। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के दोनों उम्मीदवारों ने मतदाताओं को लुभाने के लिए इंटरनेट का जमकर इस्तेमाल किया। लेकिन इसका ये भी मतलब नहीं कि अखबारों और टेलीविजन या फिर खबरिया वेबसाइटों ने अमेरिका में ओबामा के पक्ष में माहौल बनाने में कोई मदद नहीं की। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के बाद वहां हुए एक सर्वेक्षण में साठ फीसदी लोगों का कहना था कि ओबामा के पक्ष या कहें कि बुश के खिलाफ उनका नजरिया विकसित करने में ब्लॉगिंग और ब्लॉगरों ने बड़ी भूमिका निभाई।
आप याद करिए सन 2000 और उसके बाद का माहौल...उस समय आईटी को लेकर दो राज्यों के नजरिए में कितना अंतर था। एक तरफ आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू थे, जिन्होंने हैदराबाद में सॉफ्टवेयर उद्योग को इतना आगे बढ़ाया कि उसे लोग साइबराबाद के तौर पर जानने लगे। जिलों को वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए जोड़ने वाले पहले मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ही थे। उन्हीं दिनों बिहार में राज चला रहे आरजेडी अध्यक्ष लालू यादव इंटरनेट और सॉफ्टवेयर उद्योग का मजाक उड़ाते फिर रहे थे – ये आईटी- फाईटी क्या होता है। उन्हीं दिनों आंध्र में किसान आत्महत्याएं कर रहे थे। तब लालू के इस जुमले के जरिए एन चंद्रबाबू नायडू की जमकर आलोचना हो रही थी। 2004 के आम चुनावों में नायडू पर सॉफ्टवेयर उद्योग का विकास एक आरोप की तरह चस्पा करने में उनके विरोधी पीछे नहीं रहे। जिसका खामियाजा नायडू को सत्ता से बाहर होकर चुकाना पड़ा। लेकिन पांच साल में ही पूरा नजारा बदल गया है। आईटी-फाईटी कह कर इंटरनेट और कंप्यूटर की वर्चुअल दुनिया का मजाक उड़ाने वाले लालू यादव खुद ब्लॉगर हो गए हैं। ब्लॉग पर व्यक्त उनके विचार वैसे ही खबर बन रहे हैं – जैसे उनके बयान बनते रहे हैं। जो शख्स कभी इंटरनेट की वर्चुअल दुनिया का मजाक उड़ाते नहीं थकता था – उसमें तकनीक और वर्चुअल दुनिया को लेकर ये बदलाव कम बड़ी बात नहीं है। गांव-गिरांव और गरीब-गुरबे की बात करने वाले राजनेताओं में आखिर ये बदलाव क्यों आया है। इसका सबसे बेहतरीन जवाब खुद राजनेता ही दे रहे हैं। हाल ही में फिक्की के एक कार्यक्रम में एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि पहिया की खोज के बाद अब तक की सबसे बडी खोज इंटरनेट ही है। जिसने पूरी दुनिया को ही बदल दिया है।
इंटरनेट को आमतौर पर नौजवानों का माध्यम माना जाता है। लेकिन हकीकत ये है कि नौजवानों का ये माध्यम बूढ़े राजनेताओं तक को भी भा रहा है। लालकृष्ण आडवाणी अब खुद अपनी वेबसाइट के जरिए नौजवानों से मुखातिब हैं। उनके लेफ्टिनेंट शाहनवाज हुसैन भी अपनी अलग वेबसाइट लेकर वर्चुअल दुनिया में नौजवानों को रिझाने निकल पड़े हैं। कांग्रेस के राहुल बाबा भी नौजवानों को रिझा रहे हैं। हालांकि उन्होंने मीडिया के सभी माध्यमों के जरिए नौजवानों को लुभाने का अभियान छेड़ रखा है। जाहिर है, इसमें इंटरनेट भी है। लेकिन सबसे बड़ी बात ये कि उनकी अभी तक स्वतंत्र वेबसाइट नहीं है। बल्कि कांग्रेस पार्टी की वेबसाइट के ही जरिए वे लोगों से मुखातिब हैं। वैसे आज इक्का-दुक्का पार्टियां ही हैं, जिनकी अपनी कोई वेबसाइट नहीं है। समाजवादी विचारधारा वाली समाजवादी पार्टी भी इंटरनेट की वर्चुअल दुनिया में मौजूद है। दलितों का उद्धार करने का दावा करने वाली बहुजन समाज पार्टी की भी अपनी वेबसाइट है। हां, बिहार में राज चला रहे जनता दल की साइट अभी नहीं दिखी है। लेकिन एक बात जरूर है कि अब राजनेता अपने बयानों और विचारों को इंटरनेट की वर्चुअल दुनिया में पेश करने और दिखाने के लिए सचेत हो रहे हैं।
आखिर क्या वजह है कि अब तक गली – कूचों से लेकर गांव-कस्बे के मैदानों में तकरीर करने वाले राजनेताओं को इंटरनेट की दुनिया लुभाने लगी है। इसका जवाब है हाल ही में सुधारी गई मतदाता सूचियां। 2004 के मुकाबले इस बार के आम चुनाव के लिए करीब 14 करोड़ नए मतदाता जुटे हैं। जाहिर है, इनमें से ज्यादातर ने हाल ही में 18 साल की उम्र सीमा पार की है। एक अनुमान के मुताबिक इनमें से करीब आठ करोड़ ऐसे हैं – जो यदा-कदा इंटरनेट की दुनिया में भ्रमण के लिए जाते रहते हैं। असल बात ये है कि इन्हीं वोटरों पर हमारे राजनेताओं की निगाह है। कहा जाता है कि 1989 के आम चुनाव में राजीव गांधी की अगुआई वाली कांग्रेस को हराने में नौजवानो मतदाताओं ने ही अहम भूमिका निभाई थी। लिहाजा इस बार कोई खतरा उठाने को तैयार नहीं है।
इसकी तस्दीक इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया की 28 जनवरी 2009 को जारी रिपोर्ट भी करती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में तकरीबन चार करोड़ तिरपन लाख लोग तकरीबन रोजाना इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। वैसे एसोसिएशन की इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में करीब सवा छह करोड़ नियमित इंटरनेट यूजर हैं। एसोसिएशन का मानना है कि देश के सभी 614 जिलों में तकरीबन पचास साइबर कैफे तो हैं हीं। ये सच भी है। हो सकता है किसी जिले में तीस साइबर कैफे हैं तो किसी में सत्तर। जहां बिजली की सुविधा कमजोर है, वहां सर्फिंग दिल्ली-मुंबई जैसी जगहों से महंगी जरूर है। लेकिन ये भी सच है कि इन इंटरनेट यूजरों में सबसे ज्यादा संख्या युवाओं की ही है। एसोसिएशन के आंकड़ों पर गौर करें तो इसमें हर साल करीब 13 फीसदी की बढ़ोत्तरी ही देखी जा रही है। अगर इंटरनेट के लिए जरूरी बुनियादी चीज बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके तो ये वृद्धि दर और तेज हो सकती है।
इन आंकड़ों की हकीकत सामने आने के बाद कौन ऐसा राजनेता होगा – जो अपने नौजवान वोटरों को रिझाना नहीं चाहेगा। यही वजह है कि इस बार के आम चुनाव में इंटरनेट का पहली बार जमकर इस्तेमाल होने जा रहा है। वैसे ये भी सच है कि नौजवान वोटर उस तरह किसी चुनाव क्षेत्र में संगठित या समूह में नहीं हैं। क्योंकि शहरी इलाकों में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले वोटर ज्यादा हैं तो ग्रामीण इलाके में ऐसे वोटर कम हैं। क्योंकि तमाम सियासी दबावों के बावजूद अभी देश के करीब तीस फीसदी गांवों में या तो बिजली पहुंची ही नहीं या फिर आंशिक तौर पर पहुंची है। लेकिन जिस तरह मोबाइल कंपनियों ने मोबाइल फोन पर ही इंटरनेट की सुविधा देनी शुरू की है – उससे साफ है कि अगले आम चुनावों तक शायद ही कोई नौजवान होगा – जो इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं कर रहा होगा। तकनीक की दुनिया में लगातार आ रहे बदलावों के चलते ऐसा होना ही है। तब ये भी सच है कि अगले आम चुनाव में वोटरों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल कुछ वैसे ही होगा – जैसा आज अमेरिका या ब्रिटेन सरीखे विकसित देशों में हो रहा है। लेकिन इसका ये भी मतलब नहीं कि गली-कूचों और कस्बे – हाट के मैदानों में अपनी बात पहुंचाने की पारंपरिक अवधारणा भी बीते दिनों की बात हो जाएगी। विविधरंगी भारत के गांव को परंपरा में बंधे रहने का अपना देसज रूप कम नहीं लुभाता और इस उम्मीद के दम तोड़ने का कोई कारण नजर भी नहीं आता।
अमेरिका में हाल ही में हुए राष्ट्रपति चुनाव और भारत में होने जा रहे आम चुनाव में मंदी की छाया के अलावा और कोई समानता है तो वह है इंटरनेट का इस्तेमाल। 1969 में इंटरनेट के जन्म के बाद ये पहला मौका है – जब भारतीय चुनावों में इंटरनेट का जोरदार इस्तेमाल होने की उम्मीद जताई जा रही है। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के दोनों उम्मीदवारों ने मतदाताओं को लुभाने के लिए इंटरनेट का जमकर इस्तेमाल किया। लेकिन इसका ये भी मतलब नहीं कि अखबारों और टेलीविजन या फिर खबरिया वेबसाइटों ने अमेरिका में ओबामा के पक्ष में माहौल बनाने में कोई मदद नहीं की। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के बाद वहां हुए एक सर्वेक्षण में साठ फीसदी लोगों का कहना था कि ओबामा के पक्ष या कहें कि बुश के खिलाफ उनका नजरिया विकसित करने में ब्लॉगिंग और ब्लॉगरों ने बड़ी भूमिका निभाई।
आप याद करिए सन 2000 और उसके बाद का माहौल...उस समय आईटी को लेकर दो राज्यों के नजरिए में कितना अंतर था। एक तरफ आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू थे, जिन्होंने हैदराबाद में सॉफ्टवेयर उद्योग को इतना आगे बढ़ाया कि उसे लोग साइबराबाद के तौर पर जानने लगे। जिलों को वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए जोड़ने वाले पहले मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ही थे। उन्हीं दिनों बिहार में राज चला रहे आरजेडी अध्यक्ष लालू यादव इंटरनेट और सॉफ्टवेयर उद्योग का मजाक उड़ाते फिर रहे थे – ये आईटी- फाईटी क्या होता है। उन्हीं दिनों आंध्र में किसान आत्महत्याएं कर रहे थे। तब लालू के इस जुमले के जरिए एन चंद्रबाबू नायडू की जमकर आलोचना हो रही थी। 2004 के आम चुनावों में नायडू पर सॉफ्टवेयर उद्योग का विकास एक आरोप की तरह चस्पा करने में उनके विरोधी पीछे नहीं रहे। जिसका खामियाजा नायडू को सत्ता से बाहर होकर चुकाना पड़ा। लेकिन पांच साल में ही पूरा नजारा बदल गया है। आईटी-फाईटी कह कर इंटरनेट और कंप्यूटर की वर्चुअल दुनिया का मजाक उड़ाने वाले लालू यादव खुद ब्लॉगर हो गए हैं। ब्लॉग पर व्यक्त उनके विचार वैसे ही खबर बन रहे हैं – जैसे उनके बयान बनते रहे हैं। जो शख्स कभी इंटरनेट की वर्चुअल दुनिया का मजाक उड़ाते नहीं थकता था – उसमें तकनीक और वर्चुअल दुनिया को लेकर ये बदलाव कम बड़ी बात नहीं है। गांव-गिरांव और गरीब-गुरबे की बात करने वाले राजनेताओं में आखिर ये बदलाव क्यों आया है। इसका सबसे बेहतरीन जवाब खुद राजनेता ही दे रहे हैं। हाल ही में फिक्की के एक कार्यक्रम में एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि पहिया की खोज के बाद अब तक की सबसे बडी खोज इंटरनेट ही है। जिसने पूरी दुनिया को ही बदल दिया है।
इंटरनेट को आमतौर पर नौजवानों का माध्यम माना जाता है। लेकिन हकीकत ये है कि नौजवानों का ये माध्यम बूढ़े राजनेताओं तक को भी भा रहा है। लालकृष्ण आडवाणी अब खुद अपनी वेबसाइट के जरिए नौजवानों से मुखातिब हैं। उनके लेफ्टिनेंट शाहनवाज हुसैन भी अपनी अलग वेबसाइट लेकर वर्चुअल दुनिया में नौजवानों को रिझाने निकल पड़े हैं। कांग्रेस के राहुल बाबा भी नौजवानों को रिझा रहे हैं। हालांकि उन्होंने मीडिया के सभी माध्यमों के जरिए नौजवानों को लुभाने का अभियान छेड़ रखा है। जाहिर है, इसमें इंटरनेट भी है। लेकिन सबसे बड़ी बात ये कि उनकी अभी तक स्वतंत्र वेबसाइट नहीं है। बल्कि कांग्रेस पार्टी की वेबसाइट के ही जरिए वे लोगों से मुखातिब हैं। वैसे आज इक्का-दुक्का पार्टियां ही हैं, जिनकी अपनी कोई वेबसाइट नहीं है। समाजवादी विचारधारा वाली समाजवादी पार्टी भी इंटरनेट की वर्चुअल दुनिया में मौजूद है। दलितों का उद्धार करने का दावा करने वाली बहुजन समाज पार्टी की भी अपनी वेबसाइट है। हां, बिहार में राज चला रहे जनता दल की साइट अभी नहीं दिखी है। लेकिन एक बात जरूर है कि अब राजनेता अपने बयानों और विचारों को इंटरनेट की वर्चुअल दुनिया में पेश करने और दिखाने के लिए सचेत हो रहे हैं।
आखिर क्या वजह है कि अब तक गली – कूचों से लेकर गांव-कस्बे के मैदानों में तकरीर करने वाले राजनेताओं को इंटरनेट की दुनिया लुभाने लगी है। इसका जवाब है हाल ही में सुधारी गई मतदाता सूचियां। 2004 के मुकाबले इस बार के आम चुनाव के लिए करीब 14 करोड़ नए मतदाता जुटे हैं। जाहिर है, इनमें से ज्यादातर ने हाल ही में 18 साल की उम्र सीमा पार की है। एक अनुमान के मुताबिक इनमें से करीब आठ करोड़ ऐसे हैं – जो यदा-कदा इंटरनेट की दुनिया में भ्रमण के लिए जाते रहते हैं। असल बात ये है कि इन्हीं वोटरों पर हमारे राजनेताओं की निगाह है। कहा जाता है कि 1989 के आम चुनाव में राजीव गांधी की अगुआई वाली कांग्रेस को हराने में नौजवानो मतदाताओं ने ही अहम भूमिका निभाई थी। लिहाजा इस बार कोई खतरा उठाने को तैयार नहीं है।
इसकी तस्दीक इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया की 28 जनवरी 2009 को जारी रिपोर्ट भी करती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में तकरीबन चार करोड़ तिरपन लाख लोग तकरीबन रोजाना इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। वैसे एसोसिएशन की इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में करीब सवा छह करोड़ नियमित इंटरनेट यूजर हैं। एसोसिएशन का मानना है कि देश के सभी 614 जिलों में तकरीबन पचास साइबर कैफे तो हैं हीं। ये सच भी है। हो सकता है किसी जिले में तीस साइबर कैफे हैं तो किसी में सत्तर। जहां बिजली की सुविधा कमजोर है, वहां सर्फिंग दिल्ली-मुंबई जैसी जगहों से महंगी जरूर है। लेकिन ये भी सच है कि इन इंटरनेट यूजरों में सबसे ज्यादा संख्या युवाओं की ही है। एसोसिएशन के आंकड़ों पर गौर करें तो इसमें हर साल करीब 13 फीसदी की बढ़ोत्तरी ही देखी जा रही है। अगर इंटरनेट के लिए जरूरी बुनियादी चीज बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके तो ये वृद्धि दर और तेज हो सकती है।
इन आंकड़ों की हकीकत सामने आने के बाद कौन ऐसा राजनेता होगा – जो अपने नौजवान वोटरों को रिझाना नहीं चाहेगा। यही वजह है कि इस बार के आम चुनाव में इंटरनेट का पहली बार जमकर इस्तेमाल होने जा रहा है। वैसे ये भी सच है कि नौजवान वोटर उस तरह किसी चुनाव क्षेत्र में संगठित या समूह में नहीं हैं। क्योंकि शहरी इलाकों में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले वोटर ज्यादा हैं तो ग्रामीण इलाके में ऐसे वोटर कम हैं। क्योंकि तमाम सियासी दबावों के बावजूद अभी देश के करीब तीस फीसदी गांवों में या तो बिजली पहुंची ही नहीं या फिर आंशिक तौर पर पहुंची है। लेकिन जिस तरह मोबाइल कंपनियों ने मोबाइल फोन पर ही इंटरनेट की सुविधा देनी शुरू की है – उससे साफ है कि अगले आम चुनावों तक शायद ही कोई नौजवान होगा – जो इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं कर रहा होगा। तकनीक की दुनिया में लगातार आ रहे बदलावों के चलते ऐसा होना ही है। तब ये भी सच है कि अगले आम चुनाव में वोटरों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल कुछ वैसे ही होगा – जैसा आज अमेरिका या ब्रिटेन सरीखे विकसित देशों में हो रहा है। लेकिन इसका ये भी मतलब नहीं कि गली-कूचों और कस्बे – हाट के मैदानों में अपनी बात पहुंचाने की पारंपरिक अवधारणा भी बीते दिनों की बात हो जाएगी। विविधरंगी भारत के गांव को परंपरा में बंधे रहने का अपना देसज रूप कम नहीं लुभाता और इस उम्मीद के दम तोड़ने का कोई कारण नजर भी नहीं आता।
मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009
क्या है इस राहत पैकेज का मकसद !
उमेश चतुर्वेदी
लोहिया जी कहते थे कि दिल्ली में माला पहनाने वाली एक कौम है। सरकारें बदल जाती हैं, लेकिन माला पहनाने वाली इस कौम में कोई बदलाव नहीं आता। आज अगर लोहिया जी होते तो वे देखते कि माला पहनाने वाली इस कौम की तरह सरकारी व्यवस्था और रवायत में कोई बदलाव नहीं आता। भले ही सरकारें बदल जाती हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो ऐन चुनावों से पहले भारत निर्माण का अभियान केंद्र की यूपीए सरकार नहीं शुरू करती।
शाइनिंग इंडिया की याद है आपको....2004 के आम चुनावों से ठीक पहले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने शाइनिंग इंडिया यानी चमकते भारत को अपनी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित करने का अभियान छेड़ दिया था। तब आज की सरकार चला रही कांग्रेस ने इस अभियान की जमकर खिंचाई की थी। आपको इंडिया शाइनिंग की याद है तो आपको 2004 में आम चुनावों से ठीक पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का रोड शो भी याद होगा। इस शो का मकसद ही था कि इंडिया शाइनिंग की हकीकत दुनिया को दिखाई जाए और इसका सियासी फायदा उठाया जाय। कहना ना होगा, सोनिया गांधी अपने मकसद में कामयाब रहीं और बीजेपी की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की हवा निकल गई थी।
मंदी के इस दौर में भारत निर्माण अभियान मीडिया के लिए अच्छी संजीवनी बन कर आया है। अखबारों से लेकर टेलीविजन तक हर जगह यूपीए की अगुआई में भारत निर्माण का दर्शन हो रहा है। कभी अपने शाइनिंग इंडिया अभियान की आलोचना झेल और बर्दाश्त कर चुकी बीजेपी भारत निर्माण के विरोध में नहीं दिख रही। इसका ये मतलब नहीं है कि वह भारत निर्माण के कांग्रेस की अगुआई वाली केंद्र सरकार के दावे से सहमत है। हकीकत तो ये है कि मंदी के दौर में मीडिया भी पिस रहा है। ना सिर्फ प्रिंट, बल्कि टेलीविजन संस्थान भी आर्थिक दिक्कतों से दो-चार हो रहे हैं। शायद ही कोई मीडिया समूह बचा है, जहां कर्मचारियों की छंटनी नहीं हो रही है या फिर उनके सिर छंटनी की तलवार नहीं लटक रही है। फिर चुनावी साल है...इतनी आर्थिक दिक्कतों के बावजूद अब भी मीडिया संस्थान इतने ताकतवर हैं कि उन्हें कोई भी राजनीतिक दल नजरंदाज करने की हालत में नहीं है। लिहाजा बीजेपी भी इस अभियान का विरोध करके खुद को मीडिया के निशाने पर लाने से बच रही है।
भारत निर्माण अभियान के जरिए भारत सरकार दरअसल अपने दो लक्ष्य साधने की कोशिश कर रही है। उसे पता है कि इसके जरिए मीडिया घरानों के पास पैसा पहुंचेगा। लिहाजा उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत रहेगी और वे कम से कम मंदी के नाम पर उसे घेरने से बचेंगे। मंदी के चलते देशभर में नौकरियों का संकट बढ़ता जा रहा है। रोजाना रोजगार के तमाम क्षेत्रों से छंटनी की खबरें आ रही हैं। लेकिन मीडिया में इसे लेकर कहीं गुस्सा नहीं दिखता..भारत निर्माण अभियान अगर गुस्से की थोड़ी – बहुत झलक कहीं है भी तो उसे कम करने में अपनी बेहतर भूमिका निभा सकता है।
मंदी की मार से उबरने के लिए उद्योगों के लिए सरकार वैसे ही कई योजनाएं लागू कर चुकी है। रिजर्व बैंक कई बार रैपो रेट घटा चुका है। ऐसे में मीडिया को राहत मिलनी ही चाहिए। इससे कोई इनकार भी नहीं कर सकता। मीडिया के लिए भी राहत पैकेज की मांग को लेकर पिछले दिनों प्रिंट मीडिया के दिग्गजों ने सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री आनंद शर्मा से मुलाकात की। इस मुलाकात में हिंदुस्तान टाइम्स की संपादकीय निदेशक शोभना भरतिया, इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान संपादक शेखर गुप्ता और बिजनेस स्टैंडर्ड के टी एन नैनन भी शामिल थे। इस बैठक में आनंद शर्मा से मीडिया घरानों ने अपने लिए राहत पैकेज की मांग के साथ ही अखबारी कागज के आयात शुल्क में छूट देने की भी मांग रखी। ये सच है कि अखबारी कागज की बढ़ती कीमतों ने भी प्रिंट मीडिया संस्थानों की कमर तोड़ रखी है। पिछले साल इसकी कीमत छह सौ डालर प्रति टन से बढ़कर 960 डालर तक पहुंच गई। फिर मंदी के चलते विज्ञापनों में गिरावट आई। एडवर्टाइजिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक इस देश में तकरीबन साढ़े चार हजार बड़े विज्ञापनदाता हैं। विज्ञापनों के लिहाज से नवंबर और दिसंबर मीडिया के लिए सबसे ज्यादा मसरूफियत वाला महीना रहा है। लेकिन मंदी के चलते इस बार वैसी व्यस्तता नहीं दिखी। बड़े विज्ञापनदाताओं के बजट में भी कटौती दिखी। ऐसा नहीं कि इस पर सरकार का ध्यान नहीं रहा है और मीडिया घरानों से मुलाकात के बाद ही उसका इस समस्या की ओर ध्यान गया है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय के एक बड़े अफसर के मुताबिक भारत निर्माण अभियान की शुरूआत में इसका भी ध्यान रखा गया था।
मीडिया उद्योग को राहत पैकेज की पहली बार मांग पत्रकार से राजनेता बने राजीव शुक्ला ने संसद के पिछले सत्र में ही रखी थी। उसके बाद से ही मीडिया घरानों में इसे लेकर सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति बनने लगी थी। आनंद शर्मा से मुलाकात इसी रणनीति का नतीजा है, जिसका फायदा कुछ दिनों में मिलने वाला है। जिसमें अखबारी कागज के आयात टैक्स पर छूट भी हो सकती है। हालांकि सरकार ने खबरिया चैनलों के लिए किसी राहत का ऐलान नहीं किया है। लेकिन भारत निर्माण के जरिए उनकी भी मदद तो की ही जा रही है।
एडवर्टाइजिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया हर तिमाही में मीडिया को मिलने वाले विज्ञापनों के आंकड़े जारी करता है। इस बार जो आंकड़ा आएगा, ये तय है कि उसमें केंद्र सरकार सबसे बड़े विज्ञापनदाता के तौर पर उभरेगी। ऐसा 2004 की पहली तिमाही में भी हुआ था। तब भी अपने इंडिया शाइनिंग अभियान के चलते सरकार सबसे बड़ी विज्ञापनदाता थी। ये बात और है कि तब सरकारी खजाने के दुरूपयोग को लेकर उस वक्त की केंद्र सरकार की जमकर लानत-मलामत की गई थी। जिसका खामियाजा वाजपेयी सरकार को हार के तौर पर भुगतना पड़ा था। मंदी की मार झेल रहे मीडिया को सरकारी राहत से फायदा तो जरूर मिलेगा। लेकिन वोटों की खेती में इसका कितना फायदा केंद्र की यूपीए सरकार उठा पाती है, इस पर सबकी निगाह लगी रहेगी।
बुधवार, 28 जनवरी 2009
गैरजिम्मेदार टीवी रिपोर्टिंग के लिए जिम्मेदार कौन ?
उमेश चतुर्वेदी
तोप से मुकाबिल रहने वाले प्रिंट मीडिया की सारी तोपें इन दिनों इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की ओर जोरशोर से निशाना साधे हुए हैं। वजह बनी है मुंबई में आतंकी हमलों की नाटकीय रिपोर्टिंग.. डेढ़ दशक से ज्यादा वक्त से प्रिंट माध्यमों को भस्मासुरी अंदाज में पटखनी देते आ रहे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की इस नाटकीयता ने प्रिंट को अच्छा-खासा मौका दे दिया है। आलोचनाओं और कटघरे में खड़ा करने का दौर जारी है और इलेक्ट्रॉनिक माध्यम अपना मुंह छुपाने को मजबूर हो गया है। उदारीकरण और बाजारवाद के दौर में जिस तरह अंधाधुंध टीवी का विस्तार हुआ है – उसमें बौद्धिकता के लिए खास गुंजाइश और जगह नहीं रही..लिहाजा टीवी माध्यम सहज ही बुद्धिजीवी वर्ग के निशाने पर आ गया है। इसके साथ ही इस माध्यम को गैर जिम्मेदार ठहराए जाने का दौर तेज हो गया है। चूंकि प्रभावशाली प्रिंट मीडिया और बौद्धिक तबका इस आक्रमण अभियान में शामिल है – इसलिए सरकार को भी मौका मिल गया है और उसने कुछ चैनलों को कारण बताओ नोटिस जारी करने में देर नहीं लगाई।
टीवी को गैर जिम्मेदार ठहराए जाने के बीच इसकी असल वजहों पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। टीवी वाले नाटकीय और सनसनीखेज रिपोर्टिंग के लिए जिम्मेदार तो हैं – इसे अब टेलीविजन के न्यूजरुम में काम करने वाले लोगों का एक बड़ा वर्ग भी मानने लगा है। इसके बावजूद ना सिर्फ मुंबई हमले – बल्कि दूसरी ऐसी घटनाओं की भी ऐसी रिपोर्टिंग जारी है। इस मसले पर पूरी पड़ताल करने से पहले एक बार हमें समानांतर सिनेमा के दौर में जारी साहित्य और सिनेमा के आपसी रिश्ते और उसे लेकर जारी विवाद को भी याद कर लेना जरूरी होगा। पिछली सदी तीस के दशक में हिंदी कहानी के सबसे महत्वपूर्ण शिल्पकार प्रेमचंद ने मायानगरी में नया कैरियर बनाने को लेकर पांव रखे थे – लेकिन उन्हें मायावी दुनिया रास नहीं आई और वे बनारस लौट आए थे। पचास के दशक में मुंबई गए अमृतलाल नागर का भी वैसा ही अनुभव रहा। ये बात है कि उन्हीं दिनों साहित्य की दुनिया से फिल्मी दुनिया में गए पंडित नरेंद्र शर्मा ने साहित्य से इतर फिल्मी दुनिया में नया मुकाम रचा। सातवें दशक में यही काम कमलेश्वर ने किया। लेकिन प्रेमचंद और अमृतलाल नागर के दौर में सिनेमा को लेकर साहित्यिक हलकों में जो पूर्वाग्रह पनपा – वह कमोबेश आज भी जारी है। शायद यही वजह है कि कमलेश्वर रहे हों या फिर नरेंद्र शर्मा ...उन्हें साहित्यिक जगत में वह सम्मान और आदर नहीं मिला – जिसके वे हकदार रहे। कुछ ऐसा ही संबंध आज आज प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के बीच भी है। इसीलिए जब भी टेलीविजन की दुनिया में मुंबई जैसी घटनाओं की गैरजिम्मेदार रिपोर्टिंग होती है – पूरा का पूरा प्रिंट माध्यम उस पर पिल पड़ता है।
ऐसा नहीं कि 27 नवंबर 2008 को हुए मुंबई हमले की ही टीवी ने अतिरेकी रिपोर्टिंग की। 13 दिसंबर 2001 को संसद पर हमले की भी ऐसी ही रिपोर्टिंग हुई। जयपुर और अहमदाबाद धमाके को लेकर भी इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने ऐसा ही कदम उठाया। आलोचना तब भी हुई – लेकिन इस बार ज्यादा बावेला इसलिए मचा है – क्योंकि एक चैनल ने ना सिर्फ एक कथित आतंकवादी का फोनो चलाया। बल्कि अपने इस काम को सही साबित करने की कवायद में भी जोरशोर से जुट गया है। ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि कोई आतंकवादी किसी चैनल पर आकर ये प्रस्ताव रखे कि वह देश को उड़ाने या प्रधानमंत्री पर ही हमला बोलने का ऐलान करने वाला है तो क्या उसे टीवी अपना स्टूडियो और अपना पैनल कंट्रोल रूम इसके लिए मुहैय्या कराएगा। सवाल ये भी है कि क्या किसी पत्रकार के पास किसी मासूम लड़की या महिला से बलात्कार का फुटेज है तो उसे भी बिना सेंसर्ड और बिना संपादन दिखा दिया जाएगा। करीब छह साल पहले आगरा में एक अध्यापिका का उसके ही कुछ छात्रों ने बलात्कार किया। इसकी फुटेज किसी के पास क्या होती। लेकिन अपने दर्शकों को ये घटना दिखाने के लिए एक प्रमुख चैनल ने बाकायदा इस रेप कांड का नाट्यरूपांतरण कराया और उसे खबर में वांछित जगह पर संपादित करके चलाया भी। उसका भी तब विरोध हुआ था।
टेलीविजन चैनलों में एक वर्ग ऐसा भी है – जिसका मानना है कि खबर की सच्चाई दिखाने के लिए उसका ये कदम जायज है। इसी आधार पर 2004 में गुजरात के एक खास संप्रदाय के साधुओं की यौनलीला को एक चैनल ने बाकायदा बिना किसी संपादन के दिखाया था। लेकिन हकीकत ये थी कि न्यूज रूम में काम करने वाले अधिकांश पत्रकार इससे सहमत नहीं थे। महिला पत्रकारों की न्यूज रूम में हालत क्या थी – उसे ही पता है, जो उस समय न्यूज रूम में था।
बहरहाल जो ये चैनल मान रहे हैं कि सच्चाई के लिए ये सारी चीजें उन्हें दिखाने का हक है । पत्रकारिता में बुराई को उजागर करने के लिए बुराई को ज्यों का त्यों दिखाने का एक वर्ग तेजी से इन दिनों बढ़ा है। बुराई दिखाई जाए..उसे लेकर दर्शकों और पाठकों का आगाह किया जाए- इससे शायद ही किसी को एतराज होगा। लेकिन इसकी सीमा क्या होगी – यह तो कहीं न कहीं उन्हें तय करना ही होगा। अन्यथा उन्हें अमेरिका के नैकेड न्यूज नामक चैनल को भी दिखाने से गुरेज नहीं होगा। इंटरनेट पर भी वह चैनल मौजूद है। नेकेड न्यूज नाम के इस चैनल के सारे एंकर बिल्कुल नंगे इंटरव्यू लेते या लेती हैं। खबरें भी नंगे बदन ही पढ़ी जाती हैं। दरअसल बहस और आलोचना की वजह भी यही है कि अगर ऐसा किया गया तो औरों से अलग और बौद्धिक दिखने वाले पत्रकार वर्ग और बाकी लोगों के विवेक में फर्क कहां रह जाएगा।
मार्च 2002 में गुजरात दंगों में खुलेआम लोगों को जलाने की घटनाओं की रिपोर्टिंग को लेकर भी विवाद हुआ था। लेकिन तब इसकी मुखालफत नहीं हुई थी। प्रिंट मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग ने इसका समर्थन किया था। इसकी रिपोर्टिंग करने वाले लोगों ने तब के विरोधियों के तर्कों को सिरे से खारिज कर दिया था। विरोधियों का तर्क था कि इससे हिंसा को और बढ़ावा मिला। लेकिन मुंबई पर आतंकी हमले के बाद चीजें बदल गईं हैं। पूरे देश में इस घटना को लेकर विरोध के सुर उठ रहे हैं। लिहाजा टीवी में काम करने वाले लोगों का बड़ा तबका इस घटना को लेकर रक्षात्मक बना हुआ है।
मुंबई हमले पर टीवी ने क्या – क्या किया...इसे तकरीबन पूरे देश ने देखा है। कुछ लोगों का सवाल है कि ताज होटल से छुड़ाए गए बंधकों से टीवी वालों ने पूछा कि आपको कैसा लग रहा है। प्रिंट के कई दिग्गजों ने इसकी भी आलोचना की है कि टीवी पत्रकारों ने सामान्य शिष्टाचार का ध्यान नहीं रखा और बदहवास लोगों का इंटरव्यू करने या उनकी बाइट लेने के लिए दौड़ पड़ा। ये सच है कि टीवी वाले इस सवाल का प्रतिकार नहीं कर रहे हैं – लेकिन क्या यह कार्य इतना गिरा हुआ है कि इसकी आलोचना की जाए। क्या किसी सार्वजनिक माध्यम का यह दायित्व नहीं बनता कि वह दुनिया को यह बताए कि आतंकी हमले के दौरान ताज होटल के अंदर क्या हो रहा था और इसका आंखों देखा हाल बताने के लिए बंधकों के अलावा और दूसरा कौन हो सकता है। ऐसे सवाल तो प्रिंट के पत्रकार भी पूछ रहे थे और केस हिस्ट्री तो अगले दिन के अखबारों में भी इंटरव्यू और बंधकों की आपबीती के रूप में भरी पड़ी थी। लेकिन उस पर सवाल तो नहीं उठा।
यह सच है कि टीवी की अतिरेकी रिपोर्टिंग से शुरू में आतंकियों को मदद मिली। यह गलती इतनी बड़ी है – जिससे इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों को सबक लेना चाहिए। लेकिन कभी किसी ने ये जानने की कोशिश नहीं की कि टीवी के न्यूज रूम में आखिर ऐसा क्यों होता है। ये सच है कि टीवी रिपोर्टर इस दौरान हर गतिविधि पर नजर गड़ाए हुए थे। पल-पल की खबरें अपने पैनल कंट्रोल रूम को भेज रहे थे। लेकिन ये भी उतना ही सच है कि इसे जनता को दिखाने- अपने चैनल पर चलाने और न चलाने का फैसला उनके आका ले रहे थे। टेलीविजन न्यूज रूम का आज के दौर में जैसा विकास हुआ है और टीआरपी की गलाकाट प्रतियोगिता पर जिस तरह बाजार और विज्ञापनों की दुनिया टिकी हुई है – उसके चलते न्यूज रूम का कोई आका अगर दूसरे चैनल पर ऐसी रिपोर्टिंग दिख गई तो अपने चैनल पर साया करने से रोकने का दुस्साहस नहीं कर सकता। टीवी न्यूजरूम के प्रमुख लोगों की निगाह अपने प्रतिद्वंद्वी चैनलों पर लगी रहती है। अगर सामने वाले चैनल के रिपोर्टर ने अतिरेकवादी भूमिका निभाई तो न्यूज रूम में दहाड़ सुनाई देने लगती है। रिपोर्टर और कैमरामैन को मोबाइल पर निर्देश दिए जाने लगते हैं कि वैसा ही कुछ करके दिखाओ – जैसा सड़क पार या पड़ोस का चैनल करके दिखा रहा है। यही वजह है कि एक दौर में ताज की रिपोर्टिंग कर रही सभी टीमों के रिपोर्टर सोकर रिपोर्टिंग करते दिखे। जबकि उनके कैमरा मैन पहले की ही तरह खड़े थे। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या गोली लगने का खतरा सिर्फ रिपोर्टरों को था और कैमरामैन बुलेटप्रूफ पहनकर महफूज थे। निश्चित रूप से इसका जवाब ना में है। अगले दिन के अखबारों में ये पूरी की पूरी तस्वीर छपी भी और आम लोगों तक ये नाटकीयता पहुंची भी। इन तस्वीरों ने भी टीवी रिपोर्टिंग को लेकर सवाल उठाने का मौका दिया।
लेकिन इस पूरी आलोचना और बहसबाजी के दौर में टेलीविजन न्यूज रूम के असल संकट पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। एक-दो दशक पहले तक जो लोग पत्रकारिता में आ रहे थे – उनके सामने दुनिया को बदलने और कुछ कर दिखाने का जज्बा हुआ करता था। लेकिन बाजारवाद के दौर में ये हकीकत बदल गई है। टीवी के लोग खुद को पत्रकार भले ही कहें – लेकिन एक पूरी की पूरी पीढ़ी अब नौकरी करने आई है। गली-मोहल्ले के पत्रकारिता संस्थानों से लाखों रूपए की फीस देकर कथित पढ़ाई के बाद निकले नए लड़के-लड़कियों का नजरिया साफ है। उनका मानना है कि वे नौकरी करने आए हैं – पत्रकारिता करने नहीं। शायद यही वजह है कि उन्हें जब भी पत्रकारिता के नाम पर पत्रकारीय मानदंडों की अवहेलना करने को कहा जाता है, वे वैसा करने में देर नहीं लगाते। लाखों रूपए के कर्ज की रकम पर मिली शिक्षा से निकले पत्रकार ने दम दिखाया तो उसकी नौकरी जा सकती है।
रही बात न्यूज रूम के आकाओं की तो उनकी भी हालत कुछ बेहतर नहीं है-सिवा मोटी पगार के। नौकरी पर लगातार लटकी तलवार के चलते वे भी पत्रकारीय दंभ और मानदंड पर कायम रह नहीं पाते। टीआरपी गिरी नहीं कि नौकरी पर लटकी तलवार और नजदीक हुई। बाजारवाद ने लोगों के सामने आदर्शों के लिए जगह नहीं छोड़ी। ऐसे में चाहे लाख सवाल उठे – होना तो वही है जो बाजार चाहता है। टीवी पर सवाल उठाना कुछ वैसा ही है – जैसे बाजार में रहकर बाजार का विरोध...
दरअसल हर पेशे की एक नैतिकता भी होती है। आजादी के आंदोलन की कोख से निकली भारतीय पत्रकारिता के लिए पहले इसकी जरूरत नहीं रही। आजादी के आंदोलन का पत्रकारिता भी एक उपादान रही है। चूंकि तब पत्रकारिता का मकसद आजादी पाना था, इसलिए उसमें राष्ट्रीय आंदोलन की वे सारी चीजें समाहित हो गई थीं – जिसके बल पर राष्ट्रीय आंदोलन ने गति पकड़ी और उफान पर रहा। आजादी के बाद के करीब एक दशक तक पत्रकारिता उसी रोमांसवाद से प्रभावित रही। लेकिन नब्बे के दशक में शुरू हुए बाजारवाद के दौर में पत्रकारिता ने अपनी इस नैतिक जिम्मेदारी से पल्ला छुड़ाना शुरू किया। चूंकि टेलीविजन इस बाजारवाद के दौर में ही पनपा, उभरा और विराट बना, इसलिए उसने बाजारवाद की तमाम खासियतें बेरोकटोक खुद में समाहित कर लीं। अखबार में संपादकीय टीम की मीटिंगों में जहां महंगाई, कानून-व्यवस्था और सुरक्षा की बदहाली सबसे बड़ा मुद्दा रही हैं – टेलीविजन न्यूज रूम की मीटिंगों में नए ब्रांड के कपड़े, फैशन शो और कार की गिरती-बढ़ती कीमतों का मसला छाया रहता है। वैसे टीवी पर सवाल उठाने वाले प्रिंट माध्यमों की बैठकों में धीरे-धीरे ही सही – टीवी का ये रोग आता जा रहा है। रही – सही कसर टैम रेटिंग प्वाइंट यानी टीआरपी की माया ने पूरी कर दी है। टैम का जो पैमाना है – उस पर भी बाजारवाद की चीजें ही हावी हैं। ऐसे में ये सोचना कि इस व्यवस्था पर टिका टेलीविजन उद्योग और उसके पत्रकार पेशेवर नैतिकता के तहत ही काम करेंगे – बिल्कुल बेमानी है।
वकालत, इंजीनियरिंग और डॉक्टरी जैसे पेशों की नैतिकता निर्धारित करने , उनकी आचार संहिता बनाने के लिए बार कौंसिल और मेडिकल कौंसिल जैसे संगठन हैं। लेकिन मीडिया के लिए ऐसा कोई पेशेवर संगठन नहीं है – जिसके जरिए पत्रकारों को नैतिक दायरे में बांधे रखने का काम किया जा सके। मुंबई हमलों के बाद एक बार फिर से मीडिया के लिए ऐसे ही एक पेशेवर संगठन की जरूरत बढ़ती जा रही है। ताकि वह मीडिया और उसमें काम करने वाले लोगों के लिए एक मानदंड तय करे। उनकी आचार संहिता तय करे और उसे लागू करने की नैतिक जिम्मेदारी भी उठाए। सूचना और प्रसारण मंत्री रहते सुषमा स्वराज ने 2002 में मीडिया कौंसिल के गठन का सवाल जब उछाला था – तब इसका ना सिर्फ इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों और घरानों ने भी विरोध किया था। पत्रकारों का एक तबका तो खैर आगे था ही। लेकिन अब इसे लेकर भी सहमति बनती दिख रही है। टीवी पत्रकारों का एक बड़ा तबका भी मानने लगा है कि कम से कम उन्हें भी पेशेवर नैतिकता और आचारसंहिता के दायरे में बंधना ही होगा। पेशेवराना अंदाज को जब तक संरक्षण नहीं दिया जाएगा, टीआरपी के बाजारवादी पैमाने बदले नहीं जाएंगे..टीवी माध्यमों को नैतिकता और देशहित के नाम पर जिम्मेदार ठहराना आसान नहीं होगा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि आचार संहिता बनाने की वकालत करने वाले दिग्गज पत्रकार और राजनेता इस मोर्चे पर सचमुच तैयार हैं।
तोप से मुकाबिल रहने वाले प्रिंट मीडिया की सारी तोपें इन दिनों इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की ओर जोरशोर से निशाना साधे हुए हैं। वजह बनी है मुंबई में आतंकी हमलों की नाटकीय रिपोर्टिंग.. डेढ़ दशक से ज्यादा वक्त से प्रिंट माध्यमों को भस्मासुरी अंदाज में पटखनी देते आ रहे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की इस नाटकीयता ने प्रिंट को अच्छा-खासा मौका दे दिया है। आलोचनाओं और कटघरे में खड़ा करने का दौर जारी है और इलेक्ट्रॉनिक माध्यम अपना मुंह छुपाने को मजबूर हो गया है। उदारीकरण और बाजारवाद के दौर में जिस तरह अंधाधुंध टीवी का विस्तार हुआ है – उसमें बौद्धिकता के लिए खास गुंजाइश और जगह नहीं रही..लिहाजा टीवी माध्यम सहज ही बुद्धिजीवी वर्ग के निशाने पर आ गया है। इसके साथ ही इस माध्यम को गैर जिम्मेदार ठहराए जाने का दौर तेज हो गया है। चूंकि प्रभावशाली प्रिंट मीडिया और बौद्धिक तबका इस आक्रमण अभियान में शामिल है – इसलिए सरकार को भी मौका मिल गया है और उसने कुछ चैनलों को कारण बताओ नोटिस जारी करने में देर नहीं लगाई।
टीवी को गैर जिम्मेदार ठहराए जाने के बीच इसकी असल वजहों पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। टीवी वाले नाटकीय और सनसनीखेज रिपोर्टिंग के लिए जिम्मेदार तो हैं – इसे अब टेलीविजन के न्यूजरुम में काम करने वाले लोगों का एक बड़ा वर्ग भी मानने लगा है। इसके बावजूद ना सिर्फ मुंबई हमले – बल्कि दूसरी ऐसी घटनाओं की भी ऐसी रिपोर्टिंग जारी है। इस मसले पर पूरी पड़ताल करने से पहले एक बार हमें समानांतर सिनेमा के दौर में जारी साहित्य और सिनेमा के आपसी रिश्ते और उसे लेकर जारी विवाद को भी याद कर लेना जरूरी होगा। पिछली सदी तीस के दशक में हिंदी कहानी के सबसे महत्वपूर्ण शिल्पकार प्रेमचंद ने मायानगरी में नया कैरियर बनाने को लेकर पांव रखे थे – लेकिन उन्हें मायावी दुनिया रास नहीं आई और वे बनारस लौट आए थे। पचास के दशक में मुंबई गए अमृतलाल नागर का भी वैसा ही अनुभव रहा। ये बात है कि उन्हीं दिनों साहित्य की दुनिया से फिल्मी दुनिया में गए पंडित नरेंद्र शर्मा ने साहित्य से इतर फिल्मी दुनिया में नया मुकाम रचा। सातवें दशक में यही काम कमलेश्वर ने किया। लेकिन प्रेमचंद और अमृतलाल नागर के दौर में सिनेमा को लेकर साहित्यिक हलकों में जो पूर्वाग्रह पनपा – वह कमोबेश आज भी जारी है। शायद यही वजह है कि कमलेश्वर रहे हों या फिर नरेंद्र शर्मा ...उन्हें साहित्यिक जगत में वह सम्मान और आदर नहीं मिला – जिसके वे हकदार रहे। कुछ ऐसा ही संबंध आज आज प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के बीच भी है। इसीलिए जब भी टेलीविजन की दुनिया में मुंबई जैसी घटनाओं की गैरजिम्मेदार रिपोर्टिंग होती है – पूरा का पूरा प्रिंट माध्यम उस पर पिल पड़ता है।
ऐसा नहीं कि 27 नवंबर 2008 को हुए मुंबई हमले की ही टीवी ने अतिरेकी रिपोर्टिंग की। 13 दिसंबर 2001 को संसद पर हमले की भी ऐसी ही रिपोर्टिंग हुई। जयपुर और अहमदाबाद धमाके को लेकर भी इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने ऐसा ही कदम उठाया। आलोचना तब भी हुई – लेकिन इस बार ज्यादा बावेला इसलिए मचा है – क्योंकि एक चैनल ने ना सिर्फ एक कथित आतंकवादी का फोनो चलाया। बल्कि अपने इस काम को सही साबित करने की कवायद में भी जोरशोर से जुट गया है। ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि कोई आतंकवादी किसी चैनल पर आकर ये प्रस्ताव रखे कि वह देश को उड़ाने या प्रधानमंत्री पर ही हमला बोलने का ऐलान करने वाला है तो क्या उसे टीवी अपना स्टूडियो और अपना पैनल कंट्रोल रूम इसके लिए मुहैय्या कराएगा। सवाल ये भी है कि क्या किसी पत्रकार के पास किसी मासूम लड़की या महिला से बलात्कार का फुटेज है तो उसे भी बिना सेंसर्ड और बिना संपादन दिखा दिया जाएगा। करीब छह साल पहले आगरा में एक अध्यापिका का उसके ही कुछ छात्रों ने बलात्कार किया। इसकी फुटेज किसी के पास क्या होती। लेकिन अपने दर्शकों को ये घटना दिखाने के लिए एक प्रमुख चैनल ने बाकायदा इस रेप कांड का नाट्यरूपांतरण कराया और उसे खबर में वांछित जगह पर संपादित करके चलाया भी। उसका भी तब विरोध हुआ था।
टेलीविजन चैनलों में एक वर्ग ऐसा भी है – जिसका मानना है कि खबर की सच्चाई दिखाने के लिए उसका ये कदम जायज है। इसी आधार पर 2004 में गुजरात के एक खास संप्रदाय के साधुओं की यौनलीला को एक चैनल ने बाकायदा बिना किसी संपादन के दिखाया था। लेकिन हकीकत ये थी कि न्यूज रूम में काम करने वाले अधिकांश पत्रकार इससे सहमत नहीं थे। महिला पत्रकारों की न्यूज रूम में हालत क्या थी – उसे ही पता है, जो उस समय न्यूज रूम में था।
बहरहाल जो ये चैनल मान रहे हैं कि सच्चाई के लिए ये सारी चीजें उन्हें दिखाने का हक है । पत्रकारिता में बुराई को उजागर करने के लिए बुराई को ज्यों का त्यों दिखाने का एक वर्ग तेजी से इन दिनों बढ़ा है। बुराई दिखाई जाए..उसे लेकर दर्शकों और पाठकों का आगाह किया जाए- इससे शायद ही किसी को एतराज होगा। लेकिन इसकी सीमा क्या होगी – यह तो कहीं न कहीं उन्हें तय करना ही होगा। अन्यथा उन्हें अमेरिका के नैकेड न्यूज नामक चैनल को भी दिखाने से गुरेज नहीं होगा। इंटरनेट पर भी वह चैनल मौजूद है। नेकेड न्यूज नाम के इस चैनल के सारे एंकर बिल्कुल नंगे इंटरव्यू लेते या लेती हैं। खबरें भी नंगे बदन ही पढ़ी जाती हैं। दरअसल बहस और आलोचना की वजह भी यही है कि अगर ऐसा किया गया तो औरों से अलग और बौद्धिक दिखने वाले पत्रकार वर्ग और बाकी लोगों के विवेक में फर्क कहां रह जाएगा।
मार्च 2002 में गुजरात दंगों में खुलेआम लोगों को जलाने की घटनाओं की रिपोर्टिंग को लेकर भी विवाद हुआ था। लेकिन तब इसकी मुखालफत नहीं हुई थी। प्रिंट मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग ने इसका समर्थन किया था। इसकी रिपोर्टिंग करने वाले लोगों ने तब के विरोधियों के तर्कों को सिरे से खारिज कर दिया था। विरोधियों का तर्क था कि इससे हिंसा को और बढ़ावा मिला। लेकिन मुंबई पर आतंकी हमले के बाद चीजें बदल गईं हैं। पूरे देश में इस घटना को लेकर विरोध के सुर उठ रहे हैं। लिहाजा टीवी में काम करने वाले लोगों का बड़ा तबका इस घटना को लेकर रक्षात्मक बना हुआ है।
मुंबई हमले पर टीवी ने क्या – क्या किया...इसे तकरीबन पूरे देश ने देखा है। कुछ लोगों का सवाल है कि ताज होटल से छुड़ाए गए बंधकों से टीवी वालों ने पूछा कि आपको कैसा लग रहा है। प्रिंट के कई दिग्गजों ने इसकी भी आलोचना की है कि टीवी पत्रकारों ने सामान्य शिष्टाचार का ध्यान नहीं रखा और बदहवास लोगों का इंटरव्यू करने या उनकी बाइट लेने के लिए दौड़ पड़ा। ये सच है कि टीवी वाले इस सवाल का प्रतिकार नहीं कर रहे हैं – लेकिन क्या यह कार्य इतना गिरा हुआ है कि इसकी आलोचना की जाए। क्या किसी सार्वजनिक माध्यम का यह दायित्व नहीं बनता कि वह दुनिया को यह बताए कि आतंकी हमले के दौरान ताज होटल के अंदर क्या हो रहा था और इसका आंखों देखा हाल बताने के लिए बंधकों के अलावा और दूसरा कौन हो सकता है। ऐसे सवाल तो प्रिंट के पत्रकार भी पूछ रहे थे और केस हिस्ट्री तो अगले दिन के अखबारों में भी इंटरव्यू और बंधकों की आपबीती के रूप में भरी पड़ी थी। लेकिन उस पर सवाल तो नहीं उठा।
यह सच है कि टीवी की अतिरेकी रिपोर्टिंग से शुरू में आतंकियों को मदद मिली। यह गलती इतनी बड़ी है – जिससे इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों को सबक लेना चाहिए। लेकिन कभी किसी ने ये जानने की कोशिश नहीं की कि टीवी के न्यूज रूम में आखिर ऐसा क्यों होता है। ये सच है कि टीवी रिपोर्टर इस दौरान हर गतिविधि पर नजर गड़ाए हुए थे। पल-पल की खबरें अपने पैनल कंट्रोल रूम को भेज रहे थे। लेकिन ये भी उतना ही सच है कि इसे जनता को दिखाने- अपने चैनल पर चलाने और न चलाने का फैसला उनके आका ले रहे थे। टेलीविजन न्यूज रूम का आज के दौर में जैसा विकास हुआ है और टीआरपी की गलाकाट प्रतियोगिता पर जिस तरह बाजार और विज्ञापनों की दुनिया टिकी हुई है – उसके चलते न्यूज रूम का कोई आका अगर दूसरे चैनल पर ऐसी रिपोर्टिंग दिख गई तो अपने चैनल पर साया करने से रोकने का दुस्साहस नहीं कर सकता। टीवी न्यूजरूम के प्रमुख लोगों की निगाह अपने प्रतिद्वंद्वी चैनलों पर लगी रहती है। अगर सामने वाले चैनल के रिपोर्टर ने अतिरेकवादी भूमिका निभाई तो न्यूज रूम में दहाड़ सुनाई देने लगती है। रिपोर्टर और कैमरामैन को मोबाइल पर निर्देश दिए जाने लगते हैं कि वैसा ही कुछ करके दिखाओ – जैसा सड़क पार या पड़ोस का चैनल करके दिखा रहा है। यही वजह है कि एक दौर में ताज की रिपोर्टिंग कर रही सभी टीमों के रिपोर्टर सोकर रिपोर्टिंग करते दिखे। जबकि उनके कैमरा मैन पहले की ही तरह खड़े थे। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या गोली लगने का खतरा सिर्फ रिपोर्टरों को था और कैमरामैन बुलेटप्रूफ पहनकर महफूज थे। निश्चित रूप से इसका जवाब ना में है। अगले दिन के अखबारों में ये पूरी की पूरी तस्वीर छपी भी और आम लोगों तक ये नाटकीयता पहुंची भी। इन तस्वीरों ने भी टीवी रिपोर्टिंग को लेकर सवाल उठाने का मौका दिया।
लेकिन इस पूरी आलोचना और बहसबाजी के दौर में टेलीविजन न्यूज रूम के असल संकट पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। एक-दो दशक पहले तक जो लोग पत्रकारिता में आ रहे थे – उनके सामने दुनिया को बदलने और कुछ कर दिखाने का जज्बा हुआ करता था। लेकिन बाजारवाद के दौर में ये हकीकत बदल गई है। टीवी के लोग खुद को पत्रकार भले ही कहें – लेकिन एक पूरी की पूरी पीढ़ी अब नौकरी करने आई है। गली-मोहल्ले के पत्रकारिता संस्थानों से लाखों रूपए की फीस देकर कथित पढ़ाई के बाद निकले नए लड़के-लड़कियों का नजरिया साफ है। उनका मानना है कि वे नौकरी करने आए हैं – पत्रकारिता करने नहीं। शायद यही वजह है कि उन्हें जब भी पत्रकारिता के नाम पर पत्रकारीय मानदंडों की अवहेलना करने को कहा जाता है, वे वैसा करने में देर नहीं लगाते। लाखों रूपए के कर्ज की रकम पर मिली शिक्षा से निकले पत्रकार ने दम दिखाया तो उसकी नौकरी जा सकती है।
रही बात न्यूज रूम के आकाओं की तो उनकी भी हालत कुछ बेहतर नहीं है-सिवा मोटी पगार के। नौकरी पर लगातार लटकी तलवार के चलते वे भी पत्रकारीय दंभ और मानदंड पर कायम रह नहीं पाते। टीआरपी गिरी नहीं कि नौकरी पर लटकी तलवार और नजदीक हुई। बाजारवाद ने लोगों के सामने आदर्शों के लिए जगह नहीं छोड़ी। ऐसे में चाहे लाख सवाल उठे – होना तो वही है जो बाजार चाहता है। टीवी पर सवाल उठाना कुछ वैसा ही है – जैसे बाजार में रहकर बाजार का विरोध...
दरअसल हर पेशे की एक नैतिकता भी होती है। आजादी के आंदोलन की कोख से निकली भारतीय पत्रकारिता के लिए पहले इसकी जरूरत नहीं रही। आजादी के आंदोलन का पत्रकारिता भी एक उपादान रही है। चूंकि तब पत्रकारिता का मकसद आजादी पाना था, इसलिए उसमें राष्ट्रीय आंदोलन की वे सारी चीजें समाहित हो गई थीं – जिसके बल पर राष्ट्रीय आंदोलन ने गति पकड़ी और उफान पर रहा। आजादी के बाद के करीब एक दशक तक पत्रकारिता उसी रोमांसवाद से प्रभावित रही। लेकिन नब्बे के दशक में शुरू हुए बाजारवाद के दौर में पत्रकारिता ने अपनी इस नैतिक जिम्मेदारी से पल्ला छुड़ाना शुरू किया। चूंकि टेलीविजन इस बाजारवाद के दौर में ही पनपा, उभरा और विराट बना, इसलिए उसने बाजारवाद की तमाम खासियतें बेरोकटोक खुद में समाहित कर लीं। अखबार में संपादकीय टीम की मीटिंगों में जहां महंगाई, कानून-व्यवस्था और सुरक्षा की बदहाली सबसे बड़ा मुद्दा रही हैं – टेलीविजन न्यूज रूम की मीटिंगों में नए ब्रांड के कपड़े, फैशन शो और कार की गिरती-बढ़ती कीमतों का मसला छाया रहता है। वैसे टीवी पर सवाल उठाने वाले प्रिंट माध्यमों की बैठकों में धीरे-धीरे ही सही – टीवी का ये रोग आता जा रहा है। रही – सही कसर टैम रेटिंग प्वाइंट यानी टीआरपी की माया ने पूरी कर दी है। टैम का जो पैमाना है – उस पर भी बाजारवाद की चीजें ही हावी हैं। ऐसे में ये सोचना कि इस व्यवस्था पर टिका टेलीविजन उद्योग और उसके पत्रकार पेशेवर नैतिकता के तहत ही काम करेंगे – बिल्कुल बेमानी है।
वकालत, इंजीनियरिंग और डॉक्टरी जैसे पेशों की नैतिकता निर्धारित करने , उनकी आचार संहिता बनाने के लिए बार कौंसिल और मेडिकल कौंसिल जैसे संगठन हैं। लेकिन मीडिया के लिए ऐसा कोई पेशेवर संगठन नहीं है – जिसके जरिए पत्रकारों को नैतिक दायरे में बांधे रखने का काम किया जा सके। मुंबई हमलों के बाद एक बार फिर से मीडिया के लिए ऐसे ही एक पेशेवर संगठन की जरूरत बढ़ती जा रही है। ताकि वह मीडिया और उसमें काम करने वाले लोगों के लिए एक मानदंड तय करे। उनकी आचार संहिता तय करे और उसे लागू करने की नैतिक जिम्मेदारी भी उठाए। सूचना और प्रसारण मंत्री रहते सुषमा स्वराज ने 2002 में मीडिया कौंसिल के गठन का सवाल जब उछाला था – तब इसका ना सिर्फ इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों और घरानों ने भी विरोध किया था। पत्रकारों का एक तबका तो खैर आगे था ही। लेकिन अब इसे लेकर भी सहमति बनती दिख रही है। टीवी पत्रकारों का एक बड़ा तबका भी मानने लगा है कि कम से कम उन्हें भी पेशेवर नैतिकता और आचारसंहिता के दायरे में बंधना ही होगा। पेशेवराना अंदाज को जब तक संरक्षण नहीं दिया जाएगा, टीआरपी के बाजारवादी पैमाने बदले नहीं जाएंगे..टीवी माध्यमों को नैतिकता और देशहित के नाम पर जिम्मेदार ठहराना आसान नहीं होगा। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि आचार संहिता बनाने की वकालत करने वाले दिग्गज पत्रकार और राजनेता इस मोर्चे पर सचमुच तैयार हैं।
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