
उमेश चतु्र्वेदी
हिंदुस्तानी महानगरीय उपेक्षाबोध के बीच लगातार ताकतवर बन रही हिंदी ने ह्वाइट हाउस तक में दस्तक दे दी है। इस दस्तक का जरिया हमारे अपने राजनेता या हिंदीभाषी हस्तीन नहीं बने हैं। दुनिया के सबसे बड़े सत्ता के केंद्र ह्वाइट हाउस में हिंदी का ये जयगान दुनिया के सबसे ताकतवर आदमी की जबान के जरिए हुआ है। ह्वाइट हाउस में भारतीय प्रधानमंत्री के सम्मान में दिए भोज में पहुंचे मनमोहन सिंह का ठेठ हिंदी में ही स्वागत किया। उन्होंने भले ही सिर्फ एक लाइन – आपका स्वागत है- बोलकर अमेरिकी धरती पर सिर्फ भारतीय प्रतिनिधिमंडल का दिल ही नहीं जीता है, बल्कि ये साफ संदेश दे दिया है कि हिंदी और उसे बोलने वाले करीब पचास करोड़ लोगों को लेकर उसका नजरिया कैसे बदल रहा है। अमेरिकी धरती पर हिंदुस्तानी लोगों की धमक को महसूस करने के बाद उनकी मातृभाषा को इस तरह सम्मानित करने का भले ही ये पहला मौका है, लेकिन इससे साफ है कि आने वाले दिनों में अमेरिकी राजनीति के लिए हिंदी और हिंदुस्तानी लोग कितनी अहम होने जा रही है।
बाजारवाद के बढ़ते दौर में भले ही हिंदी बाजार की एक बड़ी ताकत बन गई है। लेकिन यह भी सच है कि अब भी यह नीति नियंताओं और अभिजन समाज के नियमित विमर्श का जरिया नहीं बन पाई है। दूसरे देशों की कौन कहे, भारतीय अभिजन समाज और नीति नियंता अब तक अपनी सोच और विमर्श की भाषा के तौर पर हिंदी को सहजता से अपना नहीं पाए हैं। कहना ना होगा, उद्योग, समाज और राजनीति की दुनिया में नीतियों के प्रभावित करने वाला ये समाज ज्यादातर महानगरों में ही रहता है और उसकी दैनंदिन की भाषा वही अंग्रेजी है, जिसका अमेरिका और ब्रिटेन में सहज व्यवहार होता है। दरअसल हमारा आज जो अभिजन समाज है, उसके पैमाने अमेरिका और ब्रिटेन के सामाजिक चलन से ही प्रभावित होते हैं। यही वजह है कि रोजी और रोटी की भाषा के तौर पर हिंदी के बढ़ते कदम के बावजूद आज भी उसे लेकर महानगरों में एक उपेक्षाबोध बना हुआ है। कहना न होगा कि इस उपेक्षाबोध की शुरूआत उसी ब्रिटिश और अमेरिकी मानसिकता के ही जरिए हुई थी। ये बिडंबना ही है कि हिंदी को लेकर ये उपेक्षाबोध उसकी अपनी ही धरती पर बना हुआ है, लेकिन जहां से इस उपेक्षाबोध का बीज पनपा था, वहां की राजनीति इसे लेकर उदार होती नजर आ रही है।
ये सच है कि हिंदी को लेकर दुनिया की महाशक्ति का नजरिया बदल रहा है। इसके बावजूद उसने पिछले साल यानी 2008 में तीस सितंबर को अपनी रेडियो सेवा वॉयस ऑफ इंडिया की हिंदी सर्विस को बंद कर दिया। ये सच है कि वॉयस ऑफ अमेरिका की हिंदी सेवा भारत में बीबीसी की तरह लोकप्रिय नहीं रही है। इसके बावजूद उसे चाहने वालों की कमी नहीं रही है। यही वजह है कि तब हिंदी सर्विस की आवाज बंद होने की खबर ने हिंदी प्रेमियों के एक बड़े तबके में मायूसी भर दी थी। जॉर्ज बुश ने जाते-जाते हिंदुस्तानी लोगों को जोरदार झटका दिया था। लेकिन ओबामा का नजरिया बदला नजर आ रहा है। ऐसी खबर है कि ओबामा की सरकार एक बार फिर से हिंदी सेवा को शुरू करने जा रही है। ये सच है कि 54 साल पहले जब हिंदी सर्विस की शुरूआत हुई थी, तब शीतयुद्ध का जमाना था और इस सर्विस के जरिए अमेरिकी सरकार का उद्देश्य अपनी नीतियों को लेकर प्रोपेगंडा करना था। लेकिन 1990 में सोवियत संघ के बिखराव के बाद से शीतयुद्ध का दौर खत्म होता चला गया। इसी बीच भारत और अमेरिकी संबंधों ने नया इतिहास रच दिया। बुश के ही दौर में भारत और अमेरिका के बीच एटमी समझौता हुआ। इस समझौते के साथ ही हिंदी – अमेरिकी भाई-भाई की नई इबारत लिखी गई। लेकिन इसी बुश के लिए हिंदी सर्विस बेगानी होती चली गई। लेकिन अब अमेरिका का नजारा बदल रहा है। यही वजह है कि हिंदी सर्विस की शुरूआत की खबरें और ह्वाइट हाउस में हिंदी का जयगान को घोष तकरीबन साथ-साथ सुनाई पड़ा है।
वैसे हिंदी को लेकर महाशक्ति का नजारा यूं ही नहीं बदला है। साठ करोड़ के विशाल मध्य वर्ग के सहारे भारत दुनिया के लिए बड़ा बाजार बनता नजर आ रहा है। वैश्विक आर्थिक मंदी के इस दौर में भी टिके रहकर भारतीय अर्थव्यवस्था ने साबित कर दिया है कि अमेरिकी बाजारवाद के दौर में भी उसमें काफी दमखम है। यही वजह है कि दुनिया के सबसे ताकतवर सत्ता केंद्र की नजर में ना सिर्फ हिंदुस्तानी लोग, बल्कि उसकी भाषा सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरी है। दुनिया की सबसे बड़ी ताकत जानती है कि भारतीय भूमि पर अंग्रेजी भले ही विमर्श की आज भी मजबूत भाषा बनी हुई है। लेकिन ये सच है कि आम लोगों से सहज संवाद और उन तक अपनी बात पहुंचाने का जरिया हिंदी ही बन सकती है। करीब पचास करोड़ लोगों का दिल अंग्रेजी की बजाय हिंदी के जरिए ही जीता जा सकता है। उसे ये भी पता है कि बाजार आज हिंदी की इस ताकत को पहचान गया है और उसका मौका-बेमौका इस्तेमाल भी कर रहा है। इसी हफ्ते आई एक खबर ने विकसित सरजमीं पर हिंदी की बढ़ती पहुंच और पकड़ को ही जाहिर किया है। ग्लोबल लैंग्वेज मॉनिटर (जीएलएम) के मुताबिक ऑस्कर विजेता फिल्म 'स्लमडॉग मिलिनेयर' के एक गीत के बोल में शामिल जुमला 'जय हो' दुनिया के सर्वाधिक लोकप्रिय शब्दों की लिस्ट में 16वें नंबर पर आ गया है। जबकि हिंदी फिल्मों के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द 'बॉलिवुड' 17वें पायदान पर है। साफ है कि हिंदी को लेकर विकसित दुनिया के आम मानस का भी नजारा बदल रहा है। ऐसे में दुनिया का सबसे बड़ा सत्ता केंद्र मनमोहन सिंह का हिंदी में स्वागत करके दरअसल विकसित दुनिया में हिंदी को लेकर आए बदलाव को ही रेखांकित कर रहा है।
ह्वाइट हाउस तक हिंदी ने दस्तक दे दी है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या विकास और ताकत के साथ ही सभ्यता और सलीके के लिए अमेरिका को अपना पैमाना बना चुके भारतीय महानगरीय मानस को हिंदी का ये जयघोष झकझोर पाएगा ।
3 टिप्पणियां:
उमेशजी आपका कहना बिल्कुल सही है .. हिंदी क्षेत्रों में ही हिंदी की सबसे उपेक्षा हो रही है..वरना कोई कारण नहीं है कि हिंदी विश्व की भाषा नहीं बन सकती
हिन्दी और हिन्दुस्तान की हर जगह जय होगी...बढ़िया लेख..धन्यवाद
बहुत ही बढ़िया खबर दी है आपने.. हिंदी भाषा का भविष्य उज्जवल है
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