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रविवार, 23 अगस्त 2009
अंदरखाने में भी हुई डील
उमेश चतुर्वेदी
यह लेख प्रथम प्रवक्ता के 01 सितंबर 2009 के अंक में प्रकाशित हुआ है।
भारतीय लोकतंत्र में इस बात पर शक नहीं है कि इस देश का सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री का पद है। जाहिर है उन्हें नियंत्रित करने वाली पार्टियों के अध्यक्ष की ताकत भी कम नहीं होगी। इस देश में शायद ही कोई मानेगा कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके निर्देशन में काम करने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी मीडिया के सामने कमजोर होंगे। लेकिन ये सोलह आने सही है कि पिछले आम चुनावों में देश की सत्ता संभाल रहे ये दोनों दिग्गज भी कमजोर साबित हुए। चुनावी समर के दौरान सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह को भी मीडिया को अंदरखाने में पैकेज देना पड़ा। नाम ना छापने की शर्त पर कांग्रेस पार्टी के ही एक रसूखदार नेता को इस तथ्य को स्वीकार करने से गुरेज नहीं है।
चुनाव के दौरान प्रत्याशियों के पक्ष में खबर छापने और पैसे या पैकेज डील ना करने वाले प्रत्याशियों की खबरों को सिरे से नकार देने का आरोप तो मीडिया पर लग ही रहा है। पैसे कमाने की इस बहती गंगा में हाथ धोने में देश के कई बड़े मीडिया घरानों के बारे में खुलेआम सवाल-जवाब हो ही रहे हैं। इसे लेकर आरोपी मीडिया को भी बचाव में उतरना पड़ा है। लेकिन ये भी सच है कि एक-एक वोट के जुगाड़ में लगी कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी जैसी पार्टियों ने मीडिया के एक बड़े धड़े की इस जायज-नाजायज मांग के आगे घुटने टेकने में ही अपनी भलाई समझी। भारतीय जनता पार्टी के सांसद और वरिष्ठ पत्रकार चंदन मित्रा देश के बड़े खबरिया चैनलों पर आरोप लगा ही चुके हैं कि उन्होंने एक संगठन बनाकर पार्टियों से विज्ञापन बटोरे। लेकिन कांग्रेस नेता का खुलासा इससे आगे की बात बता रहा है। उन्होंने कहा कि कई बड़े चैनलों ने अंदरखाने में उनसे बिना किसी रसीद और पक्की खाता-बही के भी पैसे लिए। इसमें कई बड़े और नामी पत्रकार भी शामिल हैं। उत्तर प्रदेश के एक नेता ने भी नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि एक चैनल ने तो बाकायदा बीएसपी के नेताओं से भी अंदरखाने में डीलिंग की। जिसमें उसके संपादक का ही बड़ा हाथ रहा।
वैसे स्थानीय और जिला स्तर पर ऐसे आरोप पहले भी लगते रहे हैं। कुछ तथ्यों में सच्चाई भी रही है। कुछ एक लोग राष्ट्रीय स्तर पर भी ऐसा करते रहे होंगे। लेकिन आमतौर पर पत्रकारिता के मूल मानदंडों का खयाल रखा जाता था। लेकिन इस बार इसे खुलकर स्वीकार किया गया, यही वजह है कि इस बार सवाल भी ज्यादा उठ रहे हैं। वैसे सच तो ये है कि मध्य प्रदेश के एक अखबार ने 1996 के स्थानीय चुनावों में अपनी जिला यूनिटों को प्रत्याशियों से कमाई का लक्ष्य दिया था। जिसने नहीं दिया, उनका अखबार ने बॉयकाट किया और इसकी कीमत उन प्रत्याशियों को चुकानी पड़ी थी। लेकिन कमाई का ये रास्ता चल निकला तो इसे मीडिया घरानों ने अपनाने में देर नहीं लगाई।
धीरे-धीरे ये रोग पूरे देश में फैलने लगा। पंजाब के पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के एक प्रचार प्रभारी को इस नई परिपाटी से पहली बार साबका पड़ा। अब तक वे जानते थे कि प्रचार के लिए राज्य या राष्ट्रीय मुख्यालय से अपने लक्ष्य समूह वाले अखबारों और टीवी चैनलों को विज्ञापन जारी किया जाता है। लेकिन उस विधानसभा चुनाव में पहली बार उन्हें पता चला कि मीडिया घरानों ने अपनी जिला यूनिटों को लक्ष्य दे रखे थे। अब मरता पत्रकार क्या ना करता, लिहाजा दो-दो तीन-तीन संस्थानों के स्थानीय पत्रकारों ने आपस में गुट बनाकर खुद की मार्केटिंग की और दबाव बनाकर उनसे विज्ञापन की मांग की। इसके कुछ महीनों बाद गुजरात में विधानसभा चुनाव हुए। जब वे गुजरात के चुनाव प्रचार के समंदर में उतरे तो वहां भी पत्रकारीय भ्रष्टाचार की इस गंगा से साबका पड़ा। रही-सही कसर लोकसभा चुनावों में पूरी हो गई। लिहाजा अब तो वे मान के चलते हैं कि हर राज्य में उन्हें ऐसा ही अनुभव होने वाला है।
जिस तरह से मीडिया के एक वर्ग की जायज-नाजायज मांगों के सामने बड़े – बड़े दलों के बड़े नेताओं तक को झुकना पड़ा, उससे साफ है कि आज मीडिया कितना ताकतवर हो गया है और एक-एक वोट की जुगत में जुटे नेताओं के लिए ऐसे मीडिया को नकारना भी उनके लिए आसान नहीं रहा। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल ये है कि भ्रष्टाचार पर सवाल उठाने की ताकत रखने वाले मीडिया संस्थान इस परिपाटी के बाद क्या सरकार और नेताओं पर उसी आक्रामकता से सवाल उठा सकेंगे। इसका जवाब पाना फिलहाल आसान नहीं लगता। लेकिन इसके साथ ये भी सच है कि जो पार्टी या उसके ताकतवर नेता मीडिया की इस नाजायज मांग के सामने झुक सकते हैं, क्या गारंटी है कि वे देश के उन अहम मसलों को शिद्दत से हल कर पाएंगे, जिनके लिए मजबूती और दृढ़ता की जरूरत होती है।
साफ है कि ये मान्यताओं और उसूलों पर संकट का दौर है। लेकिन ये भी सच है कि संकट के दौर ही नए उसूलों, मजबूत परंपराओं और मानवीय मूल्यों की स्थापना की नई राह भी सुझाते हैं। जब हिंदी पत्रकारिता के शलाका पुरूष और नौजवान पत्रकारों की टोली इसके खिलाफ आवाज उठाने में नहीं हिचक रही है तो नई उम्मीद का दीया जलाना गलत नहीं होगा।
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